छत्तीसगढ़ के शासक : बिम्बाजी भोंसले : PDF
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इस दस्तावेज़ में छत्तीसगढ़ के शासक बिम्बाजी भोंसले और उनके शासनकाल के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। दस्तावेज़ में बिम्बाजी भोंसले के जीवन, शासनकाल, और महत्त्वपूर्ण निर्णयों का वर्णन किया गया है।
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# छत्तीसगढ़ के शासक : बिम्बाजी भोंसले : छत्तीसगढ़ के इतिहास में बिम्बाजी भोंसले का महत्वपूर्ण स्थान है। अपने पिता राघोजी राव से उन्होने छ.ग. का प्रांत बटवारे में प्राप्त किया। मृत्यु से पूर्व ही राघोजी ने अपना राज्य अपने चार बेटों में विभाजित कर दिया था। जानकोजी को नागपुर राज्य, मुधोजी को चांदा राज...
# छत्तीसगढ़ के शासक : बिम्बाजी भोंसले : छत्तीसगढ़ के इतिहास में बिम्बाजी भोंसले का महत्वपूर्ण स्थान है। अपने पिता राघोजी राव से उन्होने छ.ग. का प्रांत बटवारे में प्राप्त किया। मृत्यु से पूर्व ही राघोजी ने अपना राज्य अपने चार बेटों में विभाजित कर दिया था। जानकोजी को नागपुर राज्य, मुधोजी को चांदा राज्य, साबाजी को बरार दरव्हा तथा बिम्बाजी को छत्तीसगढ़ ।' राघोजी की मृत्यु 14 फरवरी 1755 ई. को हो गई। जिस उत्तराधिकारी युद्ध को वे टालना चाहते थे, वह नहीं टला । नागपुर की गद्दी के लिए जानको जी और मुधोजी के मध्य संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में बिम्बाजी अपने सहोदर मुघोजी के साथ थे। मुधोजी और जानोजी का अंतिम संग्राम अमरावती के निकट नांदगांव रहाटगांव में हुआ। इस युद्ध में जानोजी ने विजय संपादन किया। बिम्बाजी को छ.ग. प्रांत मिल गया था मगर नागपुर की राजनीति में उलझे रहने के कारण वे यहां नहीं आ सके। राज्य व्यवस्था वे दीवान नीलकंठ द्वारा करते थे। बाद में घोड़ों महादेव की नियुक्ति की गई। छ.ग. का प्रांत बटवारे में प्राप्त होने के बावजूद बिम्बाजी संतुष्ट नहीं थे। राजनीति के पंड़ित न होते हुए भी उन्होंने यही माना कि उन्हें नागपुर से हटाना उद्देश्य था, नागपुर की यही राजनीति थी । मोहनसिंह मराठा शासन की एक सीढ़ी था, जिसे बिम्बाजी ने पूर्ण कर दिया। मराठों के एक विश्वास-पात्र सेवक के रूप में राघोली प्रथम की मृत्यु के समय वह उपस्थित था और उनकी सेवा किया। राघोजी की मृत्यु के बाद उसके जीवन में फिर से एक बड़ा तूफान आया । उसे अपेक्षा थी कि छ.ग. पर उसे ही शासन करने दिया जाएगा। बिम्बाजी की छत्तीसगढ़ के लिए नियुक्ति से उसका असंतुलित होना स्वाभाविक है। एकाएक राज्य का त्याग करना उसके लिए असंभव था।' मोहनसिंह ने लड़ने की मुद्रा बनाई। सैनिकों को एकत्र किया और अधिकार छीनने वाले से संघर्ष की तैयारी की। व्यक्ति सोचता कुछ है और होता कुछ है, प्रभु को यह स्वीकार नहीं था। मोहनसिंह बीमार पड़ा और मर गया । बिना किसी विरोध के बिम्बाज़ी भोंसले को छत्तीसगढ़ का राज्य बिना किसी खून खराबी के प्राप्त हो गया।' रतनपुर में मृत्यु 23 जनवरी 17 57 ई. स्थानीय इतिहासकार रेवाराम बाबू और पं. शिवदत्त शास्त्री ने लिखा है “बिम्बाजी का मोहनसिंह एवं राघोजी भोंसले ने विरोध किया मगर वे सब हार गए।" उपरोक्त दोनों मतों में से जो भी सही हो इतना निश्चित है कि किसी भी प्रकार से बिना रक्तपात हुए यह घटना (बिम्बाजी का राज्यधिकार सफलता पूर्वक घटित हुई।)' बिम्बाजी को छत्तीसगढ़ का इतिहास विरोध की आशंका थी, इसीलिए उन्होने अपना मार्ग बदला और प्रायः प्रयुक्त किए जाने वाले मार्ग पेन्ड्रा की ओर से रतनपुर आने के स्थान पर पहले रायपुर पहुंचे और फिर रतनपुर । छत्तीसगढ़ प्रांत पर अधिकार बिम्बाजी की महत्वपूर्ण सफलता थी । सैन्य दृष्टि से या सेनापतित्व की दृष्टि से नहीं मगर साहस की दृष्टि से । अनुभव शून्य राजकुमार को प्रारंभ में इससे प्रोत्साहन मिला । 10 बिम्बाजी का शासन कब से :- रायपुर होते हुए बिम्बाजी भोंसले रतनपुर पहुंचे। कलचुरि शासकों का महल मानों उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। रतनपुर के प्राचीन महल में प्रवेश कर बिम्बाजी ने छ.ग. के शासन की बागडोर संभाली ।" छ.ग. पर बिम्बाजी का शासन कब से प्रारंभ हुआ इसके बारे में अनेक स्त्रोतों से जानकारी नहीं मिलती। केवल मुकुंद रंगनाथ ही अपने शोध प्रबंध में 4 फरवरी 1757 ई. से बिम्बाजी भोंसले के शासन को प्रारंभ लिखते है। वास्तव में 4 फरवरी 1757 ई. वह तिथि थी जब बिम्बाजी नागपुर से रतनपुर के लिए रवाना हुए। रतनपुर पहुंचने में उन्हें तीन माह का समय लगा होगा, क्योंकि सेना के साथ वे आगे बढ़ रहे थे। मई 1757 ई. का कोई दिन रहा होगा जब वे रतनपुर के महल में प्रविष्ट हुए होगे। प्यारेलाल गुप्त ने भी 1757 ई. से बिम्बाजी का छ.ग. पर शासन प्रारंभ माना है। प्रयागदस्त शुक्लं भी 1757 ई. से शासन का प्रारंभ मानते है।" बिम्बाजी जब नागपुर से रवाना हुए तब अपने साथ अनुभवी व योग्य मराठों को रखे। नए प्रदेश में शासनतंत्र को स्थापित करने और समस्त सूत्रों के केन्द्रीयकरण के लिए यह अपेक्षित था । छ.ग. पर मोहन सिंह का दबदबा था । जमींदर, सेठ और साधारण जनता उससे दबती थी। नया शासक अपने ढंग से शासन को सुधारने के लिए अपने मराठा सहायकों को पदस्थ किया। घोड़ों महादेव, कृष्णाजी उपाध्ये, महमदर्खा, कादरखां, नीलू पंड़ित, महाडिक आदि लोगों के साथ बिम्बाजी ने छ.ग. में पदार्पण किया। बिम्बाजी का छ.ग. आगमन उसकी इच्छा के विरूद्ध था, क्योंकि छत्तीसगढ़ के विषय में उसकी कल्पना बड़ी भ्रामक थी कि यह प्रदेश पिछड़ा हुआ है, यहां के लोग असभ्य है, जंगली है, इसीलिए राज्य में आय का साधन नगण्य है।" उत्तराधिकार युद्ध में बिम्बाजी के सहोदर मुधोजी विजयी हुए तो यह निश्चित है कि बिम्बाजी छ.ग. नहीं आते और नागपुर में रहते हुए अपने प्रतिनिधियों के माध्यम छ.ग. पर शासन करते । घटना क्रम ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि बिम्बाजी को छ.ग. आना पड़ा । 1757 ई. में छ.ग. आने के पश्चात् भी बिम्बाजी नागपुर की राजनीति में उलझे रहें। 1761 ई. तक नागपुर की राजनीति में रूचि रहने के कारण बिम्बाजी ने छ.ग. का ख्याल नहीं किया।" 1761 ई. तक ही नहीं बाद के वर्षों में भी बिम्बाजी अपने असंतोष को व्यक्त करते रहे. और छ.ग. आवास से अप्रसन्न रहे। 1768 ई. को बालाजी पंत को उन्होने जो पत्र लिखा था वह इस बात का प्रमाण है। बिम्बाजी ने लिखा - हम आज तक परदेश में केवल वनवास भोग रहे है क्योंकि यह वन प्रदेश छ.ग. प्रभु रामचंद्र का निवास स्थान दण्डकारण्य है, उसी की छत्रछाया में यहां वनवास भोग रहा हूं। आपने मेरी उपेक्षा की है। मेरी इच्छा थी कि नागपुर में रहकर कुछ कीर्तिस्पद कार्य करूं परन्तु भाग्य में कुछ नहीं दिखाई देता और इसीलिए हमें छ.ग. में आना पड़ा।' क्या बिम्बाजी छ.ग. के राजा थे ? या यहां के सूबेदार थे ? इतिहासकारों ने बिम्बाजी को छत्तीसगढ़ का सूबेदार माना परंतु यहां के विद्वानों ने बिम्बाजी को राजा माना है - ऐसा मुकुंदरंगनाथ का अभिमत है।" बाबू रेवा राम पंड़ित ने लिखा है - बिम्बाजी पुनि राजा आये, रघुराजे पुत्र सुहाये । वर्ष सत्ताईस भोगेवरनी, कोन्हे जश सुधर्म भल करनी। रेवा राम पंड़ित ने बिम्बाजी को राजा लिखा है। प्यारेलाल गुप्त ने लिखा है बिम्बाजी को नागपुर राज्य के अधीनस्थ होकर रहना पड़ता था, यद्यपि यथार्थ में वह सभी भांति स्वतंत्र था। बिम्बाजी का पृथक दरबार था, पृथक सलाहकार थे, पृथक सेना भी थी। इस व्यवस्था में नागपुर शासन किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करता था। मुकुंद रंगनाथ ने लिखा है - बिम्बाजी एक स्वतंत्र शासक था, ऐसा हम कहते हैं क्योकि साधारणता शासक डी फैक्टो और डी-जोर होता है, परन्तु बिम्बाजी यहां निश्चित रूप से डी-फैक्टो शासक थे। राजा के रूप में मान्यता पाने के लिए आवश्यक होता है- अंचल में राजा के नाम के सिक्के चलन में हो। बिम्बाजी भोंसले के नाम से सिक्के नहीं ढाले गए। सिक्के ढाले नहीं गए, इसीलिए चलन में नहीं आए। अंचल में नागपुरी राजा के सिक्के चलते थे, इससे भी प्रमाणित होता है कि अंचल के राजा नागपुर के भोंसले थे। बिम्बाजी भोंसले उनके सूबेदार थे। बिम्बाजी को किसी ने राजा की उपाधि प्रदान नहीं की थी। यह सच है कि छ.ग. से टाकोली के रूप में कोई राशि नागपुर नहीं भेजी जाती थी, मगर संपूर्ण प्रकारण पर विचार करने के पश्चात् हम यह मानने को विवश होते. हैं कि बिम्बांजी छ.ग. में रहकर पूर्ण अधिकारों का प्रयोग करतें थे, मगर वैधानिक दृष्टि से छ.ग. नागपुर राजा के अधिकार में था। नागपुर राजा के सामने बिम्बाजी सूबेदार ही थे। इसी कारण बिम्बाजी की मृत्यु के पश्चात् उसका दत्तक पुत्र उसकी इच्छा के बावजूद रतनपुर का राजा नहीं हो सका। यदि बिम्बाजी राजा होते तो अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र होते । राजा नहीं थे इसी कारण नागपुर राजा की इच्छा मूर्तरूप धारण करती है और छ.ग. पर शासन के लिए दूसरा व्यक्ति नियुक्त किया गया। बोलचाल की भाषा में बिम्बाजी राजा थे । रतनपुर की गद्दी पर बैठे, रतनपुर के राजमहल में निवास करते थे,, सेना का खजाने पर पूरा नियंत्रण था। उनका दरबार भी लगता था, इसीलिए राजा जैसी प्रतिष्ठा उन्हें प्राप्त थी। राजनीति शास्त्र व इतिहास के अध्येता प्रमाणों के अभाव में बिम्बाजी को राजा स्वीकार नहीं कर सकते । पश्चातवर्ती मराठा शासन की तुलना में उसका शासन काल अंचल की जनता को पसंद था। रतनपुर में रहकर शासन करने के • कारण इस अंचल की प्रजा ने उन्हें राजा के रूप में माना, आदर दिया और राजभक्ति का सतत् प्रदर्शन भी किया। नागपुर एवं पूना के पत्र व्यवहार में राजश्री बिम्बाजी भोंसले के नाम से जाना जाता था । # छत्तीसगढ़ में आधुनिक युग का प्रारंभ :- छत्तीसगढ़ में आधुनिक युग का प्रारंभ कब से माना जाए, यह विवादस्पद विषय है । इतिहासकारों का एक वर्ग 1741 ई. से आधुनिक छत्तीसगढ़ का प्रारंभ मानते है। यह तर्क एक तथ्य पर आधारित है। 1741 ई. में मराठा सेनापति भास्कर पंत ने रतनपुर के राजा रघुनाथसिंह को परास्त किया। रघुनाथसिंह को शासन से पृथक कर अपने व्यक्ति को शासन सूत्र का संचालक नियुक्त किया। छ.ग. में मराठा शासन का प्रारंभ 1741.ई. से नहीं माना जा सकता। मराठा शासन के प्रारंभ का आधार मानकर यदिं आधुनिक युग का प्रारंभ तर्क रखना है तो मई 1757 ई. की तिथि पर केन्द्रित होना पड़ेगा। यह वह तिथि है जब नागपुर से प्रस्थान कर बिम्बाजी भोंसले रतनपुर पहुंचकर औपचारिक रूप से इस अंचल का शासन सूत्र संभालते है। उल्लेखनीय है कि बिम्बाजी भोंसले ने पिता की मृत्यु के पश्चात् अपने सेनापति पांडुरंग को छ.ग. पर अधिकार करने के लिए भेजा, मंगर पांडुरंग को सफलता नहीं मिली, पराजय व निराशा से वह लौटा था । बिम्बाजी स्वयं एक बड़ी सेना व अनुभवी सेनानायकों से आर-पार की लड़ाई लड़ने आया था । लड़ाई होती तो क्या होता ? इस पर तर्क वितर्क अनर्थक है। मोहनसिंह बीमारं पड़ा और मां गया। इस प्रकार से छत्तीसगढ़ पर मराठा आधिपत्य के मार्ग की मुख्य बाधा दूर हुई। ऐसी स्थिति में मई 1757 ई. से ही छत्तीसगढ़ के इतिहास का आधुनिक युग का प्रारंभ मानना अधिक समचीन होगा । बिम्बाजी ने उदारतापूर्वक रतनपुर के कलचुरि राजवंश के वंशज शिवराज सिंह को उसके परखों के हरेक गांव के पीछे एक रूपया परवरिश के लगा दिया। यह प्रबंध 1822 ई. तक चलता रहा। 24 स्वत्व खोए राजवंश के वारिसों को बिम्बाजी का यह उदारतापूर्वक दिया तोहफा था। बड़े घाव पर मरहम पट्टी का नरम हाथ था । मराठा प्रदेश में जन्में, पले, पढ़े बिम्बाजी विरासत में मराठा चरित्र पाए थे। छ.ग. में उनका आगमन एक आउट साइडर के रूप में था जिसे छ.ग. के लोगों की भावनाओं से बहुत कम वास्ता था। वे तो नागपुर राज्य के प्रति समर्पित दूरस्थ पदस्थ होने के बावजूद उनके विचार नागपुर दरबार के साथ थे। प्रारंभ में ऐसी स्थिति रहना : स्वभाविक था। बिम्बाजी इस अंचल में आने के पश्चात् स्थिति से समझौता करते हैं। नागपुर राजा जानकोजी से उनके संबंध तनावपूर्ण नहीं रहे। राजा का समर्थन उन्हें प्राप्त था। छ.ग. में शांति व व्यवस्था स्थापित करना, नए स्वामी के लिए स्वामिभक्ति के भाव उत्पन्न करना था। साम, दाम, दंड, भेद की पुरातन नीति का प्रयोग बिम्बाजी ने किया। जिस क्षितिज से विरोध की आशंका दिखी, उन्होने रचनात्मक कार्यवाही की। इसीलिए. अपने शासनकाल के प्रारंभिक वर्षों में बिम्बाजी रचनात्मक रूख रखते थे, परन्तु शनैः शनैः उन्होने अपनी प्रजा से तादात्य स्थापित किया और अपनी याद एक लोकप्रिय और आदरणीय शासक के रूप में छोड़ी।" चिशोम की उपरोक्त टिप्पणी को पाश्चातवर्ती . लेखकों ने भी स्वीकार किया है।" शनैः शनैः छ.ग. के निवास उनके संपर्क में आते गए। नए शासक को लोगों ने समझा। अपने शासनकाल के उत्तरार्ध में बिम्बाजी की लोकप्रियता काफी बढ़ी । # शासन का पूर्वार्ध :- बिम्बाजी को अपने पिता से उत्तराधिकार के रूप में जो छ.ग राज्य मिला था, उसकी सीमा काफी दूर तक फैली हुई थी। वर्तमान छत्तीसगढ़ के जिले तो इसमें सम्मिलित थे ही संबलपुर, पटना के 18 गढ़ भी सम्मिलित थे । बिम्बाजी भोंसले के राज्य की सीमा उत्तर पश्चिम में मंडला तक था। बघेल खंड से उत्तरपूर्व में सरगुजा रियासत तक तथा पूर्व में संबलपुर तक सीमा थी। दक्षिण में धमतरी, परगना, कांकेर, कुरूदं राज्य में थे। बस्तर स्वतंत्र राज्य था। बिम्बाजी को प्रशासनिक सुधार की ओर ध्यान देने का मौका पूर्वार्ध में नहीं मिला। चली आ रही पारंपरिक व्यवस्था को उपयुक्त मानकर उसे चाले रखा गया । बिम्बाजी की प्रशासनिक सूझ-बूझ की प्रशंसा करनी होगी। रतनपुर के महामाया मंदिर के प्रमुख पुजारी पंड़ित पचकौड़ को 1758 ई. में ही वार्षिक अनुदान देने की घोषणा की गई। पुराने राजवंश की देवी व उसके मंदिर तथा पुजारी के लिए की गई इस व्यवस्था ने बिम्बाजी की उदारता को प्रदर्शित किया। करों की कठोरता पूर्वक वसूली के लिए मराठे अलोकप्रिय रहे । बिम्बाजी भोंसले ने इस संबंध में पर्याप्त सावधानी बरती। एक ओर तो कर ढांचे में कोई विशेष परिवर्तन उन्होने नहीं किया, दूसरी ओर करों की वसूली के संबंध में कठोरता नहीं बरती गई, कोई नया कर नहीं लगाया गया। लगभग पांच लाख रूपया भू-राजस्व के रूप में वसूल होता था, जो संतोषजनक था। यहां की प्रजा में बिम्बाज़ी भोंसले का महत्वपूर्ण स्थानं हो गया और मृत्यु के उपरांत यहां की प्रजा बिम्बाजी के लिए काफी दुखः मनाई।" बिम्बाजी ने अपने साथ आए, मराठा सरदारों व सैनिकों को स्थापित करने के लिए कुछ पद अवश्य दिए, मगर बाद के वर्षों में संप्रदाय वाद से वे मुक्त रहे केवल मराठों को पद प्रतिष्ठा व अनुदान दिए गए, ऐसी बात नहीं थी। महाराष्ट्रियन व गैर महाराष्ट्रियन वितरण (पद व अनुराग) का आधार नहीं था। # बिम्बाजी का जमींदारों से संबंध बिम्बाजी भोंसले का छ.ग. के जमींदारों से संबंध कैसा था ?, यह तथ्यों से समझा जा सकता है। राज्य की आय का तीसरा प्रमुख साधन जमींदारों से वसूला जाने वाला टाकोली था। बिम्बाजी अपने जमींदारों से पूर्ववर्ती कलचुरियों की भांति टाकोली वसूलते थे । छ.ग. की भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि प्रशासन के समस्त सूत्रों का आधार राजधानी नहीं हो सकता था। जमींदार समय की मांग थे, केन्द्रीय सत्ता के भुजा थे । बिम्बाजी ने यहां के सभी छोटे-बड़े जमींदारों के साथ अच्छा व्यवहार किया। 33 छत्तीसगढ़ के प्रमुख 32 जमींदारों से 68721 रूपए टाकोली के रूप में वसूल होता था 134 संबलपुर के जमींदारों से 16 हजार रूपए टाकोली वसूला जाता था । छ.ग. के खैरागढ़ जमींदार से सर्वाधिक 24 हजार रूपए टाकोली वसूल किया जाता था। खैरागढ़ के जमींदार द्वारा बिम्बाजी का विरोध करने पर टाकोली की राशि बढ़ाई । 5000+8000+11000 रूपए कुल योग 24 हजार रूपए। ए कांकेर जमींदार से कोई नगद राशि नहीं ली जाती। 500 घुड़सवार सैनिकों की मदद ही वह करता था । यहां उल्लेखनीय है कि बिम्बाजी भोसले स्वयं छत्तीसगढ़ के जमींदारों से, संबलपुर के जमींदारों से वार्षिक टाकोली वसूल करते थे, मगर नागपुर राजा को किसी प्रकार की टाकोली नहीं पटाते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि नागपुर. राजा जानकोजी ने इस संबंध में उन्हें छूट दे रखी थी। बिम्बाजी द्वारा नागपुर राजा को वार्षिक टाकोली न भेजे जाने की स्थानीय इतिहासकारों ने प्रशंसा की। पं. शिवदत्त शास्त्री ने लिखा है - यहां का (छत्तीसगढ़) पैसा यही के लोगों के लिए उपयोग हो यह बिम्बाजी की धारणा थी। 35 बिम्बाजी ने जिन जमींदारों को परास्त किया उनसे इकरारनामा लिखवाया । भोंसला राजा के आदेश का पालन, विद्रोहियों को सहायता न देना वार्षिक टाकोली पटाना, अतिरिक्त वसूली न करना, व्यापारियों को सुरक्षा देना, अपराधी को सौंपना, मृत्युदंड न देना, संपत्ति हरण न करना, राजाओं या जमींदारों को विद्रोह के लिए उत्तेजित न करना, शांति व्यवस्था बनाए रखना, प्रजा का शोषण न करना।" इस तरह से दस धाराए होती थी, जिन जमींदारों ने नई व्यवस्था के साथ समझौता कर बिम्बाजी को सहयोग दिया उनके साथ अच्छा व्यवहार किया गया। बिम्बाजी भोंसले का बस्तर राजा से संबंध अनिश्चित प्रकार का था। पहाड़ी जंगली प्रदेश होने के कारण बस्तर से सतत् संपर्क नहीं हो सकता था। जब मराठा सैनिक अधिकारी बस्तर पहुंचते थे, तब राजा उन्हें बाध्य होकर राशि पटाता था। रतनपुर से बस्तर की दूरी अधिक थी। प्रतिवर्ष लगान करना ही रतनपुर का उद्देश्य होता था । बाकी सभी मामलों में बस्तर राजा स्वतंत्र था। 1787 ई. में बिम्बाजी की मृत्यु के पश्चात् बस्तर राजा ने 4-5 वर्षों तक टाकोली पटाया नहीं यह कैप्टन ब्लन्ट की रिपोर्ट से ज्ञात होता है ।" डॉ. पी.एल. मिश्र ने बिम्बाजी का बस्तर से संबंध विषयं पर गहन अध्ययन करने के पश्चात् लिखा है - In the absence of anything of the soil we are forced to the conclustion that Bastar remained out of the pururiew of Bimbagi (1758-1787 AD)“. सिहावा धमतरी तालुके लिए बस्तर राजा की बिम्बाजी से लड़ाई हुई। बस्तर राजा को यद्यपि पीछ हटना पड़ा मगर निर्णायक विजय कोई प्राप्त नहीं कर सका।" इस बात के प्रमाण मिलते है कि कांकेर बिम्बाजी के अधीनस्थ था। धीराज सिंह कांकेर के राजा थे। सिहावा तालुक्का कांकेर के अधीन था । बस्तर राजा सिहावा जीतना चाहता था। बिम्बाजी ने कांकेर राजा की सहायता की और बस्तर राजा को पीछ हटने के लिए बाध्य किया।" खैरागढ़ के जमींदार ने बिम्बाजी का विरोध किया, वह दंडित हुआ और टाकोली की राशि बढ़कर 24 हजार रूपए वार्षिक कर दिया गया। 1768 ई. में खैरागढ़ पर बिम्बाजी ने आक्रमण किया था। 1784 ई. में पुनः आक्रमण भास्कर पंत के नेतृत्व में हुआ। सरगुजा रियासत पर भी महिपतराव काशी के नेतृत्व में आक्रमण किया गया (1781 ई.)। सरगुजा से 3 हजार रूपए टाकोली ली जाती थी। चांग भखार रियासत पर भी बिम्बाजी ने 1775 ई. में आक्रमण किया और उसे वार्षिक टाकोली देने के लिए बाध्य किया। कोरबा के जमींदार ने बिम्बाजी का विरोध किया था। अतः उस पर आक्रमण किया गया। विद्रोह का कठोरतापूर्वक दमन किया गया । बिम्बाजी कोरबा जमींदार से इतने नाराज थे कि न केवल पांच हजार रूपए का दंड दिया बल्कि जमींदारी जब्त कर ली गई। जमींदारी जब्त करने की यह एकमात्र घटना थी । चाम्पा जमींदार दीवान कहलाते थे। उसने भी बिम्बाजी का विरोध किया, मगर मराठे सैनिकों के आते ही समझौता कर लिया पंडरिया के जमींदार से संबंध कटुतापूर्ण रहे । धमधा जमींदार ने बिम्बाजी का विरोध किया। 1781 ई. में धमधा पर आक्रमण किया गया, पराजय निकट जान जमींदार ने अपनी पत्नी के साथ जल समाधि ले ली। बिम्बाजी का अधीनस्थ होकर जीना उसे सहय नहीं था। उसका पुत्र जमींदार बनाया गया । टाकोली देना उसने स्वीकार किया । " बिम्बाजी भोंसले ने जमींदारों के साथ अच्छा व्यवहार किया। जिन जमींदारों ने उसका विरोध किया और समझौता नहीं किया उन्हें कठोरता पूर्वक दबाया गया । आंतरिक मामलों में जमींदारों को स्वायतत्ता दी गई। टाकोली पटना व अधीनस्थ रहना ये ही दो मुख्य शर्ते थी जो राजा व जमींदारों से स्वीकार करवाया जाता था। मृत्युपर्यंत (1787 ई.) बिम्बाजी भोंसले ने छ.ग. पर नियंत्रण रखा । बिम्बाजी भोंसले का छत्तीसगढ़ के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है । राज परिवार के होने के कारण नागपुर दरबार में छ.ग. प्रांत महत्व पाया। दुबले-पतले सुंदर शरीश वाले बिम्बाजी ने रतनपुर के निवासियों का मन मोह लिया था। तीन पत्नियां आनदीबाई, उमाबाई, रमाबाई थीं। किले के चारों ओर खाइयां खुदवाई । राममंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर, खंडोवा मंदिर बनवाया। मुसलमानों के लिए रतनपुर में मस्जिद बनावाया। # संदर्भ-सूची 01. काले वाय.एम. नागपुर प्रांताचा इतिहास पृ. 288 रायपुर गजेटियर पृ. 29 02. शुक्ल प्रयाग दत्त, मध्यप्रदेश का इतिहास और नागपुर के भोंसले वर्ष - 1930 पृ. 169 03. 04. गुप्त प्यारेलाल, प्राचीन छत्तीसगढ़, 1973 ई. पृ. 119 महाल भैयाजी चट्टे नागपुर के इतिहास संशोधक । i 05. गुप्ते काशीनाथ, नागपुर कर भोसल्यांची बाखर पृ. 64 # छत्तीसगढ़ में भोंसले शासन नागपुर के मराठा सरदार भोंसले थे। इसके सही संस्थापक रघुजी भोंसला ही थे । इसीलिए इन्हें महान रघुजी कहा जाता था। छत्रपति द्वारा सनद प्राप्त कर इनकी शक्ति व सत्ता स्थापित हुई थी। छत्रपति साहूजी ने जो सनद रघुजी को दिया था, उसके अनुसार उन्हें 'बरार, गोंडवाना, बंगाल, छत्तीसगढ़, पटना, इलाहाबाद, मकसूदाबाद'। का प्रदेश अधिकृत करने कहा गया। बखर भी इसे उल्लेखित करता है। इन भागों को उन्हें हस्तगत करना व मराठा प्रभाव स्थापित करना था। 1735 से 1755 ई. पर्यन्त रघुजी भोंसले का 20 वर्षीय काल, मराठा इतिहास में बहुत महत्व रखता है। छत्तीसगढ़ . में उनकी विजयी सेना ने प्रवेश किया और यहां भी मराठा प्रभुत्व स्थापित किया । भास्कर पंत नामक योग्य ब्राहम्ण सेनापति ने यह कार्य संपादित किया। सन् 1741 ई. में तीस हजार सैनिकों के साथ भास्कर पंत न रतनपुर पर विजय प्राप्त की। चिशोम की प्रायः उद्धत करने वाली पंक्तियां है- "इतिहास की यह पुकार थी कि प्राचीन वंशीय अंतिम शासक हाथ में तलवार लिए लड़ते-लड़ते शहीद हो जाते, ताकि आने वाली पीढ़ियों के समक्ष देशप्रेम और साहस का आदर्श उदाहरण छोड़ जाते" भास्कर पंत ने हैहयवंशी शासक को पदच्युत नहीं किया, उसे आधीनता स्वीकार कराई। एक लाख रूपये रतनपुर से वसूला और भोंसले का एक प्रतिनिधि गोसाई कल्याण गिरि को रतनपुर में नियुक्त किया । रतनपुर के राजा ने बाद में इसे भगा दिया। रघुजी को पुनः 1746 ई. में छत्तीसगढ़ में दाखिल होना पड़ा और मोहनसिंग को रतनपुर की राजगद्दी एक सरवराकार के रूप में सौंपनी पड़ी।' छत्तीसगढ़ पर मराठा आक्रमण के कारण व परिणामों पर पृथक से चर्चा की गई है। इसी प्रकार अंचल के प्रथम मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले पर भी पृथक से, विस्तार से विवरण दिया गया है। # छत्तीसगढ़ में सूबा शासन 7 दिसंबर 1787 ई. में बिम्बाजी भोंसले की मृत्यु हुई।' इसके पश्चात् छ.ग. में परिवर्तन का नया दौर आया। नागपुर राजा द्वारा मनोनीत सूबेदारों का शासन यहां प्रारंभ हुआ । रघुजी द्वितीय ने अपने छोटे भाई व्यांकोजी को 1789 ई. में धुरंधर की उपाधि के साथ छ.ग.. की प्रशासनिक जिम्मेदारी सौपी । व्यांकोजी छ.ग. नहीं आए, उन्होने अपने क्षेत्र की शासन व्यवस्था के लिए सूबेदार नियुक्त कर दिया। यह पद्धति सूबा शासन के नाम से इतिहास में चर्चित है। सूबेदार का मुख्यालय रतनपुर होता था। 1789 से 1818 ई. तक यह सूज़ा शान चला। मराठा इतिहास में छत्तीसगढ़ को व्यांकोजी की जागीर कहा गया है। छ.ग. में कितने सूबेदारों ने शासन किया, इस पर मतभेद है। कर्नल एगन्यू ने 8 सूबेदारों का उल्लेख किया है। वे मराठा सूबेदारों के उत्तधिकारी थे, अतः उनकी सूची को ही प्रमाणित मानना ठीक होगा। # प्रथम सूबेदार महीपत राव दिनकर (1788-1790 ई.) - महीपत राव दिनकर सूबेदार बनने से पूर्व छत्तीसगढ़ से व्यक्तिगत परिचय रखते थे। वह एक मंजा हुआ कूटनीतिज्ञ था । छ.ग. में संदेह और विरोध का वातावरण था। अतः नागपुर राजा ने अपने विश्वस्त व्यक्ति को यहां भेजा। रतनपुर में सपरिवार महीपत राव रहने लगे। पुराने अधिकारी उनके सहायता के लिए प्रस्तुत थे। दो वर्षों का उसका सूबेदारी शासन काल था, जो कठिनाईयों से भरा हुआ था। उसे कई विद्रोहों का सामना करना पड़ा। बिम्बाजी की विधवा आनंदी बाई, सूबेदारी प्रथा की विरोध में थीं 19 मई 1788 को उसकी मृत्यु हुई। सूबा-शासन के मार्ग की एक और बाधा दूर हुई। महीपत राव के काल में यूरोपीय यात्री जार्ज फारेस्टर 17 मई 1790 ई. को रायपुर आया। रायपुर के बारे में फारेस्टर ने लिखा है - रायपुर बड़ा शहर है, और व्यापारी एवं धनाढ्य लोग यहां रहते है। यहां एक किला है। किले की दिवाल का निचला हिस्सा पत्थर का है, ऊपरी भाग मिट्टी का है। इसके पांच दरवाजे है और कई बुर्ज हैं। इसके इर्द-गिर्द दर्शनीय तालाब हैं जो पक्के बंधन वाले हैं।" बूढ़ा तालाब के पास स्थित किला 1790 ई. में भव्य इमारत थी, यह इस विवरण से पुष्ट होता है। लोगों में बिम्बाजी की विधवा के प्रति आदर व श्रद्धा के भाव थे । राजस्व कम हो गया था, इस संबंध में लिखा है - सामान्यतः रतनपुर राज्य एक सुंदर प्रदेश है, यहां की जमीन उपजाऊ है तथा यहां बड़ी मात्रा में धान का उत्पादन होता है