Sparsh PDF Exam Paper

Summary

This document is a sample of a Hindi prose text, likely from a textbook or anthology. It contains a passage that details the author's description of a woman selling watermelons and the sorrow she expresses, and it also includes biographical details about the author, Yashpal. It appears to be a literary selection intended for Hindi language learners or academics.

Full Transcript

दुः ख का अधिकार पाठ का सार लेखक ने कहा है कक मनष्यों की पयशाकें उन्हें किधिन्न श्रेधिययों में बााँट देती हैं । प्राय: पयशाक की समाज में मनष् का अधिकार और उसका दर्ाा कनधित करती है । हम जब झुककर कनचली श्रेधिययों की अनिूकत कय समझना चाहते हैं तय यह पयशाक ही बों िन और अड़चन बन जाती है । बार्ार में खरबूज...

दुः ख का अधिकार पाठ का सार लेखक ने कहा है कक मनष्यों की पयशाकें उन्हें किधिन्न श्रेधिययों में बााँट देती हैं । प्राय: पयशाक की समाज में मनष् का अधिकार और उसका दर्ाा कनधित करती है । हम जब झुककर कनचली श्रेधिययों की अनिूकत कय समझना चाहते हैं तय यह पयशाक ही बों िन और अड़चन बन जाती है । बार्ार में खरबूजे बेचने आई एक औरत कपड़े में माँ ह धिपाए धसर कय घटनयों पर रखे फफक-फफककर रय रही थी । पड़यस के लयग उसे घृिा की नर्रयों से देखते हैं और उसे बरा- िला कहते हैं । पास-पड़यस की दकानयों से पूिने पर पता चलता है कक उसका तेईस बरस का लड़का परसयों सबह सााँप के डसने से मर गया था । जय कि घर में था , सब उसे किदा करने में चला गया था । घर में उसकी बहू और पयते िूख से कबल-कबला रहे थे । इसधलए िह बेबस हयकर खरबूर्े बेचने आई थी ताकक उन्हें कि खखला सके ; परोंत सब उसकी कनोंदा कर रहे थे , इसधलए िह रय रही थी । लेखक ने उसके दख की तलना अपने पड़यस के एक सों भ्ाोंत मकहला के दख से करने लगता है धजसके दख से शहर िर के लयगयों के मन उस पत्र-शयक से द्रकित हय उठे थे । लेखक सयचता चला जा रहा था कक शयक करने, ग़म मनाने के धलए िी सहूधलयत चाकहए और द:खी हयने का िी एक अधिकार हयता है । लेखक पररचय यशपाल इनका जन्म किरयर्पर िािनी में सन 1903 में हुआ । इन्हयोंने आरोंधिक धशक्षा स्थानीय स्कूल में और उच्च धशक्षा लाहौर में पाई । िे किद्याथी काल से ही क्ाोंकतकारी गकतकिधिययों में जट गए थे । अमर शहीद िगत धसोंह आकद के साथ धमलकर इन्हयोंने िारतीय आोंदयलन में िाग धलया । सन 1976 में इनका देहाोंत ही गया । प्रमख काया कृकतयााँ - देशद्रयही , पाटी कामरेड , दादा कामरेड , झूठा सच तथा मेरी, तेरी, उसकी बात (उपन्यास) ; ज्ञानदान , तका का तूिान , कपोंजड़े की उड़ान , फूलयों का कताा , उत्तराधिकारी (कहानी सों ग्रह) और धसोंहािलयकन (आत्मकथा) । परस्कार - ‘मेरी,तेरी,उसकी बात’ पर इन्हें साकहत्य अकादमी परस्कार धमला । ककठन शब्यों के अथा अनिूकत – एहसास अिेड़ – ढलती उम्र का व्यथा – पीड़ा व्यििान – रुकाित बेहया – बेशमा नीयत – इरादा बरकत – िृधि ख़सम – पकत लगाई – पत्नी सूतक – िूत कधियारी – खेतयों में तरकाररयााँ बयना कनिााह – गर्ारा मेड़ – खेत के चारयों ओर धमट्टी का घेरा तराित – गीलापन ओझा – झाड़-फूाँक करने िाला िन्नी-ककना – मामूली गहना सहूधलयत - सकििा एवरे स्ट : मेरी शिखर यात्रा पाठ का सार प्रस्तुत लेख में बचेंद्री पाल ने अपने अशियान का रोमाांचकारी वर्णन ककया है कक 7 माचण को एवरेस्ट अशियान दल कदल्ली से काठमाांडू के शलए चला । नमचे बाज़ार से लेखखका ने एवरेस्ट को कनहारा । लेखखका ने एवरेस्ट पर एक बड़ा िारी बर्ण का फूल देखा । यह तेज़ हवा के कारर् बनता है । 26 माचण को अशियान दल पैररच पहुँ चा तो पता चला कक खुांिु कहमपात पर जाने वाले िेरपा कुशलयोां में से बर्ण खखसकने के कारन एक कुली की मॄत्यु हो गई और चार लोग घायल हो गए । बेस कैंप पहुँ चकर पता चला कक प्रकतकूल जलवायु के कारर् एक रसोई सहायक की मृत्यु हो गई है । कफर दल को ज़रुरी प्रशिक्षर् कदया गया । 29 अप्रैल को वे 7900 मीटर ऊुँचाई पर खित बेस कैंप पहुँ चे जहाुँ तेनशजां ग ने लेखखका का हौसला बढ़ाया । 15- 16 मई, 1984 को अचानक रात 12:30 बजे कैंप पर ग्लेशियर टू ट पड़ा शजससे कैंप तहस- नहस हो गया , हर व्यक‍त चोट-ग्रस्त हआ । लेखखका बर्ण में दब गई थी । उन्हें बर्ण से कनकाला गया । कफर कुछ कदनोां बाद लेखखका साउथकोल कैंप पहुँ ची । वहाुँ उन्होांने पीछे आने वाले साशथयोां की मदद करके सबको खुि कर कदया । अगले कदन वह प्रात: ही अांगदोरज़ी के साथ शिखर – यात्रा पर कनकली । अथक पररश्रम के बाद वे शिखर – कैंप पहुँ चे । एक और साथी ल्हाटू के आ जाने से और ऑक्सीजन आपूकतण बढ़ जाने से चढ़ाई आसान हो गई । 23 मई , 1984 को दोपहर 1:07 बजे लेखखका एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी थी । वह एवरेस्त पर चढ़ने वाली पहली िारतीय मकहला थी । चोटी पर दो व्यखियोां के साथ खड़े होने की ज़गह नहीां थी, उन्होांने बफण के फावड़े से बफण की खुदाई कर अपने आप को सुरशक्षत ककया । लेखखका ने घुटनोां के बल बैठकर ‘सागरमाथे’ के ताज को चूमा । कफर दुगाण माुँ तथा हनुमान चालीसा को कपडे में लपेटकर बर्ण में दबा कदया । अांगदोरज़ी ने उन्हें गले से लगकर बधाई दी । कनणल खुल्लर ने उन्हें बधाई देते हए कहा – मैं तुम्हरे मात-कपता को बधाई देना चाहुँ गा । देि को तुम पर गवण है । अब तुम जो नीचे आओगी , तो तुम्हें एक नया सां सार देखने को शमलेगा । लेखक पररचय बचेंद्री पाल इनका जन्म सन 24 मई, 1954 को उत्तराांचल के चमोली शजले के बमपा गाुँव में हआ । कपता पढ़ाई का खचण नहीां उठा सकते थे । अत: बचेंद्री को आठवीां से आगे की पढ़ाई का खचण शसलाई-कढ़ाई करके जुटाना पड़ा । कवषम पररखिकतयोां के बावज़ूद बचेंद्री ने सां स्कृत में एम.ए. और कफर बी. एड. की शिक्षा हाशसल की । बचेंद्री को पहाद़्ओ ां पर चढ़ने िौक़ बचपन से था । पढ़ाई पूरी करके वह एवरेस्ट अशियान – दल में िाशमल हो गईं । कई महीनोां के अभ्यास के बाद आखखर वह कदन आ ही गया , जब उन्होांने एवरेस्ट कवजय के शलए प्रयार् ककया । ककठन िब्ोां के अथण दुगणम – जहाुँ जाना ककठन हो ध्वज – झां डा कहम-स्खलन – बर्ण का कगरना नेतॄत्व – अगुवाई अवसाद – कनरािा ज़ायजा लेना – अनुमान लेना कहम-कवदर – बर्ण में दरार पड़ना अांतत: - आखखरकार कहमपुां ज – बर्ण का समूह उपस्कर – आरोही की आवश्यक सामग्री िुरिुरी – चूरा-चूरा टू टने वाली िां कु – नोक रज्जु – रस्सी तुम कब जाओगे, अततथि पाठ का सार लेखक के घर पर एक अततथि चार तिन ों से रह रहा है थजसे िेखते हुए वे कहते हैं तक हे अततथि ! तुम्हें िेखते ही मेरा बटु आ कााँप गया िा । तिर भी हमने भरसक मुस्कान के साि तुम्हारा स्वागत तकया िा । रात के भ जन क मध्यम- वगीय तिनर जैसा भारी-भरकम बना तिया िा । स चा िा तक तुम सुबह चले जाओगे । पर ऐसा नहीों हुआ । तुम यहााँ आराम से थसगरेट के छल्ले उड़ा रहे ह । उधर मैं तुम्हारे सामने कैलेण्डर की तारीखें बिल-बिलकर तुम्हें जाने का सों केत िे रहा हाँ । तीसरे तिन तुमने कपड़े धुलवाने की फ़रमाइश की । कपड़े धुलकर आ गए लेतकन तुम नहीों गए । पत्नी ने सुना त वह भी आाँखें तरेरने लगी । चौिे तिन कपड़े धुलकर आ गए , तिर भी तुम िटे हुए ह । बातचीत के सभी तवषय समाप्त ह गए हैं । ि न ों अपने अपने में मग्न ह कर पढ़ रहे हैं, सौहािद समाप्त ह चला है । भावनाएाँ गाथलयााँ बनती जा रही हैं । सत्कार की ऊष्मा समाप्त ह चुकी है, अब भ जन में खखचड़ी बनने लगी है । घर क स्वीट ह म कहा गया है , पर तुम्हारे ह ने से घर का स्वीटनेस खत्म ह गया है । अब तुम चले जाओ वनाद मुझे ‘ गेट आउट ’ कहना पड़ेगा ।यति तुम अपने आप कल सुबह चले न गए त मेरी सहनशीलता जवाब िे जाएगी । माना तुम िेवता ह तकोंतु मैं त आिमी हाँ । मनुष्य और िेवता ज़्यािा िेर साि नहीों रह सकते । इसथलए अपना िेवत्व सुरथित रखना चाहते ह त अपने आप तविा ह जाओ । तुम कब जाओगे , अततथि ? लेखक पररचय शरि ज शी इनका जन्म मध्य प्रिेश के उज्जैन शहर में 21 मई 1931 क हुआ । इनका बचपन कई शहर ों में तबता । कुछ समय तक यह सरकारी नौकरी में रहे तिर इन्ह ने लेखन क ही आजीतवका के रूप में अपना थलया । इन्ह न ों े व्यों ग्य लेख , व्यों ग्य उपन्यास , व्यों ग्य कॉलम के अततररक्त हास्य- व्यों ग्यपूर्द धारावातहक ों की पटकिाएाँ और सों वाि भी थलखे । सन 1991 में इनका िेहाोंत ह गया । प्रमुख कायद व्यों ग्य-कृततयााँ - पररक्रमा , तकसी महाने , जीप पर सवार इखल्लयााँ , ततलस्म , रहा तकनारे बैठ , िू सरी सतह , प्रतततिन । व्यों ग्य नाटक: अोंध ों का हािी और एक िा गधा । उपन्यास - मैं,मैं,केवल मैं, उफ़द कमलमुख बी.ए. । कतठन शब् ों के अिद तनस्सों क च – तबना सों क च के सतत – लगातार आततथ्य – आवभगत अोंतरोंग – घतनष्ठ या गहरा छ र – तकनारा आघात – च ट मातमदक – हृिय क छूने वाला भावभीनी – प्रेम से ओतप्र त अप्रत्याथशत – आकखस्मक सामीप्य – तनकटता क नल ों – क न ों से ऊष्मा – गरमी सों क्रमर् – एक खितत या अविा से िू सरी में प्रवेश तनमूदल – मूल रतहत सौहािद – मैत्री गुाँ जायमान – गूाँ जता हुआ एस्ट्रॉनाट् स – अोंतररि यात्री वैज्ञानिक चेतिा के वाहक : चन्द्र शेखर वेंकट रामि् पाठ का सार यह लेख वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकट रामि की सं घर्षमय जीवि यात्रा तथा उिकी उपलब्धिय ं की जािकारी बखूबी कराता है । रामि ग्यारह साल की उम्र में मैनटिक, नवशेर् य ग्यता की साथ इंटरमीनिएट, भौनतकी और अंग्रेज़ी में स्वर्ष पदक के साथ बी. ए. और प्रथम श्रेर्ी में एम. ए. करके मात्र अठारह साल की उम्र में क लकाता में भारत सरकार के फाइंिेस निपाटष मेंट में सहायक जिरल एकाउटें ट नियुक्त कर ललए गए थे । इिकी प्रनतभा से इिके अध्यापक तक लभभूत थे । इस दौराि वे बहूबाज़ार ब्धित प्रय गशाला में कामचलाऊ उपकरर् ं का इस्तेमाल करके श ध कायष करते थे । नफर उन् ि ं े अिेक भारतीय वाद्ययं त्र ं का अध्ययि नकया और वैज्ञानिक लसद्ांत ं के आधार पर पलिम देश ं की इस भ्ांनत क त ड़िे का प्रयास नकया नक भारतीय वाद्ययं त्र नवदेशी वाद्य ं की तुलिा में घनटया हैं । बाद में वे सरकारी िौकरी छ ड़कर कलकत्ता नवश्वनवद्यालय में प्र फेसर के पद क स्वीकार नकया । यहां वे अपिा सारा समय अध्ययि, अध्यापि और श ध में नबतािे लगे । सि 1921 में जब रामि समुद्री यात्रा पर थे त समुद्र के िीले रंग क देखकर उसके वज़ह का सवाल नहल रें मारिे लगा । उन् ि ं े इस नदशा में आगे प्रय ग नकए तथा इसका पररर्ाम ‘रामि प्रभाव’ की ख ज के रूप में सामिे लाया । रामि की ख ज की वजह से पदाथों मे अर्ुओ ं और परमार्ुओ ं की आंतररक सं रचिा का अध्ययि सहज ह गया । उन्ें ‘भारत रत्न' तथा 'ि बल पुरस्कार 'ं सनहत कई प्रनतनित पुरस्कार ं से िवाज़ा गया । भारतीय सं स्कृनत से रामि क हमेशा ही लगाव रहा । उन् ि ं े अपिी भारतीय पहचाि क हमेशा बिाए रखा । वे देश में वैज्ञानिक दृनि और लचंति के नवकास के प्रनत समनपषत थे । उन् ि ं े बैंगल र में एक अत्यं त उन्नत प्रय गशाला और श ध-सं िाि ‘रामि ररसचष इंस्टीट्यूट’ की िापिा की । रामि वैज्ञानिक चेतिा और दृनि की साक्षात प्रनतमुलत्तष थे ।उन् िं े हमेशा प्राकृनतक घटिाओं की छािबीि वैज्ञानिक दृनि से करिे का सं देश नदया । लेखक पररचय धीरंजि मालवे इिका जन्म नबहार के िालं दा लजले के िुंवरावााँ गााँव में 9 माचष 1952 क हुआ । ये एम.एससी (सांब्धिकी), एम. बी.ए और एल.एल.बी हैं । वे आज भी वैज्ञानिक जािकारी क आकाशवार्ी और दू रदशषि के माध्यम से ल ग ं तक पहुंचािे में लगे हुए हैं । मालवे िे कई भरतीय वैज्ञानिक ं की सं लक्षप्त जीवनियााँ ललखी हैं, ज इिकी पुस्तक ‘नवश्व-नविात भारतीय वैज्ञानिक’ पुस्तक में समानहत हैं । कनठि शब् ं के अथष आभा – चमक लजज्ञासा – जाििे के इच्छा हालसल – प्राप्त अनयशय ब्धक्त – नकसी बात क बढ़ा-चढ़ा कर कहिा रूझाि – झुकाव असं ि - अिनगित उपकरर् – साधि सृलजत – रचा हुआ समक्ष – सामिे अध्यापि – पढ़ािा पररर्नत – पररर्ाम ऊजाष – शब्धक्त फ टॉि – प्रकाश का अंश िील वर्ीय - िीले रंग का ठ स रवे - नबल्लौर एकवर्ीय - एक रंग का समृद् – उन्नतशील भ्ांनत - सं देह धर्म की आड़ पाठ का सार प्रस्तुत पाठ ‘धर्म की आड़’ र्ें विद्यार्थी जी ने उन लोगोों के इरादोों और कुविल चालोों को बेनकाब वकया है जो धर्म की आड़ लेकर जनसार्ान्य को आपस र्ें लड़ाकर अपना स्वार्थम ससद्ध करने की विराक र्ें रहते हैं । उन्ोोंने बताया है की कुछ चालाक व्यक्ति साधारण आदर्ी को अपने स्वार्थम हेतु धर्म के नार् पर लड़ते रहते हैं । साधारण आदर्ी हर्ेशा ये सोचता है की धर्म के नार् पर जान तक दे देना िासजब है । पाश्चत्य देशोों र्ें धन के द्वारा लोगोों को िश र्ें वकया जाता है, र्नर्ुतावबक कार् करिाया जाता है । हर्ारे देश र्ें बुसि पर परदा डालकर कुविल लोग ईश्वर और आत्मा का स्थान अपने सलए ले लेते हैं और विर धर्म, ईर्ान के नार् पर लोगोों को आपस र्ें सिड़ाते रहते हैं और अपना व्यापार चलते रहते हैं । इस िीषण व्यापार को रोकने के सलए हर्ें साहस और दृढ़ता के सार्थ उद्योग करना चावहए । यवद वकसी धर्म के र्नाने िाले जबरदस्ती वकसी के धर्म र्ें िाोंग अड़ाते हैं तो यह कायम स्वाधीनता के विरुि सर्झा जाए । देश की स्वाधीनता आोंदोलन र्ें सजस वदन क्तिलाित, र्ुल्ला तर्था धर्ामचायों को स्थान वदया गया िह वदन सबसे बुरा र्था सजसके पाप का िल हर्े आज िी िोगना पड़ रहा है । लेिक के अनुसार शों ि बजाना, नाक दबाना और नर्ाज पढ़ना धर्म नही है । शुिाचरण और सदाचरण धर्म के सचन् हैं । आप ईश्वर को ररश्वत दे देने के बाद वदन िर बेईर्ानी करने के सलए स्वतों त्र नही हैं । ऐसे धर्म को किी र्ाि नही वकया जा सकता । इनसे अच्छे िे लोग हैं जो नाक्तस्तक हैं । लेिक पररचय गणेशशों कर विद्यार्थी इनका जन्म सन 1891 र्ें र्ध्य प्रदेश के ग्वासलयर शहर र्ें हुआ र्था । एों िरेंस पास करने के बाद कानपूर दफ्तर र्ें र्ुलासजर् हो गए । विर 1921 र्ें 'प्रताप' साप्तावहक अिबार वनकालना शुरू वकया । ये आचायम र्हािीर प्रसाद वदिेदी को सावहक्तत्यक गुरु र्ानते र्थे । इनका ज्यादा सर्य जेल र्ें वबता । कानपुर र्ें 1931 र्ें र्चे साोंप्रदावयक दोंगोों को शाोंत करिाने के प्रयास र्ें इनकी र्ृत्यु हो गयी । कवठन शब्ोों के अर्थम उत्पात – उपद्रि ईर्ान – नीयत ज़ावहलोों – र्ूिम या गँ िार िासज़ब – उसचत बेज़ा – अनुसचत अट्टासलकाएँ – ऊँचे र्कान साम्यिाद - कालम-र्ार्क्म द्वारा प्रवतपावदत राजवनवतक ससिाोंत सजसका उद्देश्य विश्व र्ें िगमहीन सर्ाज की स्थापना करना है । बोलेसश्वज्म - सोवियत क्राक्ति के बाद लेवनन के नेतृत्व र्ें स्थावपत व्यिस्था धूतम – छली क्तिलाि़त – िलीिा का पद प्रपों च – छल कसौिी – परि ला-र्ज़हब – सजसका कोई धर्म , र्ज़हब न हो या नाक्तस्तक । शुक्र तारे के समान पाठ का सार प्रस्तुत पाठ ‘शुक्र तारे के समान’ में लेखक ने गााँधी जी के ननजी सचिव महादेव भाई देसाई की बेजोड़ प्रनतभा और व्यस्ततम नदनिर्ाा को उकेरा है । उन्ोोंने महादेव भाई की तुलना शुक्र तारे से की है जो सारे आकाश को जगमगा कर, दुननर्ा को मुग्ध करके अस्त हो जाता है । सन 1917 में में वे गाोंधीजी से चमले तब गाोंधीजी ने उन्ें अपना उत्तराचधकारी का पद स पों नदर्ा । सन 1919 में जचलर्ााँवाला बाग़ हत्याकाोंड के नदनोों में गाोंधीजी ने नगरफ्तार होते समर् महादेव जी को अपना वाररस कहा था । उन नदनोों गाोंधीजी के सामने अोंग्रेज़ोों द्वारा अत्यािारोों और जुल्मो की जो दल कहाननर्ााँ सुनाने आते थे, महादेव भाई उनकी सों नपपत निप्पचिर्ााँ बनाकर उन्ें रु-बू-रु चमलवाते थे । 'क्रॉननकल' के सों पादक हानीमैन को देश ननकाले की सजा चमलने पर 'र्ों ग इोंनडर्ा' साप्तानहक में लेखोों की कमी पड़ने लगी िूाँ नक हानीमैन ही मुख्य रूप से लेख चलखते थे । इसीचलए र्े चजमेदारी गाोंधीजी ने ले ली, बाद में उनका काम बढ़ने के कारि इस अखबार को सप्ताह में दो बार ननकालना पड़ा । कुछ नदन बाद अखबार की चजमेवारी लेखक के हाथोों में आ गर्ी । महादेव भाई और गाोंधीजी का सारा समर् देश-भम्रि में बीतने लगा, परन्तु महादेव जी जहााँ भी होते समर् ननकालकर लेख चलखते और भेजते । महादेव भाई गाोंधीजी के र्ात्राओों और नदन प्रनतनदन की गनतनवचधर्ोों के बारे में चलखते, साथ ही देश-नवदेश के समािारोों को पढ़कर उसपर निका-निप्पचिर्ााँ भी चलखते ।अपने तीवा बुचि के कारि देसी-नवदेशी समािार पत्र वालोों के र्े लाड़ले बन गए । गाोंधीजी के पास आने से पहले र्े सरकार के अनुवाद नवभाग में न करी करते थे । इन्ोने कई सानहत्योों का अनुवाद नकर्ा था । गाोंधीजी के पत्रोों में महादेव भाई की चलखावि होती थी । उनकी चलखावि लम्बी सी जेि की गनत सी चलखी जाती थी, वे शॉिा हैंड नही जानते थे, परन्तु उनकी लेखनी में कॉमा मात्र की भी गलती नही होती थी इसचलए गाोंधीजी भी अपने चमलने वालोों से बातिीत को उनकी नोिबुक से चमलान करने को कहते थे । वे अपने बड़े-बड़े झोलोों में ताजे समािार पात्र और पुस्तकें रखा करते चजसे वे रेलगाड़ी, रैचलर्ोों तथा सभाओों में पढ़ते थे र्ा निर 'नवजीवन' र्ा 'र्ों ग इोंनडर्ा' के चलए लेख चलखते रहते । वे इतने वर्स्थ समर् में अपने चलए कब वक्त ननकालते पता नही िलता, एक घों िे में िार घों िो का काम ननपिा देते । महादेव भाई गाोंधीजी के जीवन में इतने रि-बस-गए थे की उनके नबना महदेव भाई की अकेले कल्पना नही की जा सकती । उन्ोोंने गाोंधीजी की पुस्तक 'सत्य का प्रर्ोग' का अोंग्रेजी अनुवाद भी नकर्ा । सन 1934-35 में गाोंधीजी मगनवाड़ी से िलकर सेगाोंव िले गए परन्तु महादेव जी मगों वादी में ही रहे । वे रोज वहाों से पैदल िलकर सेगाोंव जाते तथा शाम को काम ननपिाकर वापस आते, जो की कुल 11 चमल था । इस कारि उनके स्वास्थ्य पर प्रनतकूल प्रभाव पड़ा और वे अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए । इनके मृत्यु का दुुः ख गाोंधीजी को आजीवन रहा । लेखक पररिर् स्वामी आनों द इनका जन्म गुजरात के कनठर्ावाड़ चजले के नकमड़ी गााँव में सन 1887 को हुआ । इनका मूल नाम नहम्मतलाल था । जब र्े दस साल के थे तभी कुछ साधु इन्ें अपने साथ नहमालर् की ओर ले गए और इनका नामकरि नकर्ा – स्वामी आनों द । १९०७ में स्वामी आनों द स्वतों त्रता आोंदोलन से जुड़ गए । 1917 में गााँधे जी के सों सगा में आने के बाद उन्ीों के ननदेशन में ‘ नवजीवन’ और ‘ र्ों ग इोंनडर्ा ’ के प्रसार व्यवस्था सों भाल ली । इसी बहाने उन्ें गााँधी जी और उनके ननजी सहर्ोगी महादेव भाई देसाई और बाद में प्यारेलाल जी को ननकि से जानने का अवसर चमला । कनठन शब्ोों के अथा नक्षत्र-मों डल – तारा समूह कलगी रूप – तेज़ िमकने वाला तारा हम्माल – कुली पीर – महात्मा बाविी – रसोइर्ा चभश्ती – मसक से पानी ढोने वाला व्यक्तक्त खर – गधा आसेतुनहमािल - सेतुबोंध रामेश्वर से नहमािल तक नवस्तीिा ब्योरा – नववरि रूबरू – आमने-सामने धुरोंधर - प्रवीि कट्टर – दॄढ़ ि कसाई - नजर रखना पेशा – व्यवसार् स्याह – काला सल्तनत – राज्य अद्यतन – अब तक का गाद – तलछि सानी – उसी जोड़ का दू सरा अनार्ास – नबना नकसी प्रर्ास के रै दास व्याख्या (1) अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी । प्रभु जी, तुम चं दन हम पानी , जाकी अँग-अँग बास समानी । प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा , जैसे चचतवत चं द चकोरा । प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती , जाकी जोतत बरै तदन राती । प्रभु जी, तुम मोती हम धागा , जैसे सोनतहं चमलत सुहागा । प्रभु जी, तुम तुम स्वामी हम दासा , ऐसी भक्ति करै रैदासा । प्रभु! हमारे मन में जो आपके नाम की रट लग गई है, वह कैसे छूट सकती है? अब मै आपका परम भि हो गया हँ । चजस तरह चं दन के सं पकक में रहने से पानी में उसकी सुगंध फैल जाती है, उसी प्रकार मेरे तन मन में आपके प्रेम की सुगंध व्याप्त हो गई है । आप आकाश में छाए काले बादल के समान हो, मैं जं गल में नाचने वाला मोर हँ । जैसे बरसात में घुमडते बादलों को देखकर मोर खुशी से नाचता है, उसी भाँतत मैं आपके दशकन् को पा कर खुशी से भावमुग्ध हो जाता हँ । जैसे चकोर पक्षी सदा अपने चं द्रामा की ओर ताकता रहता है उसी भाँतत मैं भी सदा आपका प्रेम पाने के चलए तरसता रहता हँ । हे प्रभु ! आप दीपक हो और मैं उस तदए की बाती जो सदा आपके प्रेम में जलता है । प्रभु आप मोती के समान उज्ज्वल, पतवत्र और सुं दर हो और मैं उसमें तपरोया हुआ धागा हँ । आपका और मेरा चमलन सोने और सुहागे के चमलन के समान पतवत्र है । जैसे सुहागे के सं पकक से सोना खरा हो जाता है, उसी तरह मैं आपके सं पकक से शुद्ध हो जाता हँ । हे प्रभु! आप स्वामी हो मैं आपका दास हँ । (2) ऐसी लाल तुझ तबनु कउनु करै । गरीब तनवाजु गुसाईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥ जाकी छोतत जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै । नीचउ ऊच करै मेरा गोतबं दु काह ते न डरै ॥ नामदेव कबीरू ततलोचनु सधना सैनु तरै । कतह रतवदासु सुनहु रे सं तहु हररजीउ ते सभै सरै ॥ हे प्रभु ! आपके तबना कौन कृपालु है । आप गरीब तथा तदन – दुक्तखयों पर दया करने वाले हैं । आप ही ऐसे कृपालु स्वामी हैं जो मुझ जैसे अछूत और नीच के माथे पर राजाओं जैसा छत्र रख तदया । आपने मुझे राजाओं जैसा सम्मान प्रदान तकया । मैं अभागा हँ । मुझ पर आपकी असीम कृपा है । आप मुझ पर द्रतवत हो गए । हे स्वामी आपने मुझ जैसे नीच प्राणी को इतना उच्च सम्मान प्रदान तकया । आपकी दया से नामदेव , कबीर जैसे जुलाहे , तत्रलोचन जैसे सामान्य , सधना जैसे कसाई और सैन जैसे नाई सं सार से तर गए । उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया । अंततम पं क्ति में रैदास कहते हैं – हे सं तों, सुनो ! हरर जी सब कुछ करने में समथक हैं । वे कुछ भी करने में सक्षम हैं । कतव पररचय रैदास इनका जन्म सन 1388 और देहावसान सन 1518 में बनारस में ही हुआ, ऐसा माना जाता है । मध्ययुगीन साधकों में इनका तवचशष्ट स्थान है । कबीर की तरह रैदास भी सं त कोतट के कतवयों में तगने जाते हैं । मूततकपूजा, तीथकयात्रा जैसे तदखावों में रैदास का ज़रा भी तवश्वास न था । वह व्यक्ति की आंतररक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धमक मानते थे । कतिन शब्ों के अथक बास – गं ध घन – बादल चचतवत – देखना चकोर – तीतर की जातत का एक पक्षी जो चं द्रमा का परम प्रेमी माना जाता है । बरै – बढ़ाना या जलना सुहागा – सोने को शुद्ध करने के चलए प्रयोग में आने वाला क्षार द्रव्य लाल – स्वामी ग़रीब तनवाजु – दीन-दुक्तखयों पर दया करने वाला माथै छत्रु धरै – मस्तक पर स्वामी होने का मुकुट धारन करता है छोतत – छु आछूत जगत कौ लागै – सं सार के लोगों को लगती है हररजीऊ – हरर जी से नामदेव – महाराष्टर के एक प्रचसद्ध सं त ततलोचनु – एक प्रचसद्ध वैष्णव आचायक जो ज्ञानदेव और नामदेव के गुरु थे । सधना – एक उच्च कोतट के सं त जो नामदेव के समकालीन माने जाते हैं । सैनु – रामानं द का समकालीन सं त । हररजीउ - हरर जी से सभै सरै - सबकुछ सं भव हो जाता है दोहे भावार्थ रहहमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय । टू टे पे हिर ना जुरे, जुरे गााँठ परी जाय । । अर्थ - रहीम के अनुसार प्रेम रूपी धागा अगर एक बार टू ट जाता है तो दोबारा नहीीं जुड़ता । अगर इसे जबरदस्ती जोड़ भी हदया जाए तो पहले की तरह सामान्य नही रह जाता, इसमें गाींठ पड़ जाती है । रहहमन हनज मन की हबर्ा, मन ही राखो गोय । सुनी इठलैहैं लोग सब, बाींटी न लेंहैं कोय । । अर्थ - रहीम कहते हैं हक अपने दुुः ख को मन के भीतर ही रखना चाहहए क्ोींहक उस दुुः ख को कोई बााँटता नही है बल्कि लोग उसका मजाक ही उड़ाते हैं । एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय । रहहमन मूलहहीं सीींचचबो, िूलै िलै अगाय । । अर्थ - रहीम के अनुसार अगर हम एक-एक कर कायों को पूरा करने का प्रयास करें तो हमारे सारे कायथ पूरे हो जाएीं गे, सभी काम एक सार् शुरू कर हदयें तो तो कोई भी कायथ पूरा नही हो पायेगा । वैसे ही जैसे चसिथ जड़ को सीींचने से ही पूरा वृक्ष हरा-भरा, िूल-िलोीं से लदा रहता है । चचत्रकूट में रचम रहे, रहहमन अवध नरेस । जा पर हबपदा परत है, सो आवत यह देश । । अर्थ - रहीम कहते हैं हक चचत्रकूट में अयोध्या के राजा राम आकर रहे र्े जब उन्हें 14 वर्षों के वनवास प्राप्त हुआ र्ा । इस स्थान की याद दुुः ख में ही आती है, चजस पर भी हवपचि आती है वह शाींहत पाने के चलए इसी प्रदेश में ल्कखींचा चला आता है । दीरघ दोहा अरर् के, आखर र्ोरे आहहीं । ज्ोीं रहीम नट कुींडली, चसचमट कूहद चह ीं जाहहीं ॥ अर्थ - रहीम कहते हैं हक दोहा छींद ऐसा है चजसमें अक्षर र्ोड़े होते हैं हकींतु उनमें बहुत गहरा और दीघथ अर्थ चछपा रहता है । चजस प्रकार कोई कुशल बाजीगर अपने शरीर को चसकोड़कर तीं ग मुाँ ह वाली कुींडली के बीच में से कुशलतापूवथक हनकल जाता है उसी प्रकार कुशल दोहाकार दोहे के सीचमत शब्ोीं में बहुत बड़ी और गहरी बातें कह देते हैं । धहन रहीम जल पीं क को,लघु चजय हपअत अघाय । उदचध बड़ाई कौन है,जगत हपआसो जाय । । अर्थ- रहीम कहते हैं हक कीचड़ का जल सागर के जल से महान है क्ोींहक कीचड़ के जल से हकतने ही लघु जीव प्यास बुझा लेते हैं । सागर का जल अचधक होने पर भी पीने योग्य नहीीं है । सीं सार के लोग उसके हकनारे आकर भी प्यासे के प्यासे रह जाते हैं । मतलब यह हक महान वही है जो हकसी के काम आए । नाद रीचझ तन देत मृग, नर धन हेत समेत । ते रहीम पशु से अचधक, रीझेहु कछु न दे । । अर्थ - रहीम कहते हैं हक सीं गीत की तान पर रीझकर हहरन चशकार हो जाता है । उसी तरह मनुष्य भी प्रेम के वशीभूत होकर अपना तन, मन और धन न्यौछावर कर देता है लेहकन वह लोग पशु से भी बदतर हैं जो हकसी से खुशी तो पाते हैं पर उसे देते कुछ नहीीं है । हबगरी बात बनै नहीीं, लाख करौ हकन कोय । रहहमन िाटे दू ध को, मर्े न माखन होय । । अर्थ - रहीम कहते हैं हक मनुष्य को सोच समझ कर व्यवहार करना चाहहए क्ोींहक हकसी कारणवश यहद बात हबगड़ जाती है तो हिर उसे बनाना कहठन होता है, जैसे यहद एक बार दू ध िट गया तो लाख कोचशश करने पर भी उसे मर्कर मक्खन नहीीं हनकाला जा सकेगा । रहहमन देल्कख बड़ेन को, लघु न दीचजए डारर । जहााँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारर । । अर्थ - रहीम के अनुसार हमें बड़ी वस्तु को देख कर छोटी वस्तु अनादर नहीीं करना चाहहए, उनकी भी अपना महत्व होता । जैसे छोटी सी सुई का काम बड़ा तलवार नही कर सकता । रहहमन हनज सीं पहत हबना, कोउ न हबपहत सहाय । हबनु पानी जयोीं जलज को, नहहीं रहव सकै बचाय । । अर्थ - रहीम कहते हैं हक सीं कट की ल्कस्थहत में मनुष्य की हनजी धन-दौलत ही उसकी सहायता करती है ।चजस प्रकार पानी का अभाव होने पर सूयथ कमल की हकतनी ही रक्षा करने की कोचशश करे, हिर भी उसे बचाया नहीीं जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य को बाहरी सहायता हकतनी ही क्ोीं न चमले, हकींतु उसकी वास्तहवक रक्षक तो हनजी सीं पचि ही होती है । रहहमन पानी राल्कखये, हबन पानी सब सून । पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुर्ष, चून । । अर्थ - रहीम कहते हैं हक पानी का बहुत महत्त्व है । इसे बनाए रखो । यहद पानी समाप्त हो गया तो न तो मोती का कोई महत्त्व है, न मनुष्य का और न आटे का । पानी अर्ाथत चमक के हबना मोती बेकार है । पानी अर्ाथत सम्मान के हबना मनुष्य का जीवन व्यर्थ है और जल के हबना रोटी नहीीं बन सकती, इसचलए आटा बेकार है । कहव पररचय रहीम इनका जन्म लाहौर में सन 1556 में हुआ । इनका पूरा नाम अब्ुरथहीम खानखाना र्ा । रहीम अरबी, िारसी, सीं स्कृत और अच्छे जानकार र्े । अकबर के दरबार में हहींदी कहवयोीं में नका महत्वपूणथ स्थान र्ा । रहीम अकबर के नवरत्ोीं में से एक र्े । कहठन शब्ोीं के अर्थ चटकाय - चटका कर हबर्ा - व्यर्ा गोय - चछपाकर अहठलैहैं - मजाक उड़ाना सीींचचबो - चसींचाई करना अघाय - तृप्त अरर् - मायने र्ोरे - र्ोड़ा पीं क - कीचड़ उदचध - सागर नाद- ध्वहन रीचझ - मोहहत होकर मर्े - मर्ना हनज - अपना हबपहत - मुसीबत हपआसो - प्यासा चचत्रकूट - वनवास के समय श्री रामचन्द्र जी सीता और लक्ष्मण के सार् कुछ समय तक चचत्रकूट में रहे र्े । आदमी नामा व्याख्या 'आदमीनामा' कविता में मानि के विविध रूप ों पर प्रकाश डाला गया है । कवि के अनुसार मानि में अनेक सों भािनाएँ छिपी हुई हैं । उसकी पररस्थियाँ और भाग्य भी छभन्न हैं छिसके कारण उसे छभन्न-छभन्न रूप ों में िीिन िीना पड़ता है । (1) इन पों स्थिय ों में में निीर ने कहा है वक इस दुवनया में सभी आदमी हैं । बादशाह भी आदमी है तथा गरीब भी आदमी ही है । मालदार भी आदमी ही है और कमि र भी आदमी है । छिसे खाने की कमी नही है ि भी आदमी है और छिसे मुस्थिल से र टी छमलती है ि भी आदमी ही है । (2) इस भाग में निीर ने आदमी के विछभन्न काम ों के बारे में बतलाया है । मवजिद का भी वनमााण आदमी ने वकया है और उसके अोंदर उपदेश देने का काम भी आदमी ही करते हैं साथ ही िहाों िाकर कुरान-नमाज़ भी आदमी ही अदा करते हैं । मवजिद के बाहर िूवतयाँ चुराने का काम आदमी ही करता है तथा उनक भगाने के छलए भी आदमी ही रहता है । (3) इस भाग में निीर ने बताया है की एक आदमी दू सरे की िान लेने में लगा रहता है त दू सरा आदमी वकसी की िान बचाने में लगा रहता है । क ई आदमी वकसी की इज्जत उतारता है त मदद की पुकार सुनकर भी उसे बचाने क ई आदमी ही आता है । (4) इन पों स्थिय ों द्वारा स्पष्ट वकया है की इस दुवनया सब कुि आदमी ही करते हैं । आदमी ही आदमी का मुरीद है तथा आदमी ही आदमी का दुश्मन । बुरे और अच्छे द न ों आदमी ही कहलाते हैं । कवि पररचय निीर अकबराबादी इनका िन्म आगरा शहर में सन 1735 में हुआ । इन्ह ने आगरा के अरबी-फ़ारसी के मशहूर अदीब ों से तालीम हाछसल की । निीर वहन्दू त्य हार ों में बहुत वदलचस्पी लेते थे और शाछमल ह कर वदल िान से लुत्फ़ उठाते थे । निीर दुवनया के रोंग में रोंगे हुए महाकवि थे । कवठन शब् ों के अथा बादशाह - रािा मुफ़छलस - गरीब गदा - छभखारी िरदार - मालदार बेनिा - कमि र वनअमत - स्वावदष्ट भ िन इममम - नमाि पढ़नेिाले ताड़ता - भाोंप लेना खुतबाख्ाों - कुरान शरीफ का अथा बतानेिाला अशराफ़ - शरीफ वदल-पिीर - वदल पसों द एक फूल की चाह पाठ का सार प्रस्तुत पाठ ‘एक फूल की चाह’ छु आछूत की समस्या से सं बं धित कविता है । महामारी के दौरान एक अछूत बाधलका उसकी चपेट में आ जाती है । िह अपने जीिन की अंवतम सााँसे ले रही है । िह अपने माता- वपता से कहती है वक िे उसे देिी के प्रसाद का एक फूल लाकर दें । वपता असमं जस में है वक िह मं वदर में कैसे जाए । मं वदर के पुजारी उसे अछूत समझते हैं और मं वदर में प्रिेश के योग्य नहीं समझते । वफर भी बच्ची का वपता अपनी बच्ची की अंवतम इच्छा पूरी करने के धलए मं वदर में जाता है । िह दीप और पुष्प अवपित करता है और फूल लेकर लौटने लगता है । बच्ची के पास जाने की जल्दी में िह पुजारी से प्रसाद लेना भूल जाता है । इससे लोग उसे पहचान जाते हैं । िे उस पर आरोप लगाते हैं वक उसने िर्षों से बनाई हुई मं वदर की पवित्रता नष्ट कर दी । िह कहता है वक उनकी देिी की मवहमा के सामने उनका कलुर्ष कुछ भी नहीं है । परंतु मं वदर के पुजारी तथा अन्य लोग उसे थप्पड़-मुक्ों से पीट-पीटकर बाहर कर देते हैं । इसी मार-पीट में देिी का फूल भी उसके हाथों से छूट जाता है । भक्तजन उसे न्यायालय ले जाते हैं । न्यायालय उसे सात वदन की सज़ा सुनाता है । सात वदन के बाद िह बाहर आता है , तब उसे अपनी बेटी की ज़गह उसकी राख धमलती है । इस प्रकार िह बेचारा अछूत होने के कारण अपनी मरणासन्न बेटी की अंवतम इच्छा पूरी नहीं कर पाता । इस मावमिक प्रसं ग को उठाकर कवि पाठकों को यह कहना चाहता है वक छु आछूत की कुप्रथा मानि-जावत पर कलं क है । यह मानिता के प्रवत अपराि है । कवि पररचय धसयारामशरण गुप्त इनका जन्म झांसी के वनकट धचरगांि में सन 1895 में हुआ था । राष्टरकवि मैधथलीशरण गुप्त इनके बड़े भाई थे तथा वपता भी कविताएं धलखते थे । ये महत्मा गांिी और विनोबा भािे के अनुयायी थे धजसका सं केत इनकी रचनाओं में धमलता है । गुप्त जी की रचनाओं का प्रमुख गुण है कथात्मकता । इन्ोंने सामाधजक कुरुवतयों पर करारी चोट की है । इनके काव्य की पृष्ठभूधम अतीत हो या ितिमान , उनमें आिुवनक मानिता की करुणा , यातना और द्िं द्ि समन्वित रूप में उभरा है । प्रमुख कायि प्रमुख कृवतयााँ - मौयि विजय , आर्द्ाि , पाथेय , मृण्मयी , उन्मुक्त , आत्मोत्सगि , दू िािदल और नकुल । कवठन शब्ों के अथि उद्िेधलत – भाि–विह्वल अश्रु- राधशयााँ – आाँसुओ ं की झड़ी प्रचं ड – तीव्र क्षीण – दबी आिाज़ मृतित्सा – धजस मााँ की सं तान मर गई हो रुदन – रोना दुदाांत – धजसे दबाना या िश में करना करना हो कॄश – कमज़ोर रि – शोर तनु - शरीर धशधथल – कमज़ोर अियि - अंग विह्वल – बेचैन स्वणि घन - सुनहले बादल ग्रसना - वनगलना वतधमर – अंिकार विस्तीणि – फैला हुआ रविकर जाल - सूयि वकरणों का समूह अमोवदत - आनं दपूणि विकला - ठे ला गया धसंह पौर - मं वदर का मुख्या द्वार पररिान - िस्त्र शुधचता – पवित्रता सरधसज – कमल अविश्रांत – वबना थके हुए कंठ क्षीण होना - रोने के कारण स्वर का क्षीण या कमजोर होना । प्रभात सजग - हलचल भरी सुबह । गीत पाठ का सार 'गीत-अगीत' कविता में कवि ने प्रकृवत के स दौं र्य के अवतररक्त जीि-जतौं ओौं के ममत्व, मानिीर् राग और प्रेमभाि का भी सजीि चित्रण है । कवि को नदी के प्रिाह में थट के विरह का गीत का सॄजन होता जान पड़ता है । उन्हें शक-शकी के विर्ा-कलापोौं में भी गीत सनाई देता है । कहीौं एक प्रेमी अपनी प्रेचमका को बलाने के चलए गीत गा रहा है चजसे सनकर प्रेचमका आौंनवदत होती है । कवि का मानना है वक नदी और शक गीत सृजन र्ा गीत-गान भले ही न कर रहे होौं, पर दरअसल िहााँ गीत का सृजन और गान भी हो रहा है । िे र्ह नही समझ पा रहे हैं क न ज्यादा सन्दर है - प्रकृवत के द्वारा वकए जा रहे विर्ाकलाप र्ा विर मनष्य द्वारा गार्ा जाने िाला गीत । कवि पररिर् रामधारी चसौंह वदनकर इनका जन्म वबहार के मौं गेर चजले के चसमररर्ा गााँि में 30 चसतम्बर 1908 को हुआ । िे सन 1952 में राज्यसभा के सदस्य मनोनीत वकर्े गए । भारत सरकार ने इन्हें ‘ पद्मभूषण ’ अलौं करण से अलौं कॄत वकर्ा । वदनकर जी को ‘ सौं स्कृवत के िार अध्यार् ’ पस्तक पर सावहत्य अकादमी परस्कार चमला ।अपनी काव्यकृवत ‘ उियशी ’ पर ज्ञानपीठ परस्कार से सम्मावनत वकर्ा गर्ा । वदनकर ओज के कवि माने जाते हैं । वदनकर की सबसे बड़ी विशेषता है अपने देश और र्ग के प्रवत सजगता । प्रमख कार्य कृवतर्ााँ - हुाँ कार, करुक्षेत्र, रश्मिरथी परशराम की प्रतीक्षा, उियशी,और सौं स्कॄवत के िार अध्यार् । कवठन शब्ोौं के अथय तवटनी – नदी िेगिती – तेज़ गवत से उपलोौं – वकनारोौं विधाता – ईश्वर वनझयरी – झरना पाटल – गलाब शक – तोता खोौंते – घोौंसला पणय – पत्ता वबधना - भाग्य आल्हा – एक लोक काव्य का नाम कड़ी – िे छौंद जो गीत को जोड़ते हैं गनती – वििार करती है । अग्नि पथ पाठ का सार प्रस्तुत कग्निता में कग्नि ने सं घर्षमय जीिन को 'अग्नि पथ' कहते हुए मनुष्य को यह सं देश ग्नदया है ग्नक राह में सुख रूपी छााँह की चाह न कर अपनी मं जजल की ओर कमषठतापूिषक ग्निना थकान महसूस ग्नकए िढते ही जाना चाग्नहए । कग्नि कहते हैं ग्नक जीिन सं घर्षपूर्ष है । जीिन का रास्ता कग्नठनाइयों से भरा हुआ है । परन्तु हमें अपना रास्ता खुद तय करना है । ग्नकसी भी पररस्थिग्नत में हमें दू सरों का सहारा नही लेना है । हमें कष्ट-मुसीितों पर जीत पाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है । कग्नि पररचय हररिं श राय िच्चन इनका जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहािाद शहर में 27 निं िर 1907 को हुआ । िच्चन कुछ समय तक ग्निश्वग्निधालय में प्राध्यापक रहने के िाद भारतीय ग्निदेश सेिा में चले गए थे । इस दौरान इन्होने कई देशों का भम्रर् ग्नकया और मं च पर ओजस्वी िार्ी में काव्यपाठ के जलए ग्निख्यात हुए । िच्चन की कग्निताएाँ सहज और सं िेदनशील हैं । इनकी रचनाओं में व्यस्थि-िेदना, राष्ट-र चेतना और जीिन दशषन के स्वर जमलते हैं । प्रमुख कायष कग्निता सं ग्रह - मधुशाला, ग्ननशा-ग्ननमं त्रर्, एकांत सं गीत, जमलन याजमनी, आरती और अंगारे, टू टती चटानें, रूप तरंग्नगर्ी । आत्मकथा के चार खंड - क्या भूलूाँ क्या याद करूाँ, नीड़ का ग्ननमाषर् ग्निर, िसेरे से दू र और दशद्वार से सोपान तक । कग्नठन शब्ों के अथष अग्निपथ - कग्नठनाइयों से भरा हुआ मागष । पत्र - पत्ता शपथ – कसम अश्रु - आंसू स्वेद – पसीना रि – खून लथपथ - सना हुआ । नए इलाके में... खुशबू रचते हैं हाथ पाठ का सार (1) नए इलाके में इस कविता में एक ऐसे दुवनया में प्रिेश का आमं त्रण है, जो एक ही वदन में पुरानी पड़ जाती है । यह इस बात का बोध कराती है वक जीिन में कुछ भी स्थायी नहीं होता । इस पल-पल बनती-वबगड़ती दुवनया में स्मृवतयों के भरोसे नहीं जजया जा सकता । कवि कहता है वक िह नए बसते इलाकों तथा नए-नए बनते मकानों के कारण रोज अपने घर का रास्ता भूल जाता है । िह अपने घर तक पहुँ चने रास्ते में पड़ने िाले वनशानों को याद रखता हआ आगे बढ़ता है लेवकन उसे िे वनशान नहीं जमलते । िह हर बार एक या दो घर आगे चला जाता है । इसजलए िह कहता है वक यहाुँ स्मॄवतयों का कोई भरोसा नहीं । यह दुवनया एक वदन में ही पुरानी पड़ जाती है । अब घर ढूुँ ढने का एक ही रास्ता है वक िह हर एक घर का दरिाजा खटखटाकर पूछे वक क्या उसका घर यही है? पर इसके जलए भी समय बहत कम है । कहीं इतने समय में ही विर कोई बदलाि न हो जाए । विर उसके मन में एक आशा जगती है वक शायद उसका कोई जाना-पहचाना उसे भटकते हए देखकर ऊपरी मं जजल से उसे पुकार कर कह दे वक िह रहा तुम्हारा घर । (2) खुशबू रचते हैं हाथ प्रस्तुत कविता 'खुशबू रचते हैं हाथ' में कवि ने हमारा ध्यान समाज के उपेजित िगग की ओर खींचने का प्रयास वकया है । ये अगरबत्ती बनाने िाले लोग हैं जो की हमारी जजं दगी को खुश्बुदार बनाकर खुद गं दगी में जीिन बसर कर रहे हैं । िे नाजलयों के बीच, कूड़े-करकट के ढेरों में रहकर अगरबत्ती बनाने का काम अपने हाथों से करते हैं । यहां कवि ने कई प्रकार की हाथों का जजक्र वकया है जो की मूलतः बनाने िालों की उम्र को वदखाने के जलए वकया गया है । लोगों के जीिन में सुगंध वबखरने िाले हाथ भयािह स्थस्थवतयों में अपना जीिन वबताने पर मज़बूर हैं । क्या विडंबना है वक खुशबू रचने िाले ये हाथ दू रदराज़ के सबसे गं दे और बदबूदार इलाकों में जीिन वबता रहे हैं । कवि पररचय अरुण कमल इनका जन्म वबहार के रोहतास जजले के नासरीगं ज में 15 फ़रिरी 1954 को हआ । ये पटना विश्वविद्यालय में प्राध्यापक भी रह चुके हैं । इन्हें अपनी कविताओं के जलए सावहत्य अकादमी पुरस्कार सवहत कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मावनत वकया गया है । प्रमुख कायग कविता सं ग्रह – अपनी केिल धार, सबूत नए इलाके में,पुतली में सं सार । आलोचना - कविता और समय । कवठन शब्ों के अथग इलाका- िेत्र अकसर – प्रायः ताकता – देखता ढहा – वगरा हआ ठकमकाता – डगमगाते हए स्मॄवत – याद िसं त – एक ऋतु पतझड – एक ऋतु जजसमें पेड़ों के पत्ते झड़ते हैं िैसाख – चैत के बाद आने िाला महीना भादों – सािन के बाद आने िाला महीना अकास - गगन कूड़ा-करकट – रद्दी या कचरा टोले – छोटी बस्ती जख्म – घाि मुल्क – देश खस – पोस्ता रातरानी – एक सुगंजधत िूल मशहूर - प्रजसद्ध

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