छत्तीसगढ़ की जनजातियाँ PDF
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डॉ. टी. के. वैष्णव
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Summary
This document details the tribes of Chhattisgarh, including a list of the various tribes by state. It discusses the historical context and significance of these tribal groups. The document features information, and classifications of these groups, and their associated practices and cultures.
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# अध्याय-2 विशेष पिछड़ी जनजातियाँ ## भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत् भारत सरकार द्वारा 1950 में देश के 532 आदिवासी समूहों को विभिन्न राज्यों के लिए जारी अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया गया था। इनके आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य संबंधी विकास के लिए भारतीय संविधान में अनेक प...
# अध्याय-2 विशेष पिछड़ी जनजातियाँ ## भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत् भारत सरकार द्वारा 1950 में देश के 532 आदिवासी समूहों को विभिन्न राज्यों के लिए जारी अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया गया था। इनके आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य संबंधी विकास के लिए भारतीय संविधान में अनेक प्रावधान कर इन्हें विकास की ओर अग्रेषित करने का प्रयास किया गया। स्वतंत्रता के लगभग 25 वर्ष बाद भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जनजातियों के विकास की समीक्षा किया गया, जिसमें पाया गया कि विकासशील एवं अर्द्धविकसित अनुसूचित जनजाति समूहों को योजना का लाभ मिल पा रहा है, किन्तु अनुसूचित जनजाति समूह में विकास की दृष्टि से सबसे अंतिम छोर पर स्थित आदिम जनजाति समूह शासकीय योजनाओं के लाभ नहीं ले रहे थे। जिस प्रकार कमजोर बच्चों को तंदुरुस्ती के लिए दूध, फल, अण्डे आदि पूरक आहार के रूप में अनुशंसित किया जाता है, किन्तु यदि कोई कमजोर बच्चा बीमार हो जाये, तो उसकी दुर्बलता अधिक हो जाने पर उसे दूध, फल, अण्डे के साथ-साथ ग्लूकोज, विटामिन, टॉनिक आदि अतिरिक्त रूप से देने की आवश्यकता होती है, उसी तरह भारत सरकार द्वारा 5वीं पंचवर्षीय योजना अवधि में निम्नांकित मापदण्ड के आधार पर अनुसूचित जनजातियों में भी जो विशेष कमजोर है, उन्हें आदिम जनजाति/विशेष पिछड़ी जनजाति (Primitive Tribal Group) के रूप में चिन्हित किया गया :- 1. कृषि पूर्व की अर्थव्यवस्था (शिकार, वनोपज संग्रह पर आश्रित जनजाति समूह) 2. जनसंख्या स्थिर या घटती हुई 3. साक्षरता दर 2 प्रतिशत से कम 4. पृथकीकरण (अन्य जनजाति समूह से भी अलगाव) विशेषज्ञों द्वारा देश के 532 अनुसूचित जनजाति समूहों में से 75 जनजाति या उसकी उपजाति, उप समूह को चिन्हित कर आदिम जनजाति समूह/विशेष पिछड़ी जनजातियाँ (पी.टी.जी.) का दर्जा दिया गया है। ## छत्तीसगढ़ की जनजातियाँ ### भारत की आदिम जनजाति समूह | राज्य | आदिम जनजाति समूह | |---|---| | आंध्र प्रदेश | बोडो गदबा | | | बोंडो पोरजा | | | चेंचू | | | डोंगरिया खोंड्स | | | गुटोव गदबा | | | खोंड पोरजा | | | कोलम | | | कोंडा रेड्डीस | | | कोंडा सवरास | | | कुटिया कोंध्स | | | परांगीपरजा | | | थोटी | | बिहार | असुर | | | बिरहोर | | | बिरजिया | | | हिल खरिया | | | कोरवा | | | माल पहारिया | | | पहारियास | | | सौरिया पहारिया | | | सवर | | गुजरात | काथोडी | | | कोटवालिया | | | पढ़ार | | | सिद्दी | | | कोलघा | | कर्नाटक | जेंनु क्लुरुबा | | | कोरगा | | केरल | चोला नायकयन (कटूनायकन का एक विभाग) | | | कादर | | | कटूनायकन | | | कुरुम्बास | | | कोरगा | | मध्य प्रदेश (विभाजित मध्य प्रदेश * एवं छत्तीसगढ़ ** ) | सहरिया * | | | भारिया (पातालकोट के भारिया) * | | | बैगा */** | | | हिल कोरवा/पहाड़ी कोरवा ** | | | कमार ** | | | अबूझमाड़िया ** | | | बिरहोर ** | | महाराष्ट्र | कटकरिया (काथोडी) | | | कोलम | | | मारिया गोंड़ | | मणिपुर | मरमनागा | | उड़ीसा | बिरहोर | | | बोंदो | | | डिड़ाई | | | डोंगरिया कोंध | | | जुआंग | | | खरिया | | | कुटिया खोंड | | | लांजला सौंरा | | | लोधा | | | मंकीरदिया | | | पौंड़ी भूइयां | | | सौंरा | | | चुकटिया भुजिया | | राजस्थान | सहरिया | | तमिलनाडु | कटु नाइकनस | | | कोटास | | | कुरुमबास | | | इरुला | | | पनियान | | | टोडा | | त्रिपुरा | रेंग्स | | उत्तर प्रदेश | बुक्सा | | | राजी | | पश्चिम बंगाल | बिरहोर | | | लोधा | | | टोटो | | अण्डमान और निकोबार द्विपसमूह | ग्रेट अंडमानीज | | | जारवा | | | ओंगे | | | सेंटेनेलिस | | | शाम्पेन्स | ### अबूझमाड़िया जनजाति अबूझमाड़िया जनजाति नारायणपुर, दंतेवाड़ा एवं बीजापुर जिले के अबूझमाड़ क्षेत्र में निवासरत हैं। ओरछा को अबूझमाड़ का प्रवेश द्वार कहा जा सकता है। इस जनजाति की कुल जनसंख्या सर्वेक्षण 2002 के अनुसार 19401 थी। वर्तमान में इनकी जनसंख्या बढ़कर 22 हजार से अधिक हो गई है। अबूझमाड़िया जनजाति के उत्पत्ति के संबंध में कोई ऐतिहासिक अभिलेख नहीं हैं। किंवदंतियों के आधार पर माड़िया गोंड़ जाति के प्रेमी युगल सामाजिक डर से भागकर इस दुर्गम क्षेत्र में आये और विवाह कर वहीं बस गये। इन्हीं के वंशज अबूझमाड़ क्षेत्र में रहने के कारण अबूझमाड़िया कहलाये। सामान्य रूप से अबूझमाड़ क्षेत्र में निवास करने वाले माड़िया गोंड़ को अबूझमाड़िया कहा जाता है। अबूझमाड़िया जनजाति का गाँव मुख्यतः पहाड़ियों की तलहटी या घाटियों में बसा रहता है। पेंदा कृषि (स्थानांतरित कृषि) पर पूर्णतया निर्भर रहने वाले अबूझमाड़िया लोगों का निवास अस्थाई होता था। पेंदा कृषि हेतु कृषि स्थान को 'कघई' कहा जाता है। जब 'कघई' के चारों ओर के वृक्ष व झाड़ियों का उपयोग हो जाता था तो वो पुनः नई 'कघई' का चयन कर ग्राम बसाते थे। वर्तमान में शासन द्वारा पेंदा कृषि पर प्रतिबंध की वजह से स्थाई ग्राम बसने लगे हैं। इनके घर छोटे-छोटे झोंपड़ीनुमा लकड़ी व मिट्टी से बने होते हैं, जिनके ऊपर घासफूस की छप्पर होती है। घर दो-तीन कमरे का बना होता है। घर का निर्माण स्वयं करते हैं। । घर में रोशनदान या खिडकियाँ नहीं पाई जाती है। घर में बरामदा, (बैठक), "आंगड़ी” (रसोई), "लोनू” (संग्रहण कक्ष), व "अगहा" बाड़ी होता है। 'लोनू' में ही कुल देवता का निवास स्थान होता है। घरेलू सामान में सोने के लिये "अल्पांजी", के लिये "पोवई" (चटाई), खारेज कूटने की 'ढेकी', 'मूसल', अनाज पर बैठने के लिता, भोजन बनाने व खाने-पीने के लिये मिट्टी एल्यूमिनि अनाज पीसने का 'जांता', सिल व कुत्लङ, कृषि उपकरणों में हल, कुदाली, गैंती, रापा (फावड़ा), हसिया इत्यादि, शिकार के लिये तीर-कमान, फरसा, टंगिया, फांदा, मछली पकड़ने के लिए, मछली जाल, चोरिया, डगनी आदि का उपयोग करते हैं। स्त्रियाँ गोदना को स्थाई गहना मानती हैं। मस्तक, नाक के पास, हथेली के ऊपरी भाग, ठुढी आदि पर गोदना सामान्य रूप से गोदवाया जाता है। गिलट या नकली चाँदी के गहने पहनते हैं। पैर में तोड़ा, पैरपट्टी, कमर में करधन, कलाईयों में चूड़ी, सुडेल (ऐंठी), गले में सुता, रुपया माला, चेन व मूंगामाला, कान में खिनवा, झुमका और बाला, नाक में फूली पहनती हैं। बालों को अनेक तरह के पिनों से सजाती हैं। वस्त्र विन्यास में पुरुष लंगोटी, लुंगी या पंछा पहनते हैं। सिर पर पगड़ी बाँधते हैं। स्त्रियाँ लुगरा को कमर से घुटने तक लपेटकर पहनती हैं। इनका मुख्य भोजन चावल, मड़िया, कोदो, कुटकी, मक्का आदि का पेज और भात, उड़द, मूँग, कुलथी की दाल, जंगली कंदमूल व भाजी, मौसमी सब्जियाँ, मांसाहार में विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी जैसे पड़की, मोर, कौआ, तोता, बकुला, खरगोश, लोमड़ी, साही, मुर्गा, बकरा का मांस खाते हैं। वर्षा ऋतु में मछली भी पकड़ते हैं। महुये की शराब व सल्फी का उपयोग जन्म से मृत्यु तक के सभी संस्कारों में अनिवार्य आवश्यकता के रूप में करते हैं। अबूझमाड़िया जनजाति का आर्थिक जीवन पहले आदिम खेती (पेंदा कृषि), शिकार, जंगली उपज संग्रहण, कंदमूल एकत्रित करने पर निर्भर था। परंतु अब पेंदा कृषि का स्थान स्थाई कृषि ने ले लिया है। साथ ही विभिन्न तरह की मजदूरी का कार्य भी सीख गये हैं। घर के आस-पास की जमीन पर मक्का, कोसरा, मूंग व उड़द के अलावा मौसमी सब्जियाँ भी बोते हैं। कृषि मजदूरी बहुत कम करते हैं। कृषि मजदूरी के बदले में इन्हें अनाज मिलता है। जंगल से शहद, तेंदूपत्ता, कोसा, लाख, गोंद, धवई फूल, हर्रा, बहेरा इत्यादि एकत्र कर बाजार में बेचते हैं। छोटे पशु-पक्षियों का शिकार भी करते हैं। गाय, बैल, बकरी, सुअर व मुर्गी का पालन करते हैं। अबूझमाड़िया जनजाति पितृवंशीय, पितृनिवास स्थानीय व पितृसत्तात्मक जनजाति है। यह जनजाति अनेक वंश में विभक्त हैं। वंश अनेक गोत्रों में विभाजित है, जिन्हें 'गोती' कहा जाता है। इनके प्रमुख गोत्र अक्का, मंडावी, धुर्वा, उसेंडी, मरका, गुंठा, अटमी, लखमी, बड्डे, थोंडा इत्यादि हैं। प्रसव परिवार की बुजुर्ग महिलाएँ या रिश्तेदार कराती हैं। पहले प्रसव के लिये "कुरमा” झोंपड़ा (पृथक से प्रसव झोंपड़ी) बनाया जाता था। शिशु की नाल तीर से काटी जाती है। प्रसूता को पांच दिन तक चावल-दाल की खिचड़ी बनाकर खिलाते हैं। हल्दी, सोंठ, पीपर, तुलसी के पत्ते, गुड़, अजवाईन आदि का काढ़ा बनाकर पिलाते हैं। छठें दिन छठी मनाते हैं। प्रसूता व शिशु को नहलाकर नया कपड़ा पहनाकर घर के देवता का प्रणाम कराते हैं। इस दिन शिशु का नामकरण भी होता है। पारिवारिक व सामाजिक मित्रों को महुये की शराब पिलाई जाती है। युवकों का विवाह 18-19 वर्ष व युवतियों का विवाह 16-17 वर्ष में होता है। विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से आता है। वधू के पिता से विवाह की सहमति मिलने पर वर का पिता रिश्तेदारी पक्की कर दोनों पक्षों के बुजुर्ग आपस में बैठकर सूक (वधू धन) तय करते है, जो अनाज, दाल, तेल, गुड़, नगद रुपये के रूप में होता है। इस जनजाति में वधू को लेकर वधूपक्ष के लोग वर के गाँव में आते हैं। विवाह की रस्म जाति के बुजुर्गों द्वारा संपन्न वरं के घर पर कराई जाती है। इस जनजाति में बिथेर (सहपलायन), ओडियत्ता (घुसपैठ) और चूड़ी पहनाना (विधवा/परित्यक्ता पुर्न:विवाह) की प्रथा भी प्रचलित है। मृतक को दफनाते हैं। दाह-संस्कार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। विशिष्ट और संपन्न व्यक्ति की याद में श्मशानं में लगभग 8 फिट ऊंचा 4 फिट गोलाई का चौकोर विभिन्न पशु-पक्षी व देवी-देवता, भूत-प्रेत व संस्कारों से नक्कासी किये गये लकड़ी के खंभा (अनाल गढया) गढ़ाते हैं। तीसरे दिन मृत्यु-भोज दिया जाता है। इनमें परंपरागत जाति पंचायत पाया जाता है। क्षेत्रीय आधार पर सर्वोच्च व्यक्ति मांझी (मुखिया) होता है, जिनके नीचे पटेल, पारा मुखिया व गायता होते हैं। इनका मुख्य कार्य अपने माढ़ (क्षेत्र) में शांति व्यवस्था, कानून आदि बनाये रखना, लड़ाई-झगड़ों विवादों का निपटारा करना व जाति संबंधी नियमों को बनाना व आवश्यकतानुसार संशोधन करना है। इनके प्रमुख देवी-देवता बूढ़ादेव, ठाकुर देव (टालुभेट), बूढ़ीमाई या बूढ़ी डोकरी, लिंगोपेन, घर के देवता (छोटा पेन, बड़ा पेन, मंझला पेन) व गोत्रनुसार कुल देवता हैं स्थानीय देवी-देवता में सूर्य, चंद्र, नदी, पहाड़, पृथ्वी, नाग व हिंदू देवी-देवता की पूजा करते हैं। पूजा में मुर्गी, बकरा व सुअर की बलि दी जाती है। प्रमुख त्योहार पोला, काकसार व पंडुम आदि हैं। जादू-टोना और भूत-प्रेत के संबंध में अत्यधिक विश्वास करते हैं। तंत्र-मंत्र का जानकार गायता/सिरहा, कहलाता है। इस जनजाति के स्त्री-पुरुष नृत्य व गीत के अत्यंत शौकीन होते हैं। विभिन्न त्योहारों, उत्सवों मड़ई और जीवन-चक्र के विभिन्न संस्कारों पर युवक-युवतियां ढोल, मांदर के साथ लोकनृत्य करते हैं। काकसार, गेडी नृत्य व रिलो प्रमुख नृत्य हैं। लोकगीत में ददरिया, रिलोगीत, पूजागीत, विवाह व सगाई के गीत तथा छठीं के गीत गाते हैं। ये 'माड़ी' बोली बोलते है, जो द्रविड़ भाषा परिवार के गोड़ी बोली का एक रूप है। वर्ष 2002 में कराये गये सर्वेक्षण में अबूझमाड़िया जनजाति में साक्षरता 19.25 प्रतिशत पाई गई थी। ### कमार कमार जनजाति गरियाबंद जिले की गरियाबंद, छूरा, मैनपुर तथा धमतरी जिले के नगरी तथा मगरलोड विकासखण्ड में मुख्यतः निवासरत हैं। महासमुन्द जिले के महासमुंद एवं बागबाहरा विकासखण्ड में भी इनके कुछ परिवार निवासरत हैं। इस जनजाति को भारत सरकार द्वारा "विशेष पिछड़ी जनजाति" का दर्जा दिया गया है। 2011 की जनगणना अनुसार राज्य में इनकी जनसंख्या 26530 दर्शित है। इनमें 13078 पुरुष एवं 13460 स्त्रियाँ हैं। कमार जनजाति अपनी उत्पत्ति मैनपुर विकासखण्ड के देवडोंगर ग्राम से बताते हैं। इनका सबसे बड़ा देवता "वामन देव" आज भी देवडोंगर की "वामन डोंगरी" में स्थापित है। इस जनजाति के लोगों के मकान घास फूस या मिट्टी के बने होते हैं। मकान में प्रवेश हेतु एक दरवाजा होता है, जिसमें लकड़ी या बाँस का किवाड़ होता है। छप्पर घास फूस या खपरैल की होती है। दीवारों पर सफेद मिट्टी की पुताई करते हैं। फर्श मिट्टी का होता है, जिसे स्त्रियाँ गोबर से लीपती हैं। घरेलू वस्तुओं में मुख्यतः चक्को, अनाज रखने की कोठी, बांस की टोकनी, सूपा, चटाई, मिट्टी के बर्तन, खाट, मूसल बाँस बर्तन बनाने के औजार, ओढ़ने बिछाने तथा पहनने के कपड़े, खेती के औजार जैसे - गैती, फावड़ा, हंसिया, कुल्हाड़ी आदि। पुरुष व महिलाएँ शिकार करते थे, तीर-धनुष तथा मछली पकड़ने का जाल प्रायः घरों में पाया जाता है। पुरुष व महिलाएँ प्रतिदिन दातौन से दाँतों की सफाई कर स्नान करते हैं। पुरुष बाल छोटे रखते हैं तथा महिलाएँ लम्बे बाल रखती हैं। बालों को कंघी या "ककवा" की सहायता से पीछे की ओर चोटी या जूड़ा बनाती हैं। कमार लडकियाँ 8-10 वर्ष की उम्र में स्थानीय देवार महिलाओं से हाथ, पैर, ठोढ़ी आदि में गुदना गुदवाती हैं। नकली चाँदी, गिलट आदि के आभूषण पहनती हैं। आभूषणों में हाथ की कलाई में ऐंठी, नाक में फुली, कान में खिनवा, गले में रुपियामाला आदि पहनती हैं। वस्त्र विन्यास में पुरुष पंछा (छोटी धोती), बण्डी, सलूका एवं स्त्रियाँ लुगड़ा, पोलका पहनती हैं। कमार जनजाति का मुख्य भोजन चावल या कोदो की पेज, भात, बासी के साथ कुलथी, बेलिया, मूंग, उड़द, तुवर की दाल तथा मौसमी सब्जियाँ, जंगली साग भाजी आदि होता है। मांसाहार में सुअर, हिरण, खरगोश, मुर्गा, विभिन्न प्रकार के पक्षियों का मांस तथा मछली खाते हैं। पुरुष महुवा से शराब बनाकर पीते हैं। पुरुष धुम्रपान के रूप में बीड़ी व चोंगी पीते हैं। इस जनजाति का मुख्य व्यवसाय बांस से सूपा, ट्रकना, झांपी आदि बनाकर बेचना, पक्षियों तथा छोटे वन्य जन्तुओं का शिकार, मछली पकड़ना, कंदमूल तथा जंगली उपज संग्रह और आदिम कृषि है। इनका मुख्य कृषि उपज कोदो, धान, उड़द, मूँग, बेलिया, कुलथी आदि है। इस जनजाति का आर्थिक जीवन का दूसरा पहलू वनोपज संग्रह है, जिसमें महुवा, तेन्दू, सालबीज, बांस, चिरौंजी, गोंद, आँवला आदि संग्रह करते हैं। इसे बेचकर अन्य आवश्यक वस्तुएँ जैसे अनाज, कपड़े इत्यादि खरीदते हैं। कुछ कमार लोग जंगल से शहद एवं जड़ी बूटी भी एकत्रित कर बेचते भी हैं। कमार जनजाति में क्रमशः पहाड़पत्तिया और बुंदरजीवा दो उपजातियाँ पाई जाती है। पहाड़पत्तिया कमार लोग पहाड़ में रहने वाले तथा बुंदरजीवा कमार मैदानी क्षेत्र में रहने वाले कहलाते हैं। इस उपजातियों में गोत्र पाये जाते हैं- जगत, तेकाम, मरकाम, सोढ़ी, मराई, छेदइहा और कुंजाम इनके प्रमुख गोत्र है। एक गोत्र के लोग अपने आपको एक पूर्वज की संतान मानते हैं। एक ही गोत्र के लड़के-लड़कियों में विवाह निषेध माना जाता है। इस जनजाति में परिवार प्रायः केन्द्रीय परिवार पाये जाते हैं। ये पितृवंशीय, पितृ सत्तात्मक एवं पितृ निवास स्थानीय होते हैं, किन्तु विवाह के कुछ समय बाद लड़का पिता की झोपड़ी के पास नई झोपड़ी बनाकर रहने लगता है। त्योहार, सामाजिक कार्यों में सब एकत्रित हो जाते हैं। कमार जनजाति की गर्भवती स्त्रियाँ प्रसव के दिन तक आर्थिक तथा पारिवारिक कार्य करती रहती हैं। प्रसव घर में ही कराया जाता है। नवजात शिशु, लड़का हो तो तीर से और लड़की हुई तो "कहरा" (बाँस की पंची) से नाल काटते हैं। नाल घर में ही गड्ढा खोदकर गड़ाते हैं। जन्म के छठवें दिन नवजात शिशु और प्रसूता को गरम पानी से नहलाया जाता है। इसके बाद तेल हल्दी लगाई जाती है एवं शराब पीकर परिवार के समस्त सदस्य खुशियाँ मनाते हैं। इस जनजाति में लड़कों का विवाह प्रायः 18-19 वर्ष की उम्र में तथा लड़कियों का विवाह 16-17 वर्ष की उम्र में कर दिया जाता है। मामा या बुआ के लड़का-लड़की से विवाह को प्राथमिकता देते हैं। विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से होता है। विवाह तय होने पर वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को चावल, दाल व नगद, कुछ रुपया "सुक भरना" के रुप में दिए जाते हैं। विवाह रस्म कमार जनजाति में बड़े बूढ़ों की देख-रेख में संपन्न होती है। सामान्य विवाह के अतिरिक्त गुरांवट व घर जमाई प्रथा भी प्रचलित है। पैठू (घुसपैठ), उढरिया (सहपलायन) को परंपरागत सामाजिक पंचायत में समाजिक दंड के बाद समाज स्वीकृति मिल जाती है। विधवा, त्यक्ता, पुनर्विवाह (चूड़ी पहनाना) को मान्यता है। विधवा भाभी देवर के लिए चूड़ी पहन सकती है। मृत्योपरांत मृतक के शरीर को दफनाते हैं। तीसरे दिन तीजनहावन होता है, जिसमें परिवार के पुरुष सदस्य दाढ़ी मूँछ व सिर के बालों का मुंडन कराते हैं। घर की सफाई स्वच्छता कर सभी स्थान पर हल्दी पानी छिड़कर अपने शरीर के कुछ भागों में भी लगाते हैं। आर्थिक अनुकूलता, अनुसार 10वें या 13वें दिन मृत्यु भोज देते हैं। यदि किसी कारणवश मृत्युभोज नहीं दे पाये तों 1 वर्ष के अंदर आर्थिक अनुकूलता अनुसार भोज दिया जाता है। कमार जनजाति में भी सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक परंपरागत जाति पंचायत (सामाजिक पंचायत) होती है। कमार जनजाति के सभी व्यक्ति उस पंचायत का सदस्य होता है। इस पंचायत के प्रमुख "मुखिया" कहलाता है। सामान्य जातिगत विवादों का निपटारा गाँव में ही कर लिया जाता है। अनेक ग्रामों को मिलाकर एक क्षेत्रीय स्तर की जाति पंचायत पाई जाती है। जब कोई त्योहार, मेला या सामूहिक पर्व मनाया जाता है, उस समय इस पंचायत की बैठक आयोजित की जाती है। इस पंचायत में वैवाहिक विवाद, अन्य जाति के साथ वैवाहिक या अनैतिक संबंध आदि विवादों का निपटारा किया जाता है। कमार जनजाति के प्रमुख देव कचना, धुरवा, बूढ़ादेव, ठाकुर देव, वामन देव, दूल्हा देव, बड़ी माता, मंझली माता, छोटी माता, बूढ़ी माई, धरती माता आदि हैं। पोगरी देवता (कुलदेव), मांगरमाटी (पूर्वजों के गाँव व घर की मिट्टी), गाता डूमा (पूर्वज) की भी पूजा करते हैं। पूजा में मुर्गी, बकरा आदि की बलि भी चढ़ाते हैं। इनके प्रमुख त्योहार हरेली, पोरा, नवाखाई, दशहरा, दिवाली, छेरछेरा, होली आती हैं। त्योहार के समय मुर्गी, बकरा आदि का मांस खाते एवं शराब पीते हैं। भूत-प्रेत, जादू-टोना पर भी विश्वास करते हैं। तंत्र-मंत्र का जानकार बैगा कहलाता है। इस जनजाति की महिलाएँ दिवाली में सुवा नाचती हैं। विवाह में पुरुष व महिलाएँ दोनों नाचते हैं। पुरुष होली व दिवाली के समय खूब नाचते हैं। 2011 की जनगणना अनुसार कमार जनजाति में साक्षरता 47.7 प्रतिशत दर्शित है। पुरुषों में साक्षरता 58.8 प्रतिशत तथा स्त्रियों में 37.0 प्रतिशत है। ### बैगा बैगा छत्तीसगढ़ की एक विशेष पिछड़ी जनजाति है। छत्तीसगढ़ में उनकी जनसंख्या जनगणना 2011 में 89744 दर्शाई गई है। राज्य में बैगा जनजाति के लोग मुख्यतः कवर्धा और बिलासपुर जिले में पाये जाते हैं। मध्य प्रदेश के डिंडौरी, मंडला, जबलपुर, शहडोल जिले में इनकी मुख्य जनसंख्या निवासरत है। बैगा जनजाति के उत्पत्ति के संबंध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। रसेल, ग्रियर्सन आदि में इन्हें भूमिया, भूईया का एक अलग हुआ समूह माना जाता है। किवदंतियों के अनुसार ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की तब दो व्यक्ति उत्पन्न किये। एक को ब्रह्मा जी ने "नागर" (हल) प्रदान किया। वह “नागर” लेकर खेती करने लगा तथा गोंड कहलाया। दूसरे को ब्रह्माजी ने “टंगिया" (कुल्हाड़ी) दिया। वह कुल्हाड़ी लेकर जंगल काटने चला गया, चूँकि उस समय वस्त्र नहीं था, अतः यह नंगा बैगा कहलाया। बैगा जनजाति के लोग इन्हीं को अपना पूर्वज मानते हैं। बैगा जनजाति के लोग पहाड़ी व जंगली क्षेत्र के दुर्गम स्थानों में गोंड, भूमिभया आदि के साथ निवास करते हैं। इनके घर मिट्टी के होते हैं, जिस पर घास फूस या खपरैल की छप्पर होती है। दीवाल की पुताई सफेद या चाली मिट्टी से करते हैं। घर की फर्श महिलाएं गोबर और मिट्टी से लीपती हैं। इनके घर में अनाज रखने की मिट्टी की कोठी, धान कूटने का "मूसल", "बाहना", अनाज पीसने का "जांता", बाँस की टोकरी, सूपा, रसोई में मिट्टी, एलुमिनियम, पीतल के कुछ बर्तन, ओढ़ने बिछाने के कपड़े, तीर-धनुष, टंगिया, मछली पकड़ने की कुमनी, ढुट्टी, वाद्ययंत्र में ढोल, नगाड़ा, टिसकी आदि होते हैं। बैगा जनजाति की महिलाएँ शरीर में हाथ पैर, चेहरे पर स्थानीय बादी जाति की महिलाओं से गोदना गुदाती हैं। पुरुष लंगोटी या पंछा पहनते हैं। शरीर का ऊपरी भाग प्रायः खुला होता है। नवयुवक बंडी पहनते हैं। महिलाएँ सफेद लुगड़ा घुटने तक पहनती हैं। कमर में करधन, गले में रुपिया माला, चेन माला, सुतिया, काँच की मोतियों की गुरिया माला, हाथों में काँच की चूड़ियाँ, कलाई में ऐंठी, नाक में लौंग, कान में खिनवा, कर्णफूल आदि पहनती हैं। इनके अधिकांश गहने गिलट या नकली चाँदी के होती हैं। इनका मुख्य भोजन चावल, कोदो, कुटकी का भात, पेज, मक्का की रोटी या पेज, उड़द, मूँग, अरहर की दाल, मौसमी सब्जी, जंगली कंदमूल फल, मांसाहार में मुर्गा, बकरा, मछली, केकड़ा, कछुआ, जंगली पक्षी, हिरण, खरगोश, जंगली सुअर का मांस आदि हैं। महुए से स्वयं बनाई हुई शराब पीते हैं। पुरुष तंबाकू को तेंदू पत्ता में लपेटकर चोंगी बनाकर पीते हैं। बैगा जनजाति के लोग पहले जंगल काटकर उसे जला कर राख में 'बेवर’ खेती करते थे। वर्तमान में स्थाई खेती पहाड़ी ढलान में करते हैं। इसमें कोदो, मक्का, मड़िया, साठी धान, उड़द, मूँग, झुरगा आदि बोते हैं। जंगली कंदमूल संग्रह, तेंदू पत्ता, अचार, लाख, गोंद, शहद, भिलावा, तीखुर, बेचाँदी आदि एकत्र कर बेचते हैं। पहले हिरण, खरगोश, जंगली सुअर का शिकार करते थे, अब शिकार पर शासकीय प्रतिबंध है। वर्षा ऋतु में कुमनी, कांटा, जाल आदि से स्वयं उपयोग के लिए मछली पकड़ते हैं। महिलाएँ बाँस की सुपा, टोकरी भी बनाकर बेचती हैं। बैगा जनजाति कई अंत: विवाही उपजातियाँ पाई जाती है। इनके प्रमुख उपजाति बिंझवार, भारोटिया, नरोटिया (नाहर), रामभैना, कटभैना, दुधभैना, कोडवान (कुंडी), गोंडभैना, कुरका बैगा, सावत बैगा आदि हैं। उपजातियाँ विभिन्न बहिर्विवाही "गोती” (गोत्र) में विभक्त है। इनके प्रमुख गोत्र मरावी, धुर्वे, मरकाम, परतेती, तेकाम, नेताम आदि हैं। जीव-जंतु, पशु-पक्षी, वृक्ष, लता आदि इनके गोत्रों के टोटम होते हैं। यह जनजाति पितृवंशीय, पितृसत्तात्मक व पितृ निवास स्थानीय हैं। अर्थात् लड़कियाँ विवाह के पश्चात् वधू वर के पिता के घर जाकर रहने लगती है। उनके संतान अपने पिता के वंश के कहलाते हैं। संतानोत्पत्ति भगवान की देन मानते हैं। गर्भवती महिलाएँ प्रसव के पूर्व तक सभी आर्थिक व पारिवारिक कार्य संपन्न करती हैं। प्रसव घर में ही स्थानीय “सुनमाई” (दाई) तथा परिवार के बुजुर्ग महिलाएँ कराती हैं। प्रसूता को सोंठ, पीपल, अजवाईन, गुड़ आदि का लड्डू बनाकर खिलाते हैं। छठे दिन छठी मनाते हैं। प्रसूता व नवजात शिशु को नहलाकर प्रातः कालीन सूर्य का दर्शन व पूजन कराते हैं। रिश्तेदारों को शराब पिलाते हैं तथा भोजन कराते हैं। विवाह उम्र सामान्यतः लड़कों के लिए 16 से 18 वर्ष तथा लड़क