दुनिया की सबसे हसीन औरत PDF

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संजीव

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Summary

यह कहानी दुनिया की सबसे हसीन औरत के बारे में है। लेखक कहानी में एक महिला को देखने जाते हैं और उनकी खूबसूरती की प्रशंसा करते हैं।

Full Transcript

# दुनिया की सबसे हसीन औरत ## संजीव "मैं कसम खाकर कहता हूं कि मैंने अपनी शिन्दगी में उस जैसी हसीन औरत नहीं देखी।" महमूद की आवाश इस कदर भावुक थी कि हमें झुरझुरी आ गई। ‘गोरी थी ?" सतपाल ने धीरे से पूछा। "महज गोरी होने से क्या होता है। यह तो पता चले कि उसके नैन-नक्श कैसे थे।" सुरेन्द्र ने उत्कंठा व्य...

# दुनिया की सबसे हसीन औरत ## संजीव "मैं कसम खाकर कहता हूं कि मैंने अपनी शिन्दगी में उस जैसी हसीन औरत नहीं देखी।" महमूद की आवाश इस कदर भावुक थी कि हमें झुरझुरी आ गई। ‘गोरी थी ?" सतपाल ने धीरे से पूछा। "महज गोरी होने से क्या होता है। यह तो पता चले कि उसके नैन-नक्श कैसे थे।" सुरेन्द्र ने उत्कंठा व्यक्त की। ऊंह ! तुम दोनों ही दोयम-तेयम दर्जे की वजहों में भटक गए। अव्वल तो यह जानना जरूरी है कि उसकी उम्र क्या थी।" मैंने अपनी समझ से सौन्दर्य के बुनियादी तत्त्व को पकड़ लिया था। लेकिन दुनिया की सबसे हसीन औरत को मंच पर उतारने के पहले महमूद पूरी तैयारी कर लेना चाहता था। शायद इसीलिए हमारे सवालों को खारिज करता हुआ वह दूसरी ही ओर मुड़ गया, "वह बरखा की एक बेहद भीगी सुबह थी और हम नेत्रहाट का सूर्योदय देखने आए थे। तुम्हें मालूम है, नेत्रहाट के सूर्योदय जैसे खूबसूरत दृश्य बहुत नहीं हैं हमारी धरती पर। एक पहाड़ी से दूसरी, दूसरी से तीसरी पहाड़ी-दर-पहाड़ी पर ताजा खिले लाल कंवल-सा सूरज जब तैरता हुआ निकलता है तो ऐसा लगता है, ऐसा... ऐसा...।" महमूद को सहसा उपयुक्त उपमा नहीं सूझी। “अमा सूरज को मारो गोली, हमें उस लड़की के बारे में बताओ।" सुरेन्द्र ने जैसे हमारे मन की बात कह डाली थी। महमूद ने शिकायती लहजे में हमें ऐसे ताका जैसे उस पर सरासर ज्यादती हो रही हो। "ठीक है, ठीक है।" सतपाल ने उसे पुचकारते हुए कहा, “तुम अपने ढंग से ही बताओ । हां तो फिर ?" महमूद का मलाल कम हुआ। उसने अपना तफ़सरा दोबारा शुरू किया, “हवा में अचानक डिप्रेशन आ जाने की वजह से सात दिनों से लगातार झड़ी लगी हुई थी। सात दिनों का सूर्यग्रहण ! जाहिर है, सूर्योदय देखे बिना ही हमें लौट आना पड़ा था। बोगी में मन मारे बैठा था। बाहर अभी भी जानलेवा बारिश जारी थी। सिर्फ़ प्लेटफ़ार्म की शेड में मुसाफ़िरों, वेन्डरों और रेलकर्मचारियों की नाममात्र की चहल-पहल थी। ऊब मिटाने के लिए बस वही एक नजारा था, जिसे मैं देख सकता था। यकायक एक ख़ब्त सवार हुई मुझ पर । सोचा यह तो ओरांव जन-जातियों का शहर है, देखूं आसपास कोई औरत उस तबके की भी है या नहीं। तुम्हें मालूम, औरांव औरतें अपने मुखड़े पर तीन गोदने गुदवाती हैं। रानी सिनगी दई ने महज औरतों की फ़ौज लेकर हमलावरों को मुंह की खिलाई थी। सरहुल का पर्व था, मर्द सारे-के-सारे हुंडिया पीकर मुर्दा बने हुए थे। यह एक तरह से आजाद जातियों पर --- # आदिवासी कहानियाँ साम्राज्यवादियों का हमला था, जिसे उन मर्दानी औरतों ने नाकाम कर दिया था-एक बार, दो बार नहीं, तीन-तीन बार ! इसी की याद में बारह वर्ष में ओरांव औरतों का पर्व मनाया जाता है- 'जनी-शिकार'। बारह वर्ष में एक नई पीढ़ी तैयार हो जाती है न !" "लो, यह कमबख़्त फिर बहक गया।" मैं बुदबुदाया, मगर महमूद तुरन्त ही लौट आया पुरानी बात पर, “लो ललाट पर तीन गोदने की शिनख़्त करने की कोशिश में हर औरत को घूरता हुआ मैं खुद ही अटपटा हो उठा था, तभी आई थी वह।" कहकर वह ठमक गया। हम चौकन्ने हो गए। लगा, अभी-अभी आसमान से चिरयौवना अनिंद्य अप्सरा की तरह अवतरण हुआ है उसका। रुख पर झीना-झीना तिलिस्मी नक़ाब है। अभी किसी मन्त्रविद्ध तीर से सरक चलेगा नक़ाब, खिल उठेगा गुलाब ! वशनी कदमों की धप-धप, सर पर मैली चादर में बंधी सब्जियों का गट्ठर, बदन और कपड़ों से बेतरह चूता पानी। सब्जियों के गट्ठर को जब उसने ऊपरी रैक पर रखा तो उसने अपने से ज्यादा सब्जियों को फिक्र थी। वह जल्दी-जल्दी उन्हें खोलकर फैलाने लगी कि कहीं वे सड़ न जाएं। मूलियां थी। सब्जियों को सहेजकर जब उसने अपने लिए सीट तलाशने की गरज से मुखड़ा फेरा तो मैं चौंक उठा, "हां, वही तीन गोदने !" ‘‘खिड़की के पास एक खाली जगह पाकर वह बच्चों-सी खुश हो उठी। सीट पर अपना चीकट झोला रखकर कब्जा जमाने के बाद वह प्लेटफार्म पर उतर पड़ी। पहले उसने अपनी जुल्फ़ों को निचोड़ा, फिर आंचल निचोड़कर झरझरा दिया और मुंह पोंछने लगी।'' "अमा मुखड़ा कैसा था, सूरज जैसाए चांद जैसा, शमा जैसा, बहार जैसा ?' सतपाल शायराना हो उठा था। “हां, वरना बाकी ले-आउट तो मूली की पत्ती और चीकट थैला ही है अभी तक !” सुरेन्द्र ने जोड़ा। मुखड़े पर उसने आंचल डाल रखा था, जब टी.टी. साहिबा ने बोगी के अन्दर से पूछा, "अरे, ये मूली-वूली किसकी है?" "आंचल की ओट से दो चमकती आंखों ने ही जैसे जवाब दिया था, "हमरा है मेम साहिब।" " आक थू, उफ़, क्या शबान थी!” सुरेन्द्र ने हिकारत से कहा। “देख बे, तेरे अफ़साने में कोई दम नहीं अभी तक तो। गर अभी भी कोई लज्जत बची है तो महज इस बिना पर कि उसकी उम्र और रूप-रंग कैसा था!" सतपाल ने कहा और सिगरेट ऐश-ट्रे में दबा दी। महमूद एकबारगी रुआंसा हो आया, “मैं कसम खाकर कहता हूं कि तुम जैसे कमीनों की शमात में ऐसी बात मुझे नहीं कहनी चाहिए थी।" हमने फिर से उसका कन्ध दबाया, "अच्छा ले, कान पकड़ते हैं। जो अब से एक भी लफ़्ज़ कहा।" "नहीं, तुम सभी लुच्चे हो, मुझे तुमसे कुछ भी नहीं कहना है।" महमूद ने क्षोभ में सिर घुटनों में गड़ा लिया था। बड़ी मान-मनौबल पर किसी तरह फिर से राजी हुआ था वह, काला कोट पहले टी.टी. साहिबा खासी टिटिहरी की मानिन्द लग रही --- # दुनिया की सबसे हसीन औरत । 49 थीं। मूलियों को उलट-पलट कर मुँह बिदुरा दिया उन्होंने, “अरे, फूल गोभी या टमाटर-वमाटर नहीं है?" “नंय मेम साहेब ! बड्डी दाम मांगता है उसका।" औरत ने खुशामदी लहजे में सफ़ाई दी। “तब हम कर ले जाएं, ई खर-पतवार ?" औरत ने मुजरिम की तरह सिर झुका लिया। “देखो, हमारी गाड़ी में चढ़ो तो अच्छी सब्जियां लेकर वरनाए दूसरी गाड़ी देखो, समझीं?" टी.टी. साहिबा ने झिड़का, फिर पूछा, "टिकट है?" आंचल को खूंट से औरत ने टिक निकला-दस के भीगे नोट के साथ टिकट। टिकट देखते ही टी.टी. साहिबा के मिजाज की मातमपुर्सी हो गई। कोयले की तरह सुलग उठी थीं वे “ओ ऽऽऽ बड़ा पैसा हो गया है। देखते हैं अब तुम लोग भी टिकट कटा के चलने लगे हो।" सौतेले शिशु की तरह टिकट लौटाते हुए उन्होंने कहा, "खैर, और निकालो दस।" "दस्स...?' औरत ने चौंककर दस के इकलौते नोट को मुट्ठियों में कसकर भींच लिया। "हां दस, मूलियों के।" उनकी नजर लग चुकी थी, हालांकि वे दूसरी ओर देखने का बहाना कर रही थीं। "लेकिन इ तो सिरफ बीसे किलो है, मिलबे नंय किया और हमरापास भी बस दस्से बचल है फेन दस्स तो मुनाफ़ा भी नंय होगा मेम साहेब।" वह एक पर एक सफाई देती गई मगर टी.टी. साहिबा ने पसीजीं, बोलीं, “वो सब हम नहीं जानते, निकालकर रखो दसए नहीं तो उतर जाओ।" इस समय डिब्बा-डिब्बा सूंघते छुट्टे सांड़ों की तरह रेलवे पुलिस के दो जवान सब्जी की हरियाली देखकर डिब्बे में चढ़ आए। उन्होंने बिना कुछ पूछे चुन-चुनकर मुट्ठी-भर मूलियां उठा लीं और उसकी ओर देखकर कहा, "का हो मोदियाइन, ठीक हाल-चाल का नू?" जैसे उस पर इनायत बख़्शी हो। औरत ने एक बार मुट्ठी में जकड़ी मूलियों की ओर देखा और फिर अपना मात खाया चेहरा छुपाने की गरज से खिड़की की ओर रुख कर लिया। जवान कहीं और जाने की बजाय उसके सामने की खिड़की वाली सीट पर एक साथ ही बैठकर चुहल में मशगूल हो गए। औरत ने उनकी हरकतों को देखकर भी अनदेखा करते हुए अपनी नजर टी-स्टाल पर गड़ा लीए जहां दो शरीफ़शादियां चाय पी रही थीं। शायद उसे भी चाय की तलब लगी हो, और रेजगारी के अभाव में दस का इकलौता नोट तुड़ाना पड़ता और वह नोट टी.टी. साहिबा के पास पहले ही गिरवी रखा जा चुका था या शायद ऐसा कुछ भी न था, सारा कुछ मेरे मन का वहम था। बहरहाल । ट्रेन ने सीटी दी। काउंटर की लड़कियों ने फटाफट चाय के प्याले रखे और रेंगती ट्रेन पर सवार हो गई। टी.टी. साहिबा से अंग्रेजी में जाने क्या गिटिर-पिटिर बात हुई और मूलियों के नीचे खाली जगह पाकर वे अनजाने ही आ बैठीं। उनकी बातें ट्रांसफ़र, --- # आदिवासी कहानियाँ शिक्षा-अधीक्षक, इंस्पेक्टर और स्कूलों के इर्द-गिर्द घूमती रहीं ताजादम मिजाज से । कपड़े बिल्कुल साफ़-शफ़्फ़ाक और बातें उतनी ही सलीकेदार। बोगी की जांच-पड़ताल पूरी कर टी.टी. साहिबा भी आ गईं और उनकी बगल में बैठ गईं। तीन-तीन सलीकेदार और खुले मिजाज की औरतों की बातचीत से वहां का माहौल खुशगवार हो उठा। वह औरत भी पिछले सारे हादसों को भूलकर चकोरी तरह उन्हें देखने लगी थी। शरीफ़शादियों ने अपने खूबसूरत पर्सों से पांच-पांच के नोट निकाले और आरती के चढ़ावे की तरह टी.टी. साहिबा के हाथ में थमा दिए। हंसते हुए कहा टी.टी. साहिबा ने, “औरत कोई होता तो दस से कम क्या लेते, जाइए, आप लोग तो वैसे भी हमारे लिए रेस्पेक्टफुल हैं। वो क्या है, हां भारत भाग्य विधता !” उनका यह कहना था कि कहकहे रंग भरे गुब्बारे की तरह फूटे और डिब्बा उसमें डूबने-सा लगा। वह औरत भी इस हलके-से मुस्करा उठी थी कि टी.टी. साहिबा का ध्यान उधर खिंच गया, "हां, तो भई, निकालो दस तुम भी। औरत की हंसी सूख गई। खींय निकल आई, “दया करो मेम साहिब।” "दया ?” उन्होंने नाटकीय चौकाऊ अन्दाज में बात को दुहराया, "ऐसी दया करते फिरें तो हम खाएंगे क्या-आं ऽऽ!' कहकर वे, बड़ी मास्टरानियाँ और रेलवे पुलिस के जवान भी हंस पड़े, जैसे एक भीगी गौरैया को घेरकर काली भूरी बिगियां और पीले कुत्ते पूंछ ऐंठ रहे हों। जैसे उनकी बोर शिन्दगी में एक विनोद का क्षण आ गया हो।" अभी वे चटखारे ले ही रही थीं कि एक शरीफ़शादी पर ऊपर से एक मूली गिरी-भदाक् ! शायद पुलिस के जवानों ने अच्छी मूलियां चुनने की हड़बड़ी में उन्हें छितरा दिया था। वह मास्टरनी डरकर ऐसे चीखी जैसे कोई छिपकली गिरी हो। जब उसे पता चला तो वह फिर पड़ी, "ऐ ! तुम लोगों को अक्कल नहीं है?" "का हुआ बहिनी ?" उस औरत ने कातर स्वर में पूछा। "बहिनी-बहिनी मत बोलो जंगली कहीं की। हम तेरी तरह बाजारू नहीं हैं।" उस शरीफ़शादी की बात में इत्ता शहर था कि कोई जीते जी हलाक हो सकता था। औरत सकपकाकर उठ खड़ी हुई, "हियां बैठ जाइए मेम साहिब।" दोनों शरीफ़शादियां नाक-भौं सिकोड़ते हुए उठकर उस सीट पर चली गईं। वे अभी भी गालियां बर्रा रही थीं। पुलिस के जवान इनके और करीब आ जाने की वजह से शेखी में और भी फ़ब्तियां कसने लगे थे और टी.टी. साहिबा किसी सूदखोर महाजन की तरह अभी भी तकाजे किए और धममियां दिए जा रही थीं। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करूं? यक-ब-यक मुझे लगा कि औरत खड़ी-खड़ी हिल रही है। पहले शुबहा हुआ, यह ट्रेन की चाल का असर है, मगर तभी दूसरी बात दिमाग़ में कौंधी, "अरे, तुम रो रही हो ?" उसने कोई जवाब न दिया तो मैंने झुंझलाकर दोबारा पूछा, "आखिर इसमें रोने की क्या बात है?" इस बार हिचकियों के टूटते स्वर में उसने रुक-रुककर कहा, “रो रहा है हम अपन नसीब पे। आज हमरा साथ कोई मरद होता, पैसा होता, रोब --- # दुनिया की सबसे हसीन औरत । 51 होता तो पांच-दस थमा के हमहू इज्जतदार बनल रहता। ऐसे का इज्जत है हमरा ? हम बजारू है!" आसुंओं में भीगा हरा लफ़्ज मुझमें लानत भर रहा था। उसकी बात पूरी होते न होते मैं स्प्रिंग की तरह उछलकर खड़ा हो गया-" आप लोगों का टिकट?" मेरा भोधारा सवाल शरीफ़शादियों से था। उन्होंने मुझे ऐसे ताका, जैसे उनकी समझ में कुछ भी नहीं आया हो। "मैंने कहा टिकट है आप लोगों का। इज्जतदार औरतें हैं न आप!" शरीफ़शादियों को किसी बेगैरत इनसान से ऐसी हिमाकत का अन्दाजा न था। उन्होंने लाचारी में टी.टी. साहिबा की ओर देखा। बचाव के लिए उन्होंने तनने की कोशिश की, "आप कौन होते हैं टिकट मांगने वाले ?" “क्यों ? यह समूची गाड़ी क्या सरकार ने आपके नाम लिख दी है? जरा अपना आइडेंटिटी कार्ड दिखाएंगी?" टी.टी. साहिबा अभी कहीं से कच्ची थीं। मेरे एक ही बार पर धाराशायी हो गईं। बचाव के लिए उन्होंने रेलवे पुलिस के जवानों की ओर ताका। जैसे द्रौपदी की लाज रखने के लिए कभी कृष्ण उठ खड़े हुए होंगे, लगभग उसी अन्दाज में एक जवान उठा। मगर दूसरे ने उसका कन्ध पकड़कर फिर से बैठा दिया। मैंने हिकारत से कहा, "बैठ जाइए, बैठ जाइए। आपने एक खाकी वर्दी पहन ली है तो यह मुगालता मत पाल लीजिए कि पूरी बोगी मूली की सब्जी है, जिसे आप मुट्ठियों में दबोच लेंगे।" “तुम लोग तो जानते हो कि मैं निहायत पिद्दी किस्म का इनसान था, लेकिन उस वक्त मुझमें जाने कहां से बला की ताकत आ गई थी। मेहनत, ईमान, इंसानियत, शराफ़त, दिलेरी जैसे शब्द, देश का इतिहास और भूगोल जैसे ज्ञान, अब तक मेरे लिए ख़याली बातें थीं, लेकिन उस दिन उस मौके पर उनकी हक़ीक़त का जादू मेरे सिर पर चढ़कर बोल रहा था। मैंने महसूस किया कि सिर्फ़ पहल करने भर की देरी होती है, हवा अपने आप बंधनी शुरू हो जाती है। वह एक जनून था, जनून ! वह जवान बड़बड़ाए जा रहा था, "सब सनकले निकाल देइब !" मगर उसका बड़बड़ाना पानी में डूबते गर्म रॉड की तरह सनसनाता हुआ बुझता भी जा रहा था। अब मैंने उस औरत की ओर रुख किया, "और आप ?''... तआज्जुब । मैं 'तुम' से 'आप' कह बैठा, "आप भीगी लालमुनियां कब तक बनी रहेंगी?" एक बूढ़े आदिवासी की आवाश जैसे किसी गहरे कुएं से आई, “का करेगा साहेब, टोंकने का मतलब है आफ़त ।" मैंने उससे कहा, “एक बात पूछं दादा ? इनके चेहरे पर ये तीन गोदने यूं ही हैं या इनका कोई मतलब और मकसद भी हैं?" "मतलब तो हइये है, लेकिन..." बूढ़े की मुद्रा तनिक पसीजी और सिर हिलाए जैसे अंधेरे ने पंख फड़फड़ाए हों, मगर इसके आगे वह चुप लगा गया। मुझे ही वह दास्तान मुख्तसर में बयान करनी पड़ी-रानी सिनगीदाई और सेनापति की बेटी कैली दई की चिन्ता, मुग़लों का हमला और मर्द-सरहुल के पर्व में नशे में, उठाए उठे नहीं, जगाए जगे नहीं। औरतों का मर्दाना --- # आदिवासी कहानियाँ पोशाक पहनकर मोर्चा संभालनाए तीनों हमलों में मुगलों को शिकस्त देना, गद्दार सुन्दरी के चलते भेद खुल जाना, चौथा हमला, रानी का किला छोड़ना, लड़ती हुई बहादुर औरतों का पकड़ा जाना, तीन शिकस्त का बदला चेहरे पर तीन बार दाग कर लेना और फिर उन दागों को कलंक न मानकर सभी ओरावं औरतों द्वारा सिंगार के रूप में अपना लिया जाना... ! यह सब बताते हुए मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे मैं चार सौ साल पहले रोहतास किले के खंडहरों में दफ़्न उस तवारीख को मन्त्र से जगा रहा हूं। जग रही थीं आजाद जातियों की रूहें, जग रहे थे नशे में मुर्दा बने ओरांव मर्द, सुलग रहे थे औरतों के तीन गोदने, अंगड़ाई ले रहा था जंगल। औरत का सिर फिर से जिन्दा हो आई लता की तरह धीरे-धीरे तन रहा था। परछाइयां तार-तार हो रही थीं। बाहर बरखा की झड़ी वैसी ही लगी हुई थी। "जुल्म की मुखालाफ़त ही बहादुरी है और जरूरी नहीं कि बहादुरी महज जीत का ही बाइस बने, उसकी हार भी सिंगार है। यही बताते हैं आपके ये तीन गोदने...।" कहा मैंने। "आइए, यहां बैठिए मेरी सीट पर।" मेरा कहना था कि चारों ओर से इसरार बसने लगे। इस समय उन पांचों में जहां सारी सियाही उलीच दी गई थी, थोड़ी बेचैनी हुई। जवानों में गुपचुप इशारेबाजियां हुईं, खींसें कढ़ीं, जेब से पैसे निकले, “दाम ले लीजिए।" औरत ने उधर ताककर भी नहीं ताका। "बैठिए न !' इस बार मैंने शोर देकर कहा तो उसने सिर उठाया। होंठ अभी भी फड़क रहे थे, आंखें की बरौनियां आंसुओं से तर थीं, मगर चेहरा आत्मविश्वास, जिजीविषा, कृतज्ञता, स्नेह और सौहार्द में खिला हुआ। उसने मुझे जिस नजर से देखा, ओह! वह नजर थी या कुदरत का बेमिसाल तोहफ़ा, जैसे वे आंखें अभी-अभी पैदा हुई थीं। पलकें अभी भी आंसू तोल रही थीं, मगर गर्दन खिली हुई, कोये सिन्दूरी, जैसे घने कोहरे और अंधेरे को चीरते हुए सूरज की ताजा किरन फूटी आ रही हो। “क्या नेत्र के इस सूर्योदय से नेत्रहाट का सूर्योदय कहीं ज्यादा खूबसूरत होता ?" मैंने खुद से सवाल किया और खुद ही जवाब दे बैठा, 'नहीं।' औरत का ऐसा शबाब जो मर्द की शख़्सियत को मुकम्मल कर दे, मैंने आज तक न देखा, न सुना। वह पल सार्थक था, उसमें हम दोनों ही कायनात की ऐसी बुलन्दियों पर खड़े थे कि न हमें किसी का ख़ौफ था, न किसी से रंजिश। महमूद बोलते-बुदबुदाते खुद में खो गया, जैसे कोई द्रुत होता हुआ ताल बजते-बजते स्वयमेव धूमिल पड़ जाए। अचानक उसे होश आया, "हां, वो तुम लोग क्या तो पूछ रहे थे-उसके रूप-रंग, नैन-नक्श, उम्र... बताऊं ?" "ना,” सतपाल ने कसकर उसका हाथ दबा दिया, "दुनिया की सबसे हसीन औरत की खूबसूरती पर इन सतही चीजों के दाग न लगाओ।'

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