स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचार PDF

Summary

यह दस्तावेज़ स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचारों की व्याख्या करता है, जिसमें राष्ट्रवाद, स्वतंत्रता और आदर्श राज्य के बारे में उनकी सोच शामिल है। उन्होंने भारतीय समाज में जन जागरण और राष्ट्रीय एकता के महत्व पर प्रकाश डाला।

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# स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचार ## स्वामी विवेकानन्द के राजनीतिक विचार स्वामी विवेकानन्द मूलतः एक सन्यासी साधु थे, कोई राजनीतिक दार्शनिक अथवा सिद्धांतकार नहीं। बावजूद इसके, उनके हृदय में देश, संस्कृति तथा व्यवस्था के प्रति प्रेम था। * वे एक शक्तिशाली वीर तथा गतिशील राष्ट्र निर्माण के पक्ष मे...

# स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचार ## स्वामी विवेकानन्द के राजनीतिक विचार स्वामी विवेकानन्द मूलतः एक सन्यासी साधु थे, कोई राजनीतिक दार्शनिक अथवा सिद्धांतकार नहीं। बावजूद इसके, उनके हृदय में देश, संस्कृति तथा व्यवस्था के प्रति प्रेम था। * वे एक शक्तिशाली वीर तथा गतिशील राष्ट्र निर्माण के पक्ष में नहीं थे तथापि वे हृदय से चाहते थे कि एक शक्तिशाली वीर तथा गतिशील राष्ट्र निर्माण हो। वे धर्म को राष्ट्रीय जीवन का स्वर मानते थे। * स्वामी जी गांधी जी की तरह ही राजनीतिक का आध्यात्मिकरण चाहते थे। * एक राजनीतिक विचारक के रूप में लोक-कल्याणकारी राजनीति के समर्थक थे तथा गांधी के समान ही राजनीति को धर्म तथा सार्वदेशिकता के धरातल पर खड़ा करना चाहते थे। ## राष्ट्रवाद संबंधी विचार * विवेकानंद के चिंतन में भारतीय राष्ट्रवाद को जागृत करने संबंधी विचार भरे हुए हैं। * उन्होंने राष्ट्रवाद के धार्मिक और प्रजातीय चैतन्य को दृढ़ करने पर बल दिया। * उनकी राष्ट्रवाद की धारणा धार्मिक-आध्यात्मिक वैचारिक तत्वों पर आधारित हैं। * वे लिखते हैं: **"भविष्य की वह देवी हूँगा, जिसका मुख देदीप्यमान हैं, बाएं हाथ में जिसने अपने शत्रु असुर की चोटी पकड़ रखी हैं तथा जिसका दाहिना हाथ भयभीत नहीं होने के लिये आश्वासन देता है।" ** * भारत की शक्ति की प्रतीक माता का चित्रण करके स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की धारणा प्रस्तुत की। * आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन में विवेकानंद का यह अपूर्ण योगदान था कि उन्होंने राजनीतिक धारणाओं को राष्ट्रवाद की धारणा को आध्यात्मवादी वैचारिक रूप प्रदान किया। * विवेकानंद के इस प्रकार के चिंतन के साथ आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन में आध्यात्मीकरण की परम्परा का श्री गणेश हुआ जिसको कालान्तर में अरविंद घोष तथा महात्मा गाँधी ने आगे बढ़ाया। * संक्षेप में, विवेकानंद ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद जैसी अवधारणाओं को आध्यात्मिक पुत प्रदान किया। ## विवेकानंद के स्वतंत्रता संबंधी विचार * स्वामी विवेकानन्द भारतीय नव-जागरण और एक महान धार्मिक राजनीतिक चिंतक थे। वे राजनीति के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण विचार स्वतंत्रता संबंधी विचारों में हमें मिलते हैं। * उनकी स्वतंत्रताप्रिय स्वामी विवेकानन्द कहते थे: **"अखिल प्रयास में स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए कर्मों एवं वाणी में उनकी स्वतंत्रप्रियता झलकती रहती थी।" ** * वे कहते थे: ** "जीवन में समृद्धि की एकमात्र शर्त हैं- चिंतन एवं कार्यों की स्वतंत्रता। जहां यह नहीं है, उस जगह मनुष्य जाति एवं राष्ट्र का पतन निश्चित है।" ** * विवेकानंद कहते थे कि: **" सारा संसार ही तीव्र गति से स्वतंत्रता की ओर अग्रसर है एवं उसी के द्वारा खोज रहा है।" ** * स्वामी विवेकानन्द के अनुसार: ** "शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वतंत्रता की ओर अग्रसर होना मनुष्य का ध्येय है। दूसरों को उसकी ओर अग्रसर होने में सहायता देना मनुष्य का सबसे बड़ा पुरस्कार है। जो सामाजिक नियम स्वतंत्रता के विकास में बाधा डालते वे हानिकारक हैं और उन्हें शिघ्र नष्ट करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।" ** * उन्होंने संस्थानों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जिनके द्वारा मनुष्य स्वतंत्रता के मार्ग पर आगे बढ़ता हैं * वे कहते थे कि स्वतंत्रता की ज्योति में ही विकास की ओर बढ़ने का रास्ता आलोकित हैं और ही आध्यात्मिक प्रगति का मूल हैं * इस बात में थी कि उन्होंने अपनी आध्यात्मिक भावना के साथ-साथ मनुष्य की सामाजिक प्रगति के लिए समस्त आवश्यक एवं विश्वास रखता था। उन्होंने शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार की स्वतंत्रता में विश्वास रखी. उन्होंने कहा कि मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि स्वतंत्रता ही हैं। * उन सामाजिक नियमों को वे मनुष्य के विकास में बाधक मानते हैं जो मनुष्य की स्वतंत्रता पर कृत्रिम एवं आंशिक बंधन रखते हैं * उन्होंने कहा कि ऐसे नियमों को तत्काल ही सामाप्त किया जाना चाहिए तथा ऐसी सस्थाओं को ही प्रोत्साहन देना चाहिए जो मनुष्य की स्वतंत्रता के पथ की ओर अग्रसर करने में सहायक सिद्ध होता है। * स्वामी विवेकानंद स्वतंत्रता को मनुष्य का प्राकृतिक अधिकार मानते थे। उनकी इच्छा थीकि मनुष्य सभी नागरिकों को यह अधिकार समान रूप से प्राप्त होना चाहिए। शिक्षा, ज्ञान की प्राप्ति के अवसर समान होना चाहिए। इसमें कोई बंधन नहीं लगाया जाना चाहिए। * इसी तरह सभक को सभक को कोई व्यक्ति की भौतिक स्वतंत्रता की भी कामना नहीं है कि धन के गबन पर किसी प्रकार की धनी नियंत्रण रखा जाए। किसी दूसरे प्रकार की धान पहुंचाएं बिना हमें अपनी सम्पत्ति एवं बुद्धि के उपयोग की स्वतंत्रता प्राप्त होनी ही चाहिए * यह हमारा प्राकृतिक अधिकार है । ## राष्ट्रीय एकता * विवेकानंद के विचारों में राष्ट्रीय एकता के भाव भरे हुए हैं। * भारत में राष्ट्रीय एकता की धारणा थी। * भारत राष्ट्र के परतंत्र रूप अपना अस्तित्व विस्मृत कर चुका है। जिसका परिणाम है कि यह प्राचीन और पाश्चात्य संस्कृति की उपस्थिति है, जो राष्ट्र एकता के लिए रास्ता अवरुद्ध कर रही है । * उनकी मान्यता है कि राष्ट्रीय एकता के लिए राष्ट्रीय गर्व के भावों को पुनर्जाग्रत करने की जरूरत है। इस दिशा में उन्होंने सक्रिय प्रयास भी किये। भारतवासियों को जागरण का संदेश देते हुए विवेकानंद कहते हैं: "निर्भीक बनो, साहस धारण करो, पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो। इस बात के साथ यह घोषित करो की 'मैं भारतीय हूं और प्रत्येक भारतीय बंधु हैं। भारतीय मेरा भाई हैं, अछूत भारतीय मेरा भाई है। --- 'भारतीय मेरा जीवन है। भारत की देवी - देवता मेरा ईश्वर हैं। भारत की पवित्र भूमि मेरा स्वर्ग हैं। भारत का कल्याण मेरा कल्याण हैं।" * स्वामी विवेकानंद के इन विचारों में राष्ट्र की एकता के भावों का नाद हैं। ## आदर्श राज्य की कल्पना * विवेकानंद ने आदर्श राज्य की अपनी कल्पना प्रस्तुति की और देश के पिछड़े वर्ग के उदय शूद्र राज्य के हृदय में विश्वास व्यक्त किया। * वे ऐसा आदर्श राज्य स्थापित करना चाहते थे जिसमें क्षत्रिय काल का ज्ञान- ब्राह्मण काल की सभ्यता - वैश्य काल का प्रचार- शूद्र काल की समानता रखी जा सके। पहले तीनों का राज्य हो चुका हैं। अब शूद्र का काल आ गया है - वे अवश्य राज्य करेंगे तथा उन्हें कोई नहीं रोक सकता । ## व्यक्ति के गौरव में विश्वास * विवेकानंद मनुष्य के नैतिक गुणों व्यक्ति के गौरव के पोषक थे। विवेकानंद ने मनुष्य की स्वाधीनता के उच्चतम रूप का प्रतिनिधि मानते हुए, उसके गौरव में गंभीरता आस्था प्रकट की। ## अंतरराष्ट्रीयतावाद * विवेकानंद अंतरराष्ट्रीयतावादी थे - वे विश्व-बधुत्व के समर्थक थे। विवेकानंद को नि:संदेह भारत से असीम प्यार था तथा वे हिंदू धर्म तथा समाज के उत्थान के अभिलाषी थे पर दुनिया की अन्य किसी भी जाति से अथवा दुनिया के अन्य किसी भी राष्ट्र से उन्हें घृणा नहीं थी। * विवेकानंद के समाजवादी हृदय ने इन शब्दों को चीत्कार किया, "मैं उस भगवान में विश्वास नहीं करता जो न विधवाओं के आंसू पोछ सकता है तथा न अनाथों के मुंह में एक टुकड़ा रोटी ही पहुंचा सकता हैं।" * विवेकानंद ने हृदय में गरीबों तथा पददलितों के प्रति असीम संवेदना थी । स्वामी विवेकानंद अर्थ में समाजवादी नहीं थे जिस अर्थ में हम आधुनिक किसी राजनीतिक दार्शनिक को समाजवादी कहते हैं। उनकी दृष्टि में समाजवाद निर्दोष या आदर्श व्यवस्था नहीं थी। ## निष्कर्ष * विवेकानंद के तेजोमय चिंतन के मयन-मंथन से यह निष्कर्ष निकलना स्वाभाविक है कि उन्होंने देश में जनजागरण का मंत्र फुंका तथा देशवासियों को शाक्त तथा निर्भयता के मार्ग पर आगे बढ़ाया। * भारतीय राष्ट्रवाद की नींव उन्होने मजबूती से रख दी और दलित - वर्ग को ऊपर उठाने की सिद्धांत रख दी और भारतीय राष्ट्रवाद के सिद्धांत की नींव रखी * दलित वर्ग को ऊपर उमया उठाने का, प्रेम तथा विश्व - बधुत्व का संदेश दिया । * पूर्ण तथा पश्चिम की संस्कृतियों में समन्वय आदि महत्वपूर्ण कार्य किये। * धार्मिक मूढ़ता को दूर करने का जैसे किसी सामाजिक जड़ता तथा सडे हुए पानी को साफ करने के लिए किया जाता हैं।

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