Hindi Chapter 2 PDF
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This document is a chapter about a justice minister in an Indian story. The story highlights the importance of upholding justice and moral values.
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## न्यायमंत्री श्री सुदर्शन (जन्म : सन् 1896 ई. निधन : सन् 1968 ई.) 'सुदर्शन'जी का मूल वास्तविक नाम बदरीनाथ शर्मा था । आपका जन्म 1896 ई. पंजाब राज्य के सियालकोट नामक स्थान में हुआ था । बचपन से ही आपने कहानियाँ लिखना प्रारंभ किया था । पुष्पलता, सुप्रभात, परिवर्तन, पनघट, नगीना आदि आपके सुप्रसिद्ध...
## न्यायमंत्री श्री सुदर्शन (जन्म : सन् 1896 ई. निधन : सन् 1968 ई.) 'सुदर्शन'जी का मूल वास्तविक नाम बदरीनाथ शर्मा था । आपका जन्म 1896 ई. पंजाब राज्य के सियालकोट नामक स्थान में हुआ था । बचपन से ही आपने कहानियाँ लिखना प्रारंभ किया था । पुष्पलता, सुप्रभात, परिवर्तन, पनघट, नगीना आदि आपके सुप्रसिद्ध कहानीसंग्रह हैं । आपका एकमात्र उपन्यास है – भागवंती । इस कहानी में सम्राट अशोक सर्वश्रेष्ठ न्यायमंत्री की खोज में था, शिशुपाल से मुलाकात होने पर उसकी योग्यता देखकर उसे न्यायमंत्री बनाया । न्याय न राजा देखता है, न रंक । न्यायतंत्र पर विश्वास दिलाने के लिए यहाँ प्रयास किया है । नयी पीढ़ी के लिए इस प्रेरक कहानी द्वारा न्यायतंत्र की जिम्मेदारी का भी महत्त्व समझाया गया है । संध्या का समय था । चारों ओर अंधकार फैल चुका था । ऐसे में किसी ने बाहर से घर का दरवाजा खटखटाया । "कौन है ?" ब्राह्मण शिशुपाल ने थोड़ा सा दरवाज़ा खोलते हुए पूछा । "एक परदेशी” बाहर से आवाज़ आई- "क्या मुझे रात काटने के लिए स्थान मिल जाएगा?" जैसे ही शिशुपाल ने पूरा दरवाज़ा खोला, उनके सामने एक नवयुवक खड़ा था । उन्होंने मुस्कराकर कहा- "यह मेरा सौभाग्य है । अतिथि के चरणों से यह घर पवित्र हो जाएगा । आइए पधारिए ।" अतिथि को लेकर शिशुपाल घर में गए और उनका आदर-सत्कार किया । फिर दोनों उस समय की देश की अवस्था पर बातें करने लगे । शिशुपाल ने कहा- “आजकल बड़ा अन्याय हो रहा है ।" परंतु परदेशी इस बात से सहमत न था । वह बोला- “दोष निकालना तो सुगम है परंतु कुछ करके दिखाना कठिन है," शिशुपाल बोले- 'अवसर मिले तो दिखा दूँ कि न्याय किसे कहते हैं?" “तो आप अवसर चाहते हैं?" “हाँ, अवसर चाहता हूँ।" "फिर कोई अन्याय नहीं होगा?" "बिलकुल नहीं।" "कोई अपराधी दंड से न बचेगा।" "नहीं।" परदेशी ने मुस्कराकर कहा- "यह बहुत कठिन काम है।" “ब्राह्मण के लिए कुछ भी कठिन नहीं । मैं न्याय का डंका बजाकर दिखा दूँगा।" परदेशी धीरे से मुस्कराए, पर कुछ न बोले, फिर कुछ देर बाद वे सो गए । सुबह उठकर परदेशी ने शिशुपाल को धन्यवाद देकर उनसे विदा ली । कुछ दिनों बाद शिशुपाल के घर कुछ सिपाही आए और उन्हें दरबार में चलने के लिए कहा । शिशुपाल सहम गए । वे समझ नहीं सके कि सम्राट ने उन्हें क्यों बुलाया है । कहीं उस परदेशी ने तो सम्राट से झूठी-सच्ची शिकायत नहीं कर दी । दरबार में पहुँचकर शिशुपाल का कलेजा धड़कने लगा जब उन्होंने देखा कि परदेशी ही सम्राट अशोक हैं । सम्राट बोले- “ब्राह्मण देवता! मैं आपको न्याय का अवसर देना चाहता हूँ । आप तैयार हैं?" पहले तो शिशुपाल घबराए, फिर बोले- "यदि सम्राट की यही इच्छा है तो मैं तैयार हूँ।" “बहुत ठीक, कल से आप न्यायमंत्री हुए" सम्राट ने कहा और अपने हाथ से अँगूठी उतारकर शिशुपाल को पहना दी । यह सम्राट अशोक की राजमुद्रा थी । अब शिशुपाल न्यायमंत्री थे । उन्होंने राज्य की समुचित व्यवस्था करना आरंभ कर दिया । उनके सुप्रबंध से राज्य में पूरी तरह शांति रहने लगी । किसी को किसी प्रकार का भय नहीं था, लोग दरवाज़े तक खुले छोड़ जाते थे । चारों तरफ़ न्यायमंत्री के सुप्रबंध और न्याय की धूम मच गई । लगभग एक महीने बाद, किसी ने रात में एक पहरेदार की हत्या कर दी । सुबह होते ही यह बात चारों तरफ़ फैल गई । लोग बड़े हैरान थे । शिशुपाल की तो नींद ही उड़ गई । उन्होंने खाना-पीना छोड़कर अपराधी का पता लगाने में रात-दिन एक कर दिया । बहुत प्रयत्न करने के बाद जब अपराधी का पता चला तो शिशुपाल के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । स्वयं सम्राट ने उस पहरेदार की हत्या की थी । सम्राट को अपराधी घोषित करना बहुत ही कठिन काम था । शिशुपाल करें भी तो क्या करें ? एक ओर वे न्यायमंत्री थे और दूसरी ओर सम्राट के सेवक, परंतु न्याय की दृष्टि में सम्राट और साधारण व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता । अगले दिन शिशुपाल दरबार में पहुँचे । सम्राट अशोक सिंहासन पर बैठे हुए थे । आते ही उन्होंने शिशुपाल से पूछा- "अपराधी का पता चला ?" न्यायमंत्री ने साहसपूर्वक कहा- “जी हाँ, चल गया।" “तो फिर उसे उपस्थित करो।" न्यायमंत्री कुछ रुके, फिर अपने उच्च अधिकारी को संकेत करते हुए बोले 'धनवीर ! इन्हें गिरफ़्तार कर लो, मैं आज्ञा देता हूँ।" संकेत सम्राट की ओर था । दरबार में निस्तब्धता छा गई । सम्राट का चेहरा क्रोध से लाल हो गया । वे सिंहासन से खड़े हो गए और बोले- “इतना साहस ?" न्यायमंत्री ने ऐसा भाव प्रकट किया जैसे कुछ सुना ही न हो । उन्होंने अपने शब्दों को फिर दुहराया- "धनवीर ! देखते क्या हो ? अपराधी को गिरफ़्तार करो। दूसरे ही क्षण सम्राट के हाथों में हथकड़ी पड़ गई । न्यायमंत्री ने कहा- “अशोक! तुम पर पहरेदार की हत्या का आरोप लगाया जाता है, तुम इसका क्या उत्तर देते हो?" सम्राट होंठ काटकर रह गए । न्यायमंत्री ने फिर पूछा- "तो तुम अपराध स्वीकार करते हो?" हाँ, मैंने उसे मारा अवश्य है, पर उद्दंड था।" सम्राट का उत्तर था । "वह उदंड था या नहीं, तुमने एक राजकर्मचारी की हत्या की है। तुम अपराधी हो। तुम्हें मृत्युदंड दिया जाता है।" न्यायमंत्री ने निर्णय दिया । सभा में सन्नाटा छा गया । न्यायमंत्री का निर्णय सुन सम्राट ने सिर झुका लिया । वे तो स्वयं शिशुपाल की परीक्षा में सफल हो गए थे । सम्राट का हृदय ऐसे व्यक्ति को पाकर गद्गद हो रहा था । तभी न्यायमंत्री का संकेत पाकर एक कर्मचारी सम्राट अशोक की सोने की मूर्ति लेकर उपस्थित हो गया । न्यायमंत्री ने खड़े होकर कहा- "सज्जनो ! यह सच है कि मैं न्यायमंत्री हूँ और यह भी सच है कि अपराधी को दंड मिलना चाहिए परंतु अपराधी और कोई नहीं स्वयं सम्राट हैं । शास्त्रों में राजा को ईश्वर का रूप माना गया है इसलिए उसे ईश्वर ही दंड दे सकता है । अतएव मैं आज्ञा देता हूँ कि सम्राट को चेतावनी देकर छोड़ दिया जाए और उनके स्थान पर इस सोने की मूर्ति को फाँसी पर लटका दिया जाए जिससे लोगों को शिक्षा मिले।" न्यायमंत्री का न्याय सुनकर लोग जय-जयकार कर उठे । जब सब लोग चले गए तो शिशुपाल ने राजमुद्रा सम्राट अशोक के सामने रख दी और बोले- “महाराज ! यह राजमुद्रा वापस ले लें, मुझसे यह बोझ नहीं उठाया जाएगा।" अशोक ने सम्मानभरी दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए गद्गद कंठ से कहा- "आपने मेरी आँखें खोल दी हैं। आपका साहस प्रशंसनीय है । यह बोझ आपके अतिरिक्त और कोई नहीं उठा सकता।" न्यायमंत्री निरुत्तर हो गए । ## शब्दार्थ और टिप्पणी सौभाग्य - सनसीब सुगम - सरल अवसर - मौका राजमुद्रा - राष्ट्र की निशानी सुप्रबंध - सुव्यवस्था उद्दंड - अविवेकी निःस्तब्धता - शांति हिन्दी (द्वितीय भाषा), कक्षा १ 4