कला (PDF)
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इस दस्तावेज में कला, चित्रकारी, कलाकार, और चित्रकारी की शैलियों के बारे में जानकारी दी गई है। यह विभिन्न ऐतिहासिक और कलात्मक अवधारणाओं पर प्रकाश डालता है। इसमें चित्रों और भित्तिचित्रों के उदाहरण, साथ ही विभिन्न तकनीकों और शैलियों का वर्णन किया गया है।
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## आदमकद रूपचित्र बनवाये आदमकद रूपचित्र बनवाये। जार्ज विलिसन द्वारा बनाया गया चित्र 5 अर्काट के नवाब मोहम्मद अली खान का आदमकद रूपचित्र है। चित्र को देखने से आप समझ सकते हैं कि नवाब ने अपने शाही रौब-दाब को किस तरह दर्शाया है। जबकि नवाब अंग्रेजों से पराजित होकर उनके पेंशनभोक्ता बन गये थे। क्योंकि वे...
## आदमकद रूपचित्र बनवाये आदमकद रूपचित्र बनवाये। जार्ज विलिसन द्वारा बनाया गया चित्र 5 अर्काट के नवाब मोहम्मद अली खान का आदमकद रूपचित्र है। चित्र को देखने से आप समझ सकते हैं कि नवाब ने अपने शाही रौब-दाब को किस तरह दर्शाया है। जबकि नवाब अंग्रेजों से पराजित होकर उनके पेंशनभोक्ता बन गये थे। क्योंकि वे अंग्रेजों की सांस्कृतिक श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुये उनकी शैलियों एवं परम्परा को अपनाना चाहते थे। ### ऐतिहासिक घटनाओं का चित्रण #### औपनिवेशिक चित्रकला की एक अन्य शैली 'इतिहास की थी। भारत में अंग्रेजों की 'चित्रकारी' जीत ब्रिटिश चित्रकारों के लिए चित्रकारी की एक प्रमुख विषयवस्तु थी। चित्र 6 एवं 7 ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित चित्रकारी का उदाहरण है। इकाई 2 में आप पढ़ चुके हैं कि अंग्रेजों ने प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला को पराजित कर मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया था। चित्र 6 में आप देख सकते हैं कि इसमें मीर जाफर और उसके सैनिकों द्वारा प्लासी युद्ध के बाद लार्ड क्लाइव की आगवानी करते हुये दिखाया गया है। #### चित्र 5 - जार्ज विलिसन द्वारा बनाया गया ऑर्कट के नवाब मोहम्मद अली खान का तैलचित्र (1775) #### चित्र 6 - फ्रांसीस हेमन द्वारा बनाया गया तैलचित्र (1762) #### चित्र 7 - रोबर केर पॉटर द्वारा बनाया गया तैलचित्र (1800) दिपाश्चात्य चित्रकारों ने अंग्रेजों की श्रेष्ठता को दर्शाने के लिए चित्रकला की कौन-सी विषय, शैली एवं परम्परा को अपनाया। कक्षा में इसकी चर्चा करें। ## दरबारी कला और स्थानीय कलाकार भारतीय राजदरबार के संरक्षण में काम करने वाले स्थानीय कलाकारों ने साम्राज्यवादी कला शैली को किस प्रकार चुनौती दी। आइए, हम देखते हैं कि विभिन्न दरबारों में मौजूद स्थानीय कलाकार, चित्रकला शैली के रूझानों को किस प्रकार व्यक्त कर रहे थे। ### मैसूर के शासक टीपू ने अंग्रेजों की सांस्कृतिक परम्पराओं का विरोध करते हुये स्थानीय शैली एवं परम्पराओं को संरक्षण दिया। उनके महल की दीवारें स्थानीय कलाकरों द्वारा बनाये गये भित्ति चित्र से सजे होते थे। चित्र 8 में एक भित्ति चित्र दिखाई दे रहा है। इस भित्ति चित्र में पोलिलुर के प्रसिद्ध युद्ध के दृश्य को दर्शाया गया है, जिसमें मैसूर की सेना ने अंग्रेजों को करारी शिकस्त दी थी। ### चित्र 8 - श्रीरंगपटनम् स्थित दरिया दौलत महल की दीवार पर दरबारी चित्रकार द्वारा बनाया गया भित्तिचित्र ### चित्र 9 - मुर्शिदाबाद में स्थानीय कलाकार द्वारा निर्मित ईद के जुलूस का बित्र ### भित्ति चित्र-दीवार पर बनाये गये चित्र बंगाल में स्थानीय कलाकारों को, अंग्रेजों की शैली एवं परम्परा को सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था। चित्र 9 में एक जुलूस की तस्वीर है। स्थानीय कलाकार द्वारा बनाई गई इस तस्वीर में परिपेक्ष्य विधि का इस्तेमाल किया गया है। इस चित्र में नजदीक और दूर वाली चीजों के बीच दूरी का बोध कराने के लिए रोशनी और परछाई का उपयोग किया गया है। भारत में अंग्रेजी शासन की स्थापना हो जाने के बाद स्थानीय रियासतों के राजे-रजवाड़े और नवाब की स्थिति ऐसी नहीं रह गई थी कि वे कलाकारों को अपने दरबार की सेवा में रख सकें। ऐसे में चित्रकार भी काम की तलाश एवं रोजी-रोटी के लिए अंग्रेजों की शरण में जाने लगे। भारत आए अंग्रेज अधिकारी एवं व्यापारी भी ऐसी तस्वीरें बनवाना चाहते थे, जिससे कि वे भारत को समझ सके। इस प्रकार, हम देखते हैं कि स्थानीय कलाकारों ने पौधों, जानवरों, ऐतिहासिक इमारतों, पर्व-त्यौहारों, व्यवसायों, जाति और समुदायों की तस्वीरें बनाने लगे। इन चित्रों को 'कम्पनी चित्र' के नाम से जाना जाता है। कई स्थानीय चित्रकार ऐसे भी थे, जो राजदरबार के प्रभावों से मुक्त स्थानीय परिवेश में चित्रकला की स्वतंत्र शैली एवं परम्परा के रूझानों को दर्शा रहे थे। ऐसे ही शैलियों में बिहार की 'मधुबनी पेंटिंग' एक प्रमुख चित्रशैली है। इसमें प्रकृति, धर्म और सामाजिक संस्कारों के बित्रों को ग्रामीण परिवेश में उकेरा जा रहा था। आइए, हम देखते हैं, कि मधुबनी पेंटिंग के कलाकार ग्रामीण लोक चित्रकला के रुझानों को किस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं। ## मधुबनी पेंटिंग इस लोक कला की ओर कला प्रेमियों एवं पारखियों का ध्यान उस समय आकृष्ट हुआ, जब 1942 ई. में लंदन की आर्ट गैलरी में 'मधुबनी पेंटिंग' की प्रदर्शनी लगाई गई। मधुबनी चित्रकला पूर्णतया एक महिला चित्रकला शैली है। वे इस चित्रकला को पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत के रूप में छोड़ती गई। इस प्रकार, घर की दीवारों तथा आंगन के फर्श से कपड़ों और कागज पर इसका स्थानांतरण होता गया। अन्य लोक कलाओं की भांति मधुबनी चित्रकला भी विभिन्न पर्व-त्यौहारों, विवाह, पारिवारिक अनुष्ठानों के साथ जुड़ी है। मधुबनी चित्रकला के दो रूप हैं- भित्ति चित्र एवं अरिपन चित्र (भूमि चित्रण)। **चित्र 10 - मधुबनी पेंटिंग** भित्ति चित्रों में देवी-देवताओं, राधा-कृष्ण की लीला, राम-सीता के कथा के चित्रों को प्रमुखता से दर्शाया गया है। विवाह के अवसर पर घर के बाहर और भीतर की दीवारों पर रति और कामदेव के चित्र तथा पशु-पक्षी के चित्रों को प्रतीक के रूप में चित्रित किया जाता है। अरिपन चित्रों में आंगन या चौखट के सामने जमीन पर बनाया जाने वाला चित्र है। इन्हें बनाने में पीसे हुये चावल को पानी और रंग में मिलाया जाता है। अरिपन चित्रों के अंतर्गत मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़, फूल, फल, स्वास्तिक, दीप आदि के चित्रों को उकेरा जाता है। मधुबनी शैली के चित्रों में चित्रित वस्तुओं का मात्र सांकेतिक स्वरूप दिया जाता है। पहले के चित्र मुख्यतः दीवारों एवं फर्शों पर ही बनाये जाते थे। मगर कुछ वर्षों से कपड़े और कागज पर भी चित्रांकन की प्रवृत्ति काफी बढ़ी है। चित्रांकन की सामग्री के नाम पर बांस की कूची और विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक रंग होते हैं। ज्यादातर रंग वनस्पति से प्राप्त किये जाते हैं। इस चित्रकला के प्रमुख कलाकारों में सिया देवी, कौशल्या देवी, शशिकला देवी, गंगा देवी, भगवती देवी आदि के नाम लिये जा सकते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात यह चित्रकला अपने स्थानीय परिवेश की सीमा को लांघते हुये देश-विदेश में काफी लोकप्रिय हुई है और इसकी प्रदर्शनियाँ आयोजित की गई। जापान के तोकामाची शहर में मधुबनी पेंटिंग का संग्रहालय बनाया गया है। ## राष्ट्रवादी चित्रकला शैली उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक एवं बीसवीं सदी के प्रारंभ में जनसाधारण की तस्वीरों में राष्ट्रवादी संदेश दिये जाने लगे थे। राजा रवि वर्मा उन चित्रकारों में से एक थे, जिन्होंने राष्ट्रवादी कला शैली को विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने तैल चित्रकारी की यूरोपीय कला शैली को अपने चित्रकारी का आधार बनाया। उन्होंने रामायण, महाभारत और पौराणिक कहानियों के नाटकीय दृश्यों को किरमिच पर चित्रांकित किया। उनके द्वारा बनाये गये चित्र कला प्रेमियों के बीच काफी लोकप्रिय हुये। चित्रों के प्रति लोगों के आकर्षण को देखते हुए राजा रवि वर्मा ने बम्बई (मुम्बई) में प्रिंटिंग प्रेस लगाई। यहाँ, उनके द्वारा बनाई गई तस्वीरों की छपाई बड़ी संख्या में होने लगी। अब आम लोग भी सस्ती कीमत पर उनके चित्रों को खरीद सकते थे। **चित्र 11 - राजा रवि वर्मा द्वारा बनाया गया तैलचित्र चित्र** ## कलाकारों का आधुनिक स्कूल उन्नीसवीं सदी के मध्य में भारत को पश्चिमी शिक्षा से लाभ दिलाने की शैक्षणिक नीति के अंतर्गत सरकार ने कलकत्ता, बम्बई, मद्रास और लाहौर में कला स्कूलों (आर्ट स्कूल) की स्थापना की। इन स्कूलों में कला के पाश्चात्य तरीकों को ही अध्ययन के विषय के रूप में रखा गया था। ई.वी. हैवेल मद्रास स्कूल ऑफ आर्ट में कला के अध्यापक थे। उन्होंने अवनीन्द्रनाथ टैगोर के सहयोग से भारतीय चित्रकारों का एक अलग समूह बनाया, जिन्हें कलाकारों का आधुनिक स्कूल कहा गया। बंगाल के राष्ट्रवादी कलाकारों का समूह इनके साथ जुड़ने लगा। इस समूह के कलाकारों ने विषयों के चयन एवं तकनीक में अजंता के भित्ति चित्रों, मध्यकालीन लघुचित्रों एवं एशियाई कला आंदोलन को प्रोत्साहित करने वाले जापानी कलाकारों से प्रेरणा ग्रहण की। ## एशियाई कला आंदोलन जापानी कलाकार ओकाकुरा काकुजो ने जापानी कला पर शोध किया और एक ऐसे समय में जापानी कला की परंपरागत तकनीकों को बचाने की जरूरत पर बल दिया जो कि पश्चिमी शैली के कारण खतरे में पड़ती जा रही थी। उन्होंने यह परिभाषित करने का प्रयास किया कि आधुनिक कला क्या होती है और परंपराओं को बनाए रखने तथा आधुनिकीकरण करने के लिए क्या किया जाना चाहिए। वह जापानी कला अकादमी के प्रधान संस्थापक थे। ओकाकुरा ने शांतिनिकेतन का दौरा किया था। रवीन्द्रनाथ टैगोर एवं अवनीन्द्रनाथ टैगोर पर उनका गहरा प्रभाव था। **चित्र 12 - मेरी माँ, अवनीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा चित्रित** **चित्र 13 - कालिदास की कविता का चित्र निर्वासित यक्ष, अवनिंद्र नाथ द्वारा बनाया गया चित्र। यह शैली जापानी जलरंग की तसवीरों में देखा जा सकता है।** **चित्र 14 - जातुगृह दाह (पांडवों के वनवास के दौरान लाक्षागृह के जलने का चित्र) नन्दलाल बोस द्वारा चित्रित। अजन्ता के चित्र शैली से प्रभावित** बीसवीं सदी के दूसरे दशक के बाद कलाकारों का एक पृथक समूह अवनीन्द्रनाथ के कलाशैली से भिन्न विचारों को प्रस्तुत किया। इस समूह के कलाकारों की मान्यता थी कि कलाकारों को प्राचीन कला रूपों के बजाय लोक कला एवं जनजातीय कला शैली से प्रेरणा ग्रहण करना चाहिए। जैसे-जैसे यह बहस और चलता रहा, वैसे-वैसे कला की नई शैलियों एवं परम्पराओं का विकास होता रहा। ## औपनिवेशिक चित्रकला एवं राष्ट्रवादी चित्रकला में अंतर स्पष्ट करें कक्षा 7 के इकाई 8 में चित्रित लघुचित्रों को देखकर चित्र 12 की तुलना कीजिए? क्या आपको कोई समानता-असमानता दिखता है? ## योग भवन निर्माण की नई शैली और नई इमारतें जब भारत में ब्रिटिश शासन को स्थिरता प्राप्त हुई। तब बुनियादी तौर पर रक्षा, प्रशासन, आवास और वाणिज्य जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भवनों एवं इमारतों की जरूरत पैदा होने लगी। उन्नीसवीं सदी से शहरों में बनने वाली इमारतों में किले, सरकारी दफ्तरों, शैक्षणिक संस्थान, धार्मिक इमारतें, व्यावसायिक भवन आदि प्रमुख थीं। ये इमारतें अंग्रेजों की श्रेष्ठता, अधिकार, सत्ता की प्रतीक तथा उनकी राष्ट्रवादी विचारों का प्रतिनिधित्व भी करती है। आइए देखें कि इस सोच को अंग्रेजों ने किस तरह अमली जामा पहनाया। सार्वजनिक भवनों के लिए मोटे तौर पर तीन स्थापत्य शैलियों का प्रयोग किया गया। इनमें से एक शैली को "ग्रीकों-रोमन स्थापत्य शैली" कहा जाता था। बड़े-बड़े स्तंभों के पीछे रेखागणितीय संरचनाओं एवं गुम्बद का निर्माण इस शैली की विशेषता थी (आप चित्र 15 को देखें)। यह शैली मूल रूप से प्राचीन रोम की भवन निर्माण शैली से निकली थी, जिसे यूरोपीय पुनर्जागरण के दौरान पुनर्जीवित किया गया। अंग्रेजों ने इस शैली का प्रयोग भारत में शाही वैभव की अभिव्यक्ति के लिए किया था। **चित्र 15 - सेंट्रल पोस्ट ऑफिस कलकत्ता** एक और शैली जिसका काफी उपयोग किया गया वह 'गॉथिक शैली' थी। ऊँची उठी हुई छतें, नोकदार, मेहराबें, बारीक साज-सज्जा इस शैली की विशेषता थी। गॉथिक शैली का प्रयोग सरकारी इमारतों शैक्षणिक संस्थानों एवं गिरजाघरों में व्यापक पैमाने पर किया गया। **चित्र 16 - विक्टोरिया टर्मिनस रेलवे स्टेशन बम्बई** उन्नीसवीं सदी के आखिर में और बीसवीं सदी की शुरुआत में एक नई मिश्रित स्थापत्य शैली विकसित हुई, जिसमें भारतीय एवं यूरोपीय शैलियों के तत्व विद्यमान थे। इस शैली को 'इंडो-सारासेनिक शैली' का नाम दिया गया था। 'इंडो' शब्द हिन्दू का संक्षिप्त रूप था जबकि 'सारासेन' शब्द का प्रयोग यूरोप के लोग मुसलमानों को संबोधित करने के लिए करते थे। भारत की मध्यकालीन इमारतों- गुंबदों, छतरियों, जालियों, मेहराबों से यह शैली प्रभावित थी। भारतीय शैली को समावेश करके अंग्रेज यह साबित करना चाहते थे कि वे यहाँ के वैद्य एवं स्वाभाविक शासक हैं। **चित्र 17 - मद्रास लॉ कोर्ट** यूरोपीय ढंग की दिखने वाली इमारतों एवं भवनों से औपनिवेशिक स्वामियों और भारतीय प्रजा के बीच के अंतर को प्रदर्शित करती है। शुरुआत में ये इमारतें परंपरागत भारतीय इमारतों एवं भवनों के मुकाबले अजीब सी दिखाई देती थी। लेकिन धीरे-धीरे भारतीय भी यूरोपीय स्थापत्य शैली के आदि हो गए और उन्होंने इसे अपना लिया। दूसरी तरफ अंग्रेजों ने अपनी जरूरतों के मुताबिक कुछ भारतीय शैलियों को अपना लिया। इसकी एक मिसाल उन बंगलों को माना जा सकता है, जिन्हें पूरे देश में सरकारी अफसरों के आवास के लिए बनाया जाता था। बंगाल के परंपरागत फूस की बनी झोपड़ी को अंग्रेजों ने उसे अपनी जरूरतों के हिसाब से बदल लिया था। औपनिवेशिक बंगला एक बड़ी जमीन पर बना होता था। परंपरागत ढलवां छत, चारो तरफ बना बरामदा और उसके पीछे घर बना होता था। बंगले के परिसर में घरेलु नौकरों के लिए अलग से क्वार्टर होते थे। **चित्र 18 - उन्नीसवीं सदी का एक बंगला** - आप अपने गाँव, कस्बा एवं शहर में स्थित भवन एवं इमारतों की सूची बताएँ एवं यह बताएँ कि उनका निर्माण किस स्थापत्य शैली में हुआ है। ## साहित्य में राष्ट्रवादी विचार भारतीय स्वाधीनता संघर्ष (इसकी चर्चा अगले इकाई में करेंगे) में साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में जब राष्ट्रवादी विचार उभार लेने लगा, देव विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों ने साहित्य को देश भक्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए प्रयोग में लाने लगे। दरअसल इनमें से अधिकांश साहित्यकारों का यह विश्वास था कि वे गुलाम देश के नागरिक हैं। अतः उनका यह कर्तव्य है कि वे इस प्रकार के साहित्य का सृजन करें जो उनके देश की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा। साहित्य में पराधीनता के बोध तथा स्वतंत्रता की जरूरत को स्पष्ट अभिव्यक्ति मिलने लगी थी। इतना ही नहीं, साहित्य ने देश की आजादी के लिए जनसाधारण को हर प्रकार से बलिदान करने के लिए उत्प्रेरित किया। सुविधा की दृष्टि से हमारी चर्चा मुख्य रूप से तीन भाषाओं- बांग्ला, हिन्दी एवं उर्दू तक सीमित होगी। ## बांग्ला साहित्य आधुनिक बांग्ला साहित्य के महान् साहित्यकार बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय (1838-1894) के उपन्यास अपने देशवासियों में देशभक्तिपूर्ण भावनाओं को जाग्रत करने में लगे हुये थे। उन्होंने देशवासियों को अपने देश की मौजूदा दयनीय स्थिति के कारणों पर विचार करने के लिए बाध्य किया। अपने प्रसिद्ध गीत 'वन्दे मातरम्' के साथ 'आनंदमठ' देशभक्तों के लिए प्रेरणास्रोत बन गया। 'आनंदमठ', आजादी के उन दीवाने देशभक्त और क्रांतिकारी व्यक्तियों की गाथा है, जो वंदेमातरम् का जयघोष करते हुए देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। 'आर्थिक राष्ट्रवाद' के प्रवर्तक के रूप में विख्यात रमेश चन्द्र दत्त (1848-1909) को अपनी रचना की प्रेरणा उन्हें 'साहित्यिक देशभक्ति' से मिली थी। रमेश चन्द्र दत्त, ऐसे हिन्दू थे जिन्हें अपनी परम्परा एवं संस्कृति से लगाव था। उन्होंने अपने उपन्यास 'समाज' में प्राचीन भारतीय अतीत को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने इस उपन्यास में ऐसे भारतीय राष्ट्रवाद का चित्रण किया है जो हिन्दुओं पर केन्द्रित था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि रमेश चन्द्र सम्प्रदायवादी थे। यहाँ हिन्दू आदर्श को प्रस्तुत करने के पीछे इस बात को प्रकाश में लाना था कि उस समय भारतीय राष्ट्रवाद में ऐसी संभावनाएँ निहित थीं जो सम्प्रदायिक प्रवृत्तियों को जन्म दे सकती थीं। अतः रमेश चन्द्र को उनके समय की प्रवृत्तियों को अभिव्यक्ति देने वाले प्रतिनिधि के रूप में देखा और समझा जाना चाहिए। ## आर्थिक राष्ट्रवाद :- अंग्रेजी शासन की आर्थिक आलोचना के माध्यम से भारतीय राष्ट्रवाद की आर्थिक बुनियाद तैयार करने का प्रयास । **साहित्यिक देशभक्ति :- देशभक्तिपूर्ण विचारों की अभिव्यक्ति के लिए साहित्य को माध्यम बनाना।** बांग्ला उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय (1898-1971) की 1947 से पूर्व की रचनाओं पर दृष्टि डालना काफी उपयोगी होगा। विशेषकर 'गणदेवता' एवं 'पंचग्राम उपन्यास में उन्होंने शोषण एवं औद्योगिकीकरण के कारण ग्रामीण समाज के विघटन को दिखाया है। इस शोषण एवं उत्पीड़न के विरुद्ध निर्धन ग्रामीणों के संघर्ष का भी वर्णन किया है, जो अन्ततः असफल होता है। यह असफलता इसलिए नहीं कि प्रभावी वर्ग शक्तिशाली था। बल्कि इसलिए कि औद्योगिकीकरण की वास्तविकता के समक्ष ग्रामीण सामाजिक जीवन ने में एवं अर्थव्यवस्था टिकी नहीं रह सकती। ## हिन्दी साहित्य भारतेन्दु (1850-1885) हिन्दी साहित्य में आधुनिक युग के प्रवर्तक रहे हैं। अपने देश और समाज से लोगों को अवगत कराने के लिए उन्होंने विभिन्न साहित्यिक विद्याओं-कविता, नाटक, निबंध लिखा। भारतेन्दु द्वारा सृजित साहित्य का एक बड़ा भाग पराधीनता के प्रश्न से संबंधित है। अपने प्रसिद्ध नाटक 'अंधेर नगरी चौपट राजा' एवं 'भारत दुर्दशा' में उन्होंने अंग्रेजी शासन के शोषक चरित्र को उजागर करने के लिए ऐसी लोक कथा का उपयोग किया, जो देश के विभिन्न भागों में सामान्य रूप से प्रचलित थी। अनेक राष्ट्रवादी नेताओं एवं लेखकों ने भारतीय धन के लूट के माध्यम से ब्रिटिश शासन के शोषण का पर्दाफाश किया। नारतेन्दु ने भी कविता के माध्यम से भारतीय धन के लूट को इस प्रकार व्यक्त किया है। कल के कल बल छलन सों छले इते के लोग नित-नित धन सों घटत है बढ़त है दुःख सोग ।। मारकीन मलमल बिना चलत कुछ नहिं काम परदेशी जुलाहन के मानहु भये गुलाम ।। भीतर-भीतर सब रस चूसै। हंसि हंसि के तन-मन-धन मुसै। जाहिर वातन में अति तेज । क्यों राखि साजन नहिं अंगरेज। बीसवीं सदी के प्रारंभिक दो दशकों तक शोषण, आजादी एवं पराधीनता के प्रति वैचारिक रवैया आम तौर पर वही था, जो उन्नीसवीं सदी के दौरान उभरा था। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के बाद परिस्थितियाँ तेजी से बदली। अब मुद्दा केवल भारत की स्वतंत्रता का नहीं रहा वह तो किसी भी कीमत पर लेनी ही थी। अब स्वाधीनता का मूल अर्थ और मुख्य उद्देश्य चर्चा का मुख्य आधार बन गये और 'आजादी किसके लिए' जैसे प्रश्न उठने लगे। जैसा कि प्रेमचंद की एक कहानी 'आहूति' में रूपमति कहती है- "कम से कम मेरे लिए स्वराज का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोविन्द बैठ जाए। जिन बुराइयों को दूर करने के लिए आज हम प्राणों को हथेली पर लिये हुए हैं, उन्हीं बुराइयों को क्या प्रजा इसलिए सिर चढ़ायेगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी हैं। अगर स्वराज आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा लिखा समाज यों स्वार्थान्ध बना रहे तो मैं कहूँगी, ऐसे स्वराज का न आना ही अच्छा।" प्रेमचंद ने राष्ट्रवादी नेताओं के स्वार्थपरता एवं भोग-विलास का स्पष्ट रूप से पर्दाफाश किया है। उनका मानना था कि यदि देश के नेता सही नहीं होंगे तो भारत की स्वाधीनता का क्या लाभ? प्रेमचंद के उपन्यास 'गबन' (1931) में इस चिंता के महत्व को उजागर किया गया है। देवीदीन जो एक पक्का राष्ट्रवादी है, नेताओं से कहता है- "अभी जब तुम्हारा राज नहीं है, तब तो तुम भोग-विलास पर इतना मरते हो। जब तुम्हारा राज हो जायेगा तब तो तुम गरीबों को पीस कर पी जाओगे।" लेकिन राष्ट्रवादी राजनीति का सबसे निराशाजनक पहलु 'गोदान' में परिलक्षित होता है। राय साहब जो कि एक धनी जमींदार है, सत्याग्रह में शामिल होते हैं तथा बेईमानी से उद्देश्यपूर्ति के लिए धन का उपयोग करते हैं। खन्ना, जो कि महाजन, व्यापारी और उद्योगपति हैं, आंदोलन में भाग लेकर फिर ऐसे तरीकों से धन बनाने में लग जाते हैं जिन्हें जायज नहीं कहा जा सकता। ओंकारनाथ पत्रकार हैं जो अपने संपादकीय लेखों में आग उगलते हैं लेकिन बुनियादी रूप में स्वार्थी हैं जिनके लिए राष्ट्रवाद स्वार्थ पूर्ति का एक साधन है। - **साहित्य में किन राष्ट्रवादी तत्वों को उजागर किया गया है, कक्षा में चर्चा करें?** ## उर्दू भाषा आपने मध्यकाल के इतिहास को पढ़ते समय यह जाना कि एक साझा संस्कृति का देश में विकास हुआ जिसे गंगा-जमुनी संस्कृति भी कहा जाता है। इसके अनेक उदाहरणों में उर्दू भाषा भी शामिल है। उर्दू भाषा की उत्पत्ति पंजाब के क्षेत्र में ग्यारहवीं शताब्दी ई. में हुई और मध्यकाल में इसका धीरे-धीरे विकास हुआ। अठारहवीं शताब्दी तक यह एक साहित्यिक भाषा बन चुकी थी जिसमें फारसी और कुछ भारतीय भाषाओं के शब्द शामिल थे। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब राष्ट्रीय आंदोलन ने जोर पकड़ा तो उत्तर भारत में सबसे अधिक प्रचलित भाषा उर्दू ही थी, जिसे हम 'हिन्दुस्तानी' भी कहते हैं। शायद आप जानते हैं कि उर्दू और हिन्दी के बहुत सारे शब्द समान हैं और इनमें मुख्य अंतर लिपि का है। हिन्दी देवनागरी लिपि में, और उर्दू फारसी लिपि में उस समय लिखी जाती थी। दिलचस्प बात यह है कि उस समय उत्तर भारत में अधिकतर समाचार-पत्र और पत्रिकाएं उर्दू भाषा में ही प्रकाशित होते थे। 1857 के संघर्ष के समय दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "देहली अखबार" और लखनऊ से प्रकाशित "तिलिस्म" जैसे अखबार आज प्रमुख ऐतिहासिक स्रोत हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख नेता, मौलाना अबुल कलाम आजाद ने उर्दू में कई समाचार-पत्र निकाले जिनमें "अल-हिलाल" और "अल-बिलाल" काफी महत्वपूर्ण थे। इनके अलावा भी कई दूसरे अखबार उर्दू में निकाले जाते थे जिनके माध्यम से देश-प्रेम की भावना का प्रचार हुआ और अंग्रेजों के शासन के अन्याय और दमन के खिलाफ लोगों में चेतना जगायी गयी। आप जानते होंगे कि "इंकलाब जिन्दाबाद" (क्रांति अमर रहे) का नारा उर्दू जबान का ही है। उर्दू भाषा के अखबारों के साथ-साथ उर्दू कविता के माध्यम से भी देश-प्रेम और सामाजिक सौहार्द का पैगाम घर-घर पहुँचाया गया। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अल्लामा इकबाल ने "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा" कविता की रचना की, तो पटना के बिस्मिल अजीमाबादी ने लिखा- सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है जोर कितना बाजूए कातिल में है। ऐसी अनेक मिसालें आपको देखने को मिलेंगी जब देश की आजादी के लिए प्राण न्योछावर करने वालों ने ऐसे शेर और गीत दुहराते हुए मौत को गले लगाया। उर्दू भाषा आज भी लोकप्रिय है और हमारी दूसरी सरकारी भाषा भी है। ## अभ्यास आइये फिर से याद करें : 1. **सही या गलत बताएँ** (i) साहित्य में पराधीनता के बोध एवं स्वतंत्रता की जरूरतों को स्पष्ट अभिव्यक्ति मिलने लगी थी। (ii) प्रेमचंद ने 'आनंदमठ' की रचना की थी। (iii) रमेश चन्द्र दत्त के उपन्यास में हिन्दू समर्थक प्रवृति देखने को मिलती है।