लोक साहित्य की परिभाषा PDF

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यह दस्तावेज लोक साहित्य की अवधारणा , परिभाषा और विशेषताओं पर चर्चा करता है। इसमें विभिन्न विद्वानों के विचार दिए गए हैं। विषय लोक साहित्य से संबंधित है।

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## लोक शब्द का अर्थ 'लोक' शब्द संस्कृत के 'लोक' (दर्शन) धातु से 'घञ्' प्रत्यय लगकर बना है। लट् लकार, अन्य पुरुष, एक वचन में इसका रूप 'लोकते' बनता है। अतः 'लोक' शब्द का अर्थ है- 'देखने वाला'। इस प्रकार से देखने वाला समस्त जन समुदाय 'लोक' शब्द से अभिहित होगा। ## लोक शब्द परिभाषा विविध विद्वानों ने...

## लोक शब्द का अर्थ 'लोक' शब्द संस्कृत के 'लोक' (दर्शन) धातु से 'घञ्' प्रत्यय लगकर बना है। लट् लकार, अन्य पुरुष, एक वचन में इसका रूप 'लोकते' बनता है। अतः 'लोक' शब्द का अर्थ है- 'देखने वाला'। इस प्रकार से देखने वाला समस्त जन समुदाय 'लोक' शब्द से अभिहित होगा। ## लोक शब्द परिभाषा विविध विद्वानों ने लोक शब्द को अनेक रूप से परिभाषित किया है- 1. डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार, "लोक हमारे जीवन का महासमुद्र है, उसमें भूत, भविष्य, वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है। लोक राष्ट्र का अमर स्वरूप है। लोक कृत ज्ञान और सम्पूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसान है।" 2. डा. सत्येन्द्र ने अनुसार “लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है, जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है।" 3. आचार्य हजारा प्रसाद द्विवेदी के विचार कुछ इस प्रकार हैं- "लोक' शब्द का अर्थ 'जन-पद' या 'ग्राम्य' नहीं है बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं। ये लोग नगर में परिष्कृत, रुचि सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं ## लोक साहित्य 'लोक साहित्य' शब्द दो शब्दों के योग से निर्मित है- 'लोक' तथा 'साहित्य' अंग्रेजी के 'फोक लिटरेचर' के पर्याय के रूप में हिन्दी में 'लोक साहित्य' शब्द का प्रयोग होता है। लिटरेचर शब्द 'लैटर्स' से निकला है जिसका अर्थ साहित्य के केवल लिखित और पठित रूप को अभिव्यक्ति देता है। डा. पोखरिया के अनुसार "साहित्य की आत्मा केवल 'लिपि' में ही संकुचित नहीं हो सकती अतः मौखिक साहित्य को भी इसके अन्तर्गत समाहित करके साहित्य को और भी व्यापक बनाया जा सकता है।" डा. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार- "लोक साहित्य वह मौखिक अभिव्यक्ति है, जो भले ही किसी व्यक्तित्व ने गढ़ी हो, पर आज जिसे सामान्य लोक-समूह अपना मानता है और जिसमें लोक की युग-युगीन वाणी-साधना समाहित रहती है। जिसमें लोक-मानस प्रतिबिम्बित रहता है।"" डा. त्रिलोचन पाण्डेय के मतानुसार- "जन साहित्य उन समस्त परम्परित, मौखिक तथा लिखित रचनाओं की समष्टि कहा जा सकता है, जो किसी एक व्यक्ति या अनेक व्यक्तियों द्वारा निर्मित होते हुए भी आज सामान्य जन समूह का अपना ही कृतित्व माना जाता है, जिसमें किसी जाति, समाज या एक क्षेत्र में रहने वाले सामान्य लोगों की परम्पराएँ, विशेष प्रवृत्तियाँ, आचार-विचार, रीति-नीतियाँ, वाणी-विलास आदि समाहित रहते हैं।"" डा. विद्या चौहान का मत है- “लोक में व्याप्त प्राणियों के जीवन का मुखरित व्यापार लोक साहित्य है, जिसमें क्षण-क्षण की अनुभूतियाँ, मनोवेग, हृदयोद्गार तथा क्रिया व्यापार सजीव साकार होते हैं। डा. देव सिंह पोखरिया के अनुसार “लोक की भाषा अथवा बोली में, मौखिक और परम्परागत रूप से प्रचलित लोक मानस की कंठानुकंठ निर्वैयक्तिक, भावावेग पूर्ण, सम्पूर्ण जीवनानुभूतियों की सजीव अभिव्यक्ति ही लोक साहित्य है।" डा. कृष्णदेव उपाध्याय के अनुसार “सभ्यता के प्रभाव से दूर रहने वाली, अपनी सहजावस्था में वर्तमान जो निरक्षर जनता है उसकी आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, जीवन-मरण, लाभ-हानि, सुख-दुःख आदि की अभिव्यंजना जिस साहित्य में प्राप्त होती है उसे लोक साहित्य कहते हैं। ## लोक साहित्य की विशेषताएं लोक साहित्य सामान्य जन का साहित्य है। सभ्य समाज से जिसका कोई सरोकार नहीं। यह उन ग्रामीण जनों का साहित्य है जो आदिम संस्कृति और परंपराओं को सुरक्षित रखे हुए हैं। इस साहित्य पर समस्त जनसमूह का अधिकार है। यह समस्त लोक के राग-विराग, सुख-दुख, जीवन-मरण की सहज एवं सरस अभिव्यक्ति है। यह साहित्य सर्व व्यापक है। यह संपूर्ण मानव जाति की विरासत है। ### लोक साहित्य की विशेषताएँ- * यह मौखिक परंपरा का साहित्य है। मौखिक रूप से ही पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता है। लोग अपनी समस्त भावनाओं को एक दूसरे के साथ मौखिक रूप में बांटते हैं। इसका सौंदर्य उनके मौखिक रूप में ही है। * परिवर्तनशीलता इसकी दूसरी विशेषता है। समाज और जाति से जुड़ी परंपराएं और प्रथाएं, कथाएं, कहानियां, गीत आदि पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तित होते रहते हैं। सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ लोक साहित्य की भाषा बदल जाती है । समय और स्थिति के साथ लोक रचनाकार रचनाओं में परिवर्तन कर देता है। * साहित्य लोक साहित्य में शिष्ट साहित्य की तरह साहित्य शास्त्र के नियमों का बंधन नहीं रहता। यह साहित्य मानव के जीवन की वास्तविक अनुभूतियां है, इसलिए यह उसी रूप में अभिव्यक्त होती है। इस साहित्य में कला या सौंदर्य का बंधन नहीं रहता है। मौखिक परंपरा के रूप में चलने से लोक रचनाकार का नाम अज्ञात रहता है इसलिए संपूर्ण जनसमुदाय उसे अपनी ही रचना मानता है। * लोक साहित्य का विषय क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है। एक छोटे से गांव से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक इसका विस्तार है। लोक साहित्य की अभिव्यक्ति स्वाभाविक, सहज, स्वच्छंद एवं प्रवाहमयी होती है। यह पूर्ण रूप से अपने प्राकृतिक अवस्था में ही बना रहता है जिसकी सरलता और सहजता ही इसकी आत्मा है। * लोक साहित्य लोक संस्कृति का अभिन्न अंग है। संस्कृति का संबंध किसी भी देश या जाति या किसी विशिष्ट समाज की समस्त धार्मिक आस्थाओं, प्रवृत्तियों, विचारधाराओं, रुचियों, व्यवहारों, रीति रिवाज एवं रहन-सहन से होता है और यही तमाम भावनाएं लोक साहित्य में अभिव्यक्त होती है। * लोक साहित्य के व्यापकक्षेत्र से ही शिष्ट साहित्य का विषय चुनाव होता है। कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि का उ‌द्भव और विकास लोक साहित्य के ही विभिन्न रूपों से होता है। राम और कृष्ण को लेकर जो तथ्य लोकमानस में रचे गए थे उन्हीं को आधार बनाकर शिष्ट साहित्य की अमूल्य रचनाएँ रची गई हैं। यदि लोक साहित्य का सम्यक अनुशीलन एवं संवर्धन किया जाए तो शिष्ट साहित्य में भी वृद्धि होगी। डा. देव सिंह पोखरिया ने लोक साहित्य की विशेषताओं को इस प्रकार रेखांकित किया है- 1. लोक साहित्य श्रुति-परम्परा पर आधारित होता है और यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी तथा कंठानुकंठ परम्परित रहता है। 2. किसी व्यक्ति अथवा समूह द्वारा सृजित होकर भी इसमें निर्वैयक्तिकता होती है। 3. इसमें द्विरुक्ति और आवृत्तिमूलकता होती है। 4. नाम परिगणनात्मकता रहती है। 5. इसमें नैसर्गिक सहजता एवं अकृत्रिमता होती है। 6. गेयता एवं रसात्मकता का प्राधान्य होता है। 7. शिल्पगत शास्त्रीय आग्रह नहीं होता है। 8. सम-सामयिकता की सटीक अभिव्यक्ति एवं गतिशीलता होती है।"

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