दही वाली मंगम्मा PDF
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इस दस्तावेज़ में दही वाली मंगम्मा नामक कन्नड़ कहानी का एक हिस्सा दिया गया है। कहानी में मंगम्मा नाम की एक महिला की दैनिक जीवन, संघर्ष और मानवीय भावनाओं का वर्णन किया गया है।
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## दही वाली मंगम्मा श्रीनिवास श्रीनिवास जी का पूरा नाम मास्ती वेंकटेश अय्यंगार है। उनका जन्म 6 जून 1891 ई० में कोलार, कर्नाटक में हुआ था। श्रीनिवास जी का देहावसान हो चुका है। वे कन्नड़ साहित्य के सर्वाधिक प्रतिष्ठित रचनाकारों में एक हैं। उन्होंने कविता, नाटक, आलोचना, जीवन-चरित्र आदि साहित्य की प्रा...
## दही वाली मंगम्मा श्रीनिवास श्रीनिवास जी का पूरा नाम मास्ती वेंकटेश अय्यंगार है। उनका जन्म 6 जून 1891 ई० में कोलार, कर्नाटक में हुआ था। श्रीनिवास जी का देहावसान हो चुका है। वे कन्नड़ साहित्य के सर्वाधिक प्रतिष्ठित रचनाकारों में एक हैं। उन्होंने कविता, नाटक, आलोचना, जीवन-चरित्र आदि साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में उल्लेखनीय योगदान दिया। साहित्य अकादमी ने उनके कहानी संकलन 'सण्णा कथेगुलु' को सन् 1968 में पुरस्कृत किया । उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार भी प्राप्त हुआ । यह कहानी 'कन्नड़ कहानियाँ' (नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया) से साभार ली गयी है। इस कहानी का अनुवाद बी० आर० नारायण ने किया है । मंगम्मा बरसों से हमें बारी से दही दिया करती है, बेंगलूर की तरह दूसरे शहरों में रोज आकर दही देना और महीने के बाद पैसे लेने को बारी कहते हैं। पर लगता कि बेंगलूर में ऐसी बारी का रिवाज नहीं । आमतौर पर जब भी मंगम्मा हमारे मुहल्ले में आती, तब वह हमारे घर आकर 'दही लोगी माँ जी, बहुत बढ़िया है' कहती है । हमें आवश्यकता होती तो हम ले लेते और उस दिन के भाव के अनुसार उसके पैसे दे देते या अगले दिन चुका देते। यह हमारी उसकी बारी की रीति है । वह अवलूर के पास किसी गाँव की है। उसके गाँव का नाम शायद वेंकटपुर या कुछ ऐसा ही है । आते समय हमारे मुहल्ले से होकर ही आना पड़ता है और जाती बार भी हमारी तरफ से ही जाना होता है। मैं उससे जरा अच्छी तरह बात करती हूँ। इसलिए कभी-कभी गाँव से आते समय और सारा दही खत्म करके जाते समय दोनों बार मेरे पास आ जाया करती । आकर आँगन में थोड़ी देर बैठती, सबसे बातें करती । पान सुपारी खाती । न रहने पर कभी-कभी हमसे पान सुपारी माँगकर खाकर गाँव जाती । ऐसे मौकों पर यदि मेरे पास समय होता तो वह अपना दुख-सुख भी बताया करती। मुझसे भी सुख-दुख पूछती । मुझे भला क्या सुनाती ? यही कि बिल्ली ने दूध पी लिया, चूहे ने कुम्हड़े में छेद कर दिया । तब वह 'दुनिया ही ऐसी है' कहकर अपने अनुभव की बातें सुनाती । बाद में यह भी कहती कि इस दुनिया में किस ढंग से चलना चाहिए । मंगम्मा मुझे अच्छी लगती । मुझमें और उसमें बहुत घनिष्ठता हो गई । कोई एक महीने पहले की बात है। मंगम्मा ने सबेरे-सबेरे आवाज लगाई, 'दही लोगी माँ जी !' मैं भीतर कुछ कर रही थी। मेरा बेटा बोला, 'हाँ लूँगा' और पास जाकर 'दही दो' कहकर उसने हाथ फैलाया । मंगम्मा ने मटकी से थोड़ा अच्छा गाढ़ा-गाढ़ा दही निकालकर उसकी हथेली पर डाल दिया और बोली, "जरा जाकर माँ जी को जल्दी से भेज दो, मुझे जाना है।" इतने में मैं आ गई । मंगम्मा बोली, "माँ जी ! सोने जैसा बेटा पैदा किया है। जैसे गुण तुम्हारे हैं, वैसे ही उसे मिले हैं। पर इन सबसे क्या ? लड़के के बड़े होने की देर है। फिर तो पता नहीं कैसी बहू आएगी । अब जो बच्चा 'अम्मा अम्मा' करता पीछे-पीछे घूमता है। उसे ही यह बात पता नहीं होगा कि अम्मा जिंदा है या मर गई ?" मैंने पूछा, "मंगम्मा क्या हो गया ? बेटे ने तेरी बात नहीं मानी ?" वह फिर से बोली, "छोड़िए माँ जी, भांवरे लेकर आया, पति ही जब बात नहीं पूछता था तो बेटा क्या सुनेगा ?" इस पर मैंने पूछा, "तेरे घरवाले ने तेरी बात नहीं मानी क्या ?" वह कहने लगी, "अरे, माँ जी मेरे भाग्य में एक अच्छी धोती नहीं थी। किसी और ने पहन ली । वह साड़ी के चक्कर में उसी के पीछे लग गया। जो भी हो वह समझता रहा, मेरा घर है, मेरी घरवाली है । इसीलिए मैं भी चुप रही कि घरवाला तो है। सच कहती हूँ, अमृत बेचती रही, पति खा गई । पता नहीं मेरे नसीब में क्या-क्या लिखा है ? पर आपको एक बात कहती हूँ, ध्यान रखिएगा । घरवाला जब घर आए तो अच्छी तरह कपड़े-लत्ते पहनकर घूमा कीजिए । मर्दों का मन बड़ा चंचल होता है। उनकी पसंद की साड़ी ब्लाउज पहनकर घूमा कीजिए । फूल, इत्र आदि लगाकर उनके मन को बस में करना चाहिए। आपने जो साड़ी पहन रखी है, काम-धंधों के लिए ठीक है । जब घर में अकेली रहती हैं, तब के लिए यह ठीक है। शाम के समय एक बढ़िया साड़ी पहनकर रहना चाहिए।" मुझे जरा हँसी आई। लेकिन ऐसा लगा कि अनुभव से कितनी बड़ी बात कह रही है। साथ ही यह दुख भी हुआ कि उस अनुभव के पीछे दुख छिपा है। मैं बोली, "हाँ मंगम्मा, तुम्हारी बात सोलह आने सच है । बाद में मंगम्मा बोली, "देखिए माँ जी, आदमी को ढंग से बस में रखने के तीन-चार गुर हैं। कुछ लोग कहते हैं कि टोना टोटका करो या जड़ी-बूटी खिला दो। अरे कहावत है, 'दवा करने से तो मशान ही जगता है'। ऐसे लोगों की बातें नहीं सुननी चाहिए। कोई न कोई स्वाद की चीज बनाकर दीजिए । आँखों को तृप्त करने को अच्छी तरह से कपड़े-लत्ते पहन-ओढ़कर, दुखी रहने पर भी हँसकर बातें कीजिए । घर के लिए जो चाहिए एक बार खूब मँगवा लीजिए, पर बार-बार मत माँगिए । पैसा पैसा जोड़कर जरूरत पड़ने पर एक दो रुपए उन्हें थमा देना चाहिए। ये हैं सबसे बड़े टोने-टोटके । घरवाली ऐसा करे तो घरवाला घर में कुत्ते की तरह रहता है। अगर ऐसा न करे तो गलियों में भटकता है ।" मुझे मंगम्मा की बात के चमत्कार से आश्चर्य हुआ। दो इधर-उधर की बातें करके मैंने उसे भेज दिया । कोई पंद्रह दिन पहले जब मंगम्मा घर आई तो लगा कि वह बहुत दुखी है। मैंने पूछा, "क्यों मंगम्मा ऐसी क्यों हो ?" वह बोली, "क्या बताऊँ, माँ जी। ऐसा लगता है मेरी किसी को भी जरूरत नहीं ।" यह कहकर उसने अपने पल्ले से आँसू पोछे । मैंने पूछा, "क्या हुआ ? बेटे ने कुछ कह दिया ?" उसने कहा "हाँ माँ जी, कुछ ऐसा ही हो गया। बहू ने किसी बात पर पोते की खूब पिटाई कर दी। तो मैंने कहा क्यों री राक्षसी, इस छोटे से बच्चे को क्यों पीट रही है ? तो मेरे ऊपर चढ़ बैठी। खूब सुनाई उसने । तब मैंने भी उससे कह दिया, मैं तेरे घरवाले की माँ हूँ। तू मुझसे इत्ती जबान लड़ा रही है। आने तो दे उसे ।" वह महाराजा घर आया । उससे मैं बोली, "देख भैया, इसने बेमतलब में अनजान बच्चे को इत्ती जोर से पीटा, मैंने मना किया तो मुझे ही चार सुनाती है । तू जरा अपनी घरवाली को अकल सिखा ।" इस पर बोली, "मुझे क्या सिखाएँगे । लड़का अगर कुछ उधम करता है तो उसे मना करने का हक मुझे नहीं ? तुमने जैसे इन्हें पैदा किया वैसे ही मैंने उसे पैदा किया ? मुझे क्या अकल सिखाने चली है ?" जो भी हो माँ जी वह उसकी घरवाली है, मैं माँ हूँ उसे कुछ कहा तो पलटकर जवाब देती है। मुझे कहे तो मैं क्या कर सकती हूँ। इस पर वह बोला, "हाँ, माँ वह अपने बेटे को मारती है तो तुम क्यों उसके झगड़े में पड़ती हो । तुम मुझे दंड दो ।" तब मैंने कहा, "क्यों रे ! मुझसे गलती ही हुई ?" मुझे बहुत गुस्सा आया माँ जी। बात मेरे मुँह से निकल ही गई 'क्या कहता है रे, बीवी ने तुझ पर जादू फेरा है। वह बच्चे को पीटे तो भी ठीक है और मुझे गाली दे तो भी ठीक है, बहुत अच्छे ! कल वह कह दे, माँ को निकाल, तो तू *निकाल बाहर करेगा ।" इस पर वह बोला, "और क्या किया जा सकता है माँ, अगर तुम यह कहो कि घरवाली रहेगी तो मैं नहीं रहती और मैं रहूँगी तो घरवाली नहीं रह सकती तो उस बेचारी को सहारा कौन दे ?" मैंने पूछा, "मुझ बेसहारा का क्या बनेगा ?" तब उसने कहा, "तुम्हारा क्या है माँ, तुम्हारे पास गाय-बैल है, पैसा है, तुम्हें क्या मैं पाल सकता हूँ ?" मैंने पूछा, "तुम्हारा कहना है कि मैं अलग हो जाऊँ ?" इस पर उसने साफ कह दिया, "तुम्हारी मर्जी । अगर तुम अलग होना चाहती हो तो रोकूंगा नहीं । मैं तुम्हारे झगड़ों से तंग आ गया हूँ।" इस पर मैंने कहा, "अच्छी बात है बेटा ! आज दोपहर से मैं अलग हो जाती हूँ। तुम अपनी घरवाली के साथ सुख से रहो ।" फिर दही लेकर चली आई माँ जी । मैंने दही लेकर उसे पैसे दिए और कहा, "जाने दो मंगम्मा ! घर जाओ, ठीक से रहो, सब अपने आप ठीक हो जाएगा....।" अगले दिन मंगम्मा आई तो पिछले दिन जैसी दुखी नहीं दिख रही थी। लेकिन मन पहले की तरह हल्का नहीं था। मैंने पूछा, "झगड़ा निबट गया कि नहीं ?" इस पर उसने जवाब दिया, "वह निबटने देगी क्या ? कल दही बेचकर गई तो मेरे बर्तन-भांडे अलग रख दिए थे । एक कुठले में रागी और एक में चावल, थोड़ा-सा नमक मिर्च सब एक तरफ रखकर, खुद खाकर और अपने पति को खिलाकर पाँव पसारे बैठी थी। आप बताइए माँ जी, झगड़ा कैसे निबटेगा ? मैंने थोड़ा हिट्टू बनाकर खाया। शादी के बाद बेटा कभी अपना रहता है माँ जी ? ठीक है, जब उन्हें नहीं चाहिए, मैं ही क्यों जबर्दस्ती करूँ ? अलग ही रहने लगी माँ जी ! रोज उस बच्चे को थोड़ा-सा दही देकर; बाद में बेचने आया करती थी। आज ठीक उसी समय, वह उसे बच्चे को लेकर कहीं चली गई थी। मैं जानती हूँ कि उसकी यह चाल है कि मैं उस बच्चे से बात न कर पाऊँ ?" इतनी छोटी-सी बात की कैसी रामायण बनती जा रही है, मुझे आश्चर्य हुआ, पर मैं इसमें कुछ कर नहीं सकती थी। इधर-उधर की कुछ बातें करके मैंने मंगम्मा को विदा किया । बाद में दो-एक दिन मैंने वह बात उठाई ही नहीं। ऐसा लगा कि वह अलग ही रहने लगी है। एक दिन उसी ने पूछा, "माँ जी, आप जो मखमल पहनती हैं न, वह कैसे गज मिलती है ?" मैंने पूछा, "क्यों मंगम्मा ?" तो वह बोली, "इतने दिन तो बेटे और पोते के लिए पैसा-पैसा जोड़ती रही । अब भला क्यों जोहूँ ? मैं भी एक मखमल की ब्लाउज पहनूँगी ?" मैंने कहा, "एक ब्लाउज के सात-आठ रुपए लगते हैं, मंगम्मा ।" उस दिन मंगम्मा ने जाकर दर्जी से वह कपड़ा लिया और वहीं सिलने दे दिया। दूसरे दिन पहनकर आई। मुझसे कहने लगी, "देखिए माँ जी मेरा सिंगार । घरवाले के रहते एक अच्छी साड़ी नसीब नहीं हुई। वह तो किसी के पीछे लगा था । मैंने बेटे के लिए पैसे जोड़े, अब वह लड़का ऐसा हो गया। अब कैसा है, मेरा सिंगार ?" मुझे लगा कि बेटे से अलग होने के कारण दुख से मंगम्मा को जरा मतिभ्रम हो गया है। जब ज्यादा दुख आ जाता है तब हर किसी को ऐसा ही हो जाता है। मैंने कुछ न कहा, पर सोचा इस जाकिट के कारण उसे किसी दूसरे से झगड़ा मोल लेना पड़ेगा। उनके गाँव का एक लड़का बेंगलूर में पढ़ रहा था। वह फिरंगियों की तरह अथवा पढ़े-लिखे हम जैसों की तरह, जरा नफासत से कालर टाई पहनता था, जरा शौकीन था। उसने एक दिन मंगम्मा को देखकर पूछा, "क्या बात है अम्मा, एकदम मखमल की जाकिट ही पहन ली ?" तब मंगम्मा ने कहा, "क्या रे लड़के, यों बढ़-बढ़कर बातें कर रहा है ? तू गले में फाँसी लटकाए घूमता है मैं जाकिट नहीं पहन सकती ।" दोनों में तू-तू मैं-मैं हो गई । पास खड़े चार लोग हँस पड़े । अगले दिन मंगम्मा ने ही यह बात मुझे सुनाई। दूसरों की बात तो दूर उस बहू ने भी मंगम्मा को सुनाते हुए कहा था, "बहू को एक जाकिट सिलाकर नहीं दी। सास अलग हो गई और अब मखमल की जाकिट पहनने लगी है। मंगम्मा ने ब्याह में बहू को कर्णफूल, कड़े, झुमकी, कान की जंजीर, कंठी और तगड़ी... सब दिया था। बाद में भी साल के साल कोई न कोई गहना बनवा देती थी । वह तो बहू को याद नहीं रहा । मंगम्मा उसकी बात सुनकर एक दो बार तो चुप रही, बाद में वह अपने को रोक न पाई। एक दिन रात को जाकर बेटे से कह दिया, "तेरी घरवाली बड़ी-बड़ी बातें बनाती है। मेरे जाकिट पर ताने कसती है। कहती है, मैंने उसे कुछ भी नहीं दिया, क्या मैंने कुछ नहीं दिया ? कड़े, कर्णफूल, झुमकी, पदक क्या यह सब मेरे दिए हुए नहीं ?" बहू ने पति को बोलने का मौका ही नहीं दिया, वही बोली, "अब तो घरवाला भी नहीं, ऊपर से बुढ़िया भी हो गई हो। अब कर्णफूल और तगड़ी पहनोगी ? ले जाओ, पहन लो ।" बैठे पति ने उससे कहा, "क्यों री, तू बकवास किए जा रही है ?" फिर माँ से बोला, "माँ मैं तुम लोगों का झगड़ा पसंद नहीं करता । अगर तुम्हें चाहिए तो सारे जेवर ले जाओ।" मंगम्मा बोली, "माँ जी रास्ता चलने वाले भी इस तरह से बात नहीं करते । 'चाहिए, तो जेवर लेकर चली जाओ' कहकर उसने सारा दोष मुझ पर ही मढ़ दिया। अब यह जन्म किसलिए ?!" यह सुनकर मुझे बड़ा दुख हुआ। वह भी इसलिए कि बुढ़िया ने अपने पोते को पीटने से मना किया था । भला यह सब क्या हो रहा है। बात मुझे बाद में समझ में आई। जहाँ भी देखो झगड़े का कारण ऐसा ही होता है। जब कोई एक दूसरे को पसंद नहीं करता तब छोटी बातें भी बड़ी हो जाती हैं। बेकार के झगड़े उठ खड़े होते हैं. उससे संबंधित सभी लोगों को बेहिसाब दुख उठाना पड़ता है । कुछ दिन बाद एक दिन मंगम्मा बोली, "माँ जी आप बहुत भली हैं। मेरे पास थोड़े से पैसे रखे हैं, उसे कहीं बैंक में रखवा दीजिए। उन पर कई लोगों की आँखें लगी हैं।" मैंने पूछा, "ऐसा क्या हो गया ?" वह बोली, "माँ जी कल ही की बात है। हमारे गाँव में रंगप्पा नाम का एक आदमी है। वह कभी-कभार जुआ-उआ खेलता है। बड़ा शौकीन तबीयत का है। मैं तब दही लेकर आ रही थी तो कहीं से टपक पड़ा और पूछने लगा, "क्यों मंगम्मा अच्छी तो हो ।" मैंने कहा, "क्या अच्छा क्या बुरा, जो है तुम्हें पता नहीं ?" वह बोला, "हाँ भाई तुम्हारा कहना ठीक है । आज के जमाने में भला कौन सुखी है, आजकल के लड़कों की जबान का क्या ठिकाना ? हमारी उमर के लोगों को तो बस देखते रहना ही पड़ता है। और कर भी क्या सकते हैं ?" वह वैसे ही साथ चला आया। रास्ते में अमराई का कुआँ है। वहाँ से गुजरते समय मुझे डर सा लगा, मैं सोचने लगी, पता नहीं यह क्या कर डाले ? अंटी में काफी पैसे थे। कहीं इसी के लिए तो पीछे-पीछे नहीं आया ? वही बोला, "जरा चूना दोगी ?" मैंने दे दिया, वह लेकर चला गया । आज भी आते समय वहीं आकर मिला। माँ जी ! इधर-उधर की बातें करता-करता बीच में बोला, "मंगम्मा, मैं जरा तकलीफ में हूँ। थोड़ा सा कर्ज दोगी ? इस बार रागी बेचते ही लौटा दूँगा ।" मैं बोली, "अरे भैया, मेरे पास पैसे कहाँ ?" तब वह कहने लगा, "जाने दो मंगम्मा ! क्या हमें पता नहीं ? पैसे को यहाँ-वहाँ गाड़कर रखने से भला क्या मिलता है ?" फिर थोड़ी देर बाद वही बोला, "तुम्हारा बेटा तुम्हारे साथ रहता तो मैं तुमसे कर्ज नहीं माँगता । मैं जानता हूँ, तुम अपनी बहू के लिए कोई न कोई चीज-बस्त बनवाती रहती थी। अब वह बात तो नहीं रही ।" देखिए माँ जी, औरत अगर अकेली हो जाती है तो लोगों की आँखें उसकी तरफ लग जाती हैं। मैंने मंगम्मा से कहा, "मैं अपने घरवाले से पूछकर बताऊँगी ।" मैंने उनसे इस बारे में कोई बात नहीं की। दूसरे दिन मंगम्मा ने दही लेने के बाद अंटी से एक थैली निकाली और कहने लगी, "माँ जी, जरा भीतर चलो गिन लो।" मैं बोली, "मैंने अभी उनसे पूछा नहीं। अभी रखे रहो, फिर ले आना ।" मंगम्मा कहने लगी, "मुझे बहुत डर लगता है माँ जी। आज भी रंगप्पा आया था, अमराई के पास तक । कहने लगा जरा बैठो मंगम्मा, ऐसी जल्दी क्या है ? 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