महारानी लक्ष्मीबाई का बलिदान PDF

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महारानी लक्ष्मीबाई इतिहास स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास

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यह पाठ महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान के बारे में बताता है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उनकी वीरता और त्याग को दर्शाया गया है। यह पाठ बच्चों के लिए एक प्रेरणादायक कहानी है।

Full Transcript

# महारानी लक्ष्मीबाई का बलिदान देश की स्वतंत्रता के इतिहास में झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सदा अमर रहेगा। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम में अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे करने वाली इस वीरांगना ने देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। उसने शत्रुओं से लड़कर झाँसी, कालपी और ग्वालियर के राज्य...

# महारानी लक्ष्मीबाई का बलिदान देश की स्वतंत्रता के इतिहास में झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सदा अमर रहेगा। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम में अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे करने वाली इस वीरांगना ने देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। उसने शत्रुओं से लड़कर झाँसी, कालपी और ग्वालियर के राज्य छीन लिए थे। दुर्भाग्य यह हुआ कि कई देसी रियासतों के राजा अंग्रेज़ों से जा मिले और बहुत से ऐशो-आराम में ही मस्त रहे। इधर अंग्रेज़ नए से नए अस्त्र-शस्त्र लेकर विशाल सेना के साथ युद्ध-भूमि में आ डटे। उन्होंने अवसर से लाभ उठाकर स्थान-स्थान पर फिर विजय प्राप्त कर ली। अंग्रेज़ों ने पेशवा की सेना को हराकर मुवार पर अधिकार कर लिया था। लक्ष्मीबाई ने ताँत्या टोपे द्वारा सैनिकों को संदेश भिजवाया - "वीरो! यह राग-रंग का समय नहीं है। शत्रु भयंकर और साधन-संपन्न है। हमें उससे स्वराज्य प्राप्त करना है। अतः प्राणों को हथेली पर रखकर और सिर पर कफ़न बाँधकर जीवन के अंतिम क्षण तक लड़ना होगा।" इसके बाद महारानी ने अपने एक स्वामिभक्त सैनिक रामचंद्र को बुलाया और उसे समझाया - "हो सकता है, मैं युद्ध करते-करते मारी जाऊँ। ऐसी दशा में तुम मेरे पुत्र दामोदर को अपनी पीठ पर बाँधकर दक्षिण में ले जाना। देखना, मेरे मरने के बाद भी स्वराज्य की लड़ाई समाप्त नहीं होनी चाहिए।" थोड़ी ही देर में अंग्रेज़ी सेना और महारानी की सेना में भयंकर युद्ध हो गया। तोपों की गड़गड़ाहट और धुएँ से संपूर्ण वायुमंडल भर गया। महारानी सेना का नेतृत्व करती हुई युद्ध के मैदान में आगे बढ़ने लगी। दुर्भाग्य से ग्वालियर की सेना अंग्रेज़ों से जा मिली। रानी को जिस सिंधिया से स्वतंत्रता के युद्ध में सहायता पाने की आशा थी, उसने सेना समेत अंग्रेज़ों के सामने घुटने टेक दिए। कैसा था दुर्भाग्य! लक्ष्मीबाई ने फिर भी साहस नहीं छोड़ा। इसी समय रानी को समाचार मिला कि उसकी एक संगिनी जूही शत्रुओं से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गई। उस वीरांगना पर साँडनी-सवारों ने मिलकर हमला बोल दिया था। वह फिर भी घबराई नहीं और जीवन के अंतिम क्षणों तक लड़ती रही। रानी को अपनी सहेली की मृत्यु से धक्का अवश्य लगा, पर उसने साहस नहीं छोड़ा। शत्रु-सेना निरंतर बढ़ती चली आ रही थी। ताँत्या टोपे चाहते थे कि महारानी को बचाकर युद्ध-क्षेत्र से दूर ले जाएँ, परंतु महारानी को जीवन से अधिक प्यारी युद्ध-भूमि थी। उसने युद्ध-क्षेत्र से बाहर जाने से इनकार कर दिया। थोड़ी देर बाद महारानी को सूचना मिली कि उसकी दूसरी सहेली मुंदरा भी लड़ते-लड़ते मारी गई। फिर जनरल ह्यूरोज़ अपनी सेना के साथ महारानी लक्ष्मीबाई से लड़ने आ गया। रानी की तलवार के वार से शत्रु के सैनिक कट-कटकर गिरने लगे। रानी के शौर्य को देखकर जनरल ह्यूरोज़ दंग रह गया। महारानी के अंगरक्षक उसे बचाने का प्रयास करने लगे, पर वह तो शत्रु-सेना में घुसती ही जा रही थी। महारानी का अपना पहला घोड़ा मर चुका था। वह ग्वालियर के अस्तबल से लाए गए नये घोड़े पर सवार थी। घोड़ा युद्ध-भूमि में अड़ गया। फिरंगियों ने रानी को घेर लिया, फिर भी वह घबराई नहीं। अपनी तलवार से शत्रुओं को धराशायी करने लगी। शत्रु ने भी उस वीरांगना की वीरता को देखकर दाँतों तले उंगली दबा ली। तभी ह्यूरोज़ ने निशाना साधकर पिस्तौल से गोली दाग दी। रानी घायल होकर गिर पड़ी। रानी के अंगरक्षक शत्रुओं की भीड़ में से मूच्छित रानी को उठाकर बाबा गंगादास की कुटिया में ले गए। रानी के शरीर से निरंतर खून की धारा बह रही थी। उसके प्राण-पखेरू उड़ना चाहते थे। सहसा रानी के मुख से निकला - 'पानी'! इतना कहकर उसकी आत्मा ने शरीर त्याग दिया। महारानी का शरीर निश्चेष्ट हो गया। महात्मा गंगादास की झोंपड़ी के पास ही रानी के शव को अग्नि दे दी गई। शेष रह गई मुट्ठी भर राख ! रानी की उस अमर कहानी को कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने इन शब्दों में कहा - > बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी। > खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी। रानी की समाधि उसी स्थान पर बनी हुई है, जहाँ उनकी चिता जली थी। उनकी समाधि रह-रहकर प्रेरणा देती है - 'हे भारतवासियो ! महारानी ने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। वह स्वतंत्रता के भवन की नींव का पत्थर थी। उसी पत्थर पर आज स्वतंत्रता का भवन शोभायमान हो रहा है।' हम भारतवासी अब स्वतंत्र हैं। यह समाधि हमें प्रेरणा दे रही है कि हम महारानी के बलिदान से प्राप्त स्वतंत्रता की रक्षा के लिए तैयार रहें और आवश्यकता पड़ने पर तन, मन और धन की आहुति देने में न चूकें।

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