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Urdu literature Shamsur Rahman Farooqi literary criticism South Asian literature

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शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी कई चाँद थे सरे–आसमां नरेश ‘नदीम’ द्वारा अनुवाद अंतर्वस्तु लेखक के बारे में 1. वज़ीर ख़ानम 2. सोफ़िया 3. वसीम जाफ़र 4. किताब 5. तस्वीर 6. महारावल 7. मख़्सूसुल्लाह 8. तालीम 9. काला गुलाब 10. सलीमा 11. महादाजी सिंधिया...

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी कई चाँद थे सरे–आसमां नरेश ‘नदीम’ द्वारा अनुवाद अंतर्वस्तु लेखक के बारे में 1. वज़ीर ख़ानम 2. सोफ़िया 3. वसीम जाफ़र 4. किताब 5. तस्वीर 6. महारावल 7. मख़्सूसुल्लाह 8. तालीम 9. काला गुलाब 10. सलीमा 11. महादाजी सिंधिया 12. लाहौर 13. बनी-ठनी 14. बाग़े-कश्मीर 15. बशीरुन्निसा 16. दफ़्तरे-इम्कां 17. कु आं 18. फ़र्रु ख़ाबाद 19. मार्का 20. बेटियां 21. मार्स्टन ब्लेक 22. बीबी 23. मंदिर 24. भाई-बहन 25. छोटी बेगम 26. विलियम फ़्रे ज़र 27. फ़ै नी पार्क्स 28. मिर्ज़ा ग़ालिब 29. दिलावरुलमुल्क 30. नवाब यूसुफ़ अली ख़ां 31. पंडित नंद किशोर 32. नामा-ओ-पयाम 33. गर्दिशे-ख़ामा-ए-नक़्क़ाश 34. हद्दे-कमाले-निसाबे-हुस्न 35. तुझे आंख से भी चख सकते हैं 36. हबीबुन्निसा 37. राहत अफ़्ज़ा 38. हकीम अहसनुल्लाह ख़ां 39. चिंताएं 40. नवाब मिर्ज़ा 41. नवाब बेगम 42. जहांगीरा बेगम 43. हमें खुले मैदान में आंधी-पानी ने आ लिया 44. ऐश चाहते हैं मगर ग़म की जानिब चलते हैं 45. फ़ीरोज़पुर झिरका 46. भरमारू 47. मौत के पांव 48. ज़माने का हाथ मेरे माथे का बाल पकड़ मुझे मौत की तरफ़ ले जा रहा है 49. शशजेहत (छहों दिशाओं) से इसमें ज़ालिम बू-ए-ख़ूं की राह है 50. क़दम शरीफ़ 51. आया था एक सैलाब सा 52. रामपुर 53. माल तो इकट्ठा करो शायद लुटेरा भी आ जाए 54. सोनपुर 55. ज़ख़्मी सांप 56. कस्सी 57. महाकाली 58. बिस्तरे-बेगानगी 59. बहारे-बाग़ तो यूं ही रही लेकिन... 60. नवाब मिर्ज़ा, शायर 61. नवाब ज़ियाउद्दीन अहमद ख़ां 62. वलीअहद सोयम 63. इमामबख़्श सहबाई 64. एहतरामुद्दौला 65. बड़ी बेगम 66. बाईजी 67. शौकत महल 68. साहिबे-आलमो-आलमियान 69. नवाब मिर्ज़ा ख़ां दाग़ 70. ज़रा से बहाने पर हम जीवन से उखाड़ दिए जाते हैं गोया हम ज़माने के मुंह में कीड़ा लगा दांत हैं 71. शाख़ों पे जले हुए बसेरे 72. समापन आभार ग्रंथ सूची पेंगुइन का पालन करें सर्वाधिकार पेंगुइन बुक्स कई चाँद थे सरे-आसमां शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का नाम उपमहाद्वीप के साहित्य-जगत में किसी परिचय का मोहताज नहीं । आपने चालीस साल तक उर्दू की जानी-मानी साहित्यिक पत्रिका ‘शबख़ून’ (मासिक) का संपादन किया और उसके माध्यम से उर्दू साहित्य के बारे में नए विचारों को तथा उपमहाद्वीप या दूसरे देशों के श्रेष्ठ रचनात्मक साहित्य को पेश किया । आपने उर्दू और अंग्रेज़ी में कई अहम आलोचना-ग्रंथ लिखे हैं । ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तकी ‘मीर’ के बारे में आपकी किताब शे’रे-शोर-अंगेज़ चार जिल्दों में कई बार छप चुकी है और 1996 में उपमहाद्वीप के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार सरस्वती सम्मान से नवाज़ी गई है । आपने आलोचना, काव्य, कहानी, कोश-निर्माण, दास्तान, छंदशास्त्र, अर्थात साहित्य के हर मैदान में तारीख़ी कारनामे अंजाम दिए हैं । आपको अनेकों पुरस्कार और सम्मान मिले हैं जिनमें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की डी. लिट्. की मानद उपाधि भी शामिल है । नरेश ‘नदीम’ का जन्म 11 सितंबर 1951 को देवरिया (पूर्वी उ.प्र.) के एक शहरी मध्यवर्गीय परिवार में हुआ । आपकी शिक्षा देवरिया, गोरखपुर, अलीगढ़ और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हुई । आपकी संपादित रचनाएं हैं–रोशनी का सफ़र, कै फ़ी आज़मी: नई गुलिस्तां (दो खंडों में) । आपने अंग्रेज़ी, उर्दू और पंजाबी की लगभग डेढ़ सौ पुस्तकों का अनुवाद किया है । आपको हिंदी अकादमी दिल्ली के साहित्यकार सम्मान (2000) और उर्दू अकादमी दिल्ली के भाषाई एकता पुरस्कार (2002) से नवाज़ा गया है । संप्रति आप एक अंग्रेज़ी साप्ताहिक से ज़ुड़े हुए हैं । कई चाँद थे सरे-आसमां कि चमक-चमक के पलट गए –अहमद मुश्ताक़ बहर ज़मीं कि ख़बरगीरी अज़ सवादे-अदम फ़तादा नाम-ए-मा सर-ब-मुहर नक़्शे-क़दम –मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर ‘बेदिल’ अज़ीमाबादी सी हेस्टिंग्ज़ रोड, इलाहाबाद की उस ख़ातूने-ख़ाना और उन दो बच्चियों के नाम जो इस चमनज़ार की गुलेतर हैं, और शायद इसकी बाग़बान भी हों । ख़ातून-ए-ख़ाना के चले जाने (19 अक्तू बर 2007) के कु छ बरस बाद... एक मुद्दत तक निस्फ़ सदी1 से भी ज़ेआद2 जिसने मुझे जी जान से रखा दिल शाद कु छ भूल अचानक हुई मुझसे के किया घर छोड़ के उसने अदमिस्ता3 आबाद तू दोस्त थी आशिक़ थी मेरे दिल का मलाज़4 मानूसी5 ख़ुशबू तेरी सांसों के महाज़6 दिन में कभी हंस देता हूं भूले से मगर बेरोए मैं सो जाऊं वो राते हुईं शाज़7 वज़ीर ख़ानम डॉक्टर ख़लील असग़र फ़ारूक़ी, नेत्र रोग विशेषज्ञ, की याददाश्तों से वज़ीर ख़ानम उर्फ़ छोटी बेगम (पैदाइश ग़ालिबन 1811) मुहम्मद यूसुफ़ सादाकार की तीसरी और सबसे छोटी बेटी थीं । उनकी पैदाइश देहली में हुई । लेकिन मुहम्मद यूसुफ़ सादाकार असल देहली वाले न थे, कश्मीरी थे । ये लोग देहली कब और क्योंकर पहुंचे और देहली में उन पर क्या गुजरी, यह दास्तान लंबी है । इसकी तफ़्सीलें पहले भी कोई बहुत वाज़ेह न थीं और अब तो कु छ दूसरी भलाइयों के सबब, शायद बिल्कु ल ही भुला दी गई हैं । जो कु छ मालूम हो सका है वह सब नीचे है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि यह सब तारीख़ी तौर पर बिल्कु ल दुरुस्त हो । वज़ीर ख़ानम हिजरी 1245-46 यानी 1829-30 ईस्वी में नवाब शम्सुद्दीन अहमद ख़ान, नवाब फ़ीरोज़पुर झिरका और लोहारू से जुड़ी रही थीं । लेकिन इससे पहले वो मिस्टर एडवर्ड मार्स्टन ब्लेक अंग्रेज़ के साथ भी रह चुकी थीं । उस ज़माने में वो मार्स्टन ब्लेक के दो बच्चों, यानी एक बेटे मार्टिन ब्लेक उर्फ़ अमीर मिर्ज़ा और एक लड़की सोफ़िया उर्फ़ मसीह जान उर्फ़ बादशाह बेगम की मां बनीं । ज़्यादा संभावना यह है कि मार्स्टन ब्लेक उनकी ज़िंदगी में पहला मर्द था और उससे वज़ीर ख़ानम की मुलाक़ात देहली में हुई थी । मुलाकात के मौक़े का कु छ पक्का पता नहीं चलता । पर्दानशीन मुसलमान लड़की जो बज़ाहिर कहीं कस्बन या पेशेवर नचनी न थी, किस तरह और क्यों एक अंग्रेज़ के अधिकार तक पहुंची, इसके बारे में किसी लिखित परंपरा या किसी चश्मदीद गवाह के बयान की बुनियाद पर तैयार किया हुआ ब्योरा नहीं मिलता । ख़ानदान में जो रवायत एक ज़माने में प्रचलित थी, इस तरह है । बड़ी–बूढ़ियों का कहना था कि एक बार उर्स मुबारक के दिनों में वज़ीर ख़ानम अपने वालिद के साथ महरौली शरीफ़, ख़्वाजा क़ु तुबशाह की दरगाह फ़लक बारगाह से वापस आ रही थीं । शाम फ़ू ट चली थी, सब मुसाफ़िरों को वापसी की जल्दी थी, क्योंकि हौज़ शम्सी के खंडहर में उन दिनों कु छेक पिंडारों ने चुपके -चुपके अपने ठिकाने बना लिए थे और मौक़ा मुनासिब देखकर वो रात के मुसाफ़िरों का शिकार खेल लिया करते थे । लिहाज़ा सब ही इस भागदौड़ में थे कि सूरज पश्चिमी क्षितिज से नीचे न उतरने पाए और वो हौज़ शम्सी और हौज़ख़ास के इलाक़े को पार कर लें । वज़ीर ख़ानम की बहली का एक धुरा घिसते-घिसते ज़रा आफ़त का सबब बन गया था और डर था कि बैलों को अगर तेज़ दौड़ाया गया तो धुरा टूट सकता है । उनकी बहली आहिस्ता-आहिस्ता चल रही थी, यहां तक कि साथ के तमाम मुसाफ़िर चाहे वो बहलियों पर थे या तामझाम या पालकियों पर, आगे निकल गए । हाथियों, घोड़ों, सांडनियों और बग्घियों पर सवार तो पहले ही ये जा वो जा, नज़रों से ओझल हो चुके थे । बीच बैसाख के दिन थे । रेवाड़ी और लोहारू की तरफ़ से आने वाली गर्म हवा में जितनी गर्मी थी, उससे ज़्यादा गर्दो-गुबार था, लेकिन यही गर्दो-गुबार हफ़्ते में चार या पांच दिन सूरज ढलने के कु छ पहले, अलवर और रणथंभौर के जंगलों की थोड़ी-बहुत नमी पीकर और रास्ते के घने झाड़-झंखाड़ के साथ मज़े करके जब गुड़गांव पहुंचता, तो आंधी-तूफ़ान की शक्ल ले लेता था । घने पेड़ों से ढकी हुई देहली पर बहुत सारी मिट्टी और उससे भी ज़्यादा ठं डी हवा के झोंके , बल्कि झक्कड़, चारों तरफ़ ग़ुबार की हल्की सी चादर और ठं ड का मुहब्बत और मुरव्वत भरा माहौल बिछाकर, देहली और इर्द-गिर्द की ज़मीन और मैदानों को पार करते हुए, दो-ढाई घड़ी के खेलकू द के बाद मथुरा की राहों में ख़ुद को गुम करने निकल जाते और देहली के अमीर-ग़रीब, आमजन व शरीफ़, बूढ़े-जवान सबके कलेजे और आंगन ठं डे हो जाते । लेकिन ऐसे में उन मुसाफ़िरों की जान पर बन आती जो मंज़िल से दूर होते या जिनकी सवारियां उनसे बेवफ़ाई पर आमादा होतीं । अचानक वज़ीर ख़ानम की बहली रेत और लाल मिट्टी के बड़े-बड़े जर्रों से भर गई । बैलों की बड़ी-बड़ी आंखें दहशत और चुभन के सबब बंद हो गईं । बहली के तीन पर्दे झर्राटा मारकर यूं उड़े गोया लोमड़ी के डर से बौखलाए हुए तीतर हों । गाढ़ी होती हुई रोशनी में माशी और क़िरमिज़ी रंग के पर्दे कु छ दूर तक तो हवा में लटके दिखाई दिए, फिर ख़ुदा जाने कहीं दूर उड़ गए या घने दरख़्तों की शाख़ों ने उनको उचक लिया । पर्दों के यूं उड़ जाने, बैलों के भड़कने और सवारियों के जगह से बेजगह होने के सबब गाड़ी का संतुलन जो बिगड़ा तो बहली चार की बजाय दो पहियों पर लटक गई और फिर हवा के दूसरे थपेड़े ने उसे सीधा किया तो चारों पहिये एक धमाके के साथ ज़मीन से टकराए और उसी के साथ धुरे के टूट जाने की कर्क श आवाज़ सुनाई पड़ी । फ़ौरन तो समझ में न आया कि बहली में कोई चीज़ टूटी है या आसपास के पेड़ों की कोई मोटी सी शाख़ हवा के दबाव से मजबूर होकर ज़मीन चूमने लगी है । लेकिन बहली का एक पहिया भी पलक झपकते अलग हो गया और बहली दोबारा उलटते-उलटते बची तो बेचारे मुसाफ़िरों को मालूम हुआ कि उन पर क्या आफ़त टूटी है । वज़ीर ख़ानम के बाप ने तो तक़दीर ठोंक ली थी कि आज की रात उसके और उसकी बेटी के लिए आख़री रात होगी । अब कोई इक्का-दुक्का पिछड़ा हुआ मुसाफ़िर तो क्या, कोई काफ़िला भी गुजरने वाला न था, न कहीं से कोई हाथ थामने वाला मिल सकता था कि सब अपनी–अपनी पनाहगाहों में बंद थे । टूटी हुई बहली के सवारों की रात उसी बियाबान में गुज़रनी थी और सुबह का मुंह देखना उन्हें शायद ही नसीब होना था । लड़की को तो लौंडी या तवायफ़ बनना था और बाप की क़ब्र वहीं बननी थी । गाड़ीवान शायद बच निकलता तो बच निकलता । लेकिन जिसे अल्लाह रक्खे उसे कौन चक्खे । देहली की तरफ़ से एक धुंधला सा बादल जैसा धब्बा सड़क पर डोलता नज़र आया । फिर सांडनी के पांव की झनाझन सुनाई दी, फिर एक घुड़सवार जिसके पीछे और आगे दो बरछैत हवाओं और ग़ुबार के आगे मुंह को ढके हुए, लेकिन मज़बूत क़दमों से, ठहर-ठहरकर इत्मीनान से पांव रखते हुए, घुड़सवार के दोनों तरफ़ दो पियादे, एक के हाथ में मशाल और एक के हाथ में बादबान1 । घोड़ा भी ख़ूब सधा हुआ था कि हवा के थपेड़े और पेड़ों की सांय-सांय से उसके इत्मीनान में कोई फ़ नहीं पड़ता था । सांडनी सवार ने धुंधलाते माहौल में अपनी अक़्लमंदी को काम में लाते हुए थोड़ी दूर से ही समझ लिया कि मुसीबतज़दा मुसाफ़िर हैं । ठग भी हो सकते थे, लेकिन यह मौसम ठगी का न था और न वह इलाक़ा ठगों का था । फिर सबसे बढ़कर यह कि ठगों के गिरोह में औरतें नहीं हो सकती थीं । सांडनी सवार और बरछैत तो आगे बढ़ते आए मगर घुड़सवार अपने साथ रोशनी लेकर चलने वाले पियादों के साथ ज़रा फ़ासले पर रुक गया । अभी कु छ साफ़ न था कि शहसवार की ज़ात-बिरादरी क्या है । बादशाह ज़िल्ले-इलाही के कारिंदे भी इन इलाक़ों में शामों को गश्त लगाते दिखाई दे जाया करते थे और कं पनी बहादुर के भी सिपाही किसी-किसी दिन निकल पड़ते थे । उधर गाड़ीवान ने भी समझ लिया था कि ये लोग डाक-लुटेरे नहीं हैं, इनसे मदद की दर्ख़ास्त की जा सकती है । गाड़ीवान आगे बढ़ा तो सांडनी सवार ने अपनी सवारी को डपटाकर उसका रास्ता रोक दिया और पूछा, “कौन हो तुम लोग? इस वक़्त यहां क्या कर रहे हो? जानते नहीं कि सूरज डूबने के बाद किसी क़ाफ़िले या सिपाहियों के झुंड के बग़ैर यूं फ़िरना मना है?” “जानते हैं माईबाप । हम लोग ख़्वाजा साहब बख़्तियार बाबा के दरबार से आ रहे हैं । अचानक आंधी ने घेर लिया, फिर पहिया टूट गया । अब यहां खड़े अपनी जान को रो रहे थे । पर्दे की बीबियां साथ में हैं । अल्लाह ही जानता है क्या हो जाता अगर आप और ओग़लान साहब...” “ज़्यादा बातें न बनाओ । तुम्हारे मालिक कहां हैं? कं पनी साहब के सामने हाज़िर हों ।” “हाज़िर हैं सरकार, बस ज़नाना एक तिल ओट हो जाए, बेपर्दगी होती है ।” उस मुसीबत के आलम में भी गाड़ीवान का इशारा था कि फ़िरंगी मर्द ज़रा दूर ही रहे तो बेहतर है । वज़ीर ख़ानम का बाप ख़ुद को टूटी हुई बहली से अलग करके आगे आ रहा था कि घुड़सवार ने अपनी सवारी को हरकत दी और एक पल में वह और बहली की सवारियां आमन-सामने थीं । इतनी देर में एक बरछैत ने अंग्रेज़ी तर्ज़ की एक लालटेन भी रोशन कर ली थी । लेकिन इसी बीच हवा और भी तेज़ हो गई थी, लालटेन का शोला धुआं सा हुआ जा रहा था । अचानक एक ज़ोर का झोंका आया । वज़ीर ख़ानम के बदन की चादर उड़ती चली गई और एकाएक उसका चेहरा खुल गया । बड़ी-बड़ी जामनी आंखों के नीचे उसका मुंह ख़ौफ़, घबराहट और शर्म की वजह से घिरे हुए काले हिरन के माथे जैसा तमतमा उठा था और लालटेन की कं पकं पाती हुई लौ ने उसके आपे को ज़रा रोशन कर दिया था । अंग्रेज़ उसे तकता रह गया और उधर एक दिलकश पराए मर्द को अपने में इस तरह लीन देखकर जवानी की बढ़ती हुई मौजों ने कु छ शोख़ होने की ठानी । दोनों की आंखें एक निगाह भर मिलीं, फिर गाड़ीवान ने जल्दी से एक चादर खींचकर उसके बदन पर डाल दी । यह अंग्रेज़ मार्स्टन ब्लेक था, जो अपनी माशक़ा के घर रात गुज़ारने अरब सराय जा रहा था । थोड़ी सी बातचीत और कु छ सोच-विचार के बाद यह तय हुआ कि मार्स्टन ब्लेक साहब ख़ुद इन मुसाफ़िरों को हौज़ शम्सी के आगे मुनीर के बाग़ तक पहुंचा देंगे । वहां से किसी भरोसेमंद सवारी का बंदोबस्त मुमकिन था । मुनीर के बाग़ तक का सफ़र ज़नाना सवारियां तो किसी न किसी तरह ठुस-ठुसाकर सांडनी पर कर लेंगी, बाक़ी लोगों को घोड़े की दुलकी चाल के साथ-साथ चलना था । मुसाफ़िरों का सामान बहुत न था । कु छ तो सांडनी पर ही डाल लिया गया, बाक़ी थोड़ा-बहुत बचा तो उसे किसी तरह बरछैतों और गाड़ीवान ने उठा लिया । इस वाक़ये के बाद मार्स्टन ब्लेक किसी न किसी बहाने से हर दो-तीन दिन बाद वज़ीर ख़ानम के घर पहुंचकर सैरो-तफ़रीह की बातें करता । कभी-कभी वह उसे चांदनी चैक और नहर की सैर के लिए ले जाता । मां तो थीं नहीं, बाप उनके साथ होता, लेकिन मन मसोसकर और बेटी को पूरी चादर लपेटकर बाहर जाने पर हमेशा ज़ोर करता । फिर भी इस बीच में वज़ीर ख़ानम से उसके क्या संबंध बने या क्या क़समें-वादे हुए, उसका कु छ नहीं पता । ख़ैर, चंद महीने बाद मार्स्टन ब्लेक ने आकर ख़बर दी कि मैं असिस्टेंट पॉलीटिकल एजेंट के ओहदे पर रियासत जयपुर जा रहा हूं । उस वक़्त्त तो कु छ ख़ास बातचीत न हुई, सिर्फ़ रस्मी अफ़सोस और राहो-रस्म क़ायम रखने के वादों के बाद मार्स्टन ब्लेक उनसे रुख़सत हुआ । लेकिन वह फिर एक-सवा महीने बाद देहली आया तो मुहम्मद यूसुफ़ के यहां भी गया । उसने बताया कि मैंने मुनासिब मकान ले लिया है और गृहस्थी के सब साज़ो-सामान जमा कर लिए हैं । तनख़्वाह भी माक़ू ल है, नौकर-चाकर क़दम-क़दम पर मौजूद हैं, हिलकर पानी भी नहीं पीना पड़ता । जयपुर में मेरी बड़ी आवभगत है । साहब पॉलीटिकल एजेंट मेरे हाकिम हैं, वरना और मुझसे निकलता हुआ वहां कोई नहीं । मार्स्टन ब्लेक की बातें सुनकर सब लोग कु छ देर के लिए ख़ामोश से हो गए । फिर मार्स्टन ब्लेक ही ने पहल की, पर कु छ कहने की बजाय उसने छोटी बेगम को ज़रा मानीख़ेज़ निगाहों से देखा । कु छ उधर का भी इशारा देखकर ब्लेक और मुहम्मद यूसुफ़ ख़ामोशी से एक तरफ़ को हो लिए और सरगोशियों में कु छ बातचीत हुई । उसके कोई हफ़्ता भर बाद मार्स्टन ब्लेक के क़ाफ़िले में जो जयपुर जा रहा था, सजावट और गोटे-ठप्पे से जगमगाता हुआ, ताज़ा फ़ू लों के गजरों से गमकता हुआ और ताज़ा हरी लताओं और तरकारियों से हरियाला बना हुआ एक रथ भी था । वज़ीर ख़ानम उर्फ़ छोटी बेगम लक़दक़ दुल्हन के लिबास में लिपटी हुई उसमें सवार थीं । सोफ़िया डॉक्टर ख़लील असग़र फ़ारूक़ी, नेत्र रोग विशेषज्ञ, की याददाश्तों से मार्स्टन ब्लेक की मौत रियासत जयपुर में नौकरी के ज़मानेमें ही एक मुकामी बलवे में हुई थी । यह वाक़े या 1830 के शुरू का है । अंग्रेज़ों ने शायद नाइंसाफ़ी के ढंग से या अंग्रेज़ी क़ानून के हिसाब से छोटी बेगम और मार्स्टन ब्लेक की शादी को क़ु बूल न किया था । लिहाज़ा ब्लेक की अचल संपत्ति और नक़दी या सामान में से छोटी बेगम को कु छ न मिला । न ही उन्हें गुज़ारे की कु छ रक़म या पेंशन मिली । जैसा कि हम बता चुके हैं, छोटी बेगम के पेट से मार्स्टन ब्लेक की दो औलादें हुई थीं: एक बेटा मार्टिन ब्लेक उर्फ़ अमीर मिर्ज़ा और बेटी सोफ़िया उर्फ़ मसीह जान उर्फ़ बादशाह बेगम । सोफ़िया अपने वक़्त की हसीनों में थीं । उनकी पहली शादी मशहूर एंग्लो-इंडियन फ़ौजी अफ़सर एलेक्ज़ेंडर स्किनर उर्फ़ ऐलक साहब से हुई थी जिसके बाप जेम्स स्किनर उर्फ़ ‘सिकं दर साहब’ के फ़ौजी रिसाले स्किनर्स हार्स की बड़ी धूम थी । बेगम स्किनर यानी सोफ़िया उर्फ़ बादशाह बेगम उर्फ़ मसीह जान को उर्दू के अदबी हलकों में मिस ब्लेक ख़फ़ी के नाम से जाना गया । वो अपने ज़माने के अच्छी सोच वाले शायरों में गिनी जाती थीं । ये दोनों भी अपने बाप की जायदाद से महरूम रहे । लेकिन उनके एक रिश्ते के चचा-चची ने और ख़द छोटी बेगम ने उनकी देखभाल की । सोफ़िया मार्स्टन ब्लेक और एलेक्ज़ेंडर स्किनर के एक बेटा बहादुर मिर्ज़ा नाम का और एक बेटी अहमदी बेगम नाम की हुई । अहमदी बेगम का ईसाई नाम शार्लट था, लेकिन वह कहलाई अहमदी बेगम । सन 1946 में उनकी औलादें जयपुर में ख़ुशहाल ज़िंदगी बसर कर रही थीं । कहते हैं कि इस शादी से एक और बेटा मुहम्मद अमीर या अमीर मिर्ज़ा या अमीरुल्लाह भी पैदा हुआ था । लेकिन यह ग़लतफ़हमी है । जैसा कि हम ऊपर बयान कर चुके हैं, अमीर मिर्ज़ा तो मार्स्टन ब्लेक के बेटे मार्टिन ब्लेक की उर्फ़ियत थी । यह ज़रूर है कि सोफ़िया उर्फ़ बादशाह बेगम के दूसरे शौहर का नाम मुहम्मद अमीर या अमीरुल्लाह था । उनके एक बेटा था, लेकिन उसके बारे में कु छ नहीं मालूम सिवाय इसके कि उस बेटे के एक बेटा हुआ जिसका नाम हसीबुल्लाह क़ु रैशी था । हसीबुल्लाह की पैदाइश शायद 1890 के आसपास हुई । मुमकिन है कि अमीरुल्लाह पहले शौहर रहे हों और उनके इंतक़ाल के बाद सोफ़िया बेगम ने ऐलक साहब से निकाह किया हो । यह भी मुमकिन है कि अमीरुल्लाह दूसरे शौहर रहे हों या उन्होंने सोफ़िया ब्लेक से निकाह न किया हो, उन्हें सिर्फ़ हवेली में दाख़िल कर लिया हो । हसीबुल्लाह क़रैशी ने अपने बाप का असल ख़ानदानी नाम क्यों छु पाया और ख़ुद को क़ु रैशी क्यों क़रार दिया, यह बात कभी न खुली । मुमकिन है कि अमीरुल्लाह ख़ानदान से क़रैशी रहे हों, लेकिन हसीबुल्लाह के इस छिपाव से यह गुमान होना क़ु दरती है कि अमीरुल्लाह और सोफ़िया उर्फ़ बादशाह बेगम कभी निकाह के बंधन में नहीं बंधे होंगे । बहरहाल, यही हसीबुल्लाह क़रैशी बाद में सलीम जाफ़र के नाम से उर्दू के नामवर अदीब, आलोचक और अरूज़ी मशहूर हुए । सलीम जाफ़र ने नज़ीर अकबराबादी का एक बृहद संकलन ‘गुलज़ारे नज़ीर’ (प्रकाशन: 1951) के नाम से हिंदुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद के लिए तैयार किया था । यह अब भी कहीं-कहीं मिल जाता है । इसके अलावा उन्होंने गालिब और दूसरे क्लासिकी शायरों पर भी लिखा है । संस्कृ त और हिंदी भी फ़ारसी के अलावा वो ख़ूब जानते थे और अंग्रेज़ी तो गोया उर्दू के साथ-साथ उनकी पहली ज़बान थी । सलीम जाफ़र का इंतक़ाल कराची में हुआ । बटवारे से पहले भारत में वो अच्छी सरकारी मुलाज़मत में लगे हुए थे । पाकिस्तान में उन्हें अपनी लियाक़त के मुताबिक़, बल्कि उसके कु छ क़रीबी दर्जे का भी काम न मिला । ऐसा शायद इसलिए भी हुआ हो कि वो रिटायरमेंट की उम्र (उस ज़मानेमें 55 साल) को पहुंच चुके थे । उन्होंने मीरपुर ख़ास (तब पश्चिमी पाकिस्तान) में अपना डेरा जमाया और एक मुकामी वकील मुहम्मद लतीफ़ गांधी के यहां टाइपिस्ट की हैसियत से काम करने लगे । उन्होंने लेखन और रिसर्च का काम जारी रखा और एक सुगठित शब्दकोश भी तैयार किया । ‘तहक़ीकु ल लुग़ात’ नाम के इस शब्दकोश में उर्दू के ऐसे शब्दों के मूल बताए गए हैं जो संस्कृ त या फ़ारसी से उर्दू में आए हैं । अफ़सोस कि यह शब्दकोश अभी तक अप्रकाशित है । मीरपुर ख़ास में अदब गुलशनाबादी और फिर प्रोफ़े सर कर्रार हुसैन के साथ उनकी अदबी सोहबतों ने उनकी ज़िंदगी को कु छ दिलचस्प बना दिया था । कर्रार साहब की फ़रमाइश पर शाह अब्दुल लतीफ़ भिटाई कॉलेज में तुलनात्मक भाषा शास्त्र और ज्ञान-विज्ञान के दूसरे विषयों पर सलीम जाफ़र ने कई लेक्चर भी दिए जो बहुत कामयाब रहे । सलीम जाफ़र का रवैया छात्रों के साथ बहुत ही प्यार भरा था और वो बिला मुआवज़ा उनकी इल्मी मदद करते थे हालांकि ख़ुद उनकी माली हालत कोई बहुत अच्छी न थी । सलीम जाफ़र की अके ली औलाद उनके बेटे एजाज अहमद क़ु रैशी थे । बाप की तरह वो भी उर्दू-फ़ारसी में अच्छी दिलचस्पी रखते थे । उनको लिखने-पढ़ने का भी शौक़ था । लिहाज़ा उन्होंने कलमी नाम शमीम जाफ़र इख़्तियार किया, लेकिन उन्होंने कोई रचना नहीं छोड़ी । बाप के उलट उनको नवाब मिर्ज़ा ‘दाग़’ से अपनी रिश्तेदारी, भले ही दूर की सही, बड़ी क़ाबिले-ज़िक्र बात मालूम होती थी । शमीम जाफ़र ने दाग़ की वालिदा यानी अपनी परदादी वज़ीर ख़ानम के बहुत से हालात किताबों, बुज़ुर्गों के संस्मरणों और बड़े-बूढ़ों से पूछ-पूछकर जमा किए थे । शमीम जाफ़र (एजाज़ अहमद क़रैशी) की शादी सलीम जाफ़र की एक एंग्लो-इंडियन रिश्तेदार हरमाइना मॉर्टीमर की इकलौती बेटी पर्डिटा मॉर्टीमर से हुई थी । उस वक़्त वो पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में किसी चाय के बाग़ के मैनेजर थे । एक बार बाग़ के मज़दूरों ने अपने सेठ के किसी बुरे बर्ताव के कारण हड़ताल कर दी और उनमें से कु छ तो हिंसा पर भी आमादा हो गए । पुलिस या प्रशासन के आते–आते वो किसी ख़तरे की परवाह किए बग़ैर मजमे के सामने चले आए और मज़दूरों के नेताओं से उन्होंने इतने उम्दा ढंग और तौर-तरीक़े से बात की कि हड़ताल वहीं की वहीं वापस ले ली गई । अपने मक़सद की कामयाबी और हड़ताल के ख़ात्मे की ख़ुशी में मस्त मज़दूरों ने शमीम जाफ़र को कं धों पर उठा लिया और ‘मैनेजर साहब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए उन्हें बाग़ की तरफ़ ले चले । भाग्य की विडंबना थी कि शमीम जाफ़र की सरकारी ज़िंदगी का सबसे रोशन लम्हा पलक झपकते में हादसे का शिकार होकर उनकी और उनके घरवालों की दुनिया अंधेरी कर गया । वो दिन बारिशों के थे और चाय के इलाकों में बारिश आम मुल्क से बहुत ज़्यादा होती है । फिर ये बाग़ ढलवां ज़मीन पर लगाए जाते हैं कि बारिश से पौधे तर तो हों पर पानी कहीं ठहरने न पाए । जीत और अहसान के जज़्बात से लबरेज़ मज़दूरों ने शमीम जाफ़र को कं धों पर उठाए-उठाए एक ज़रूरत से ज़्यादा तेज़ ढलान पर चढ़ना चाहा । एक मज़दूर का पांव जो रपटा तो सबके सब दूर तक लुढ़कते हुए आख़िरकार बाईं तरफ़ की एक निचली खाई में जा गिरे । जान तो ख़ुदा के फ़ज़ल से किसी की न गई, लेकिन ज़ख़्मी सभी हुए । शमीम जाफ़र के सिर में गहरी चोट आई जिसकी वजह से वो अपनी याददाश्त खो बैठे । कलकत्ता में लंबे इलाज के बाद उनकी याददाश्त तो बड़ी हद तक वापस आ गई, लेकिन उनकी दिमाग़ी हालत बच्चों या बहुत ही बूढ़े लोगों जैसी हो गई । मजबूरन उन्हें नौकरी छोड़कर बाप के पास मीरपुर ख़ास (तब पश्चिमी पाकिस्तान) चले जाना पड़ा । अपने ख़्यालों में अभी तक वो टी एस्टेट के बड़े साहब थे और उनकी दोस्ती अंग्रेज़ों और बड़े-बड़े सरकारी अफ़सरों से थी । वो हर शाम पूरे सूट-बूट में सजे हुए, एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ में सुलगता हुआ सिगार लिए ‘टी एस्टेट’ के ‘क्लबघर’ को जाते । जाहिर है कि क्लबघर तो कोई था नहीं, वहां दूर-दूर तक चाय की पत्ती की महक भी न थी । लेकिन शमीम जाफ़र अपने ख़्यालों में मगन, मुस्कु रा-मुस्कु राकर ख़ुद से अंग्रेज़ी बोलते हुए, सारी बस्ती का चक्कर लगाकर रात ढले वापस आ जाते । उनकी साहबी चाल-ढाल पर इतनी सख़्त पाबंदी के सबब कु छ लोग, ख़ासकर बच्चे, उनका मज़ाक़ उड़ाने के लिए उनसे पूछते, “बाबूजी, टैम क्या हुआ है?” यहां तक कि उनका नाम ही ‘टाइम बाबू’ पड़ गया । हादसे के वक़्त शमीम जाफ़र के बेटे वसीम जाफ़र की उम्र कोई दस-बारह साल की थी । वसीम की एक बहन भी थी जो भाई से कोई दो साल बड़ी थी, लेकिन वह दिमाग़ी तौर पर कमज़ोर और जिस्मानी तौर पर बड़ी हद तक अपंग थी । शमीम जाफ़र की देखभाल उनकी बीवी ने और बाप ने, जितना मुमकिन हो सका, की लेकिन अब उनके दिन बिगड़ने ही पर आमादा थे । सलीम जाफ़र एक हादसे में दाएं कू ल्हे की हड्डी तुड़ा बैठे । इस उम्र में और इन हालात में सुधार भी मुहाल था, सेहतमंदी का जिक्र क्या! अब उनकी बहू उन्हें भी देखती, अपंग बच्ची को भी और दिमागी तौर पर बिगड़े हुए शौहर की भी देखभाल करती । लगातार पलंग पर पड़े रहने की वजह से सलीम जाफ़र के सारे बदन पर फ़फ़ोले और ज़ख़्म हो गए जिनमें पीप के साथ-साथ बदबू भी पैदा हो गई थी । सलीम जाफ़र जैसे तौर- तरीक़े वाले और नफ़ासत पसंद शख़्स की यह गत देखने वालों को दुखी और भयभीत करती थी, ख़ुद उन पर क्या जाने क्या बीतती होगी । आख़िरकार बेहद बेचारगी के आलम में वो अपने एक रिश्ते के मामूं के यहां कराची ले जाए गए । लेकिन अब उनकी हालत को दवा से ज़्यादा दुआ की ज़रूरत थी कि जिससे उन्हें उनकी इस दुखभरी दुनिया से निजात मिले । कई महीने तक मुसीबत झेलते रहने के बाद उन्होंने जान मालिक के हवाले की । कु छ के मुताबिक़ यह साल 1959 का था । सलीम जाफ़र ने एक वसीयतनामा लिखकर शमीम जाफ़र के लिए बहुत कु छ इंतज़ाम कर दिया था और ज़रूरी काग़ज़ात मुहम्मद लतीफ़ गांधी के हवाले कर दिए थे । पर्डिटा अपने विक्षिप्त पति और बेटी-बेटे को लेकर इंग्लिस्तान जाना चाहती थीं, मगर बाप के चंद ही दिन बाद शमीम जाफ़र का भी बुलावा आ गया । उनके कफ़न-दफ़न के कु छ अरसे बाद पर्डिटा दोनों बच्चों के साथ एक ननिहाली रिश्तेदार की मार्फ़ त इंग्लिस्तान आ गईं । मां की उम्मीदों के खिलाफ़ वसीम जाफ़र ने ख़ुद को अपने दादा की कल्चरल और अदबी रवायत से पूरी तरह जोड़ना पसंद किया और उनके इल्म और तौर-तरीक़े को सच्चे दिल से और ज़्यादा से ज़्यादा अपनाया । वसीम जाफ़र ने लंदन विश्वविद्यालय के मशहूर संस्थान School of Oriental and African Studies में कई साल तक तालीम हासिल की और उर्दू-फ़ारसी पर अपनी अच्छी पकड़ बनाई । बोलने की हद तक तो वो बहुत सफ़ाई और रवानी से निहायत बामुहावरा उर्दू बोलते ही थे । बाप से उनकी सारी गुफ़्तगू उर्दू में होती थी । मां के साथ भी वे अंग्रेज़ी-उर्दू मिलाकर ही बोलते थे । अब कॉलेज में जमकर तालीम लेने की वजह से वो बहुत अच्छी और अदबी उर्दू लिखने और समझने भी लगे थे । वज़ीर ख़ानम और उनके ख़ानदान के हालात के बारे में उन्होंने अपने दादा से कु छ कहानियों के रूप में तो कु छ बाप-दादा की बातचीत के जरिए बहुत-कु छ सुना था । उर्दू- फ़ारसी के अलावा उन्हें चित्रकला में भी दिलचस्पी थी । चुनांचे उन्होंने लंदन के मशहूरे- ज़माना Slade School of Art में कई बरस शाम की क्लासों में शिक्षा पाई । फिर उन्हें महसूस हुआ कि उनका असल मैदान मुग़ल तर्ज़ की चित्रकला है । यहां भी उन्होंने बहुत भागदौड़ के बाद अच्छी पकड़ हासिल कर ली और आख़िरकार विक्टोरिया एंड एलबर्ट म्यूज़ियम में वो 19वीं सदी की हिंदुस्तानी (और कं पनी) चित्रकला के विभाग में असिस्टेंट कीपर लग गए । फ़ु र्सत का ज़्यादातर समय वे इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी में 18वीं और 19वीं सदी के काग़ज़ात उलटने-पलटने में गुज़ारते । (अब वह ब्रिटिश लाइब्रेरी का हिस्सा बना दी गई है, लेकिन पुराने लोग उसे अब भी ‘इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी’ के नाम से पुकारते हैं ।) वसीम जाफ़र कई साल से उत्तरी भारत में 18वीं–19वीं सदी के ऐसे कु छ ख़ानदानों और घरानों के हालात ढूंढ़ने में मसरूफ़ थे जो अपने ज़माने में तो बहुत मशहूर थे, लेकिन अब वक़्त ने उन्हें पन्नों के ढेर में दाब दिया था और उनके नाम अब किसी को मालूम थे तो वो चंद विशेषज्ञ इतिहासकार ही थे । उनमें से कु छ तो अंग्रेज़ों की सरपरस्ती में ख़ूब फ़ले-फ़ू ले लेकिन अपने ही निकम्मे वंशजों की वजह से तबाह या गुमनाम हुए और कु छ ऐसे थे जो 1857 से पहले या बाद फ़िरंगी हाकिमों के जुल्मों की तलवार और इंसाफ़नुमा जुल्म के तराज़ू पर तौले गए और हल्के पाए गए । उन्हें उम्मीद थी कि उनकी दास्तान वो कभी क़लमबंद भी कर सकें गे । आज ऐसे घरानों के नाम सिर्फ़ विशेषज्ञ इतिहासकारों को ही मालूम सही, लेकिन अपने वक़्त में ये ख़ानदान इल्म और फ़न ख़ासकर शायरी, चित्रकला और संगीत का गहवारा थे । उनके काग़ज़ात और किताबें अगर देखी जातीं तो हिंद-इस्लामी तहज़ीब के न जाने कितने क़ीमती मोती उनमें छु पे हुए अपनी मौत का इंतज़ार करते हुए नज़र आते । वसीम जाफ़र के सामने चंद नाम थे, जिन पर वो हर वक़्त कु छ न कु छ पढ़ते या ढूंढ़ते रहते थे, बरेली के राजा रत्नसिंह ज़ख़्मी, कड़ा मानिकपुर के राय बालमुकुं द शहूद, बनारस के साहबराम ख़ामोश, बांदा के अली बहादुर ख़ान, फ़र्रु ख़ाबाद के तजम्मुल हुसैन ख़ान, फ़ीरोज़पुर झिरका और लोहारू के शम्सुद्दीन अहमद ख़ान और वज़ीर ख़ानम, ख़ासगंज (कासगंज) के करनैल गार्डनर, उनकी बेगम जो नवाब खंबायत की बेटी थीं, और उनकी बहू जो फ़िरदौस मंज़िल शाह आलम बहादुर शाह सानी की बेटी थीं और शाह अवध की मेहरबानियों और अपने पहले शौहर की ज़्यादतियों पर नफ़रत से भरकर करनैल के बेटे के साथ चली आई थीं, देहली के हुसामुद्दीन हैदर और उनकी औलाद दीवान फ़ज़लुल्लाह ख़ान । वसीम जाफ़र ख़द से पूछते थे कि क्या सियासी वजूहात को अनदेखा करके भी नए हिंदुस्तान की तरक़्क़ी में उन लोगों का पतन लाज़मी था, और अब हम लोग उनसे जितनी दूरी पर हैं, वहां से ये लोग कै से नज़र आते हैं । आज उनके बिंब पर गुजरे ज़माने की स्याह धुंध है या तमन्ना की गुलाबी धुंध? ये लोग अपने बारे में क्या सोचते थे? वो ख़ुद को क्या समझते थे और अपने दौर को किस रोशनी में देखते थे? क्या उन्हें कु छ अंदेशा या ख़्याल था कि उनकी तहज़ीब की चादर इस तरह चीथड़े-चीथड़े होने वाली है कि उनके मूल्यों की व्यवस्था जलते हुए मुल्क का गाढ़ा धुआं बनकर समंदर में घुल जाएगी और उससे जो अलगाव पैदा होगा उसकी खाई में यादें तबाह हो जाएंगी और गुम हो जाएंगी? वसीम जाफ़र को यकीन न था कि वो अपने सवालों के जवाब पा सकें गे । लेकिन वो इसके भी कायल न थे कि गुज़रा हुआ ज़माना एक अजनबी मुल्क है और बाहर से आने वाले उसकी ज़बान नहीं समझ सकते । वो कहते थे कि पुराने लफ़्ज़ों को नए लफ़्ज़ों में बयान किया जा सकता है, बस हमआहंगी और हमआग़ोशी चाहिए । वसीम जाफ़र डॉक्टर ख़लील असग़र, नेत्र रोग विशेषज्ञ, की याददाश्तों से जैसा कि बयान हुआ वसीम जाफ़र का घर लंदन में था । मेरी उनसे कोई रिश्तेदारी नहीं थी, बल्कि पहले से कोई मुलाक़ात भी नहीं थी और न मैं लंदन में रहता हूं । मैंने पिछले साल मौलाना हामिद हसन कादरी के पत्र संग्रह (संपादन: ख़ालिद हसन कादरी) में वसीम जाफ़र के दादा सलीम जाफ़र के ख़ानदानी हालात के बारे में बड़ी दिलचस्पी से पढ़ा ज़रूर था और क़ादरी साहब के यहां सलीम जाफ़र का जिक़्र पढ़ने से पहले मैंने उनकी कई तहरीरें भी देखी थीं । मैं उन्हें देहली, लखनऊ या हैदराबाद का कोई सुरुचिपूर्ण लेखक समझता था, लेकिन सलीम जाफ़र या उनके वंशज अब कहां हैं और कहीं हैं भी या नहीं, इस मामले में मुझे कोई जानकारी न थी । मैं समझता था कि सलीम जाफ़र बुज़ुर्ग आदमी थे, कहीं मर-खप गए होंगे । आम हालात में तो यह होता कि नवाब मिर्ज़ा ख़ान दाग़, और उनके हवाले से उनकी वालिदा वज़ीर बेगम और सलीम जाफ़र के आपसी ताल्लुक़ और वज़ीर बेगम की ग़ैर मामूली ज़िंदगी की बिना पर मुझे उनके बारे में कु रेद होती और मैं सलीम जाफ़र की औलादों का पता लगाने की कोशिश करता । लेकिन उन दिनों मुझे कु छ और ही धुन थी । पिछले साल एक शादी के सिलसिले में मुझे लंदन जाने का मौक़ा मिला । अपने बारे में कु छ ज़्यादा कहने से मुझे तकल्लुफ़ है और जो दास्तान आगे के पन्नों में दर्ज है, उसका मुझसे कोई ताल्लुक़ भी नहीं । लिहाज़ा इतना कहना काफ़ी होगा कि मैं पेशे के लिहाज़ से आंखों का डॉक्टर हूं । शेरो-शायरी का कु छ शौक़ मैं भी रखता हूं, लेकिन अगर मैं पुराने ज़माने में होता तो मुझे नस्साब कहा जाता, इस मानी में कि मुझे ख़ानदानों के हालात मालूम करने, उनके शिजरे बनाने और दूर-दूर के घरानों की कड़ियों से कड़ियां मिलाने का बेहद शौक़ है और अब हालांकि मेरी उम्र बहुत ज़्यादा नहीं है, मैंने डॉक्टरी का पेशा छोड़ दिया है, मेरा ज़्यादातर वक़्त़्त शिजरे बनाने और बनाए हुए शिजरों को और भी व्यापक और पेचीदा बनाने में गुज़रता है । मैंने ऊपर अपनी एक धुन का ज़िक्र किया है । इसे दो धुनें कहूं तो ग़लत न होगा । जिन दिनों मौलाना हामिद हसन कादरी साहब के ख़त मेरी नज़र से गुज़रे, उसी ज़माने में मुझे गोरखपुर में रहने वाले एक पारसी ख़ानदान बोमनजी ख़ुदाईजी का शिजरा दरियाफ़्त और तहरीर करने का ख़्याल पैदा हुआ था । उनके बारे में कहा जाता था कि उनके पूर्वज जमशेद आर्यनपुर को शहंशाह नूरुद्दीन जहांगीर के ज़माने में अंग्रेज़ यात्री टॉम कोरियेट अपने मार्गदर्शन के लिए सूरत के इलाक़े से अपने साथ लाया था । कोरियेट ने यूरोप और एशिया में हज़ारों कोस पैदल सफ़र किया था और आख़िरकार जहांगीर के दरबार के साथ आगरा से अजमेर होता हुआ सिंध के रास्ते तुर्किस्तान और चीन की तरफ़ निकल गया था । कोरियेट को तो जहांगीर के दरबार से कु छ न मिला, लेकिन जमशेद आर्यनपुर की किसी बात पर ख़ुश होकर उसे शाही तख़्त से अवध के इलाक़े गोरखपुर में शराब और जंगलाती पैदावार, ख़ासकर शहद और बंसलोचन का कारोबार करने का इजाज़तनामा जारी कर दिया गया था । मशहूर था कि वर्तमान काल के तंबाकू और शराब के कारोबारी बोमनजी ख़ुदाईजी का ख़ानदान इन्हीं जमशेद आर्यनपुर का वंशज था । एक दूसरी चीज़ जिसकी मुझे उस वक़्त कु रेद थी, उसका ताल्लुक़ ख़ुद मेरे लोगों से था । यह बात अक्सर लोगों को मालूम है कि हिंदुस्तान के सूफ़ियों और अल्लाहवालों में सैयदों की तादाद सबसे ज़्यादा है, लेकिन कम लोगों को यह बात मालूम है कि अब्दुल मुत्तलिब की औलाद के बाद हिंद के सूफ़ियों की बड़ी तादाद ख़त्ताब के ख़ानदान से है और यह बात भी सिर्फ़ इतिहासकारों को पता है कि सैयद, तुर्क और पठान शासक तो यहां ढेरों हुए हैं, लेकिन फ़ारसियों के सिर्फ़ एक ख़ानदान ने हिंदुस्तान के किसी इलाक़े में हुकू मत की है । बुरहानपुर की फ़ारूक़ी रियासत की बुनियाद मलिक राजा फ़ारूक़ी ने सन 1397 में रखी थी और उसकी औलाद ने दो सदियों से कु छ ऊपर बुरहानपुर और ख़ानदेश पर हुकू मत की । आख़िरकार जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर के चढ़ते इकबाल के सूरज और उसकी सेना ने 1601 में इस घराने का चिराग़ गुल कर दिया । सल्तनत के ख़ात्मे के बाद बुरहानपुर के फ़ारूक़ियों का जिक्र तारीख़ से कु छ यूं भुला दिया गया, गोया मैदाने जंग की गर्द के छंटने के साथ-साथ उनका नाम भी आसमान की गहराइयों में घुल गया हो । बुरहानपुर के फ़ारूक़ियों की बात मुझे बिल्कु ल इत्तफ़ाक से मालूम हुई और तब से मुझे यह धुन (अपरिपक्व विचार कह लीजिए) लग गई कि इस बात का पता लगाया जाए कि हुकू मत जाने के बाद बुरहानपुर के फ़ारूक़ियों पर क्या गुजरी । हालांकि हम आज़मगढ़ के फ़ारूक़ियों का ख़ानदान तो आम यक़ीन के मुताबिक़ मलिक राजा के भी पहले से, यानी फ़ीरोज़ तुग़लक़ के आख़री दिनों (1388) से इन इलाक़ों में आबाद था, लेकिन क्या पता हमारे पूर्वजों का कु छ रिश्ता बुरहानपुरी फ़ारूक़ियों से भी रहा हो या अकबर के ज़माने के बाद बन गया हो । मुझे दोनों ही मंसूबों में कु छ कामयाबी न हुई थी और न ही मुझे इसकी सूरत नज़र आती थी, लेकिन शादी में शामिल होने के लिए लंदन जाने को मैंने दरअसल अपनी तलाश को फ़ै लाने का बहाना बना लिया और शादी की रस्मों के दूसरे ही दिन से मैंने इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी एंड रिकॉर्ड्स में ज़रूरी कार्रवाई के बाद उसके रीडिंग रूम में बैठने, फ़हरिस्तों और किताबों, और उनके अलावा अहम अंग्रेज़ अफ़सरों के ख़ानदानी काग़ज़ात और दस्तावेज़ों को पढ़ने की सहूलत का इंतज़ाम कर लिया । निचली मंज़िल के बड़े हॉल में एक कोना, एक कं प्यूटर, एक छोटा सा डेस्क, किताबों-काग़ज़ों के लिए एक छोटा सा, खुला शेल्फ़ भी मुझे दे दिया गया कि वहां अपने काम के बीच मुझे ज़रूरी सहूलियतें हासिल रहें । इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी और रिकॉर्ड अब ब्रिटिश म्यूज़ियम का हिस्सा बना दिए गए हैं और म्यूज़ियम से लाइब्रेरी को अलग करके इस नई इकाई को ‘ब्रिटिश लाइब्रेरी’ का नाम दे दिया गया है । एक ज़माने में ब्रिटिश म्यूज़ियम में पैसे की तंगी बहुत थी । अब यह तंगी एक हद तक दूर हो रही है, क्योंकि बर्नार्ड शॉ ने अपनी बेपनाह दौलत का बड़ा हिस्सा ब्रिटिश म्यूज़ियम के लिए वक़्फ़ कर दिया था । उस वक़्त ब्रिटिश म्यूज़ियम और लाइब्रेरी एक ही थे, इसलिए बर्नार्ड शॉ के वक़्फ़ की आमदनी का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा लाइब्रेरी के ख़र्च के काम आता था । लेकिन जब इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी और रिकॉर्ड को ब्रिटिश लाइब्रेरी में मिला दिया गया तो ब्रिटिश म्यूज़ियम ने एक मुद्दा उठाया कि बर्नार्ड शॉ की विरासत इंडिया ऑफ़िस के लिए तो थी ही नहीं, लिहाज़ा अब यह नई बनी ब्रिटिश लाइब्रेरी इस बात का हक़ नहीं रखती कि बर्नार्ड शॉ की विरासत से उसे कु छ मिले । आपसी झगड़ों ने क़ानूनी शक्ल इख़्तियार कर ली और ब्रिटिश लाइब्रेरी का मुश्किल दौर और लंबा होता गया । अब कु छ दिन हुए मामला ख़ूबसूरती से निबट चुका है तो लाइब्रेरी की परेशानियां कु छ दूर हुई हैं । पेंसिल, काग़ज़, टेलीफ़ोन, काम करने के लिए आरामदेह कु र्सियां, आसानी से समझ में आ जाने वाले कं प्यूटर कै टलॉग सब मुहैया हैं । पहले यह सब कु छ न था । दाम भी ज़्यादा नहीं हैं । हां, अब भी हर चीज़ के लिए इंतज़ार बहुत करना पड़ता है और अक्सर पुराने दस्तावेजों और ख़ानदानी काग़ज़ों, जिनमें से कु छ की हालत काफ़ि ख़स्ता होती है, उन्हें ढूंढ़ने और अंदर से निकलवाने में देर अब भी लगती है । मैंने ग्रेट वेस्ट रसेल स्ट्रीट की एक म्यूज़ में एक कमरा ले लिया था जो मेरी ज़रूरतों के लिए काफ़ि था । जानकारी के लिए अर्ज कर रहा हूं कि म्यूज़ किसी मुहल्ले का नाम नहीं । अच्छे मकान यहां आम रास्तों पर लबे-सड़क होते हैं । ऐसे मकानों के पीछे एक तंग सी गली होती है, जिनमें इन मकानों के गैराज (पहले समय में कै रिज हाउस) बने होते हैं । इन्हें म्यूज़ कहा जाता है । बाद में कु छ लोगों ने गाड़ीख़ाने को शागिर्दपेशा बना लिया तो जिन घरों में शागिर्दपेशा का इंतज़ाम घर के अंदर ही था, उन्होंने अपने म्यूज़ को गैराज बना लिया और कु छ ने उन्हें अपेक्षाकृ त सस्ते किराए पर नौजवानों के लिए एक कमरे का फ़्लैट बना दिया । सैंट्रल लंदन के इलाक़े में ये म्यूज़ बेहद लोकप्रिय और सम्मानजनक रिहाइश का दर्जा रखते थे । यह मेरी बस ख़ुशनसीबी थी कि मुझे एक बहुत अच्छा म्यूज़ फ़्लैट वाजिब किराए पर मिल गया था । ब्रिटिश लाइब्रेरी यहां से पैदल बमुश्किल बीस मिनट के फ़ासले पर थी । चारों तरफ़ खाने और चाय वग़ैरा की दुकानें भी काफ़ी थीं । हिंदुस्तानी दुकानें तो कम थीं, लेकिन गोआ का चिकन विंदालू, पंजाब का दम आलू और ‘मुग़लई ग्रिल्ड चिकन टिक्का’ वहां कु छ रेस्तरांओं में मिल जाते थे । मैंने उन्हीं दिनों मशहूर समकालीन अंग्रेज़ आलोचक और उपन्यासकार पीटर ऐक्रायड का एक बयान पढ़ा था कि चिकन विंदालू ने तो अब मछली और आलू के क़तले को अंग्रेज़ों के क़ौमी खाने के दर्जे से हटाकर उनकी जगह ख़ुद ले ली है । ब्रिटिश लाइब्रेरी जाते हुए मुझे अभी दो-चार दिन ही हुए थे कि मुझे वो साहब दिखाई दे गए, जिनके बारे में मालूम हुआ कि वो वी-एंड ए-के 19वीं सदी के मुग़ल चित्रकला विभाग में और कं पनी चित्रकला विभाग में भी असिस्टेंट कीपर हैं । मैंने तो उन्हें कु छ घबराया हुआ सा, जल्दी में सीढ़ियां चढ़ता हुआ, अपने ख़्यालों में गुम, दुबला-पतला लंबा शरीर, निहायत गोरे लेकिन कजलाए हुए रंग, बड़े-बड़े सफ़े द बालों और हल्की सफ़े द मूंछों वाला शख़्स देखा जो हर मौसम में ऊनी टोपी पहनता था । उनके दोनों हाथों में ब्रीफ़के स होते । एक में तो काग़ज़ात, क़लम-पेंसिल, डायरी, याददाश्तें, एकाध किताब, चेकबुक, प्लास्टिक (यानी क्रे डिट कार्ड वगैरा) होते, लेकिन दूसरे ब्रीफ़के स का हाल किसी को मालूम न था । शायद कु छ खाने का सामान रखते हों । लेकिन खाना तो वो हमेशा ट्रफ़ै ल्गर स्क्वेयर के पास एक यूनानी रेस्तरां में खाते थे । मेरा ख़्याल था कि उसमें दवाएं होंगी, क्योंकि वो मुझे हमेशा कु छ बीमार से लगते थे । जब मैंने उन्हें पहली बार देखा तो गुमान हुआ था कि ये अंग्रेज़ों के वक़्त के कोई पुराने लिपि-विशेषज्ञ या पुरानी पांडुलिपियों के पढ़ने में माहिर कोई मुंशी किस्म के हिंदुस्तानी होंगे, जो मुल्क की आज़ादी के बाद भी ब्रिटिश म्यूज़ियम छोड़कर इसलिए वापस नहीं गए होंगे कि घर पर उनका कोई नहीं था । वो शेरवानी पहनते या सूट, दोनों ही ढीले-ढाले और कु छ मलगजे रंगों के होते थे । कपड़ा हमेशा क़ीमती लेकिन ज़रा लापरवाही से पहना गया लगता था । जूते, हैट, छड़ी, छाता सब निहायत क़ीमती और फ़ै शन के मुताबिक, लेकिन साफ़ मालूम होता था कि पहनने वाले को इस बारे में कु छ ख़ास ख़्याल नहीं है कि कपड़े में शिकन न हो, सफ़ाई और मेहनत से ब्रश किए गए हों, उन पर कोई दाग़-धब्बा न हो । वो ग्रेट वेस्ट रसेल स्ट्रीट पर ब्रिटिश लाइब्रेरी के एक बस स्टॉप पहले बस से उतरते, नुक्कड़ वाले अख़बारी लड़के (वहां अख़बार बेचने वाले को न्यूजबॉय कहते हैं, चाहे वह बूढ़ा क्यों न हो) से इंटरनेशनल हैराल्ड ट्रिब्यून नाम का अंतरराष्ट्रीय अख़बार ख़रीदते और उसे बग़ल में दाबकर ब्रिटिश म्यूज़ियम की तरफ़ पैदल चल देते । एक दिन बिल्कु ल इत्तफ़ाक़ से लिफ़्ट में मेरा-उनका साथ हो गया तो मैंने उन्हें ‘सलाम- अलैकु म’ कहा । उन्होंने निहायत गर्मजोशी से जवाब दिया, हालांकि मुझे उनकी उम्र और चाल-ढाल को देखते हुए उनसे किसी गर्मजोशी की उम्मीद न थी । आज मैंने उन्हें ग़ौर से देखा तो महसूस हुआ कि उनका ढीला-ढाला सूट महज़ दर्ज़ी की या पहनने वाले की लापरवाही या बहुत ज़्यादा उम्र के सबब न था, बल्कि असल में वो ख़ुद बहुत दुबले थे और उनके बदन की जिल्द उनकी गर्दन, हाथों और चेहरे पर बेहद खुश्क और सख़्ती से खिंची हुई मालूम होती थी गोया अंदर का गोश्त गल गया हो और जिल्द को हड्डियों पर किसी न किसी तरह मढ़ दिया गया हो और अगर उसे हाथ से छु एंगे तो काग़ज़ की सी खरखराहट सुनाई देगी । छड़ी लिए उनके हाथ की कलाई किसी बच्चे की कलाई मालूम होती थी । मुझे ‘मीर’ का शेर याद आया तेरा है वहम कि ये नातवां है जामे में वगरना मैं नहीं, अब इक ख़्याल अपना हूं मैं इन्हीं ख़्यालों में था कि लिफ़्ट रुकी और हम दोनों साथ ही बाहर निकले । सामने से गुजरती हुई सेक्रे टरी लड़कियों ने इंतेहाई ख़ुशमिज़ाजी से ‘गुड मॉर्निंग डॉक्टर’ या ‘गुड मॉर्निंग वसीम’ वगैरा कहा जिससे मुझे मालूम हुआ कि ये साहब यहां बहुत जाने-पहचाने हैं और इनका नाम वसीम है, पूरा नाम वसीम अहमद, वसीम अख़्तर वग़ैरा होगा । लिफ़्ट से निकलकर वो कु छ मुस्कु राकर, “अच्छा, सलाम अलैकु म, इंशाअल्लाह फिर मिलेंगे,” कहते हुए दाईं तरफ़ की राहदारी में मुड़ गए । मैं सामने के हॉल में अपनी तयशुदा सीट पर पहुंचा तो मुझे यह देखकर थोड़ी हैरत और ख़ुशी हुई कि कल शाम जिन किताबों और काग़ज़ात का ऑर्डर फ़ार्म मैं जमा कर गया था, वो सब मेरे आने से पहले ही मेरी शेल्फ़ पर रख दिए गए थे । दस्तावेज ज़्यादातर 1661 के बाद के थे, जब मुंबई के टापू को पुर्तगाली हुकू मत ने अंग्रेज़ कं पनी के हाथ बेच दिया था । यहूदी और पारसी वहां मुद्दतों से आबाद थे और उनके बारे में कु छ मालूमात मुंबई के बौद्ध भिक्षुओं और शिक्षा संस्थानों के संस्मरणों में दर्ज थीं, लेकिन उनमें आपस में मेल न था । 17वीं सदी के आख़री बरसों में अंग्रेज़ों ने मुंबई में म्यूनिसिपैलिटी क़ायम की और उसके बाद के दस्तावेज़ और काग़ज़ात कमोबेश मुसलसल बस्तों या बक्सों में महफ़ू ज़ थे और अच्छी हालत में थे । मैं अपने काग़ज़ों की छानबीन में लग गया । लंच मैं खाता न था, इसलिए वक़्त के गुज़रने का अंदाज़ा उसी वक़्त हुआ जब मेरे पास बैठे पढ़ने वाले आहिस्ता-आहिस्ता उठकर जगह ख़ाली करने लगे । मैं भी उठा तो मुझे ख़्याल आया कि वसीम साहब शायद अभी मौजूद हों, उनसे मिलना मुमकिन होता तो ख़ूब था । इस लक़दक़ लाइब्रेरी में एक-दो अपनी जैसी सूरतों के मिल जाएं तो बहुत गनीमत मालूम होता है । लेकिन वो शायद अभी अंदर ही थे या पहले ही उठ गए थे । ख़ैर, कभी और सही, मैंने अपने दिल में ख़्याल किया । अगले दिन इतवार था, टेम्स नदी के किनारे थिएटरों के सामने पुरानी किताबों का बाज़ार लगेगा, वहां अव्वल वक़्त जाऊं गा तो किताबों में दिन अच्छा गुज़र जाएगा । शायद कोई चीज़ मेरे मतलब की भी मिल जाए । उस इतवार को पुरानी किताबों के अलावा पुरानी चित्रकला के नमूनों और पुराने नक़्शों की भी कु छ दुकानें वहां नज़र आईं । ज़ाहिर है कि कोई दुर्लभ चीज़ या कोई ऊं चे दर्जे की तस्वीर हासिल होना नामुमकिन था । ज़्यादातर सामान पुरानी तस्वीरों की प्रकाशित नक़लों पर आधारित था । लेकिन 18वीं सदी की अंग्रेज़ी पत्रिकाओं के फ़टे-पुराने चित्रमय पन्ने मिल रहे थे, और बहुत कम दामों पर मिल रहे थे । एक जगह मुझे जनवरी 1772 की The Gentleman's मैगजीन का एक पन्ना सिर्फ़ दस पौंड में मिल गया । पन्ने पर तारीख़ और रिसाले का नाम साफ़ नज़र आता था । पन्ने पर दो जानवरों की सफ़े द-काली तस्वीरें थीं । एक को जिराफ़ बतलाया गया था और दूसरे को चीनी हिरन लिखा था । हालांकि तस्वीरें बहुत दुरुस्त न थीं, लेकिन उनकी छपाई अब भी बहुत रोशन थी और काग़ज़ पर ज़रा सा पानी लगने का निशान था । मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई कि कहीं किसी कै लेंडर की ख़ाली ट्यूब मिल जाए तो मैं उसमें इस पन्ने को लपेट लूं । पास ही में एक बड़े मियां पुराने नक़्शों का अंबार लगाए बैठे थे । मैं उधर मुड़ा तो एक जानी-पहचानी सूरत दिखाई दी । ये वसीम साहब थे और एक छोटे से नक़्शे को तरह-तरह से उलट-पलटकर, घुमा-घुमाकर, रोशनी को पीछे रखकर देख रहे थे । “सलाम अलैकु म, जनाबे-आली,” मैंने उनके पास जाकर खुश होते हुए कहा । “अच्छी मुलाकात हुई ।” उन्होंने ऐनक के पीछे से मुझे घूरा । उनके माथे पर शिकनें थीं, शायद इसलिए कि वो उस नक़्शे को ग़ौर से देख रहे थे, या शायद इसलिए कि मेरी दख़लअंदाज़ी उन्हें बुरी लगी थी । लेकिन बाद में मालूम हुआ कि असल बात यह थी कि वो मुझे पहली नज़र में पहचान न सके थे । “अख़्ख़ाह, आप हैं! यहां कै से आ निकले...? लेकिन माफ़ कीजिएगा, अभी आपसे परिचय तो हुआ ही नहीं, कल आपको वहां देखा ज़रूर था ।” उनकी आवाज़ फ़ं सी हुई थी, गोया हलक़ पर बहुत सा बलग़म जमा हो । उनकी सांस भी बहुत छिछली थी, मालूम होता था कि सांस उनके पेट में समा न रही हो । “जी, माफ़ी चाहता हूं । ये कोताही मेरी है । आपका इस्मे-गिरामी वसीम है और आप वी.एंड ए. में...” “जी हां, मुझे वसीम जाफ़र कहते हैं । वी.एंड ए. की बात छोड़िए, अपने बारे में फ़रमाइए ।” “जनाब, मेरा नाम ख़लील असग़र फ़ारूक़ी है । नेत्र रोग विशेषज्ञ था, अब प्रैक्टिस छोड़कर अपने शौक़ का काम करता हूं ।” “बहुत ख़ूब,” वो खांसते हुए बोले । “इंसान अपना शौक़ पूरा करे तो इससे बढ़कर क्या चाहिए । फ़ु र्सत हो, अपना शौक़ हो और ख़ुशगवार घर का ख़ामोश गोशा हो, सुब्हानल्लाह ।” मुझे एकाएक ख़्याल आया, वसीम जाफ़र...? लेकिन मिर्ज़ा ?

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