चिन्तामणि_११—कविता क्या है - विकिस्रोत PDF

Summary

यह लेख कविता के विषय में चर्चा करता है कि यह मनुष्य के भावों, विचारों और अनुभवों को कैसे व्यक्त करती है। यह विभिन्न प्रकार के विषयों और घटनाओं के माध्यम से कविता के सौंदर्य और मानवीय अनुभव को समझने में मदद करता है।

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चतामण/११—कवता या है < चतामण कवता या है? मनुय अपने भाव, वचार और ापार को लये-दये सर के भाव, वचार और ापार के साथ कह मलता और कह लड़ाता आ अत तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जस अनत-पामक े म यह वसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत्। जब तक कोई अपनी पृथक् सा क भावना को ऊपर कए इस े से नाना प और ापारो क...

चतामण/११—कवता या है < चतामण कवता या है? मनुय अपने भाव, वचार और ापार को लये-दये सर के भाव, वचार और ापार के साथ कह मलता और कह लड़ाता आ अत तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जस अनत-पामक े म यह वसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत्। जब तक कोई अपनी पृथक् सा क भावना को ऊपर कए इस े से नाना प और ापारो को अपने योग-ेम, हान-लाभ, सुख-ख आद से सब करके देखता रहता है तब तक उसका दय एक कार से ब रहता है। इन प और ापार के सामने जब कभी वह अपनी पृथक् सा क धारणा से छूटकर—अपने आपको बकुल भूलकर— वशु अनुभूत मा रह जाता है, तब वह मु-दय हो जाता है। जस कार आमा क मुावा ानदशा कहलाती है उसी कार दय क यह मुावा रसदशा कहलाती है। दय क इसी मु क साधना के लए मनुय क वाणी जो शद वधान करती आई है उसे कवता कहते ह । इस साधना को हम भावयोग कहते ह और कमयोग और ानयोग का समक मानते ह । कवता ही मनुय के दय को वाथ-सब के संकुचत मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामाय भाव-भूम पर ले जाती है जहाँ जगत् क नाना गतय के माम क वप का सााकार और शु अनुभूतय का सचार होता है। इस भूम पर प ँचे ए मनुय को कुछ काल के लए अपना पता नह रहता। वह अपनी सा को लोकसा म लीन कए रहता है। उसक अनुभूत सब क अनुभूत होती है। या हो सकती है। इस अनुभूत-योग के अयास से हमारे मनोवकार का परकार तथा शेष सृ के साथ हमारे रागामक सब क रा और नवाह होता है। जस कार जगत् अनेक-पामक है उसी कार हमारा दय भी अनेक- भावामक है। इन अनेक भाव का ायाम और परकार तभी समझा जा सकता है जब क इन सबका कृत सामय जगत् के भ-भ प, ापार या तय के साथ हो जाय। इह भाव के सू से मनुय-जात जगत् के साथ तादामय का अनुभव चरकाल से करती चली आई है। जन प और ापार से मनुय आदम युग से ही परचत है, जन प और ापार को सामने पाकर वह नर-जीवन के आर से ही लु और ु होता आ रहा है, उनका हमारे भाव के साथ मूल या सीधा सब है। अतः का के योजन के लए हम उह मूल प और मूल ापार कह सकते ह । इस वशाल व के य से य और गूढ़ से गूढ़ तय को भाव के वषय या आलबन बनाने के लए इह मूल प और मूल ापार म परणत करना पड़ता है। जब तक वे इन मूल माम क प म नह लाए जाते तब तक उनपर का नह पड़ती। वन, पवत, नद, नाले, नझर, कछार, पटपर, चान, वृ, लता, झाड़ी, फुस, शाखा, पशु-पी, आकाश, मेघ, न, समु इयाद ऐसे ही चरसहचर प ह । खेत, ढुर, हल, झापड़े, चौपाए इयाद भी कुछ कम पुराने नही ह। इसी कार पानी का बहना, सूखे प का झड़ना, बजली का चमकना, घटा का घेरना, नद का उमड़ना, मेह का बरसना, कुहरे का छाना, डर से भागना, लोभ से लपकना, छनना, झपटना, नद या दलदल से बाँह पकड़कर नकालना, हाथ से खलाना, आग म झकना, गला काटना ऐसे ापार का भी मनुय-जात के भाव के साथ अयत ाचीन साहचय है। ऐसे आदम पो और ापारो म , वंशानुगत वासना क दघ-पररा के भाव से, भाव के उोधन क गहरी श सचत है; अतः इनके ारा जैसा रस-परपाक सव है वैसा कल, कारखाने, गोदाम, टेशन एंजन, हवाई जहाज ऐसी वतु तथा अनाथालय के लए चेक काटना, सव व-हरण के जाली दतावेज़ बनाना, माटर क चरखी घुमाना या ए न म कोयला झोकना आद ापारो ारा नह। सयता के आवरण और कवता सयता क वृ के साथ साथ य-य मनुय के ापार बपी और जटल होते गए य-य उनके मूल प बत कुछ आ होते गए। भाव के आदम और सीधे लय के अतर और-और लय क ापना होती गई, वासनाजय मूल ापार के सवा बु -ारा नत ापार का वधान बढ़ता गया। इस कार बत से ऐसे ापार से मनुय घरता गया जनके साथ उसके भाव का सीधा लगाव नह। जैसे आद म भय का लय अपने शरीर और अपनी सतत ही क रा तक था; पर पीछे गाय, बैल, अ आद क रा आवयक ई, यहाँ तक क होते-होते धन, मान, अधकार, भुव इयाद अनेक बात क रा क चता ने घर कया और रा के उपाय भी वासनाजय वृ से भ कार के होने लगे इसी कार ोध, घृणा, लोभ आद अय भाव के वषय भी अपने मूल प से भ प धारण करने लगे। कुछ भाव के वषय तो अमूत तक होने लगे, जैसे कत क लालसा। ऐसे भाव को ही बौ-दशन म 'अपराग' कहते ह । भाव के वषय और उनके ारा ेरत ापार म जटलता आने पर भी उनका सब मूल वषय और मूल ापार से भीतर भीतर बना है और बराबर बना रहेगा। कसी का कुटल भाई उसे स से एकदम वचत रखने के लए वकल क सलाह से एक नया दतावेज़ तैयार करता है। इसक ख़बर पाकर वह ोध से नाच उठता है। य ावहारक से तो उसके ोध का वषय है वह दतावेज़ या काग़ज़ का टुकड़ा। पर उस कागज़ के टुकड़े के भीतर वह देखता है क उसे और उसक सतत को अ-व न मलेगा। उसके ोध का कृत वषय न तो वह कागज़ का टुकड़ा है और न उस पर लखे ए काले-काले अर। ये तो सयता के आवरण मा ह । अतः उसके ोध म और उस कु े के ोध म जसके सामने का भोजन कोई सरा कुा छन रहा है का से कोई भेद नह है—भेद है केवल वषय के थोड़ा प बदलकर आने का। इसी प बदलने का नाम है सयता। इस प बदलने से होता यह है क ोध आद को भी अपना प कुछ बदलना पड़ता है, वह भी कुछ सयता के साथ अे कपड़े-ल े पहनकर समाज म आता है जससे मार-पीट, छन-खसोट आद भे समझे जानेवाले ापार का कुछ नवारण होता है। पर यह प वैसा मम श नह हो सकता। इसी से इससे ता का उाटन कव-कम का एक मुय अंग है। य- य सयता बढ़ती जायगी य-यो कवयो के लए यह काम बढ़ता जायगा। मनुय के दय क वृय से सीधा सब रखनेवाले प और ापार को य करने के लए उसे बत से पद को हटाना पड़ेगा। इससे यह है क यो-य हमारी वृय पर सयता के नए-नए आवरण चढ़त ेजायँगे य-यो एक ओर तो कवता क आवयकता बढ़ती जायगी, सरी ओर कव कम कठन होता जायगा। ऊपर जस ु का उदाहरण दया गया है वह यद ोध से छु पाकर अपने भाई के मन म दया का सचार करना चाहेगा तो ोभ के साथ उससे कहेगा, "भाई! तुम यह सब इसी लए न कर रहे हो क तुम पक हवेली म बैठकर हलवा पूरी खाओ और म एक झोपड़ी म बैठा सूखे चने चबाऊँ, तुहारे लड़के दोपहर को भी शाले ओढ़कर नकल और मेरे ब े रात को भी ठड से काँपते रहे। यह आ कृत प का यीकरण। इसम सयता के बत से आवरण को हटाकर वे मूल गोचर प सामने रखे गए ह जनसे हमारे भाव का सीधा लगाव है और जो इस कारण भाव को उ ेजत करने म अधक समथ ह । कोई बात जब इस प म आएगी तभी उसे का के उपयु प ात होगा। "तुमने हम नुकसान प ँचाने के लए जाली दतावेज बनाया" इस वाय म रसामकता नह। इस बात को यान म रखकर वनकार ने कहा है—"नह कवेरतवृमानवाहेणामपदलाभः।" देश क वतमान दशा के वणन म यद हम केवल इस कार के वाय कहते जायँ क "हम मूख, बलहीन और आलसी हो गए ह , हमारा धन वदेश चला जाता है, पये का डेढ़ पाव घी बकता है, ी-शा का अभाव है" तो ये छदोब होकर भी का पद के अधकारी न हगे। सारांश यह क का के लये अनेक ल पर हम भाव के वषय के मूल और आदम प तक जाना होगा जो मूत और गोचर हगे। जब तक भाव से सीधा और पुराना लगाव रखनेवाले मूत और गोचर प न मलगे तब तक का का वातवक ढाँचा खड़ा न हो सकेगा। भाव के अमूत वषय क तह म भी मूत और गोचर प छपे मलगे; जैसे, यशोलसा म कुछ र भीतर चलकर उस आनद के उपभोग क वृ छपी ई पाई जायगी जो अपनी तारीफ़ कान म पड़ने से आ करता है। का म अथ हण मा से काम नह चलता; बबहण अपेत होता है। यह बबहण नद, गोचर और मूत वषय का ही हो सकता है। 'पये का डेढ़ पाव घी मलता है,' इस कथन से कपना म यद कोई बब या मूत उप त होगी तो वह तराजू लए ये बनये क होगी जससे हमारे कणा भाव का कोई लगाव न होगा। बत कम लोग को घी खाने को मलता है, अधकतर लोग खी-सूखी खाकर रहते ह , इस तय तक हम अथ हण-पररा ारा इस चकर के साथ प ँचते ह —एक पये का बत कम घी मलता है; इससे पयेवाले ही घी खा सकते ह, पर पयेवाले बत कम ह ; इससे अधकांश जनता घी नह खा सकती, खी-सूखी खाकर रहती है। कवता और सृ-सार दय पर नय भाव रखवाले पो और ापारो को भावना के सामने लाकर कवता बा कृत के साथ मनुय क अतःकृत का सामय घटत करती ई उसक भावामक सा के सार का यास करती है। यद अपने भाव को समेटकर मनुय अपने दय को शेष सृ से कनारे कर ले या वाथ क पशुवृ म ही लत रख ेतो उसक मनुयता कहाँ रहेगी? यद वह लहलहाते ए खेत और जंगल, हरी घास के बीच घूम-घूमकर बहते ए नाल, काली चान पर चाँद क तरह ढलते ए झरन, मंजरय से लद ई अमराइय और पट पर के बीच खड़ी झाड़य को देख ण भर लीन न आ, यद कलरव करते ए पय के आनदोसव म उसने योग न दया यद खले ए फूल को देख वह न खला, यद सुदर प सामने पाकर अपनी भीतरी कुपता का उसने वसजन न कया, यद दनखी का आतनाद सुन वह न पसीजा, यद अनाथ और अबला पर अयाचार होते देख ोध से न तलमलाया, यद कसी वेढव और वनोदपूण य या उ पर न हँसा तो उसके जीवन म रह या गया? इस वका क रसधारा म जो थोड़ी देर के लए नमन न आ उसके जीवन को मल क याी ही समझना चाहये। का कह तो १. नरे के भीतर रहती है, कह २. मनुयेतर बा सृ के और ३. कह समत चराचर के। १. पहले नरे को लेते ह। संसार म अधकतर कवता इसी े के भीतर ई है। नरव क बा कृत और अतःकृत के नाना सब और पाररक वधान का सङ्कलन या उावना ही का म —मुक ह या ब—अधकतर पाई जाती है। ाचीन महाका और खडका के माग म यप शेष दो े भी बीच-बीच म पड़ जाते ह पर मुय याा नरे के भीतर ही होती है। वामीक-रामायण म यप बीच-बीच म ऐसे वशद वणन बत कुछ मलते ह जनम कव क मुध धानतः मनुयेतर बा कृत के प जाल म फँसी पाई जाती है, पर उसका धान वषय लोकचर ही है। और ब-का के सब म भी यही बात कही जा सकती है। रहे मुक या फुटकल प, वे भी अधकतर मनुय ही क भीतरी बाहरी वृय से सब रखते ह । साहय-शा क रस-नपण-पत म आलबन के बीच बा कृत को ान ही नह मला है। वह उपन मा मानी गई है। शृंगार के उपन प म जो ाकृतक य लाए जाते है, उनके त रतभाव नह होता; नायक या नायका के त होता है। वे सरे के त उप ीत को उत करनेवाले होते ह ; वयं ीत के पा या आलबन नह होते। संयोग म वे सुख बढ़ाते ह और वयोग म काटने दौड़ते ह । जस भावोेक और जस योरे के साथ नायक या नायका के प का वणन कया जाता है उस भावोेक और उस योरे के साथ उनका नह। कह कह तो उनके नाम गनाकर ही काम चला लया जाता है। मनुय के प, ापार या मनोवृय के साय, साधय क से जो ाकृतक वतु-ापार आद लाए जाते ह उनका ान भी गौण ही समझना चाहए। वे नर-सबी भावना को ही ती करने के लए रखे जाते ह । २. मनुयेतर बा कृत का आलबन के प म हण हमारे यहाँ संकृत के ाचीन ब-का के बीच-बीच म ही पाया जाता है। वहाँ कृत का हण आलबन के प म आ है, इसका पता वणन क णाली से लग जाता है। पहले कह आए ह क कसी वणन म आई ई वतु का मन म हण दो कार का हो सकता है—बबहण और अथ हण। कसी ने कहा 'कमल'। अब इस, 'कमल' पद का हण कोई इस कार भी कर सकता है क ललाई लये ए सफेद पङ्खड़य और झुके ए नाल आद के सहत एक फूल क मूत मन म थोड़ी देर के लए आ जाय या कुछ देर बनी रहे; और इस कार भी कर सकता है क कोई च उप त न हो; केवल पद का अथ मा समझकर काम चला लया जाय। का के य-चण म पहले कार का सङ्केत-हण अपेत होता है और वहार तथा शाचचा म सरे कार का। बबहण वह होता है जहाँ कव अपने सूम नरीण ारा वतु के अंग-यंग, वण, आकृत तथा उनके आस-पास क पर त का परर सं ववरण देता है। बना अनुराग के ऐसे सूम योर पर न जा ही सकती है, न रम ही सकती है। अतः जहाँ ऐसा पूण और सं चण मले वहाँ समझना चाहए क कव ने बा कृत को आलबन के प म हण कया है। उदाहरण के लए वामीक का यह हेमत वणन लीजए— अवयाय-नपातेन कचलशाला। वनाना शोभते भूमन वतणातपा॥ ृशंतु वपुलं शीतमुदकं रदः सुखम्। अयततृपतो वयः तसहरते करम्॥ अवयाय-तमौना नीहार-तमसावृतः। सुता इव लयते वपुपा वनराजयः॥ वापसंछसलला तवेयसारसः। हमावालुकैतीरैः सरतो भात सातम्॥ जरा-जज रतैः पैः शीणकेसरकणकैः। नालशेषैहमवतैन भात कमलाकराः॥ (वन क भूम, जसक हरी हरी घास ओस गरने से कुछ कुछ गीली हो गई ह, तण धूप के पड़ने से कैसी शोभा दे रही है। अयत यासा जंगली हाथी बत शीतल जल के श से अपनी सूँड़ सकोड़ लेता है। बना फूल के वन-समूह कुहरे के अकार म सोये से जान पड़ते ह। नदयाँ, जनका जल कुहरे से ढका आ है और जनम सारस पय का पता केवल उनके शद से लगता है, हम से आ बालू के तट से ही पहचानी जाती ह । कमल, जनके पे जीण होकर झर गए ह , जनक केसर- कण काए ँटूट-फूटकर छतरा गई ह , पाले से वत होकर नाल मा खड़े ह । मनुयेतर वा कृत का इसी प म हण कुमारसव के आर तथा रघुवंश के बीच-बीच म मलता ह । नाटक यप मनुय ही क भीतर बाहरी वृय के दशन के लए लखे जाते ह और भवभूत अपने मामक और ती अतवृ वधान के लए ही स ह , पर उनके 'उर-रामचरत' म कह कह बा कृत के बत ही सांग और सं खड च पाए जाते ह। पर मनुयेतर बा कृत क जो धानता मेघत म मली है वह संकृत के और कसी का म नह। 'पूवमेघ' तो यहाँ से वहाँ तक कृत क ही एक मनोहर झाँक या भारतभूम के वप का ही मधुर यान है। जो इस वप के यान म अपने को भूलकर कभी-कभी मन आ करता है वह घूम-घूमकर वृता दे या न दे, चदा इका करे या न करे, देशवासय क आमदनी का औसत नकाले या न नकाले, सा देशेमी है। मेघत न कपना क ड़ा है, न कला क वचता। वह है ाचीन भारत के सबसे भावुक दय क अपनी यारी भूम क प-माधुरी पर सीधी-साद ेम-। अनत प म कृत हमारे सामने आती है—कह मधुर, सुस त या सुदर प म , कह खे बेडौल या कक श प म; कह भ, वशाल या वच प मे; कह उ कराल या भयङ्कर प म । स े कव का दय उसके इन सब प म लीन होता है यक उसके अनुराग का कारण अपना खास सुख-भोग नह, बक चर-साहचय ारा तत वासना है। जो केवल फुल- सून-साद के सौरभ-सचार, मकरद-लोलुप, मधुप-गुार, कोकल-कँूजत, नकु और शीतल-सुखश समीर इयाद क ही चचा कया करते ह वे वषयी या भोगलसु है। इसी कार जो केवल मुाभास हमब-मडत मरकताभ-शाल- जाल, अयत वशाल गरशखर से गरते ए जलपात के गीर ग से उठ ई सीकर-नीहारका के बीच ववधवण ुरण क वशालता, भता और वचता म ही अपने दय के लये कुछ पाते ह, वे तमाशबीन है—से भावुक या सदय नह। कृत के साधारण असाधारण सब कार के प म रमानेवाले वणन हम वामीक, कालदास, भवभूत आद संकृत के ाचीन कवय म मलते ह । पछले खेवे के कवय ने मुक-रचना म तो अधकतर ाकृतक वतु का अलग-अलग उलेख मा उपन क से कया है। ब रचना म जो थोड़ा-बत सं चण कया है वह कृत क वशेष प-वभूत को लेकर ही। अँगरेज़ी के पछले कवय म वड्सवथ क सामाय, चर-परचत, सीधे-सादे शात और मधुर य क ओर रहती थी; पर शेली क असाधारणा, भ और वशाल क ओर। साहचय-स ूत रस के भाव से सामाय सीधे-सादे चरपरचत य म कतने माधुय क अनुभूत होती है! पुराने कव कालदास ने वषा के थम जल से स तुरत क जोती ई धरती तथा उसके पास बखरी ई भोली चतवनवाली ामवनता म , साफ सुथरे ामचैय और कथा-कोवद ाम-वृ म इसी कार के माधुय का अनुभव कया था। आज भी इसका अनुभव लोग करते है। बाय या कौमार अवा म जस पेड़ के नीचे हम अपनी मडली के साथ बैठा करते थे, चड़चड़ी बुढ़या क जस झपड़ी के पास से होकर हम आते-जाते थे उसक मधुर मृत हमारी भावना को बराबर लीन कया करती है। बुी क झोपड़ी म न कोई चमक-दमक थी, न कला-कौशल का वैचय। म क दवार पर फूस का छपर पड़ा था; नव के कनारे चढ़ ई म पर सयानासी के नीलाभ-हरत कटले, कटावदार पौधे खड़े थ ेजनके पील ेफूल के गोल सुट के बीच लाल-लाल बदयाँ झलकती थ। सारांश यह क केवल असाधारणव क च सी सदयता क पहचान नह है। शोभा और सौदय क भावना के साथ जनम मनुय-जात के उस समय के पुराने सहचर क वंशपररागत मृत वासना के प म बनी ई है जब वह कृत के खुले े म वचरती थी, वे ही पूरे सदय या भावुक कहे जा सकते ह । वय और ामीण दोन कार के जीवन ाचीन है; दोन पेड़-पौध, पशु-पय, नद-नाल और पवत-मैदान के बीच तीत होते ह, अतः कृत के अधक प के साथ सब रखते ह । हम पेड़-पौध और पशुपय के सब तोड़कर बड़े-बड़े नगर म आ बसे; पर उनके बना रहा नह जाता। हम उह हर व पास न रखकर एक घेरे म बद करते है और कभी-कभी मन बहलाने के लए उनके पास चले जाते ह । हमारा साथ उनसे भी छोड़ते नह बनता। कबूतर हमारे घर के छ के नीचे सुख से सोते ह , गौरे हमारे घर के भीतर आ बैठते ह ; बली अपना हसा या तो यावँ यावँ करके माँगती है या चोरी से ले जाती है, कु े घर क रखवाली करते ह , और वासुदेवजी कभी-कभी दवार फोड़कर नकल पड़ते ह । बरसात के दन म जब सुख चूने क कड़ाई क परवा न कर हरी हरी घास पुरानी छत पर नकलने लगती है, तब हम उसके ेम का अनुभव होता है। वह मान हम ढँूढती ई आती है और कहती है क "तुम हमसे य र-र भागे फरते हो?" जो केवल अपने वलास या शरीर-सुख क सामी ही कृत म ढँूढा करते ह उनम उस रागामक "सव" क कमी है जो सा मा के साथ एकता क अनुभूत म लीन करके दय के ापकव का आभास देता है। स ूण साए ँएक ही परम सा और स ूण भाव एक ही परम भाव के अतभूत है। अतः बु क या से हमारा ान जस अैत भूम पर प ँचता है उसी भूम तक हमारा भावमक दय भी इस सव-रस के भाव से प ँचता है। इस कार अत म जाकर दोन प क वृय का समवय हो जाता है। इस समवय के बना मनुयव क साधना पूरी नह हो सकती ह। मामक तय मनुयेतर कृत के बीच के प-ापार कुछ भीतरी भाव या तय क भी ना करते है। पशु-पय के सुख-ःख, हष- वषाद, राग-ेष, तोष-ोभ, कृपा-ोध इयाद भाव क ना जो उनक आकृत, चेा, शद आद स ेहोती है, वह तो ायः बत य होती है। कवय के उन पर अपने भाव का आरोप करने क आवयकता ायः नह होती। तय का आरोप या सावना अलबत वे कभी-कभी कया करते ह । पर इस कार का आरोप कभी-कभी कथन को, 'का' के े से घसीटकर 'सू ' या "सुभाषत" के े म डाल देता है। जैसे, 'कौवे सवेरा होते ही य चलाने लगते ह ? वे समझते ह क सूय अकार का नाश करता बढ़ा आ रहा है, कह धोखे म हमारा भी नाश न कर दे।' यह सू मा है, का नह। जहाँ तय केवल आरोपत या सावत रहते ह वहाँ वे अलङ्कार प म ही रहते ह। पर जन तय का आभास हम पशु-पय के प, ापार या पर त म ही मलता है वे हमारे भाव के वषय वातव म हो सकते ह। मनुय सारी पृवी छकता चला जा रहा है। जंगल कट-कटकर खेत, गाँव और नगर बनते चले जा रहे ह । पशु-पय का भाग छनता चला जा रहा है। उनके सब ठकान पर हमारा नुर अधकार होता चला जा रहा है। वे कहाँ जायँ? कुछ तो हमारी गुलामी करते ह । कुछ हमारी बती के भीतर या आसपास रहते ह और छन झपटकर अपना हक ले जाते ह । हम उनके साथ बराबर ऐसा ही वहार करते ह मान उह जीने का कोई अधकार ही नह है। इन तय का सा अभास हम उनक पर त से मलता है। अतः उनम से कसी क चेावशेष म इन तय क मामक ना क तीत काानुभूत के अतगत होगी। यद कोई बदर हमारे सामने से कोई खाने-पीने क चीज़ उठा ले जाय और कसी पेड़ के ऊपर बैठा-बैठा हम घुड़क दे, तो का से हम ऐसा मालूम हो सकता है क— देते है घुड़क यह अथ-ओज-भरी हर "जीने का हमारा अधकार या न गया रह? पर-तषेध के सार बीच तेरे, नर! ड़ामय जीवन-उपाय है हमारा यह। दानी जो हमारे रहे वे भी दास तेरे ए; उनक उदारता भी सकता नही तू सह। फूली फली उनक उम उपकार क तू छेकता है जाता हम जायँ कहाँ, तूही कह!" पेड़-पौधे लता-गुम आद भी इसी कार कुछ भाव या तय क ना करते ह जो कभी-कभी कुछ गूढ़ होती है। सामाय भी वषा क झड़ी के पीछे उनके हष और उलास को; ीम के चड आतप म उनक शथलता और लानता को; शशर के कठोर शासन म उनक दनता को; मधुकाल म उनके रसोमाद, उमंग और ास को; बल बात के झकोर म उनक वकलता को; काश के त उनक ललक को देख सकती है। इसी कार भावुक के सम वे अपनी प चेा आद ारा कुछ माम क तय क भी ना करते ह । हमारे यहाँ के पुराने अयो कार ने कह-कह इस ना क ओर यान दया है। कह-कह का मतलब यह है क बत जगह उहने अपनी भावना का आरोप कया है, उनक पचेा या पर त से तय-चयन नह। पर उनक वशेष-वशेष पर तय क ओर भावुकता से यान देने पर बत से माम क तय सामने आते ह । कोस तक फैल कड़ी धूप म तपते मैदान के बीच एक अकेला वट वृ र तक छाया फैलाए खड़ा है। हवा के झक से उसक टहनयाँ और प े हलहलकर मानो बुला रहे ह । हम धूप से ाकुल होकर उसक ओर बढ़ते ह । देखते ह उसक जड़ के पास एक गाय बैठ आँख मूँदे जुगाली कर रही है। हम लोग भी उसी के पास आराम से जा बैठते ह । इतने म एक कुा जीभ बाहर नकाले हाँफता आ उस छाया के नीचे आता है और हमम से कोई उठकर उसे छड़ी लेकर भगाने लगता ह । इस पर त को देख हमम से कोई भावुक पुष उस पेड़ को इस कार सबोधन कर तो कर सकता है— काया क न छाया यह केवल तुहारी, म! अंतस् के मम का काश यह छाया है। भरी है इसी म वह वग व-धारा अभी जसम न पूरा-पूरा नर बह पाया है। शातसार शीतल सार यह छाया धय! ीत सा पसारे इसे कैसी हरी काया है। हे नर! तू यारा इस त का वप देख, देख फर घोर प तूने जो कमाया है॥ ऊपर नरे और मनुयेतर सजीव सृ के े का उलेख आ है। का कभी तो इन पर अलग-अलग रहती है और कभी सम प म समत जीवन-े पर। कहन ेक आवयकता नह क व क अपेा सम- म अधक ापकता और गीरता रहती है। का का अनुशीलन करनेवाले मा जानते ह क का सजीव सृ तक ही ब नह रहती। वह कृत के उस भाग क ओर भी जाती है जो नजव या जड़ कहलाती है। भूम, पवत, चान, नद, नाले, टले, मैदान, समु, आकाश, मेघ, न इयाद क प-गत आद से भी हम सौदय, माधुय, भीषणता, भता, वचता, उदासी, उदारता, सता, इयाद क भावना ात करते ह । कड़कड़ाती धूप के पीछे उमड़ती ई घटा क यामल नधता और शीतलता का अनुभव मनुय या पशु-पी, पेड़-पौधे तक करते ह । अपने इधर-उधर हरी-भरी लहलहाती फुलता का वधान करती ई नद क अवराम जीवन-धारा म हम वीभूत औदाय का दशन करते ह। पवन क ऊँची चोटय म वशालता और भता का, वात- वलोड़त जलसार म ोभ और आकुलता का; वकण-घन-खड-मडत, रम-र त सांय-दगचल म चमकारपूण सौदय का; ताप से तलमलाती धरा पर धूल झकते ए अंधड़ के चड झक म उता और उङ्खलता का; बजली क कँपानेवाली कड़क और वालामुखी के वलत ोट म भीषणता का अभास मलता है। ये सब वपी महाका क भावनाए ँया कपनाए ँह । वाथभूम से परे प ँच ेए स े अनुभूत-योगी या कव इनके ा मा होते ह । जड़ जगत् के भीतर पाये जानेवाले प, ापार या पर तयाँ अनेक माम क तय क भी ना करती है। जीवन म तय के साथ उनके साय का बत अा मामक उाटन कह कह हमारे यहाँ के अयो कार ने कया है। जैसे, इधर नरे के बीच देखते ह तो सुख-समृ और सता क दशा म दन-रात घेरे रहनेवाले, तुत का खासा कोलाहल खड़ा करनेवाले, वप और द न म पास नह फटकते; उधर जड़ जगत् के भीतर देखते ह तो भरे ए सरोवर के कनारे जो पी बराबर कलरव करते रहते ह वे उसके सूखने पर अपना-अपना राता लेते है— कोलाहल सुन खगन के, सरवर! जन अनुराग। ये सब वारथ के सखा, द न दैह याग॥ द न दैह याग, तोय तेरो जब जैहै। रह ते तज आस, पास कोऊ नह ऐहै॥ इसी कार सूम और माम क वाल को और गूढ़ ना भी मल सकती है। अपने इधर-उधर हरयाली और फुलता को वधान करने के लये यह आवयक है क नद कुछ काल तक एक बँधी ई मयादा के भीतर बहती रहे। वषा क उमड़ी ई उङ्खलता म पोषत हरयाली और फुलता का वंस सामने आता है। पर यह उृङ्खलता और वंस अप-कालक होता है और इसके ारा आगे के लए पोषण क नई श का सचय होता है। उृङ्खलता नद क ायी वृ नह है। नद के इस वप के भीतर सूम माम क लोकगत के वप का सााकार करती है। लोकजीवन क धारा जब एक बँधे माग पर कुछ काल तक अबाध गत से चलने पाती है तभी सयता के कसी प का पूण वकास और उसके भीतर सुख-शात क ता होती है। जब जीवन-वाह ीण और अश पड़ने लगता है और गहरी वपसता आने लगती है तब नई श का वाह फूट पड़ता है जसके वेग क उृङ्खलता के सामने बत कुछ वंस भी होता है। पर यह उृङ्खल वेग जीवन का या जगत् का नय वप नह है। (३) पहले कहा जा चुका है क नरे के भीतर व रहनेवाली का क अपेा सूण जीवन-े और समत चराचर के े से माम क तय का चयन करनेवाली उरोर अधक ापक और गीर कही जायगी। जब कभी हमारी भावना का सार इतना वतीण और ापक होता है क हम अनत सा के भीतर नरसा के ान का अनुभव करते ह तब हमारी पाथ य-बु का परहार हो जाता है। उस समय हमारा दय ऐसी उ भूम पर प ँचता रहता है जहाँ उसक वृ शांत और गीर हो जाती है, उसक अनुभूत का वषय ही कुछ बदल जाता है। तय चाहे नरे के ही ह, चाहे अधक ापक े के ह, कुछ य होते ह और गूढ़। जो तय हमारे कसी भाव को उप करे उसे उस भाव का आलबन कहना चाहये। ऐसे रसामक तय आर म ानेयाँ उप त करती ह । फर ानेय ारा ात सामी से भावना या कपना उनक योजना करती है। अतः यह कहा जा सकता है क ान ही भाव के सचार के लए माग खोलता है ान-सार के भीतर ही भाव-सार होता है। आर म मनुय क चेतन सा अधकतर इयज ान क सम के प म ही रही। फर य-य अतःकरण का वकास होता गया और सयता बढ़ती गई य-य मनुय का ान बु -वसायामक होता गया। अब मनुय का ाने बु -वसायामक या वचारामक होकर बत ही वतृत हो गया है। अतः उसके वतार के साथ हम अपने दय का वतार भी बढ़ाना पड़ेगा। वचार क या से, वैानक ववेचन और अनुसान ारा उाटत पर तय और तय के मम श प का मूत और सजीव चण भी—उसका इस प म यीकरण भी क वह हमारे कसी भाव का आलबन हो सके—कवय का काम और उ का एक लण होगा। कहने क आवयकता नह क इन तय और पर तय के माम क प न जाने कतनी बात क तह म छपे होगे। का और वहार भाव या मनोवकार के ववेचन म हम कह चुके ह क मनुय को कम म वृ करनेवाली मूल वृ भावामका है। केवल तक बु या ववेचना के बल से हम कसी काय म वृ नह होते। जहाँ जटल बु ापार के अनतर कसी कम का अनुान देखा जाता है वहाँ भी तह म कोई भाव या वासना छपी रहती है। चाणय जस समय अपनी नीत क सफलता के लए कसी नुर ापार म वृ दखाई पड़ता है उस समय वह दया, कणा आद सब मनोवकार या भावो से परे दखाई पड़ता है। पर थोडा अत गड़ाकर देखने से कौटय को नचानेवाली डोर का छोर भी अतःकरण के रागामक खड क ओर मलेगा। ता-पूत क आनद-भावना और नदवंश के त ोध या वैर क वासना बारी-बारी से उस डोर को हलाती ई मल गी। अवाचीन रानीत के गु-घटाल जस समय अपनी कसी गहरी चाल से कसी देश क नरपराध जनता का सवनाश करते ह उस समय वे दया आद बलता से नल त, केवल बु के कठपुतले दखाई पड़ते ह। पर उनके भीतर यद छानबीन क जाय तो कभी अपने देशवासय के सुख क उकठा, कभी अय जात के त घोर वेष, कभी अपनी जातीय ेता का नया या पुराना घमड, इशारे करता आ मलेगा। बात यह है क केवल इस बात को जानकर ही हम कसी काम को करने या न करने के लए तैयार नह होते क वह काम अा है या बुरा, लाभदायक है या हानकारक। जब उसक या इसके परणाम क कोई ऐसी बात हमारी भावना म आती है जो आाद, ोध, कणा, भय, उकठा आद का सचार कर देती है तभी हम उस काम को करने या न करने के लये उत होते ह । शु ान या ववेक म कम क उ ेजना नह होती। कम-वृ के लए मन म कुछ वेग का आना आवयक ह । यद कसी जनसमुदाय के बीच कहा जाय क अमुक देश तुहारा इतना पया तवष उठा ले जाता है तो सव है क उस पर कुछ भाव न पड़े। पर यद दारय और अकाल का भीषण और कण य दखाया जाय, पेट क वाला से जले ए कङ्काल कपना के समुख रखे जायँ और भूख से तड़पते ए बालक के पास बैठ ई माता का आत दन सुनाया जाय तो बत से लोग ोध और कणा से ाकुल हो उठगे और इस दशा को र करने का यद उपाय नह तो सङ्कप अवय करगे। पहले ढंग क बात कहना राजनीत या अथशाी का काम है और पछले कार का य भावना म लाना कव का। अतः यह सधारणा क का वहार का बाधक है, उसके अनुशीलन से अकम यता आती है, ठक नह। कवता तो भावसार ारा कम य के लए कम े का और वतार कर देती है। उ धारणा का आधार यद कुछ हो सकता है तो यही क जो भावुक या सदय होते ह, अथवा का के अनुशीलन से जनके भावसार का े वतृत हो जाता है, उनक वृयाँ उतनी वाथब नह रह सकत। कभी-कभी वे सर का जी खने के डर से; आमगौरव, कुलगौरव या जातगौरव के यान से, अथवा जीवन के कसी प क उकण-भावना म मौन होकर अपने लाभ के कम म अतपर या उससे वरत देखे जाते ह। अतः अथोगम से , 'वकाय साधयेत्' के अनुयायी काशी के योतषी और कमकाडी, कानपुर के बनये और दलाल, कचहरय के अमले और मुतार, ऐसो का काय- ंशकारी मूख, नरे नठले या खत-उल-हवास समझ सकते ह । जनक भावना कसी बात के मामक प का, चानुभव करने म तपर रहती है, जनके भाव चराचर, के बीच कसी के भी आलबनोपयु प या दशा म पाते ही उसक ओर दौड़ पड़ते ह ; वे सदा अपने लाभ के यान से या वाथबु ारा ही परचालत नह होते। उनक यही वशेषता अथपरायण को—अपने काम से काम रखनेवाल को—एक ुट-सी जान पड़ती है! कव और भावुक हाथ-पैर न हलाते ह, यह बात नह है। पर अथय के नकट उनक बत- सी या का कोई अथ नह होता। मनुयता क उ भूम मनुय क चेा और कमकलाप से भाव का मूल सब नपत हो चुका है और यह भी दखाया जा चुका है क कवता इन भाव या मनेावकार के े को वतृत करती ई उनका सार करती है। पशुव से मनुयव म जस कार अधक ान- सार क वशेषता है उसी कार अधक भाव-सार क भी। पशु के ेम क प ँच ायः अपने जोड़े, ब या खलाने- पलानेवाल तक ही होती है। इसी कार उनका ोध भी अपने सतानेवाल तक ही जाता है, ववग या पशुमा को सतानेवाल तक नह प ँचता। पर मनुय म ान-सार के साथ-साथ भाव-सार भी मशः बढ़ता गया है। अपने परजन, अपने सब य, अपने पड़ोसय; अपने देशवासय या मनुयमा और ाणमा तक से ेम करने भर को जगह उसके दय म बन गई है। मनुय क योरी मनुय को ही सतानेवाले पर नह चढ़ती, गाय, बैल और कु े-बली को सतानेवाले पर भी चढ़ती है। पशु क वेदना देखकर भी उसके ने सजल होत ेह। बदर को शायद बँदरया के मुँह म ही सौदय दखाई पड़ता होगा पर मनुय पशु-पी, फूल-प े और रेत-पर म भी सौदय पाकर मुध होता है। इस दय-सार का मारक त का है जसक उ ेजना से हमारे जीवन म एक नया जीवन आ जाता है। हम सृ के सौदय को देखकर रसमन होने लगते ह , कोई नुर काय हम अस होने लगता है, हम जान पड़ता है क हमारा जीवन कई गुना बढ़कर सारे संसार म ात हो गया है। कव-वाणी के साद से हम संसार के सुख-ख, आनद लेश आद का शुवाथमु प म अनुभव करते ह । इस कार के अनुभव के अयास से दय का बन खुलता है और मनुयता क उ भूम क ात होती है। कसी अथ पशाच कृपण को देखए, जसने केवल अथलोभ के वशीभूत होकर ोध, दया, ा, भ , आमाभमान, आद भाव को एकदम दबा दया है और संसार के माम क प से मुँह मोड़ लया है। न सृ के कसी पमाधुय को देख वह पैस का हसाब-कताब भूल कभी मुध होता है, न कसी दन खया को देख कभी कणा से वीभूत होता है; न कोई अपमानसूचक बात सुनकर ु या ु होता है। यद उससे कसी लोमहषण अयाचार क बात कही जाय तो वह मनुय धमानुसार ोध या घृणा कट करने के ान पर खाई के साथ कहेगा क "जाने दो, हमसे या मतलब; चलो, अपना काम देख ।" यह महा भयानक मानसक रोग है। इससे मनुय आधा मर जाता है। इसी कार कसी महाूर पुलस कमचारी को जाकर देखए; जसका दय पर के समान जड़ और कठोर हो गया है, जसे सरे के ःख और लेश क भावना व म भी नह होती। ऐसो को सामने पाकर वभावतः यह मन म आता है क या इनक भी कोई दवा है। इनक दवा कवता है। कवता ही दय को कृत दशा म लाती है और जगत् के बीच मशः उसका अधकाधक सार करती ई उसे मनुयव क उ भूम पर ले जाती है। भावयोग क सबसे उ का पर प ँचे ए मनुय का जगत् के साथ पूण तादाय हो जाता है, उसक अलग भावसा नह रह जाती, उसका दय वदय हो जाता है। उसक अ ु धारा म जगत् क अु धारा का, उसके हास-वलास म जगत् के आनद-नृय का, उसके गजन-तजन म जगत् के गजन-तजन का आभास मलता है। भावना या कपना इस नब के आर म ही हम काानुशीलन को भावयोग कह आए ह और उसे कमयोग और ानयोग के समक बता आए है। यहाँ पर अब यह कहने क आवयकता तीत होती है क 'उपासना' भावयोग का ही एक अंग है। पुराने धाम क लोग उपासना का अथ 'यान' ही लया करते ह । जो वतु हमसे अलग है, हमसे र तीत होती है, उसक मूत मन म लाकर उसके सामीय का अनुभव करना ही उपासना है। साहयवाले इसी को 'भावना' कहते ह और आजकल के लोग 'कपना'। जस कार भ के लए उपासना या यान क आवयकता होती है उसी कार और भाव के व न के लए भी भावना या कपना अपेत होती है। जनक भावना या कपना शथल या अश होती है, कसी कवता या सरस उ को पढ़-सुनकर उनके दय म माम कता होते ए भी वैसी अनभूत नह होती। बात यह है क उनके अतःकरण म चटपट वह सजीव और मूत वधान नह होता जो भाव को परचालत कर देता है। कुछ कव कसी बात के सारे मामक अंग का पूरे योरे के साथ चण कर देते ह , पाठक या ोता क कपना के लए बत कम काम छोड़ते ह और कुछ कव कुछ मामक खड रखते ह जह पाठक क तपर कपना आपसे आप पूण करती है। कपना दो कार क होती है—वधायक और ाहक। कव म वधायक कपना अपेत होती है और ोता या पाठक म अधकतर ाहक। अधकतर कहने का अभाय यह है क जहाँ कव पूरा चण नह करता वहाँ पाठक या ोता को भी अपनी ओर से कुछ मूत -वधान करना पड़ता है। योरपीय साहय-मीमांसा म कपना को बत धानता द गई है। है भी यह का का अनवाय साधन, पर है साधन ही, साय नह, जैसा क उपयु ववेचन से है। कसी संग के अतगत कैसा ही वच मूत -वधान हो पर यद उसम उपयु भावसचार क मता नह है तो वह का के अत त न होगा। मनोरन ायः सुनने म आता है क कवता का उेय मनोरन है। पर जैसा क हम पहले कह आए ह कवता का अतम लय जगत् के माम क प का यीकरण करके उनके साथ मनुय-दय का सामय-ापन है। इतने गीर उेय के ान पर केवल मनोरन का हलका उेय सामने रखकर जो कवता का पठन-पाठन या वचार करते है वे राते ही म रह जानेवाले पथक के समान ह । कवता पढ़ते समय मनोरन अवय होता है, पर उसके उपरात कुछ और भी होता है और वही और सब कुछ है। मनोरन वह श है जससे कवता अपना भाव जमाने के लए मनुय क चवृ को त कए रहती है, उसे इधर-उधर जाने नह देती। अ से अ बात को भी कभी-कभी लोग केवल कान से सुन भर लेते है, उनक ओर उनका मनोयोग नही होता। केवल यही कहकर क 'परोपकार करो', 'सर पर दया करो', 'चोरी करना महापाप है', हम यह आशा कदाप न करनी चाहए क कोई अपकारी उपकारी, कोई ूर दयावान् या कोई चोर साधु हो जायगा। योक ऐसे वाय के अथ क प ँच दय तक होती ही नह, वह ऊपर ही ऊपर रह जाता है। ऐसे वाय ारा सूचत ापार का मानव-जीवन के बीच कोई माम क च सामने न पाकर दय उनक अनुभूत क ओर वृ ही नह होता। पर कवता अपनी मनोरन-श ारा पढ़ने या सुननेवाले का च रमाए रहती है, जीवन-पट पर उ कम क सुदरता या वपता अङ्कत करके दय के मम ल का श करती है। मनुय के कुछ कम म जस कार द सौदय और माधुय होता है उसी कार कुछ कम म भीषण कुपता और भापन होता है। इसी सौदय या कुपता का भाव मनुय के दय पर पड़ता है और इस सौदय या कुपता का सयक् यीकरण कवता ही कर सकती है। कवता क इसी रमानेवाली श को देख कर जगाथ पंडतराज ने रमणीयता का पला पकड़ा और उसे का का साय र कया तथा योरपीय समीक ने 'आनद' को का का चरम लय ठहराया। इस कार माग को ही अतम गत ल मान लेने के कारण बड़ा गड़बड़झाला आ। मनोरन या आनद तो बत सी बात म आ करता है। कसा-कहानी सुनने म भी तो पूरा मनोरन होता है, लोग रात-रात भर सुनते रह जाते ह । पर या कहानी सुनना और कवता सुनना एक ही बात है? हम रसामक कथा या आयान क बात नह कहते ह ; केवल घटना वैचय-पूण कहानय क बात कहते ह । कवता और कहानी का अतर है। कवता सुननेवाला कसी भाव म मन रहता है और कभी-कभी बार-बार एक ही प सुनना चाहता है। पर कहानी सुननेवाला आगे क घटना के लए आकुल रहता है। कवता सुननेवाला कहता है, "ज़रा फर तो कहए।" कहानी सुननेवाला कहता है, "हाँ! तब या आ?" मन को अनुर त करना, उसे सुख या आनद प ँचाना, ही यद कवता का अतम लय माना जाय तो कवता भी केवल वलास क एक सामी ई। परतु या कोई कह सकता है क वामीक ऐसे मुन और तुलसीदास ऐसे भ ने केवल इतना ही समझकर म कया क लोग को समय काटने का एक अा सहारा मल जायगा? या इससे गीर कोई उेय उनका न था? खेद के साथ कहना पड़ता है क बत दन से बत से लोग कवता को वलास क सामी समझते आ रहे ह । हद के रीत-काल के कव तो मानो राजा-महाराजा क काम-वासना उ ेजत करने के लए ही रखे जाते थे। एक कार के कवराज तो रईस के मुँह म मकरवज रस झोकते थे, सरे कार के कवराज कान म मकरवज रस क पचकारी देते थे। पीछे से तो ीमोपचार आद के नुसख़े भी कव लोग तैयार करने लगे। गम के मौसम के लए एक कवजी वा करते ह — सीतल गुलाब-जल भर चहबन म, डार कै कमलदल हायवे को धँसए। कालदास अंग अंग अगर अतर स, केसर उसीर नीर धनसार घँसए॥ जेठ म गोवद लाल चदन के चहलन, भर भर गोकुल के महलन बसए। इसी कार शशर के मसाले सुनए— गुलगुली गलमै, गलीचा है, गुनीजन ह, चक ह, चराक ह, चरागन क माला ह। कहै पदमाकर है गजक गजा सजी, सा है, सुरा है, सुराही ह, सुयाला ह॥ शशर के पाला को न ापत कसाला तहै जनके अधीन एते उदत मसाला ह॥ सौदय सौदय बाहर क कोई वतु नह है, मन के भीतर क वतु है। योरपीय कला-समीा क यह एक बड़ी ऊँची उड़ान या बड़ी र क कौड़ी समझी गई है। पर वातव म यह भाषा के गड़बड़झाले के सवा और कुछ नह है। जैसे वीरकम से पृथक् वीरव कोई पदाथ नह, वैसे ही सुदर वतु से पृथक् सौदय कोई पदाथ नह। कुछ प-रंग क वतुए ँऐसी होती है जो हमारे मन म आते ही थोड़ी देर के लए हमारी सा पर ऐसा अधकार कर लेती ह क उसका ान ही हवा हो जाता है और हम उन वतु क भावना के प म ही परणत हो जाते ह। हमारी अतसा क यह तदाकार-परणत सौदय क अनुभूत है। इसके वपरीत कुछ प-रंग क वतुए ँऐसी होती ह जनक तीत या जनक भावना हमारे मन म कुछ देर टकने ही नह पाती और एक मानसक आप सी जान पड़ती है। जस वत ुके य ान या भावना से तदाकार-परणत जतनी ही अधक होगी उतनी ही वह वतु हमारे लए सुदर कही जायगी। इस ववेचन से है क भीतर बाहर का भेद थ है। जो भीतर है वही बाहर है। यही बाहर हँसता-खेलता, रोता-गाता, खलता-मुरझाता जगत् भीतर भी है जसे हम मन कहते ह। जस कार यह जगत् पमय और गतमय है उसी कार मन भी। मन भी प-गत का सङ्घात ही है। प मन और इय ारा सङ्घटत है या मन और इयाँ प ारा इससे यहाँ योजन नह। हम तो केवल यही कहना है क हम अपने मन का और अपनी सा का बोध पामक ही होता है। कसी वतु के य ान या भावना से हमारी अपनी सा के बोध का जतना ही अधक तरोभाव और हमारे मन क उस वतु के प म जतनी ही पूण परणत होगी उतनी ही बढ़ ई हमारी सौदय क अनुभूत कही जायगी। जस कार क परेखा या वण वयास से कसी क तदाकार-परणत होती है उसी कार क परेखा या वण वयास उसके लए सुदर है। मनुयता क सामाय भूम पर प ँची ई संसार क सब सय जातय म सौदय के सामाय आदश तत ह । भेद अधकतर अनुभूत क माा म पाया जाता है। न सुदर को कोई एकबारगी कुप कहता है और न बलकुल कुप को सुदर। जैसा क कहा जा चुका है, सौदय का दशन मनुय मनुय ही म नह करता है, युत पलव-गु त पुपहास म, पय के पजाल म, सराम साय दगचल के हरय-मेखला-मडत घनखड म , तुषारावृत तुंग गर-शखर म , चकरण स ेझलझलाते नझर म और न जाने कतनी वतु म वह सौदय क झलक पाता है। जस सौदय क भावना म मन होकर मनुय अपनी पृथक् सा क तीत का वसजन करता है वह अवय एक द वभूत है। भ लोग अपनी उपासना या यान म इसी वभूत का अवलबन करते ह । तुलसी और सूर ऐसे सगुणोपासक भ राम और कृण क सौदय-भावना म मन होकर ऐसी मंगल-दशा का अनुभव कर गए ह जसके सामने कैवय या मु क कामना का कह पता नह लगता। कवता केवल वतु के ही रंग-प के सौदय क छटा नह दखाती युत कम और मनोवृ के सौदय के भी अयत माम क य सामने रखती है। वह जस कार वकसत कमल, रमणी के मुखमडल आद का सौदय मन म लाती है उसी कार उदारता, वीरता, याग, दया, ेमोकष इयाद कम और मनोवृय का सौदय भी मन म जमाती है। जस कार वह शव को नोचते ए कु और शृगाल के वीभस ापार क झलक दखाती है उसी कार ूर क हसावृ और क ईया आद क कुपता से भी ु करती है। इस कुपता का अवान सौदय क पूण और अभ के लए ही समझना चाहए। जन मनावृय का अधकतर बुरा प हम संसार म देखा करते ह उनका भी सुदर प कवता ढँूढ़कर दखाती है। दशवदन-नधनकारी राम के ोध के सौदय पर कौन मोहत न होगा? जो कवता रमणी के पमाधुय से हम तृत करती है, वही उसक अतवृ क सुदरता का आभास देकर हम मुध करती है। जस बंकम क लेखनी ने गढ़ पर बैठ ई राजकुमारी तलोमा के अंगयंग क सुषमा को अङ्कत कया है उसी ने नवाबनदनी आयशा के अतस् क अपूव सावक योत क झलक दखाकर पाठक को चमकृत कया है। जस कार बा कृत के बीच वन, पवत, नद, नझर आद क प-वभूत से हम सौदय-मन होते ह उसी कार अतःकृत म दया, दाय, ा, भ आद वृय क नध शीतल आभा म सौदय लहराता आ पाते ह। यद कह बा और आयतर दोन सौदय का योग दखाई पड़े तो फर या कहना है! यद कसी अयत सुदर पुष क धीरता, वीरता, सययता आद अथवा कसी अयत पवती ी क सुशीलता, कोमलता और ेम-परायणता आद भी सामने रख द जायँ तो सौदय क भावना सवा गपूण हो जाती है। सुदर और कुप—का म बस ये ही दो प ह । भला बुरा, शुभ अशुभ, पाप पुय, मंगल अमंगल, उपयोगी अनुपयोगी—ये सब शद काे के बाहर के ह । ये नीत, धम, वहार, अथशा आद के शद ह। शु काे म न कोई बात भली कही जाती है न बुरी; न शुभ न अशुभ, न उपयोगी न अनुपयोगी। सब बात केवल दो प म दखाई जाती ह —सुदर और असुदर। जसे धाम क शुभ या मंगल कहता है कव उसके सौदय-प पर आप ही मुध रहता है और सरो को भी मुध करता है। जसे धम अपनी के अनुसार शुभ या मंगल समझता है उसी को कव अपनी के अनुसार सुदर कहता है। भेद अवय है। धाम क क जीव के कयाण, परलोक म सुख, भवबन से मो आद क ओर रहती है। पर कव क इन सब बात क ओर नह रहती। वह उधर देखता है जधर सौदय दखाई पड़ता है। इतनी सी बात यान म रखने से ऐसे-ऐसे झमेल म पड़ने क आवयकता बत कुछ र हो जाती ह ैक "कला म सत् असत्, धमाधम का वचार होना चाहए या नह", "कव को उपदेशक बनना चाहए या नह"। कव क तो सौदय क ओर जाती है, चाहे वह जहाँ हो—वतु के परंग म अथवा मनुय के मन, वचन और कम म। उकष-साधन के लए, भाव क वृ के लए, कव लोग कई कार के सौदय का मेल भी कया करते ह । राम क पमाधुरी और रावण क वकरालता भीतर का तबब सी जान पड़ती है। मनुय के भीतरी बाहरी सौदय के साथ चार ओर क कृत के सौदय को भी मला देने से वणन का भाव कभी-कभी बत बढ़ जाता है चकूट ऐसे रय ान म राम और भरत ऐसे पवान क रय अतःकृत क छटा का या कहना है! चमकारवाद का के सब म 'चमकार', 'अनूठापन' आद शद बत दन से लाए जाते ह। चमकार मनोरंजन क सामी है, इसम सदेह नह। इससे जो लोग मनोरन को ही का का लय समझते ह वे यद कवता म चमकार ही ढँूढ़ा कर तो कोई आय क बात नह। पर जो लोग इससे ऊँचा और गीर लय समझते ह वे चमकार मा को का नह मान सकते। 'चमकार' से हमारा अभाय यहाँ तुत वतु के अत व या वैलय से नह जो अत रस के आलबन म होना है। 'चमकार' से हमारा तापय उ के चमकार से है जसके अतगत वण वयास क वशेषता (जैसे, अनुास म ), शद क ड़ा (जैसे ेष, यमक आद म , वाय क वता या वचनभंगी (जैसे, कााथाप, परसंया, वरोधाभास, असंगत इयाद म ) तथा अतुत वतु का अत व अथवा तुत वतु के साथ उनके साय या सब क अनहोनी या राढ़ कपना (जैसे, उेा अतशयोक आद म ) इयाद बात आती ह । चमकार का योग भावुक कव भी करते ह , पर कसी भाव क अनुभूत को ती करने के लए। जस प या जस माा म भाव क त है उसी प और उसी माा म उसक ना के लए ायः कवय को ना का कुछ असामाय ढंग पकड़ना पड़ता है। बातचीत म भी देखा जाता है क कभी-कभी हम कसी को मूख न कहकर 'बैल' कह देते ह । इसका मतलब यही है क उसक मूखता क जतनी गहरी भावना मन म है वह 'मूख' शद से नह होती। इसी बात को देखकर कुछ लोग ने यह नय कया क यही चमकार या उ वैचय ही का का नय लण है। इस नय के अनुसार कोई वाय, चाहे वह कतना ही मम श हो, यद उ -वैचयशूय है तो का के अतगत न होगा और कोई वाय जसम कसी भाव या मम- वकार क ना कुछ भी न हो पर उ वैचय हो, वह खासा का कहा जायगा। उदाहरण के लए पाकर का यह सीधा- सादा वाय लीजए— "नैन नचाय कही मुसकाय 'लला फर आइयो खेलन होली'।" अथवा मडन का यह सवैया लीजए— अल! ह तौ गई जमुना-जल को, सो कहा कह, वीर! वप परी। घहराय कै कारी घटा उनई, इतनेई म गागर सीस धरी॥ रपौ पग, घाट चो न गयो, कव मंडन ैकै बहाल गर। चरजीव नंद को बारो अरी, गह बाँह गरीब ने ठाढ़ करी॥ इस कार ठाकुर क यह अयत वाभावक वतक -ंजना देखए— वा नरमोहनी प क रास जऊ उर हेतु न ठानत ैहै। बारह बार बलोक घरी घरी सूरत तौ पहचानत ैहै॥ ठाकुर या मन क परतीत है, जौ पै सनेह न मानत ैहै। आवत ह नत मेरे लए; इतनो तो वसेष कै जानत ैहै॥ मडन ने ेम-गोपन के जो वचन कहलाए ह वे ऐसे ही ह जैसे जद म वभावतः मुँह से नकल पड़ते ह । उनम वदधता क अपेा वाभावकता कह अधक झलक रही है। ठाकुर के सवैये म भी अपने ेम का परचय देने के लए आतुर नये ेमी के च के वतक क सीधे-सादे शद म , बना कसी वैचय या लोकोर चमकार के, ना क गई है। या कोई सदय वैचय के अभाव के कारण कह सकता है क इनम काव नह है? अब इनके सामने उन केवल चमकारवाली उ य का वचार कजए जनम कह कोई कव कसी राजा क कत क धवलता चार ओर फैलती देख यह आशङ्का कट करता है क कह मेरी ी के बाल भी सफ़ेद न हो जायँ अथवा भात होने पर कौव के काँव-काँव का कारण यह भय बताता है क कालमा या अकार का नाश करने म वृ सूय कह उह काला देख उनका भी नाश न कर दे भोज-ब तथा और-और सुभाषत-संह म इस कार क उ याँ भरी पड़ी ह । केशव क रामचका म पचीस ऐसे प ह जनम अलंकार क भ भरती के चमकार के सवा दय को श करने वाली या कसी भावना म मन करनेवाली कोई बात न मलेगी। उदाहरण के लए पताका और पंचवट के ये वणन लीजए। पताका अत सुदर अत साधु। थर न रहत पल आधु। परम तपोमय मान। दंडधारणी जान॥ पंचवट बेर भयानक सी अत लगै। अक समूह जहाँ जगमगै। पाडव क तमा सम लेखौ। अजुन भीम महामत देखौ॥ है सुभगा सम दपत पूरी। स र और तलकावल री। राजत है यह य कुलकया। धाय वराजत है सँग धया॥ या कोई भावुक इन उ य के शु का कह सकता है? या ये उसके मम का श कर सकती ह ? ऊपर दये ए अवतरण म हम अ देखते ह क कसी उ क तह म उसके वतक के प म यद कोई भाव या मामक अतवृ छपी है तो चाहे वैचय हो या न हो, का क सरलता बराबर पाई जायगी। पर यद कोरा वैचय या चमकार ही चमकार तो थोड़ी र के लए कुछ कुतूहल या मनबहलाव चाहे हो जाय पर का को लीन करनेवाली सरसता न पाई जायगी। केवल कुतूहल तो बालवृ है। कवता सुनना और तमाशा देखना एक ही बात नह है। यद सब कार क कवता म केवल आय या कुतूहल का ही संचार मान तब तो अलग-अलग ाई भाव क रसप म अनुभूत और भ-भ भाव के आय के साथ तादाय का कह योजन ही नह रह जाता। यह बात ठक है क दय पर जो भाव पड़ता ह,ै उसके मम का जो श होता है, वह उ ही के ारा। पर उ के लए यह आवयक नह क वह सदा वच, अत या लोकोर हो—ऐसी हो जो सुनने म नह आया करती या जसम बड़ी र क सूझ होती है। ऐसी उ जसे सुनते ही मन कसी भाव या मामक भावना (जैसे तुत वतु का सौदय आद) म लीन न होकर एकबारगी कथन से अनूठे ढंग, वण-वयास या पद-योग क वशेषता, र क सूझ, कव क चातुरी या नपुणता इयाद का वचार करने लगे, वह का नह, सू है। बत से लोग का और सू को एक ही समझा करते ह । पर इन दोन का भेद सदा यान म रहना चाहए। जो उ दय म कोई भाव जात कर दे या उसे तुत वतु या तय क मामक भावना म लीन कर दे, वह तो है का। जो उ केवल कथन के ढंग के अनूठेपन, रचना-वैचय, चमकार, कव के म या नपुणता के वचार म ही वृ करे, वह है सू । यद कसी उ म रसामकता और चमकार दोन हो तो धानता का वचार करके सू या का का नणय हो सकता है। जहाँ उ म अनूठापन अधक माा म होने पर भी उसक तह म रहनेवाला भाव अ नह हो जाता वहाँ भी का ही माना जायगा। जैसे, देव का यह सवैया लीजए— साँसन ही म समीर गयो अ आँसुन ही सब नीर गयो ढर। तेज गयो गुन लै अपनो अ भूम गई तन क तनुता कर॥ देव जयै मलबेई क आस कै, आस पास अकास रो भर। जा दन त मुख फेर हरै हँस हेर हयो जो लयो हर जू हर॥ सवैये का अथ यह है क वयोग म उस नायका के शरीर को संघटत करनेवाले पंचभूत धीरे-धीर ेनकलते जा रहे ह । वायु दघ नःास के ारा नकल गई, जलतव सारा आँसु ही आँसु म ढल गया, तेज भी न रह गया—शरीर क सारी दत या कात जाती रही, पाथ व तव के नकल जाने से शरीर भी ीण हो गया; अब तो उसके चार ओर आकाश ही आकाश रह गया है—चार ओर शूय दखाई पड़ रहा है। जस दन से ीकृण ने उसक ओर मुँह फेरकर ताका है और मद मद हँसकर उसके मन को हर लया है उसी दन से उसक यह दशा है। इस वणन म देवजी ने वरह क भ-भ दशा म चार भूत के नकलने क बड़ी सटक उावना क है। आकाश का अतव भी बड़ी नपुणता से चरताथ कया है। यमक अनुास आद भी है। सारांश यह क उनक उ म एक पूरी सावयव कपना है, मजमून क पूरी बदश है, पूरा चमकार या अनूठापन है। पर इस चमकार के बीच म भी वरह-वेदना झलक रही है, उसक चकाचध म अय नह हो गई है। इसी कार मतराम के इस सवैये क पछली दो पं य म वषा के पक का जो ंय-चमकार है वह भाव शबलता के साथ अनूठे ढंग से गु त है— दोऊ आनद स आँगन माँझ बराज असाढ़ क साँझ, सुहाई। यारी के बूझत और तया को अचानक नाम लयो रसकाई॥ आई उनै मँुह म हँसी, कोह तया पुन चाँप सी भह चढ़ाई। आँखन त गरे आँसू के बँूद, सुहाग गयो उड़ हंस क नाई॥ इसके व बहारी क उन उ य म जनम वरहणी के शरीर के पास ले जाते ले जाते शीशी का गुलाबजल सूख जाता है; उसके वरह ताप क लपट के मारे माघ के महीने म भी पड़ोसय का रहना कठन हो जाता है, कृशता के कारण वरहणी साँस खचने के साथ दो-चार हाथ पीछे और साँस छोड़ने के साथ दो-चार हाथ आगे उड़ जाती है, अयु का एक बड़ा तमाशा ही खड़ा कया गया है। कहाँ यह सब मजाक, कहाँ वरह वेदना! यह कहा जा चुका है क उमड़ते ए भाव क रेणा से अकसर कथन के ढ मे कुछ वता आ जाती है। ऐसी वता का क या के भीतर रहती है। उसका अनूठापन भाव-वधान के बाहर क वतु नह। उदाहरण के लए दासजी क ये वरहदशासूचक उ याँ लीजए— अब तौ बहारी के वे बानक गए री, तेरी तन-त-केसर को नैन कसमीर भो। ौन तुव बानी वात बँूदन के चातक भे, साँसन को भरबो पदजा को चीर भो। हय को हरष मधरन को नीर भो, री! जयरो मनोभव-शरन को तुनीर भो। ए री! बेग करकै मलापु थर थापु, न तौ आपु अब चहत अतनु को सरीर भो॥ ऐसी ही भाव- ेरत वता जदेव क इस मनोहर उ म है— तू जो कही, सखी! लोनो सप, सो मो अखयान को लोनी गई लग। ेम के ुरण क वलण अनुभूत नायका को हो रही है—कभी आँसू आते ह , कभी अपनी दशा पर अचरज होता है, कभी हलक सी हँसी भी आ जाती है क अ बला म ने मोल ली। इसी बीच अपनी अतरंग सखी को सामने पाकर कचत वनोद-चातुरी क भी वृ होती है। ऐसी जटल अतवृ ारा ेरत उ म वचता आ ही जाती है। ऐसी च-वृय के अवसर घड़ी-घड़ी नह आया करते। सूरदासजी का 'मरगीत' ऐसी भाव-ेरत व उ य से भरा पड़ा है। उ क वह तक क वचनभंगी या वता के सब म हमसे कुतलजी का "वो ः काजीवतम्" मानते बनता है, जहाँ तक क वह भावानुमोदत हो या कसी मामक अतवृ से सब हो; उसके आगे नह। कुतलजी क वता बत ापक है जसके अतगत वे वाय-वैचय क वता और वतु-वैचय क वता दोन लेते ह। सालंकृत वता के चमकार ही म वे काव मानते ह योरप म भी आजकल ोस के भाव से एक कार का वो वाद जोर पर है। वलायती वो वाद लणा-धान है। लाणक चपलता और गभता म ही, उ के अनूठे वप म ही, बत से लोग वहाँ कवता मानने लगे ह । उ ही का होत?

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