शिरीष के फूल PDF
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हजारी प्रसाद द्विवेदी
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यह दस्तावेज़ हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखा गया एक हिन्दी गद्य का हिस्सा है। इसमें शिरीष के पेड़ का विस्तार से वर्णन, साहित्यिक विश्लेषण और लेखक की जानकारी दी गई है।
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गद्य भाग-शिरीष के फूल हजारी प्रसाद द्रवििेदी लेखक पररचय जीवन पररचय – हजारी प्रसाद द्रवििेदी का जन्म उत्तर प्रदे श के बलिया जजिे के एक गााँि आरत दब ू े का छपरा में सन 1907 में हुआ था। इन्होंने काशी के संस्कृ त महाविद्य...
गद्य भाग-शिरीष के फूल हजारी प्रसाद द्रवििेदी लेखक पररचय जीवन पररचय – हजारी प्रसाद द्रवििेदी का जन्म उत्तर प्रदे श के बलिया जजिे के एक गााँि आरत दब ू े का छपरा में सन 1907 में हुआ था। इन्होंने काशी के संस्कृ त महाविद्यािय से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करके सन 1930 में काशी हहं द ू विश्वविद्यािय से ज्योलतषाचायण की उपालि प्राप्त की। इसके बाद ये शांलतलनकेतन चिे गए। िहााँ 1950 तक ये हहं दी भिन के लनदे शक रहे । तदनंतर ये काशी हहं द ू विश्वविद्यािय में हहं दी विभाग के अध्यक्ष बने। हिर सन 1960 में पंजाब विश्वविद्यािय, चंडीगढ़ में इन्होंने हहं दी विभागाध्यक्ष का पद ग्रहर् हकया। इनकी ‘आिोक पिण’ पुस्तक पर साहहत्य अकादमी द्वारा इन्हें पुरस्कृ त हकया गया। िखनऊ विश्वविद्यािय ने इन्हें डी०लिट् की मानद उपालि प्रदान की और भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषर् से अिंकृत हकया। द्विेदी जी संस्कृ त, प्राकृ त, बांग्िा आहद भाषाओं के ज्ञाता थे। दशणन, संस्कृ लत, िमण आहद विषयों में इनकी विशेष रुलच थी। इनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृ लत की गहरी पैठ और विषय-िैविध्य के दशणन होते हैं । ये परं परा के साथ आिुलनक प्रगलतशीि मूल्यों के समन्िय में विश्वास करते थे। इनकी मृत्यु सन 1979 में हुई। रचनाएँ – इनकी रचनाएाँ लनम्नलिजखत हैं – 1. लनबंि-संग्रह-अशोक के िूि, कल्पिता, विचार और वितकण, कुटज, विचार-प्रिाह, आिोक- पिण, प्राचीन भारत के किात्मक विनोद। 2. उपन्यास-बार्भट्ट की आत्मकथा, चारुचंद्रिेख, पुननणिा, अनामदास का पोथा। 3. आिोचना-साहहत्यैलतहास-सूर साहहत्य, कबीर, मध्यकािीन बोि का स्िरूप, नाथ संप्रदाय, कालिदास की िालित्य योजना, हहं दी-साहहत्य का आहदकाि, हहं दी-साहहत्य की भूलमका, हहं दी-साहहत्य : उद्भि और विकास। 4. ग्रंथ-संपादन-संदेश-रासक, पृथ्िीराज रासो, नाथ-लसद्धों की बालनयााँ। 5. संपादन-विश्व भारती पविका (शांलत-लनकेतन)। साहित्ययक वविेषताएँ – आचायण हजारी प्रसाद द्रवििेदी का साहहत्य भारतिषण के सांस्कृ लतक इलतहास को दशाणता है । ये ज्ञान को बोि और पांहडत्य की सहृदयता में ढािकर एक ऐसा रचना-संसार हमारे सामने उपजस्थत करते हैं जो विचार की तेजजस्िता, कथन के िालित्य और बंि की शास्त्रीयता का संगम है । इस प्रकार इनमें एक साथ कबीर, रिींद्रनाथ ि तुिसी एकाकार हो उठते हैं । इसके बाद, उससे जो प्रार्िारा िूटती है , िह िोकिमी रोमैंहटक िारा है जो इनके उच्च कृ लतत्ि को सहजग्राहय बनाए रखती है । इनकी सांस्कृ लतक दृवि जबरदस्त है । उसमें इस बात पर विशेष बि है हक भारतीय संस्कृ लत हकसी एक जालत की दे न नहीं, बजल्क समय-समय पर उपजस्थत अनेक जालतयों के श्रेष्ठ सािनांशों के ििर्-नीर संयोग से उसका विकास हुआ है । उसकी मूि चेतना विराट मानितािाद है । भाषा-िैली – िेखक की भाषा तत्सम-प्रिान है । इनकी रचनाओं में पांहडत्य-प्रदशणन की अपेक्षा सहजता ि सरिता है । तत्सम शब्दाििी के साथ इन्होंने तद्भि, दे शज, उदण -ू फारसी आहद भाषाओं का प्रयोग हकया है । इन्होंने अपने लनबंिों में विचारात्मक, भािात्मक, व्यंग्यात्मक शैलियों को अपनाया है । पाठ का प्रशतपादय एवं सारांि प्रशतपादय – ‘शिरीष के फूल’ शीषणक लनबंि ‘कल्पलता’ से उद्धत ृ है । इसमें िेखक ने आाँिी, िू और गरमी की प्रचंडता में भी अििूत की तरह अविचि होकर कोमि पुष्पों का सौंदयण वबखेर रहे लशरीष के माध्यम से मनुष्य की अजेय ज़िजीविषा और तुमुि कोिाहि किह के बीच िैयप ण ूिक ण , िोक के साथ लचंतारत, कतणव्यशीि बने रहने को महान मानिीय मूल्य के रूप में स्थावपत हकया है । ऐसी भाििारा में बहते हुए उसे दे ह-बि के ऊपर आत्मबि का महत्ि लसद्ध करने िािी इलतहास-विभूलत गांिी जी की याद हो आती है तो िह गांिीिादी मूल्यों के अभाि की पीडा से भी कसमसा उठता है । लनबंि की शुरुआत में िेखक लशरीष पुष्प की कोमि सुंदरता के जाि बुनता है , हिर उसे भेदकर उसके इलतहास में और हिर उसके जररये मध्यकाि के सांस्कृ लतक इलतहास में पैठता है , हिर तत्कािीन जीिन ि सामंती िैभि-वििास को साििानी से उकेरते हुए उसका खोखिापन भी उजागर करता है । िह अशोक के िूि के भूि जाने की तरह ही लशरीष को नजरअंदाज हकए जाने की साहहजत्यक घटना से आहत है । इसी में उसे सच्चे कवि का तत्त्ि- दशणन भी होता है । उसका मानना है हक योगी की अनासक्त शून्यता और प्रेमी की सरस पूर्त ण ा एक साथ उपिब्ि होना सत्कवि होने की एकमाि शतण है । ऐसा कवि ही समस्त प्राकृ लतक और मानिीय िैभि में रमकर भी चुकता नहीं और लनरं तर आगे बढ़ते जाने की प्रेरर्ा दे ता है । सारांि – िेखक लशरीष के पेडों के समूह के बीच बैठकर िेख लिख रहा है । जेठ की गरमी से िरती जि रही है । ऐसे समय में लशरीष ऊपर से नीचे तक िूिों से िदा है । कम ही िूि गरमी में जखिते हैं । अमितास केिि पंद्रह-बीस हदन के लिए िूिता है । कबीरदास को इस तरह दस हदन िूि जखिना पसंद नहीं है । लशरीष में िूि िंबे समय तक रहते हैं । िे िसंत में जखिते हैं तथा भादों माह तक िूिते रहते हैं । भीषर् गरमी और िू में यही लशरीष अििूत की तरह जीिन की अजेयता का मंि पढ़ाता रहता है । लशरीष के िृक्ष बडे ि छायादार होते हैं । पुराने रईस मंगि-जनक िृक्षों में लशरीष को भी िगाया करते थे। िात्स्यायन कहते हैं हक बगीचे के घने छायादार िृक्षों में ही झूिा िगाना चाहहए। पुराने कवि बकुि के पेड में झूिा डािने के लिए कहते हैं , परं तु िेखक लशरीष को भी उपयुक्त मानता है । लशरीष की डािें कुछ कमजोर होती हैं , परं तु उस पर झूिनेिालियों का िजन भी कम ही होता है । लशरीष के िूि को संस्कृ त साहहत्य में कोमि माना जाता है । कालिदास ने लिखा है हक लशरीष के िूि केिि भौंरों के पैरों का दबाि सहन कर सकते हैं , पजक्षयों के पैरों का नहीं। इसके आिार पर भी इसके िूिों को कोमि माना जाने िगा, पर इसके ििों की मजबूती नहीं दे खते। िे तभी स्थान छोडते हैं , जब उन्हें िहकया हदया जाता है । िेखक को उन नेताओं की याद आती है जो समय को नहीं पहचानते तथा िक्का दे ने पर ही पद को छोडते हैं । िेखक सोचता है हक पुराने की यह अलिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते साििान हो जाती। िृद्धािस्था ि मृत्यु-ये जगत के सत्य हैं । लशरीष के िूिों को भी समझना चाहहए हक झडना लनजित है , परं तु सुनता कोई नहीं। मृत्यु का दे िता लनरं तर कोडे चिा रहा है । उसमें कमजोर समाप्त हो जाते हैं । प्रार्िारा ि काि के बीच संघषण चि रहा है । हहिने-डु िने िािे कुछ समय के लिए बच सकते हैं । झडते ही मृत्यु लनजित है । िेखक को लशरीष अििूत की तरह िगता है । यह हर जस्थलत में ठीक रहता है । भयंकर गरमी में भी यह अपने लिए जीिन-रस ढू ाँ ढ़ िेता है । एक िनस्पलतशास्त्री ने बताया हक यह िायुमंडि से अपना रस खींचता है तभी तो भयंकर िू में ऐसे सुकुमार केसर उगा सका। अििूतों के मुाँह से भी संसार की सबसे सरस रचनाएाँ लनकिी हैं । कबीर ि कालिदास उसी श्रेर्ी के हैं । जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो िक्कड नहीं बन सका, जजससे िेखा-जोखा लमिता है , िह कवि नहीं है । कर्ाणट-राज की वप्रया विजज्जका दे िी ने ब्रहमा, िाल्मीहक ि व्यास को ही कवि माना। िेखक का मानना है हक जजसे कवि बनना है , उसका िक्कड होना बहुत जरूरी है । कालिदास अनासक्त योगी की तरह जस्थर-प्रज्ञ, विदग्ि प्रेमी थे। उनका एक-एक श्लोक मुग्ि करने िािा है । शकुंतिा का िर्णन कालिदास ने हकया। राजा दष्ु यंत ने भी शंकुतिा का लचि बनाया, परं तु उन्हें हर बार उसमें कमी महसूस होती थी। कािी दे र बाद उन्हें समझ आया हक शकुंतिा के कानों में लशरीष का िूि िगाना भूि गए हैं । कालिदास सौंदयण के बाहरी आिरर् को भेदकर उसके भीतर पहुाँचने में समथण थे। िे सुख- दख ु दोनों में भाि-रस खींच लिया करते थे। ऐसी प्रकृ लत सुलमिानंदन पंत ब रिींद्रनाथ में भी थी। लशरीष पक्के अििूत की तरह िेखक के मन में भािों की तरं गें उठा दे ता है । िह आग उगिती िूप में भी सरस बना रहता है । आज दे श में मारकाट, आगजनी, िूटपाट आहद का बिंडर है । ऐसे में क्या जस्थर रहा जा सकता है ? लशरीष रह सका है । गांिी जी भी रह सके थे। ऐसा तभी संभि हुआ है जब िे िायुमंडि से रस खींचकर कोमि ि कठोर बने। िेखक जब लशरीष की ओर दे खता है तो हूक उठती है -हाय, िह अििूत आज कहााँ है ! िब्दार्थ धररत्री – पृथ्िी। शनधूम – िुआाँ रहहत। कत्णथकार – कनेर या कलनयार नामक िूि। आरवग्ध – अमितास नामक िूि। लिकना – जखिना। खखड़ – ढू ाँ ठ, शुष्क। दम ु दार –पूाँछिािा। लडू रे – पूाँछविहीन। शनधात – वबना आघात या बािा के। उसस – गमी। लू – गमण हिाएाँ। कालजयी – समय को पराजजत करने िािा। अवधूत – सांसाररक मोहमाया से विरक्त मानि। शनतांत – पूरी तरह से। हिल्लोल – िहर। अररष्ठ – रीठा नामक िृक्ष। पुन्नाग – एक बडा सदाबहार िृक्ष। घनमसृण – गहरा लचकना। िरीशतमा – हररयािी। पररवेहित – ढाँ का हुआ। कामसूत्र – िात्स्यायन के ग्रंथ का नाम। बकुल – मौिलसरी का िृक्ष। दोला – झूिा। तुहदल – तोंद िािा। यरवती – बाद के। समररत – पत्तों की खडखडाहट की ध्िलन से युक्त। जीण – िटा- पुराना। ऊध्वमुखी – प्रगलत कृ ी ओर अग्रसर। दरु ं त – जजसका विनाश होना मुजककि है । सवथव्यापक – हर जगह व्याप्त। कालात्ग्न – मृत्यु की आग। िज़रत – श्रीमान, (व्यंग्यात्मक स्िर)। अनासक्त – विषय-भोग से ऊपर उठा हुआ। अनाववल – स्िच्छ। उन्मुक्त – द्वं द्व रहहत, स्ितंि। यक्कड़ – सांसाररक मोह से मुक्त। कयाहि – प्राचीनकाि का कनाणटक राज्य। उयालभ – उिाहना। त्थर्रप्रज्ञता – अविचि बुद्ध की अिस्था। ववदग्ध – अच्छी तरह तपा हुआ। मुग्ध – आनंहदत। ववथमयववमूढ़ – आियणचहकत। कापण्य – कंजूसी। गडथर्ल – गाि। िरच्चंद्र – शरद ऋतु का चंद्रमा। िुभ्र – श्वेत। मृणाल – कमिनाि। कृ वषवल – हकसान। शनदशलत – भिीभााँलत लनचोडा हुआ। द्वक्षुदड – गन्ना (ताजा) । अभ्र भेद – गगनचुब ं ी। गतव्य – िक्ष्य। खून-खच्चर – िडाई-झगडा। िूक – िेदना। अर्थग्रिण संबंधी प्रश्न शनम्नशलत्खत गदयांिों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीत्जए – प्रश्न: 1. िेखक कहााँ बैठकर लिख रहा है ? िहााँ कैसा िातािरर् हैं ? उत्तर- िेखक लशरीष के पेडों के समूह के बीच में बैठकर लिख रहा है । इस समय जेठ माह की जिाने िािी िूप पड रही है तथा सारी िरती अजग्नकुंड की भााँलत बनी हुई है । 2. िेखक लशरीष के िूि की क्या विशेषता बताता हैं ? उत्तर- लशरीष के िूि की यह विशेषता है हक भयंकर गरमी में जहााँ अलिकतर िूि जखि नहीं पाते, िहााँ लशरीष नीचे से ऊपर तक िूिों से िदा होता है । ये िूि िंबे समय तक रहते हैं । 3. कबीरदास को कौन-से िूि पसंद नहीं थे तथा क्यों? उत्तर- कबीरदास को पिास (ढाक) के िूि पसंद नहीं थे क्योंहक िे पंद्रह-बीस हदन के लिए िूिते हैं तथा हिर खंखड हो जाते हैं । उनमें जीिन-शवक्त कम होती है । कबीरदास को अल्पायु िािे कमजोर िूि पसंद नहीं थे। 4. लशरीष हकस ऋतु में िहकता है ? उत्तर- लशरीष िसंत ऋतु आने पर िहक उठता है तथा आषाढ़ के महीने से इसमें पूर्ण मस्ती होती है । कभी-कभी िह उमस भरे भादों मास तक भी िूिता है । 5. अििूत हकसे कहते हैं ? लशरीष को कािजयी अििूत क्यों कहा गया हैं ? उत्तर – ‘अििूत’ िह है जो सांसाररक मोहमाया से ऊपर होता है । िह संन्यासी होता है । िेखक ने लशरीष को कािजयी अििूत कहा है क्योंहक िह कहठन पररजस्थलतयों में भी ििता- िूिता रहता है । भयंकर गरमी, िू, उमस आहद में भी लशरीष का पेड िूिों से िदा हुआ लमिता है । 6. ‘लनतांत ठू ाँ ठ’ से यहााँ क्या तात्पयण है ? िेखक स्ियं को लनतांत ठू ाँ ठ क्यों नहीं मानता ? उत्तर-‘लनतांत ढू ाँ ठ’ का अथण है -रसहीन होना। िेखक स्ियं को प्रकृ लत-प्रेमी ि भािुक मानता है । उसका मन भी लशरीष के िूिों को दे खकर तरं लगत होता है । 7. लशरीष जीिन की अजेयता का मत्रं कैसे प्रचाररत करता रहता है ? उत्तर- लशरीष के पेड पर िूि भयंकर गरमी में आते हैं तथा िंबे समय तक रहते हैं । उमस में मानि बेचन ै हो जाता है तथा िू से शुष्कता आती है । ऐसे समय में भी लशरीष के पेड पर िूि रहते हैं । इस प्रकार िह अििूत की तरह जीिन की अजेयता का मंि प्रचाररत करता है । 8.आशय स्पि कीजजए-‘मन रम गया तो भरे भादों में भी लनिलत िूिता रहता है ।” उत्तर – इसका अथण यह है हक लशरीष के पेड िसंत ऋतु में िूिों से िद जाते हैं तथा आषाढ़ तक मस्त रहते हैं । आगे मौसम की जस्थलत में बडा िेर-बदि न हो तो भादों की उमस ि गरमी में भी ये िूिों से िदे रहते हैं । 9.लशरीष के नए िि और पत्तों का पुराने ििों के प्रलत व्यिहार संसार में हकस रूप में दे खने को लमिता हैं ? उत्तर- लशरीष के नए िि ि पत्ते निीनता के पररचायक हैं तथा पुराने िि प्राचीनता के। नयी पीढ़ी प्राचीन रूहढ़िाहदता को िकेिकर नि-लनमाणर् करती है । यही संसार का लनयम है । 10..हकसे आिार मानकर बाद के कवियों को परिती कहा गया है ? उनकी समझ में क्या भूि थी ? उत्तर- कालिदास को आिार मानकर बाद के कवियों को ‘परिती’ कहा गया है । उन्होंने भी भूि से लशरीष के िूिों को कोमि मान लिया। 11. लशरीष के िूिों और ििों के स्िभाि में क्या अंतर हैं ? उत्तर- लशरीष के िूि बेहद कोमि होते हैं , जबहक िि अत्यलिक मजबूत होते हैं । िे तभी अपना स्थान छोडते हैं जब नए िि और पत्ते लमिकर उन्हें िहकयाकर बाहर नहीं लनकाि दे ते। 12.लशरीष के िूिों और आिुलनक नेताओं के स्िभाि में िेखक को क्या समय हदखाई पडता है ? उत्तर- िेखक को लशरीष के ििों ि आिुलनक नेताओं के स्िभाि में अहडगता तथा कुसी के मोह की समानता हदखाई पडती है । ये दोनों तभी स्थान छोडते हैं जब उन्हें िहकयाया जाता है । 13. जीिन का सत्य क्या हैं ? उत्तर- जीिन का सत्य है -िृद्धािस्था ि मृत्यु। ये दोनों जगत के अलतपररलचत ि अलतप्रामाजर्क सत्य हैं । इनसे कोई बच नहीं सकता। 14. लशरीष के िूिों को दे खकर िेखक क्या कहता हैं ? उत्तर- लशरीष के िूिों को दे खकर िेखक कहता है हक इन्हें िूिते ही यह समझ िेना चाहहए हक झडना लनजित है । 15. महाकाि के कोडे चिाने से क्या अलभप्राय हैं ? उत्तर- इसका अथण यह है हक यमराज लनरं तर कोडे बरसा रहा है । समय-समय पर मनुष्य को कि लमिते रहते हैं , हिर भी मनुष्य जीना चाहता है । 16. मुखण व्यवक्त क्या समझते हैं ? उत्तर- मूखण व्यवक्त समझते हैं हक िे जहााँ बने हैं , िहीं दे र तक बने रहें तो मृत्यु से बच जाएाँगे। िे समय को िोखा दे ने की कोलशश करते हैं । 17.िेखक ने लशरीष को क्या संज्ञा दी है तथा क्यों ? उत्तर- िेखक ने लशरीष को ‘अििूत’ की संज्ञा दी है क्योंहक लशरीष भी कहठन पररजस्थलतयों में मस्ती से जीता है । उसे संसार में हकसी से मोह नहीं है । 18.‘अििूतों के मुाँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएाँ लनकिी हैं ?”-आशय स्पि कीजजए। उत्तर- िेखक कहता है हक अििूत जहटि पररजस्थलतयों में रहता है । िक्कडपन, मस्ती ि अनासवक्त के कारर् ही िह सरस रचना कर सकता है । 19. कालिदास पर िेखक ने क्या हटप्पर्ी की है ? उत्तर- कालिदास को िेखक ने ‘अनासक्त योगी’ कहा है । उन्होंने ‘मेघदत ू ’ जैसे सरस महाकाव्य की रचना की है । बाहरी सुख-दख ु से दरू होने िािा व्यवक्त ही ऐसी रचना कर सकता है । 20.कबीरदास पर िेखक ने क्या हटप्पर्ी की हैं ? उत्तर – कबीरदास लशरीष के समान मस्त, िक्कड ि सरस थे। इसी कारर् उन्होंने संसार को सरस रचनाएाँ दीं। 21.िेखक कालिदास को श्रेि कवि क्यों मानता है ? उत्तर- िेखक ने कालिदास को श्रेष्ठ कवि माना है क्योंहक कालिदास के शब्दों ि अथों में सामंजस्य है । िे अनासक्त योगी की तरह जस्थर-प्रज्ञता ि विदग्ि प्रेमी का हृदय भी पा चुके थे। श्रेष्ठ कवि के लिए यह गुर् आिकयक है । 22. आम कवि ि कालिदास में क्या अंतर हैं ? उत्तर- आम कवि शब्दों की िय, तुक ि छं द से संतुि होता है , परं तु विषय की गहराई पर ध्यान नहीं दे ता है । हािााँहक कालिदास कविता के बाहरी तत्िों में विशेषज्ञ तो थे ही, िे विषय में डू बकर लिखते थे। 22. ‘शकुंतिा कालिदास के हृदय से लनकिी थी”-आशय स्पि करें । उत्तर- िेखक का मानना है हक शकुंतिा सुंदर थी, परं तु दे खने िािे की दृवि में सौंदयणबोि होना बहुत जरूरी है । कालिदास की सौंदयण दृवि के कारर् ही शकुंतिा का सौंदयण लनखरकर आया है । यह कवि की कल्पना का चमत्कार है । 23. दष्ु यंत के खीझने का क्या कारन था ? अंत में उसे क्या समझ में आया ? उत्तर – दष्ु यंत ने शकुंतिा का लचि बनाया था, परं तु उन्हें उसमें संपूर्त ण ा नहीं हदखाई दे रही थी। कािी दे र बाद उनकी समझ में आया हक शकुंतिा के कानों में लशरीष पुष्प नहीं पहनाए थे, गिे में मृर्ाि का हार पहनाना भी शेष था। 24. कालिदास की सौंदयण- दृवि के बारे में बताइए। उत्तर- कालिदास की सौंदयण-दृवि सूक्ष्म ि संपूर्ण थी। िे सौंदयण के बाहरी आिरर् को भेदकर उसके अंदर के सौंदयण को प्राप्त करते थे। िे दख ु या सुख-दोनों जस्थलतयों से अपना भाि-रस लनकाि िेते थे। 25. कालिदास की समानता आिुलनक काि के हकन कवियों से हदखाई गई ? उत्तर- कालिदास की समानता आिुलनक काि के कवियों सुलमिानंदन पंत ि रिींद्रनाथ टै गोर से हदखाई गई है । इन में अनासक्त भाि है । तटस्थता के कारर् ही ये कविता के साथ न्याय कर पाते हैं । 26. रिींद्रनाथ ने राजोद्यान के लसंहद्वार के बारे में क्या लिखा हैं ? उत्तर- रिींद्रनाथ ने एक जगह लिखा है हक राजोद्यान का लसंहद्वार हकतना ही गगनचुब ं ी क्यों न हो, उसकी लशल्पकिा हकतनी ही सुंदर क्यों न हो, िह यह नहीं कहता हक हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असि गंतव्य स्थान उसे अलतक्रम करने के बाद ही है , यही बताना उसका कतणव्य है । 27. िूिों या पेडों से हमें क्या प्रेरर्ा लमिती हैं ? उत्तर – िूिों या पेडों से हमें जीिन की लनरं तरता की प्रेरर्ा लमिती है । किा की कोई सीमा नहीं होती। पुष्प या पेड अपने सौंदयण से यह बताते हैं हक यह सौंदयण अंलतम नहीं है । इससे भी अलिक सुंदर हो सकता है । 28. लशरीष के िृक्ष की तुिना अििूत से क्यों की गई है ? यह िृक्ष िेखक में हकस प्रकार की भािना जनता है ? उत्तर- अििूत से तात्पयण अनासक्त योगी से है । जजस तरह योगी कहठन पररजस्थलतयों में भी मस्त रहता है , उसी प्रकार लशरीष का िृक्ष भयंकर गमी, उमस में भी िूिा रहता है । यह िृक्ष मनुष्य को हर पररजस्थलत में संघषणशीि, जुझारू ि सरस बनने की भािना जगाता है । 29. लचिकती िूप में भी सरस रहने िािा लशरीष हमें क्या प्रेरर्ा दे रहा हैं ? उत्तर- लचिकती िूप में भी सरस रहने िािा लशरीष हमें प्रेरर्ा दे ता है हक जीिन में कभी हार नहीं माननी चाहहए तथा हर पररजस्थलत में मस्त रहना चाहहए। 30. गद्यांश में दे श के ऊपर के हकस बिंडर के गुजरने की ओर संकेत हकया गया हैं ? उत्तर- गद्यांश में दे श के ऊपर से सांप्रदालयक दं गों, खून-खराबा, मार-पीट, िूटपाट रूपी बिंडर के गुजरने की ओर संकेत हकया गया है । 31. अपने दे श का एक बूढ़ा कौन था ? ऊसे बूढ़े और लशरीष में समानता का आिार िेखक ने क्या मन है ? उत्तर- ‘अपने दे श का एक बूढ़ा’ महात्मा गांिी है । दोनों में गजब की सहनशवक्त है । दोनों ही कहठन पररजस्थलतयों में सहज भाि से रहते हैं । इसी कारर् दोनों समान हैं । पाठ्यपुथतक से िल प्रश्न पाठ के सार् प्रश्न 1: िेखक ने लशरीष को कािजयी अििूत (सन्यासी) की तरह क्यों माना है ? अर्वा लशरीष की तुिना हकससे और क्यों की गई हैं ? उत्तर – कािजयी संन्यासी का अथण है हर युग में जस्थर और अिजस्थत रहना। िह हकसी भी युग में विचलित या विगलित नहीं होता। लशरीष भी कािजयी अििूत है । िसंत के आगमन के साथ ही िहक जाता है और आषाढ़ तक लनजित रूप से जखिा रहता है । जब उमस हो या ते़ि िू चि रही हो तब भी लशरीष जखिा रहता है । उस पर उमस या िू का कोई प्रभाि पडता नहीं हदखता। िह अजेयता के मंि का प्रचार करता रहता है इसलिए िह कािजयी अििूत की तरह है । प्रश्न 2: “हृदय की कोमिता को बचाने के लिए व्यिहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती हैं ।” प्रस्तुत पाठ के आिार पर स्पि करें ? उत्तर – हृदय की कोमिता को बचाने के लिए व्यिहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है । मनुष्य को हृदय की कोमिता बचाने के लिए बाहरी तौर पर कठोर बनना पडता है तभी िह विपरीत दशाओं का सामना कर पाता है । लशरीष भी भीषर् गरमी की िू को सहन करने के लिए बाहर से कठोर स्िभाि अपनाता है तभी िह भयंकर गरमी, िू आहद को सहन कर पाता है । संत कबीरदास, कालिदास ने भी समाज को उच्चकोहट का साहहत्य हदया, परं तु बाहरी तौर पर िे सदै ि कठोर बने रहे । प्रश्न 3: हद्विेदी जी ने लशरीष के माध्यम से कोिाहि ि संघषण से भरी जीिन-जस्थलतयों में अविचि रहकर जजजीविषु बने रहने की सीख दी है ? स्पि करें ? अर्वा द्विेदी जी ने ‘लशरीष के िूि’ पाठ में ” लशरीष के माध्यम से कोिाहि और संघषण से भरे जीिन में अविचि रहकर जजंदा रहने की लसख दी है । ” इस कथन की सोदाहरर् पुवि कीजजए। उत्तर – िेखक ने कहा है हक लशरीष िास्ति में अद्भत ु अििूत है । िह हकसी भी जस्थलत में विचलित नहीं होता। दख ु हो या सुख उसने कभी हार नहीं मानी अथाणत ् दोनों ही जस्थलतयों में िह लनलिणप्त रहा। मौसम आया तो जखि गया िरना नहीं। िेहकन जखिने न जखिने की जस्थलत से लशरीष कभी नहीं डरा। प्रकृ लत के लनयम से िह भिीभााँलत पररलचत था। इसलिए चाहे कोिाहि हो या संघषण िह जीने की इच्छा मन में पािे रहता है । प्रश्न 4: ‘हाय, िह अििूत आज कहााँ हैं !” ऐसा कहकर िेखक ने आत्मबि पर दे ह-बि के िचस्ि की िर्तमान सभ्यता के संकट की ओर सकेत हकया हैं । कैसे? उत्तर – ‘हाय, िह अििूत आज कहााँ है !” ऐसा कहकर िेखक ने आत्मबि पर दे ह-बि के िचणस्ि की ितणमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत हकया है । आज मनुष्य में आत्मबि का अभाि हो गया है । अििूत सांसाररक मोहमाया से ऊपर उठा हुआ व्यवक्त होता है । लशरीष भी किों के बीच ििता-िूिता है । उसका आत्मबि उसे जीने की प्रेरर्ा दे ता है । आजकि मनुष्य आत्मबि से हीन होता जा रहा है । िह मानि-मूल्यों को त्यागकर हहं सा, असत्य आहद आसुरी प्रिृवत्तयों को अपना रहा है । आज चारों तरि तनाि का माहौि बन गया है , परं तु गााँिी जैसा अििूत िापता है । अब ताकत का प्रदशणन ही प्रमुख हो गया है । प्रश्न 5: कवि (साहहत्यकार) के लिए अनासक्त योगी की जस्थर प्रज्ञता और विदग्ि प्रेमी का ह्रदय एक साथ आिकयक है । ऐसा विचार प्रस्तुत करके िेखक ने साहहत्य – कमण के लिए बहुत ऊाँचा मानदं ड लनिाणररत हकया है । विस्तारपूिक ण समझाए। उत्तर – कवि या साहहत्यकार के लिए अनासक्त योगी जैसी जस्थत प्रज्ञता होनी चाहहए क्योंहक इसी के आिार पर िह लनष्पक्ष और साथणक काव्य (साहहत्य) की रचना कर सकता है । िह लनष्पक्ष भाि से हकसी जालत, लिंग, िमण या विचारिारा विशेष को प्रश्रय न दे । जो कुछ समाज के लिए उपयोग हो सकता है उसी का लचिर् करे । साथ ही उसमें विदग्ि प्रेमी का-सा हृदय भी होना ़िरूरी है । क्योंहक केिि जस्थत प्रज्ञ होकर कािजयी साहहत्य नहीं रचा जा सकता। यहद मन में वियोग की विदग्ि हृदय की भािना होगी तो कोमि भाि अपने-आप साहहत्य में लनरूवपत होते जाएंगे, इसलिए दोनों जस्थलतयों का होना अलनिायण है । प्रश्न 6: ‘सितग्राही काि की मार से बचते हुए िही दीघणजीिी हो सकता हैं , जजसने अपने व्यिहार में जडता छोडकर लनयर् बदि रही जस्थलतयों में लनरं तर अपनी गलतशीिता बनाए रखी हैं ?” पाठ के आिार पर स्पि करें । उत्तर – िेखक का मानना है हक काि की मार से बचते हुए िही दीघणजीिी हो सकता है जजसने अपने व्यिहार में जडता छोडकर लनत बदि रही जस्थलतयों में लनरं तर अपनी गलतशीिता बनाए रखी है । समय पररितणनशीि है । हर युग में नयी-नयी व्यिस्थाएाँ जन्म िेती हैं । नए पन के कारर् पुराना अप्रासंलगक हो जाता है और िीरे -िीरे िह मुख्य पररदृकय से हट जाता है । मनुष्य को चाहहए हक िह बदिती पररजस्थलतयों के अनुसार स्ियं को बदि िे। जो मनुष्य सुख-दख ु , आशा-लनराशा से अनासक्त होकर जीिनयापन करता है ि विपरीत पररजस्थलतयों को अपने अनुकूि बना िेता है , िही दीघणजीिी होता है । ऐसे व्यवक्त ही प्रगलत कर सकते हैं । प्रश्न 7: आशय स्पि कीजजए – 1. दरु ं त प्रार्िारा और सिव्यापक कािाजग्न का संघषण लनरं तर चि रहा है । मूख समझते हैं हक जहााँ बने हैं , िहीं दे र तक बने रहें तो कािदे िता की अख बचा पाएाँगे। भोिे हैं िे।हहिते-डु िते रहो, स्थान बद्रिते रहो, आगे की ओर मुहं हकए रहो तो कोडे की मार से बच भी सकते हो। जमे हक सरे । 2. जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो िक्कड नहीं बन सका, जो हकए-कराए का िेखा- जोखा लमिाने में उिझ गया , िह भी क्या किी है ? …. मैं कहता हूाँ हक किी बनना है मेरे दोस्तो, तो िक्कड बनो। 3. िि हो या पेड, िह अपने-आप में समाप्त नहीं हैं । िह हकसी अन्य िस्तु को हदखाने के लिए उठी हुई आाँगुिी हैं । िह इशारा हैं । उत्तर- 1. िेखक कहता है हक काि रूप अजग्न और प्रार् रूपी िारा का संघषण सदा चिता रहता है । मूखण व्यवक्त तो यह समझते हैं हक जहााँ हटके हैं िहीं हटके रहें तो मृत्यु से बच जाएंगे िेहकन ऐसा होना संभि नहीं है । यहद स्थान पररितणन करते रहे अथाणत ् जीने के ढं ग को बदिते रहे तो जीिन जीना आसान हो जाता है । जीिन को एक ही ढरें पर चिोओगे तो समझो अपना जीिन नीरस हो गया। नीरस जीिन का अथण है मर जाना। अतः गलतशीिता ़िरूरी 2. िेखक का मानना है हक कवि बनने के लिए िक्कड बनना ़िरूरी है । जजस कवि में लनरपेक्ष और अनासवक्त भाि नहीं होते िह श्रेष्ठ कवि नहीं बन सकता और जो कवि पहिे से लिखी चिी आ रही परं परा को ही काव्य में अपनाता है िह भी कवि नहीं है । कबीर िक्कड थे, इसलिए कािजयी कवि बन गए। अतः कवि बनना है तो िक्कडपने को ग्रहर् करो। 3. िेखक के कहने का आशय है हक अंलतम पररर्ाम का अथण समाप्त होना नहीं है जो यह समझता है िह लनरा बुद्धू है । िि हो या पेड िह यही बताते हैं हक संघषण की प्रहक्रया बहुत िंबी होती है । इसी प्रहक्रया से गुजरकर सििता रूपी पररर्ाम लमिते हैं । पाठ के आस-पास प्रश्न 1: लशरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है । ज्येष्ठ मक की प्रचड गरमी में िूिने िािे िूि को ‘शीतपुष्प’ की सज्ञा हकस आिार पर दी गयी होगी ? उत्तर – िेखक ने लशरीष के पुष्प को ‘शीतपुष्प’ कहा है । ज्येष्ठ माह में भयंकर गरमी होती है , इसके बािजूद लशरीष के पुष्प जखिे रहते हैं । गरमी की मार झेिकर भी ये पुष्प ठं डे बने रहते हैं । गरमी के मौसम में जखिे ये पुष्प दशणक को ठं डक का अहसास कराते हैं । ये गरमी में भी शीतिता प्रदान करते हैं । इस विशेषता के कारर् ही इसे ‘शीतपुष्प’ की संज्ञा दी गई होगी। प्रश्न 2: कोमि और कठोर दोनों भाि हकस प्रकार गांिी जी के व्यवक्तत्ि की िशेषता बन गए ? उत्तर – गांिी जी सदै ि अहहं सािादी रहे । दया, िमण, करुर्ा, परोपकार, सहहष्र्ुता आहद भाि उनके व्यवक्तत्ि की कोमिता को प्रस्तुत करते हैं । िे जीिनभर अहहं सा का संदेश दे ते रहे िेहकन उनके व्यवक्तत्ि में कठोर भाि भी थे। कहने का आशय है । हक िे सच्चाई के प्रबि समथणक थे और जो कोई व्यवक्त उनके सामने झूठ बोिने का प्रयास करता उसका विरोि करते। िे उस पर क्रोि करते। तब िे झूठे व्यवक्त को भिा-बुरा भी कहते चाहे िह व्यवक्त हकतने ही ऊाँचे पद पर क्यों न बैठा हो। उनके लिए सत्य का एक ही मापदं ड था दस ू रा नहीं। इसी कारर् कोमि और कठोर दोनों भाि उनके व्यवक्तत्ि की विशेषता बन गए। भाषा की बात प्रश्न 1: ‘दस हदन िूिे और हिर खखड-खखड’-इस िोकोवक्त से लमिते-जुिते कई िाक्यांश पाठ में हैं । उन्हें छााँटकर लिखें। उत्तर – ऐसे िाक्यांश लनम्नलिजखत हैं – 1. ऐसे दम ु दारों से िैंडूरे भिे। 2. जो िरा सो झरा। 3. जो बरा सो बुताना। 4. न ऊिो का िेना, न मािो का दे ना। 5. जमे हक मरे । 6. ियमवप कियः कियः कियस्ते कालिदासाद्या । इन्िें भी जानें अिोक वृक्ष – भारतीय साहहत्य में बहुचलचणत एक सदाबहार िृक्ष। इसके पत्ते आम के पत्तों से लमिते हैं । िसंत-ऋतु में इसके िूि िाि-िाि गुच्छों के रूप में आते हैं । इसे कामदे ि के पााँच पुष्पिार्ों में से एक माना गया है । इसके िि सेम की तरह होते हैं । इसके सांस्कृ लतक महत्त्ि का अच्छा लचिर् हजारी प्रसाद द्रवििेदी ने लनबंि ‘अशोक के िूि’ में हकया है । भ्रमिश आज एक-दस ू रे िृक्ष को अशोक कहा जाता रहा है और मूि पेड (जजसका िानस्पलतक नाम सराका इं हडका है । को िोग भूि गए हैं । इसकी एक जालत श्वेत िूिों िािी भी होती है । अररष्ठ वृक्ष – रीठा नामक िृक्ष। इसके पत्ते चमकीिे हरे होते हैं । िि को सुखाकर उसके लछिके का चूर्ण बनाया जाता है , बाि िोने एिं कपडे साफ करने के काम में आता है । इस पेड की डालियों ि तनों पर जगह-जगह कााँटे उभरे होते हैं । आरग्वध वृक्ष – िोक में उसे अमितास कहा जाता है । भीषर् गरमी की दशा में जब इसका पेड पिहीन ढू ाँ ठ-सा हो जाता है , तब इस पर पीिे-पीिे पुष्प गुच्छे िटके हुए मनोहर दृकय उपजस्थत करते हैं । इसके िि िगभग एक डे ढ़ िुट के बेिनाकार होते हैं जजसमें कठोर बीज होते हैं । शिरीष वृक्ष – िोक में लसररस नाम से मशहूर पर एक मैदानी इिाके का िृक्ष है । आकार में विशाि होता है पर पत्ते बहुत छोटे -छोटे होते हैं । इसके िूिों में पंखहु डयों की जगह रे शे-रे शे होते हैं । अन्य िल प्रश्न बोधायमक प्रिन प्रश्न 1: कालिदास ने लशरीष की कोमिता और दवििेदी जी ने उसकी कठोरता के विषय में क्या कहा है ? ‘लशरीष के िूि’ पाठ के आिार पर बताइए। उत्तर – कालिदास और संस्कृ त-साहहत्य ने लशरीष को बहुत कोमि माना है । कालिदास का कथन है हक ‘पदं सहे त भ्रमरस्य पेििं लशरीष पुष्पं न पुन: पतविर्ाम ्”-लशरीष पुष्प केिि भौंरों के पदों का कोमि दबाि सहन कर सकता है , पजक्षयों का वबिकुि नहीं। िेहकन इससे हजारी प्रसाद द्रवििेदी सहमत नहीं हैं । उनका विचार है हक इसे कोमि मानना भूि है । इसके िि इतने मजबूत होते हैं हक नए िूिों के लनकि आने पर भी स्थान नहीं छोडते। जब तक नए िि-पत्ते लमिकर, िहकयाकर उन्हें बाहर नहीं कर दे ते, तब तक िे डटे रहते हैं । िसंत के आगमन पर जब सारी िनस्थिी पुष्प-पि से ममणररत होती रहती है तब भी लशरीष के पुराने िि बुरी तरह खडखडाते रहते हैं । प्रश्न 2: लशरीष के अििूत रूप के कारर् िेखक को हकस महात्मा की यद् आती है और क्यों ? उत्तर – लशरीष के अििूत रूप के कारर् िेखक हजारी प्रसाद द्रवििेदी को हमारे राष्ट्रवपता महात्मा गांिी की याद आती है । लशरीष तरु अििूत है , क्योंहक िह बाहय पररितणन-िूप, िषाण, आाँिी, िू सब में शांत बना रहता है और पुजष्पत पल्िवित होता रहता है । इसी प्रकार महात्मा गांिी भी मार-काट, अजग्नदाह, िूट-पाट, खून-खराबे के बिंडर के बीच जस्थर रह सके थे। इस समानता के कारर् िेखक को गांिी जी की याद आ जाती है , जजनके व्यवक्तत्ि ने समाज को लसखाया हक आत्मबि, शारीररक बि से कहीं ऊपर की चीज है । आत्मा की शवक्त है । जैसे लशरीष िायुमंडि से रस खींचकर इतना कोमि, इतना कठोर हो सका है , िैसे ही महात्मा गांिी भी कठोर-कोमि व्यवक्तत्ि िािे थे। यह िृक्ष और िह मनुष्य दोनों ही अििूत हैं । प्रश्न 3: लशरीष की तीन ऐसी विशेषताओं का उल्िेख कीजजए जजनके कारर् आचायण हजारी प्रसाद दवििेद ने उसे ‘‘कािजयी अििूत’ कहा है । उत्तर – आचायण हजारी प्रसाद द्रवििेदी ने लशरीष को ‘कािजयी अििूत’ कहा है । उन्होंने उसकी लनम्नलिजखत विशेषताएाँ बताई हैं – 1. िह संन्यासी की तरह कठोर मौसम में जजंदा रहता है । 2. िह भीषर् गरमी में भी िूिों से िदा रहता है तथा अपनी सरसता बनाए रखता है । 3. िह कहठन पररजस्थलतयों में भी घुटने नहीं टे कता। 4. िह संन्यासी की तरह हर जस्थलत में मस्त रहता है । प्रश्न 4: िेखक ने लशरीष के माध्यम से हकस दिंदि को व्यक्त हकया है ? उत्तर – िेखक ने लशरीष के पुराने ििों की अलिकार-लिप्सु खडखडाहट और नए पत्ते-ििों द्वारा उन्हें िहकयाकर बाहर लनकािने में साहहत्य, समाज ि राजनीलत में पुरानी ि नयी पीढ़ी के द्वं द्व को बताया है । िह स्पि रूप से पुरानी पीढ़ी ि हम सब में नएपन के स्िागत का साहस दे खना चाहता है । प्रश्न 5: ‘लशरीष के िूि’ पाठ का प्रलतपाद्य स्पि करें । गरमी की प्रचंडता में भी अििूत की तरह अविचि होकर कोमि पुष्पों का सौंदयण वबखेर रहे लशरीष के माध्यम से मनुष्य की अजेय ज़िजीविषा और तुमुि कोिाहि किह के बीच िैयप ण ूिक ण , िोक के साथ लचंतारत, कतणव्यशीि बने रहने को महान मानिीय मूल्य के रूप में स्थावपत हकया है । ऐसी भाििारा में बहते हुए उसे दे ह-बि के ऊपर आत्मबि का महत्ि लसद्ध करने िािी इलतहास-विभूलत गांिी जी की याद हो आती है तो िह गांिीिादी मूल्यों के अभाि की पीडा से भी कसमसा उठता है । लनबंि की शुरुआत में िेखक लशरीष पुष्प की कोमि सुंदरता के जाि बुनता है , हिर उसे भेदकर उसके इलतहास में और हिर उसके जररये मध्यकाि के सांस्कृ लतक इलतहास में पैठता है , हिर तत्कािीन जीिन ि सामंती िैभि-वििास को साििानी से उकेरते हुए उसका खोखिापन भी उजागर करता है । िह अशोक के िूि के भूि जाने की तरह ही लशरीष को नजरअंदाज हकए जाने की साहहजत्यक घटना से आहत है । इसी में उसे सच्चे कवि का तत्त्ि- दशणन भी होता है । उसका मानना है हक योगी की अनासक्त शून्यता और प्रेमी की सरस पूर्त ण ा एक साथ उपिब्ि होना सत्कवि होने की एकमाि शतण है । ऐसा कवि ही समस्त प्राकृ लतक और मानिीय िैभि में रमकर भी चुकता नहीं और लनरं तर आगे बढ़ते जाने की प्रेरर्ा दे ता है । प्रश्न 6: कालिदास-कृ त शकुंतिा के सौंदयण-िर्णन को महत्ि दे कर िेखक ‘सौंदयण’ को स्त्री के एक मूल्य के रूप में स्थावपत करता प्रतीत होता हैं । क्या यह सत्य हैं ? यहद हों, तो क्या ऐसा करना उलचत हैं ? उत्तर – िेखक ने शकुंतिा के सौंदयण का िर्णन करके उसे एक स्त्री के लिए आिकयक तत्ि स्िीकार हकया है । प्रकृ लत ने स्त्री को कोमि भािनाओं से युक्त बनाया है । स्त्री को उसके सौंदयण से ही अलिक जाना गया है , न हक शवक्त से। यह तथ्य आज भी उतना ही सत्य है । जस्त्रयों का अिंकारों ि िस्त्रों के प्रलत आकषणर् भी यह लसद्ध करता है । यह उलचत भी है क्योंहक स्त्री प्रकृ लत की सुकोमि रचना है । अत: उसके साथ छे डछाड करना अनुलचत है । प्रश्न 7:‘ऐसे दम ु दारों से तो िडू रे भिे-इसका भाि स्पि कीजजए। उत्तर – िेखक कहता है हक दम ु दार अथाणत सजीिा पक्षी कुछ हदनों के लिए सुंदर नृत्य करता है , हिर दम ु गिाकर कुरूप हो जाता है । यहााँ िेखक मोर के बारे में कह रहा है । िह बताता है हक सौंदयण क्षजर्क नहीं होना चाहहए। इससे अच्छा तो पूाँछ कटा पक्षी ही ठीक है । उसे कुरूप होने की दग ु लण त तो नहीं झेिनी पडे गी। प्रश्न 8: विजज्जका ने ब्रहमा, िाल्मीहक और व्यास के अलतररक्त हकसी को कवि क्यों नहीं माना है ? उत्तर – कर्ाणट राज की वप्रया विजज्जका ने केिि तीन ही को कवि माना है -ब्रहमा, िाल्मीहक और व्यास को। ब्रहमा ने िेदों की रचना की जजनमें ज्ञान की अथाह रालश है । िाल्मीहक ने रामायर् की रचना की जो भारतीय संस्कृ लत के मानदं डों को बताता है । व्यास ने महाभारत की रचना की, जो अपनी विशािता ि विषय-व्यापकता के कारर् विश्व के सिणश्रष्ठ े महाकाव्यों में से एक है । भारत के अलिकतर साहहत्यकार इनसे प्रेरर्ा िेते हैं । अन्य साहहत्यकारों की रचनाएाँ प्रेरर्ास्रोत के रूप में स्थावपत नहीं हो पाई। अत: उसने हकसी और व्यवक्त को कवि नहीं माना। ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++