तुलनात्मक राजनीति: मुद्दे और प्रवृत्तियाँ PDF
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यह दस्तावेज़ तुलनात्मक राजनीति के मुद्दों और प्रवृत्तियों पर एक विस्तारपूर्ण विवरण प्रस्तुत करता है. तुलनात्मक राजनीतिक सिद्धांतों और विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों/व्यवहारों का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है. राजनीतिक विज्ञान में तुलनात्मक पद्धति, उसके ऐतिहासिक विकास, महत्व और सीमाओं पर स्पष्टता दी गई है.
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### [तुलनात्मक राजनीति : मुद्दे और प्रवृत्तियाँ](https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/50673)**भाग I:** **1. राजनीति के अध्ययन हेतु तुलनात्मक पद्धति के महत्व और सीमाओं का परीक्षण कीजिए।** **राजनीति के अध्ययन हेतु तुलनात्मक पद्धति के महत्व और सीमाओं का परीक्षण** **परिचय** तुलनात्मक पद्धति (C...
### [तुलनात्मक राजनीति : मुद्दे और प्रवृत्तियाँ](https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/50673)**भाग I:** **1. राजनीति के अध्ययन हेतु तुलनात्मक पद्धति के महत्व और सीमाओं का परीक्षण कीजिए।** **राजनीति के अध्ययन हेतु तुलनात्मक पद्धति के महत्व और सीमाओं का परीक्षण** **परिचय** तुलनात्मक पद्धति (Comparative Method) राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन में एक महत्वपूर्ण उपकरण है। इस पद्धति का उपयोग विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों, संस्थानों, और प्रक्रियाओं के बीच समानताओं और भिन्नताओं का विश्लेषण करने के लिए किया जाता है। तुलनात्मक अध्ययन का उद्देश्य राजनीतिक सिद्धांतों का विकास, राजनीतिक व्यवहार की समझ, और वैश्विक राजनीतिक चुनौतियों का समाधान खोजना है। इस लेख में तुलनात्मक पद्धति के ऐतिहासिक विकास, इसके महत्व, सीमाओं, और प्रमुख विचारकों के योगदान का विस्तृत विश्लेषण किया जाएगा। **तुलनात्मक पद्धति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य** तुलनात्मक राजनीति का इतिहास प्राचीन काल से आरंभ होता है। - **प्राचीन ग्रीस:** अरस्तू (Aristotle) को तुलनात्मक राजनीति का जनक माना जाता है। उन्होंने विभिन्न प्रकार की सरकारों का तुलनात्मक अध्ययन किया और उन्हें तीन प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत किया: राजतंत्र, कुलीनतंत्र, और लोकतंत्र। - **रोमन काल:** रोमन विचारकों ने राजनीतिक संरचनाओं और कानूनों की तुलना करके न्यायिक प्रणालियों का विकास किया। - **पुनर्जागरण और प्रबोधन काल:** मॉन्टेस्क्यू (Montesquieu) ने अपनी कृति *\"The Spirit of Laws\"* में तुलनात्मक अध्ययन का उपयोग करते हुए शक्ति के विभाजन का सिद्धांत प्रस्तुत किया। - **आधुनिक युग:** 20वीं सदी में, जी. ए. अल्मोंड (G. A. Almond) और सिडनी वर्बा (Sidney Verba) जैसे विद्वानों ने तुलनात्मक राजनीति को वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया और इसे व्यवस्थित अध्ययन के रूप में विकसित किया। **तुलनात्मक पद्धति का महत्व** **1. विविधता की समझ:** तुलनात्मक पद्धति विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों जैसे लोकतंत्र, अधिनायकवाद, और समाजवाद की संरचना, कार्यप्रणाली, और उद्देश्यों को समझने में सहायक होती है। **2. सार्वभौमिक सिद्धांतों का विकास:** इस पद्धति से राजनीति के सार्वभौमिक सिद्धांतों का विकास होता है। उदाहरण के लिए, शक्ति के विभाजन का सिद्धांत विभिन्न देशों में किस प्रकार कार्य करता है, इसे तुलनात्मक अध्ययन से समझा जा सकता है। **3. राजनीतिक सुधार:** तुलनात्मक अध्ययन से विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों की सफलता और विफलता का विश्लेषण किया जा सकता है। यह अध्ययन बेहतर नीतिगत सुधारों के लिए सुझाव प्रदान करता है। **4. वैश्विक समस्याओं का समाधान:** तुलनात्मक पद्धति जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, और गरीबी जैसी वैश्विक समस्याओं का अध्ययन और समाधान प्रदान करने में सहायक है। **5. सांस्कृतिक संदर्भ की समझ:** यह पद्धति विभिन्न समाजों की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विविधता को समझने में मदद करती है। उदाहरण के लिए, भारत जैसे बहुसांस्कृतिक समाज में राजनीति की संरचना और व्यवहार को समझने के लिए तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है। **6. प्रमुख विचारकों का योगदान:** - **अरस्तू (Aristotle):** अरस्तू को तुलनात्मक राजनीति का जनक माना जाता है। उन्होंने विभिन्न प्रकार की सरकारों जैसे कि राजतंत्र, लोकतंत्र, और अधिनायकवाद का अध्ययन किया और उनके गुण तथा दोषों का विश्लेषण किया। उनके कार्य \"Politics\" में विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों की तुलना की गई है, जो आज भी तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में महत्वपूर्ण है। - **मॉन्टेस्क्यू (Montesquieu):** मॉन्टेस्क्यू ने अपने ग्रंथ \"Spirit of Laws\" में सरकारों के तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने शक्ति के विभाजन का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसे आधुनिक संविधानों में व्यापक रूप से अपनाया गया है। - **एडम स्मिथ (Adam Smith):** आर्थिक पद्धतियों के तुलनात्मक अध्ययन ने राजनीति और अर्थशास्त्र के बीच संबंध को समझने में मदद की। उनके कार्य ने यह स्पष्ट किया कि आर्थिक नीतियाँ राजनीतिक संस्थाओं को कैसे प्रभावित करती हैं। - **जॉन पीयर हार्समिट (John Pierre Haussmann):** उन्होंने फ्रांस के पेरिस की नवीनीकरण प्रक्रिया का तुलनात्मक अध्ययन किया, जो शहरी राजनीति और प्रशासन के अध्ययन में महत्वपूर्ण है। **तुलनात्मक पद्धति की सीमाएँ** **1. सांस्कृतिक और भाषाई विविधता:** विभिन्न समाजों की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता तुलनात्मक अध्ययन में कठिनाई उत्पन्न करती है। **2. डेटा की कमी:** सटीक और तुलनीय आंकड़ों का अभाव तुलनात्मक अध्ययन को प्रभावित करता है। **3. राजनीतिक संरचनाओं की जटिलता:** राजनीतिक प्रणालियां बहुआयामी होती हैं और उन्हें मात्रात्मक रूप से मापना मुश्किल है। **4. पूर्वाग्रह का प्रभाव:** शोधकर्ता के व्यक्तिगत विचार और पूर्वाग्रह अध्ययन की निष्पक्षता को प्रभावित कर सकते हैं। **5. बदलते राजनीतिक संदर्भ:** राजनीतिक प्रणालियां समय के साथ बदलती रहती हैं, जिससे तुलनात्मक अध्ययन में पुराने दृष्टिकोण अप्रासंगिक हो सकते हैं। **6. स्थानीय और विशिष्ट संदर्भों की अनदेखी:** तुलनात्मक पद्धति कभी-कभी स्थानीय और विशिष्ट परिस्थितियों को नजरअंदाज करती है, जिससे अध्ययन अधूरा रह सकता है। **तुलनात्मक पद्धति का उपयोग** 1. **नीतिगत सुधार:\ **तुलनात्मक अध्ययन से बेहतर नीतियां और राजनीतिक सुधारों के लिए सुझाव मिलते हैं। 2. **शैक्षणिक अध्ययन:\ **तुलनात्मक राजनीति का उपयोग अकादमिक शोध में राजनीतिक सिद्धांतों और प्रक्रियाओं को समझाने के लिए किया जाता है। 3. **वैश्विक सहयोग:\ **विभिन्न देशों के राजनीतिक प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन से आपसी सहयोग और समझ बढ़ती है। 4. **व्यवहार विश्लेषण:\ **नागरिकों के राजनीतिक व्यवहार और उनकी अपेक्षाओं को समझने के लिए तुलनात्मक पद्धति उपयोगी है। **आलोचनात्मक दृष्टिकोण** तुलनात्मक पद्धति के महत्व के बावजूद, इसकी सीमाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। - यह पद्धति राजनीतिक प्रणालियों और संस्थाओं की गहराई से समझ प्रदान करती है, लेकिन सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता को समायोजित करने में असफल हो सकती है। - शोधकर्ता के पूर्वाग्रह और डेटा की सीमितता तुलनात्मक अध्ययन को कमजोर कर सकते हैं। - हालांकि, तकनीकी प्रगति और डेटा विज्ञान के उपयोग ने तुलनात्मक अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक और सटीक बनाया है। **निष्कर्ष** तुलनात्मक पद्धति राजनीति के अध्ययन में एक अनिवार्य उपकरण है। यह न केवल विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों की गहराई से समझ प्रदान करती है, बल्कि वैश्विक राजनीतिक समस्याओं के समाधान में भी सहायक है। हालांकि, इसकी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए, इसे सावधानीपूर्वक और निष्पक्षता से उपयोग किया जाना चाहिए। तुलनात्मक पद्धति के माध्यम से न केवल राजनीतिक सिद्धांतों का विकास होता है, बल्कि यह राजनीतिक सुधार और नीतिगत विकास में भी योगदान देती है। ---\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-- \_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_ **2. सामाजिक समरसता रेखांकित और राज्य की उत्पत्ति के मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण के मध्य अंतर की व्याख्या कीजिए?** **परिचय** राज्य और समाज की उत्पत्ति और उनके कार्यों को समझने के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों का अध्ययन किया गया है। सामाजिक समरसता का सिद्धांत और मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण दोनों ही राज्य और समाज के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं। हालांकि, इन दोनों दृष्टिकोणों में मूलभूत अंतर हैं। सामाजिक समरसता रेखांकित करती है कि समाज में शांति, समानता और सहयोग कैसे बनाए रखा जा सकता है, जबकि मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण इस पर ध्यान केंद्रित करता है कि राज्य और समाज किस प्रकार ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक प्रक्रियाओं के माध्यम से विकसित हुए। **सामाजिक समरसता रेखांकित** सामाजिक समरसता का तात्पर्य समाज में विभिन्न वर्गों, जातियों, और समूहों के बीच एकता और सहयोग बनाए रखने से है। यह सिद्धांत समाज में समानता, न्याय, और सामूहिकता को प्रोत्साहित करता है। **मुख्य विशेषताएँ:** 1. **शांति और सामंजस्य:\ **सामाजिक समरसता का उद्देश्य समाज में शांति और सद्भाव बनाए रखना है। यह विचार करता है कि समाज तब स्थिर रहता है जब लोग एक-दूसरे के अधिकारों और कर्तव्यों का सम्मान करते हैं। 2. **समानता और न्याय:\ **समाज के प्रत्येक वर्ग को समान अवसर और न्याय प्रदान करने की आवश्यकता है। इसके तहत सामाजिक भेदभाव और असमानताओं को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है। 3. **सहयोग और सामूहिकता:\ **सामाजिक समरसता पर आधारित समाज में सभी समूह परस्पर सहयोग और सामूहिक प्रयासों के माध्यम से अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। 4. **नैतिक और सांस्कृतिक एकता:\ **यह दृष्टिकोण नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक परंपराओं को समाज में समरसता बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण मानता है। **प्रमुख विचारक:** - **एमिल दुर्खीम (Émile Durkheim):** दुर्खीम ने \"सामाजिक एकता\" के महत्व पर जोर दिया और बताया कि समाज में सहयोग और परस्पर निर्भरता कैसे शांति और समरसता बनाए रखती है। - **जॉन रॉल्स (John Rawls):** रॉल्स ने सामाजिक न्याय को सामाजिक समरसता का आधार माना और \"वितरणात्मक न्याय\" का सिद्धांत प्रस्तुत किया। **मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण से राज्य की उत्पत्ति** मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण राज्य और समाज की उत्पत्ति को प्राचीन मानव समाजों के विकास और सांस्कृतिक प्रथाओं के माध्यम से समझने का प्रयास करता है। यह दृष्टिकोण इस पर केंद्रित है कि किस प्रकार मानव सभ्यता ने शिकार और संग्रहकर्ता समाजों से संगठित राज्यों और राजनीतिक प्रणालियों तक की यात्रा की। **मुख्य विशेषताएँ:** 1. **सांस्कृतिक विकास:\ **मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण के अनुसार, राज्य की उत्पत्ति सांस्कृतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं का परिणाम है। कृषि, व्यापार, और स्थायी बस्तियों का विकास राज्य निर्माण का प्रमुख कारण था। 2. **प्राकृतिक आवश्यकता:\ **राज्य की उत्पत्ति को प्राकृतिक आवश्यकता के रूप में देखा जाता है। जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी और संसाधनों की मांग बढ़ी, संगठित राज्य का विकास हुआ। 3. **सत्ता और शासन:\ **प्रारंभिक समाजों में सत्ता और शासन का विकास धीरे-धीरे हुआ। सबसे पहले सामूहिक नेतृत्व, फिर कुलीन वर्ग, और अंत में केंद्रीकृत शासन की स्थापना हुई। 4. **संघर्ष का तत्व:\ **मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण में यह भी माना गया है कि राज्य का विकास संघर्ष और संसाधनों की प्रतिस्पर्धा का परिणाम था। **प्रमुख विचारक:** - **हर्बर्ट स्पेंसर (Herbert Spencer):** उन्होंने समाज को \"सजीव जीव\" के रूप में देखा और राज्य को एक जैविक विकास की प्रक्रिया के रूप में वर्णित किया। - **एल्मन सर्विस (Elman Service):** उन्होंने राज्य के विकास को चार चरणों में विभाजित किया: बैंड, जनजाति, मुख्यालय, और राज्य। - **लुइस मॉर्गन (Lewis Morgan):** मॉर्गन ने समाज के विकास को \"जंगलीपन,\" \"बर्बरता,\" और \"सभ्यता\" के तीन चरणों में वर्गीकृत किया। **सामाजिक समरसता और मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण के मध्य अंतर** **पैरामीटर** **सामाजिक समरसता** **मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण** ----------------------- ------------------------------------------------------ ----------------------------------------------------------------------- **मुख्य उद्देश्य** समाज में शांति और सहयोग बनाए रखना। राज्य और समाज की उत्पत्ति के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं का अध्ययन। **केन्द्र बिंदु** नैतिकता, न्याय, और समानता। सांस्कृतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं का विकास। **समाज की भूमिका** समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सामंजस्य स्थापित करना। समाज को राज्य की उत्पत्ति और विकास की आधारशिला मानना। **प्रमुख विचारक** एमिल दुर्खीम, जॉन रॉल्स। हर्बर्ट स्पेंसर, एल्मन सर्विस, लुइस मॉर्गन। **प्रभाव का क्षेत्र** समकालीन सामाजिक संरचना और राजनीतिक स्थिरता। प्रारंभिक मानव समाज और राज्य की ऐतिहासिक उत्पत्ति। **पद्धति** नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण। मानवशास्त्रीय और सांस्कृतिक दृष्टिकोण। **आलोचनात्मक दृष्टिकोण** **सामाजिक समरसता की आलोचना:** 1. **आदर्शवादी दृष्टिकोण:\ **सामाजिक समरसता एक आदर्श स्थिति पर आधारित है, जो वास्तविकता में हमेशा प्राप्त नहीं की जा सकती। 2. **सत्ता असमानता:\ **यह दृष्टिकोण सामाजिक असमानताओं को पूरी तरह समाप्त करने में असफल हो सकता है। **मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण की आलोचना:** 1. **सांस्कृतिक सापेक्षता:\ **मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण सांस्कृतिक विविधता को समझने में सक्षम है, लेकिन यह एक सामान्यीकृत सिद्धांत प्रदान करने में असफल हो सकता है। 2. **सीमित डेटा:\ **ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक समाजों के अध्ययन में सटीक और विश्वसनीय डेटा की कमी होती है। **निष्कर्ष** सामाजिक समरसता और मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण दोनों ही समाज और राज्य को समझने में उपयोगी हैं, लेकिन इनके उद्देश्य और दृष्टिकोण भिन्न हैं। सामाजिक समरसता वर्तमान समाज में सहयोग और शांति बनाए रखने पर जोर देती है, जबकि मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण राज्य और समाज की उत्पत्ति के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं को स्पष्ट करता है। दोनों दृष्टिकोणों का समन्वय समाज और राज्य की गहरी समझ के लिए आवश्यक है। \_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_ ====================================================================== **3. वैश्विकरण के दौर में राज्य और बहुराष्ट्रीय संबंधों के मध्य संबंधों की गतिशीलता का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।** **वैश्वीकरण के दौर में राज्य और बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNCs) के बीच संबंधों की गतिशीलता का आलोचनात्मक परीक्षण** वैश्वीकरण एक ऐसा प्रक्रिया है जिसमें देशों, बाजारों, और संस्कृतियों के बीच सीमाएँ कम होती जाती हैं, और विश्व एक नेटवर्क के रूप में आपस में जुड़ता है। इस दौर में राज्य (States) और बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNCs) के बीच संबंधों की गतिशीलता में एक नया बदलाव आया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, जो एक से अधिक देशों में कारोबार करती हैं, वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस लेख में हम वैश्वीकरण के दौर में राज्य और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच संबंधों की गतिशीलता का आलोचनात्मक परीक्षण करेंगे। **वैश्वीकरण और राज्य की भूमिका** वैश्वीकरण के इस दौर में राज्य की भूमिका में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। जबकि पहले राज्य अपने सीमाओं के भीतर सभी नीतियाँ और निर्णय स्वयं लेता था, अब राज्य को वैश्विक बाजार, आर्थिक ताकतों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रभाव के कारण अपनी नीति निर्धारण में बदलाव लाना पड़ा है। 1. **राज्य का संप्रभुता संकट**: - वैश्वीकरण के दौर में, राज्य की संप्रभुता पर सवाल उठते हैं, क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अब अपने कारोबार को विभिन्न देशों में फैलाती हैं और अक्सर इन कंपनियों की ताकत स्थानीय सरकारों से कहीं अधिक होती है। यह संप्रभुता का संकट पैदा करता है, क्योंकि इन कंपनियों के पास ऐसे आर्थिक संसाधन होते हैं, जो राज्य की शक्ति को कमजोर कर सकते हैं। - उदाहरण के लिए, **वॉलमार्ट** और **नाइकी** जैसी कंपनियाँ छोटे देशों की स्थानीय नीतियों को प्रभावित कर सकती हैं, और अगर ये कंपनियाँ किसी विशेष देश में कारोबार करने के लिए अपनी शर्तें नहीं पाती हैं, तो वे वहाँ से बाहर भी जा सकती हैं। 2. **राज्य की नीति में बदलाव**: - वैश्वीकरण के प्रभाव में आकर राज्य को अपने आंतरिक और बाहरी नीतियों में बदलाव करना पड़ा है। **नवउदारवादी नीतियाँ**, जैसे निजीकरण, उदारीकरण और विनियमन में कमी, को लागू करना पड़ा है ताकि राज्य विदेशी निवेश और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आकर्षित कर सके। - उदाहरण के तौर पर, भारत ने **1991 के आर्थिक सुधारों** के बाद अपनी नीति में बदलाव किया और विदेशी कंपनियों के लिए बाजार खोला, जिससे भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आ सकीं। **बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और उनका प्रभाव** बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये कंपनियाँ न केवल आर्थिक गतिविधियों को संचालित करती हैं, बल्कि समाजिक और राजनीतिक परिवर्तन को भी प्रभावित करती हैं। 1. **आर्थिक शक्ति**: - बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अब वैश्विक स्तर पर एक बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुकी हैं। वे अपनी **वित्तीय ताकत**, **टेक्नोलॉजी**, और **पैसे की आपूर्ति** के साथ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करती हैं। इन कंपनियों के पास संसाधन और क्षमता होती है कि वे किसी भी राज्य के नीति निर्णयों को प्रभावित कर सकती हैं। - उदाहरण: **Apple**, **Google**, और **Amazon** जैसी कंपनियाँ न केवल तकनीकी नवाचार करती हैं, बल्कि इनका प्रभाव वैश्विक राजनीतिक निर्णयों पर भी होता है। 2. **वैश्विक स्तर पर काम करने की क्षमता**: - बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ एक से अधिक देशों में अपनी गतिविधियाँ करती हैं, और ये कंपनियाँ अपनी आपूर्ति श्रृंखला (supply chain) और उत्पादन कार्यों को विभिन्न देशों में विभाजित करती हैं। इससे **लोकल मार्केट** और **स्थानीय रोजगार** में बदलाव आता है, और कभी-कभी स्थानीय सरकारों को अपनी नीतियाँ इन कंपनियों की अनुकूल बनाने के लिए बदलनी पड़ती हैं। - उदाहरण के तौर पर, **Apple** का उत्पादन मुख्य रूप से चीन में होता है, जबकि उसकी बिक्री अमेरिका और अन्य देशों में होती है। इस प्रकार, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपनी वैश्विक गतिविधियों के माध्यम से स्थानीय राज्यों की नीतियों और अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करती हैं। **राज्य और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के संबंधों की गतिशीलता** वैश्वीकरण के दौर में, राज्य और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच संबंध जटिल और परस्पर निर्भर हो गए हैं। दोनों के बीच के संबंधों की गतिशीलता कई दृष्टिकोणों से देखी जा सकती है: 1. **नवउदारवाद और उदारीकरण**: - बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ नवउदारवादी नीतियों का समर्थन करती हैं, जो मुक्त व्यापार, कम करों, और विनियमन की कमी पर आधारित होती हैं। इसके परिणामस्वरूप, राज्य अपनी अर्थव्यवस्था को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अनुकूल बनाने के लिए नीतियाँ बनाता है। - राज्य और कंपनियों के बीच यह संबंध एक **साझेदारी** का रूप लेता है, जहां कंपनियाँ लाभ कमाती हैं और राज्य को **अर्थव्यवस्था में वृद्धि** और **रोजगार** का लाभ मिलता है। 2. **राज्य का दबाव और कंपनियों की स्वतंत्रता**: - कभी-कभी राज्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ कड़े नियम बनाता है, जैसे कि श्रमिकों के अधिकार, पर्यावरणीय नियम, और कर प्रणाली को सुधारने के लिए। हालांकि, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अक्सर इन नियमों से बचने के लिए **अंतरराष्ट्रीय दबाव** का उपयोग करती हैं या **न्यायिक रास्तों** का सहारा लेती हैं। - उदाहरण: **मैक्सिको** में **Nafta** (North American Free Trade Agreement) के तहत, अमेरिकी कंपनियाँ अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए मैक्सिकन श्रमिकों को सस्ते श्रम के रूप में उपयोग करती हैं, जबकि स्थानीय सरकारों को नियमों को ढीला करने के लिए मजबूर किया जाता है। 3. **वैश्विक राजनीति में हस्तक्षेप**: - राज्य और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच संबंधों का प्रभाव वैश्विक राजनीति में भी देखा जाता है। इन कंपनियों के पास **राजनीतिक लाबिंग** करने की ताकत होती है, जो कुछ देशों की नीतियों को प्रभावित करती हैं। - **विचारक**: **डेविड हार्वे** (David Harvey) ने नवउदारवाद के प्रभावों पर चर्चा करते हुए कहा है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक नीति को अपने फायदे के लिए मोड़ देती हैं, और राज्य अपनी स्वतंत्र नीतियाँ बनाने में असमर्थ होता है। **विचारक और उनके दृष्टिकोण** 1. **जॉन रॉबिन्सन** (John Robinson) के अनुसार, वैश्वीकरण ने राज्य और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच **समानता** और **विपरीत प्रभावों** के बीच तनाव को बढ़ा दिया है। राज्य को अपनी **राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता** बनाए रखने के लिए वैश्विक ताकतों के साथ तालमेल बैठाना पड़ा है, जबकि कंपनियाँ वैश्विक बाजारों पर पूरी तरह से हावी हैं। 2. **थॉमस फ्रांसिस** (Thomas Friedman) ने अपने काम \"The World is Flat\" में वैश्वीकरण को एक \"समतल दुनिया\" के रूप में वर्णित किया है, जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और राज्य दोनों को एक नई **वैश्विक व्यवस्था** में काम करना पड़ता है। उनके अनुसार, वैश्वीकरण ने इन दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा और सहयोग दोनों की स्थितियाँ उत्पन्न की हैं। 3. **नवीनतम विकास**: वर्तमान में, वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप **ट्रांसनेशनल कॉर्पोरेशन्स (TNCs)** और **राज्य** दोनों के बीच मतभेद और सामंजस्य दोनों में बदलाव आ रहा है। जैसे **एशिया-प्रशांत क्षेत्र** में, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ पर्यावरणीय नियमों का पालन न करने के कारण आलोचना का सामना कर रही हैं, और राज्यों को अब अपने पर्यावरणीय नियमों को और कड़ा बनाने की आवश्यकता महसूस हो रही है। **निष्कर्ष** वैश्वीकरण के दौर में राज्य और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच संबंधों की गतिशीलता जटिल और आपसी निर्भरता पर आधारित है। जबकि राज्य को अपनी नीति बनाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, वहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी ताकत का उपयोग करती हैं। इन दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है, ताकि **स्थिर आर्थिक विकास**, **सामाजिक कल्याण**, और **पर्यावरण संरक्षण** को सुनिश्चित किया जा सके। \_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_))))or))))\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_ वैश्वीकरण के दौर में राज्य और बहुराष्ट्रीय संबंधों की गतिशीलता का आलोचनात्मक परीक्षण परिचय वैश्वीकरण (Globalization) ने 20वीं और 21वीं शताब्दी में राज्य और बहुराष्ट्रीय संगठनों (Multinational Corporations - MNCs) के संबंधों को गहराई से प्रभावित किया है। वैश्वीकरण के तहत राष्ट्रीय सीमाएं धुंधली हो गई हैं, और आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, तथा सामाजिक आदान-प्रदान में वृद्धि हुई है। इस प्रक्रिया ने राज्यों की संप्रभुता (sovereignty) और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते प्रभाव के बीच गतिशील संबंधों को जन्म दिया है। यह अध्ययन वैश्वीकरण के प्रभाव में राज्य और बहुराष्ट्रीय संगठनों के बीच संबंधों की जटिलता, उनके अवसरों और चुनौतियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करता है। वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भूमिका बहुराष्ट्रीय कंपनियों की परिभाषा: बहुराष्ट्रीय कंपनियां वे व्यावसायिक संगठन हैं जो एक से अधिक देशों में उत्पादन, विपणन, या वितरण करती हैं। वैश्वीकरण में भूमिका: अर्थव्यवस्था: MNCs ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश को बढ़ावा दिया। तकनीकी प्रसार: तकनीकी नवाचारों और कौशल का प्रसार। रोजगार: विकसित और विकासशील देशों में रोजगार सृजन। राजनीतिक प्रभाव: राज्यों की नीतियों को प्रभावित करने में MNCs की बढ़ती भूमिका। राज्य और बहुराष्ट्रीय संगठनों के संबंध 1\. सहयोग का पक्ष: आर्थिक वृद्धि का माध्यम: MNCs ने आर्थिक विकास को गति दी है। निवेश और पूंजी प्रवाह ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को मजबूत किया है। वैश्विक प्रतिस्पर्धा: वैश्वीकरण ने राष्ट्रों को प्रतिस्पर्धी बनाया, जिससे व्यापार में विविधता और उत्पादकता में वृद्धि हुई। प्रौद्योगिकी और संसाधन साझा करना: MNCs ने उन्नत प्रौद्योगिकी और संसाधन लाकर विकासशील देशों में तकनीकी विकास को प्रोत्साहित किया। 2\. संघर्ष और चुनौतियाँ: राज्य की संप्रभुता का ह्रास: वैश्वीकरण के कारण राज्यों का नियंत्रण सीमित हो गया है। कई बार MNCs की नीतियां राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करती हैं। सामाजिक असमानता: वैश्वीकरण ने आर्थिक असमानताओं को बढ़ावा दिया। MNCs अक्सर अपने लाभ के लिए श्रमिकों का शोषण करती हैं। पर्यावरणीय चुनौतियाँ: विकासशील देशों में पर्यावरण मानकों की अनदेखी करते हुए MNCs ने पर्यावरणीय क्षति पहुंचाई। राजनीतिक हस्तक्षेप: कई बार MNCs ने स्थानीय राजनीति और नीतिगत प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप किया, जिससे राजनीतिक अस्थिरता हुई। वैश्वीकरण के प्रभाव में राज्य की भूमिका नीतिगत बदलाव: राज्यों ने वैश्वीकरण के दबाव में उदारीकरण (Liberalization), निजीकरण (Privatization), और वैश्वीकरण (Globalization) की नीतियां अपनाईं। अंतरराष्ट्रीय सहयोग: राज्य अब अन्य देशों और संगठनों के साथ सहयोग कर वैश्विक समस्याओं का समाधान करने का प्रयास कर रहे हैं। सामाजिक सुरक्षा: वैश्वीकरण के कारण उत्पन्न सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए राज्य कल्याणकारी नीतियां अपना रहे हैं। आलोचनात्मक दृष्टिकोण 1\. सकारात्मक पहलू: वैश्विक अर्थव्यवस्था का एकीकरण: वैश्वीकरण और MNCs ने विश्व को एकीकृत करने में योगदान दिया है। नवाचार और प्रौद्योगिकी: MNCs के माध्यम से तकनीकी उन्नति ने जीवन स्तर को बढ़ाया। विकासशील देशों का उत्थान: MNCs के निवेश ने कई विकासशील देशों में बुनियादी ढांचे का विकास किया। 2\. नकारात्मक पहलू: सांस्कृतिक साम्राज्यवाद: MNCs और वैश्वीकरण ने स्थानीय सांस्कृतिक पहचान को कमजोर किया है। आर्थिक निर्भरता: विकासशील देश MNCs पर अत्यधिक निर्भर हो गए हैं, जिससे उनकी आर्थिक संप्रभुता प्रभावित हुई। वैश्विक असमानता: MNCs के लाभ मुख्य रूप से विकसित देशों को जाते हैं, जिससे वैश्विक असमानता बढ़ी है। पर्यावरणीय क्षति: MNCs ने अपने लाभ के लिए पर्यावरणीय संसाधनों का अंधाधुंध उपयोग किया है। प्रमुख विचारक और सिद्धांत जॉन केनेथ गॉल्ब्रेथ (John Kenneth Galbraith): उन्होंने वैश्वीकरण में बहुराष्ट्रीय संगठनों की शक्ति और राज्यों की भूमिका पर चर्चा की। जोसफ स्टिग्लिट्ज़ (Joseph Stiglitz): उन्होंने वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभावों, विशेष रूप से आर्थिक असमानता पर जोर दिया। थॉमस फ्राइडमैन (Thomas Friedman): उनकी पुस्तक \"The World is Flat\" में वैश्वीकरण को एकीकृत दुनिया के रूप में देखा गया। उदाहरण और प्रासंगिकता एशिया और अफ्रीका में MNCs का प्रभाव: MNCs ने इन क्षेत्रों में निवेश के माध्यम से विकास किया, लेकिन यह अक्सर श्रमिक शोषण और पर्यावरणीय क्षति के साथ हुआ। भारत में सूचना प्रौद्योगिकी का विकास: भारतीय IT सेक्टर में MNCs के निवेश ने रोजगार के अवसर प्रदान किए और वैश्विक अर्थव्यवस्था से भारत को जोड़ा। पर्यावरणीय क्षति: जैसे कि अमेज़न के जंगलों की कटाई में बहुराष्ट्रीय संगठनों की भूमिका। निष्कर्ष वैश्वीकरण ने राज्य और बहुराष्ट्रीय संगठनों के संबंधों को बहुआयामी और जटिल बना दिया है। हालांकि, इसने आर्थिक विकास और प्रौद्योगिकी में उन्नति लाई है, लेकिन यह सामाजिक असमानता, पर्यावरणीय क्षति, और राज्य की संप्रभुता के लिए चुनौतियां भी प्रस्तुत करता है। राज्य और MNCs को मिलकर काम करना चाहिए ताकि वैश्वीकरण के लाभों को अधिकतम किया जा सके और इसके नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सके। इसके लिए एक संतुलित नीति की आवश्यकता है, जहां राज्य अपने नागरिकों के हितों की रक्षा करते हुए वैश्वीकरण की संभावनाओं का लाभ उठा सके। ---\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-- ** Question 9 (b)** **राज्य का गांधीवादी दृष्टिकोण।** **राज्य का गांधीवादी दृष्टिकोण** **महात्मा गांधी का राज्य का दृष्टिकोण उनके राजनीतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दर्शन का अभिन्न हिस्सा था। गांधीजी ने एक ऐसे राज्य की कल्पना की थी, जिसे \"रामराज्य\" कहा गया, जो नैतिकता, सत्य और अहिंसा पर आधारित हो। उनके दृष्टिकोण का उद्देश्य मानवता की भलाई और समाज के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में स्वतंत्रता और समानता सुनिश्चित करना था। गांधीवादी राज्य की अवधारणा किसी भी प्रकार के शोषण, हिंसा और असमानता को खारिज करती है और समाज के प्रत्येक वर्ग को सशक्त बनाने पर बल देती है।** **1. गांधीवादी राज्य की परिभाषा** **गांधीजी ने राज्य को ऐसा तंत्र माना जो जनता की भलाई और उनके मूलभूत अधिकारों की रक्षा के लिए काम करता हो। गांधीवादी राज्य में शक्ति का विकेंद्रीकरण होता है, और यह सत्ता के केंद्रीकरण के बजाय गांवों और समुदायों को सशक्त बनाता है। उनके लिए राज्य का उद्देश्य केवल प्रशासन चलाना नहीं था, बल्कि लोगों के नैतिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए कार्य करना था।** **2. गांधीवादी राज्य के प्रमुख सिद्धांत** **(i) सत्य और अहिंसा** **गांधीजी के दर्शन का आधार सत्य और अहिंसा था। उन्होंने राज्य को भी इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित माना। गांधीवादी राज्य में न तो हिंसा का स्थान है और न ही दमन का।** - **सत्य: गांधीजी के अनुसार, राज्य को हर परिस्थिति में सत्य का पालन करना चाहिए। इसका अर्थ है कि राज्य की नीतियां पारदर्शी और नैतिक होनी चाहिए।** - **अहिंसा: राज्य की नीतियां और कार्यप्रणाली अहिंसक होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि राज्य अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेता है, तो वह नैतिक रूप से असफल है।** **(ii) विकेंद्रीकरण** **गांधीजी सत्ता के केंद्रीकरण के विरोधी थे। उन्होंने कहा कि सत्ता का केंद्रीकरण समाज में शोषण और असमानता को जन्म देता है। उनका मानना था कि राज्य का ढांचा गांवों पर आधारित होना चाहिए।** - **ग्राम स्वराज्य: गांधीजी के अनुसार, हर गांव को एक आत्मनिर्भर इकाई होना चाहिए। गांव के लोग अपने संसाधनों और समस्याओं को स्वयं हल करने में सक्षम हों।** - **स्थानीय निर्णय: सभी निर्णय स्थानीय स्तर पर सामूहिक रूप से लिए जाएं।** **(iii) समानता और सामाजिक न्याय** **गांधीवादी राज्य में सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर दिए जाते हैं। जाति, धर्म, लिंग या आर्थिक स्थिति के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव स्वीकार्य नहीं है।** - **गांधीजी का मानना था कि सामाजिक न्याय के बिना कोई भी राज्य टिकाऊ नहीं हो सकता।** - **उन्होंने हरिजन, महिलाओं और कमजोर वर्गों को सशक्त करने पर जोर दिया।** **(iv) आत्मनिर्भरता** **गांधीजी ने आत्मनिर्भरता पर जोर दिया। उनका मानना था कि राज्य को अपनी अर्थव्यवस्था और संसाधनों का विकास इस प्रकार करना चाहिए कि वह बाहरी सहायता पर निर्भर न हो।** - **स्वदेशी आंदोलन: उन्होंने स्थानीय उत्पादन और स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने का समर्थन किया।** - **कुटीर उद्योग: कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर रोजगार सृजन और आर्थिक आत्मनिर्भरता सुनिश्चित की जा सकती है।** **(v) न्यूनतम शासन (Minimum Government)** **गांधीजी का मानना था कि एक आदर्श राज्य वह है जहां शासन की आवश्यकता न्यूनतम हो। उन्होंने कहा, \"अच्छा राज्य वह है जो कम से कम शासन करता है।\"** - **राज्य का मुख्य कार्य केवल नागरिकों को सुरक्षा और न्याय प्रदान करना होना चाहिए।** - **शासन का हस्तक्षेप केवल तब होना चाहिए जब समाज में गंभीर संकट उत्पन्न हो।** **3. गांधीवादी राज्य और रामराज्य** **गांधीजी ने रामराज्य को एक आदर्श राज्य का प्रतीक माना। रामराज्य का अर्थ केवल धार्मिक अवधारणा नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा राज्य है जो:** - **सत्य, अहिंसा और धर्मनिष्ठा पर आधारित है।** - **सभी नागरिकों के लिए समानता और न्याय सुनिश्चित करता है।** - **गरीबों और शोषितों की रक्षा करता है।** - **पारदर्शिता और नैतिकता को बढ़ावा देता है।** **4. गांधीवादी राज्य और आधुनिक लोकतंत्र** **गांधीवादी राज्य आधुनिक लोकतंत्र के कई पहलुओं से मेल खाता है:** 1. **जन भागीदारी: गांधीजी ने कहा कि राज्य को जनता की भागीदारी के आधार पर काम करना चाहिए।** 2. **समानता और स्वतंत्रता: लोकतंत्र में समानता और स्वतंत्रता का महत्व है, जो गांधीवादी दृष्टिकोण के अनुरूप है।** 3. **सत्ता का विकेंद्रीकरण: गांधीजी का विकेंद्रीकरण का सिद्धांत लोकतंत्र को मजबूत करता है।** **हालांकि, गांधीवादी राज्य का स्वरूप आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था से कुछ अलग है। उदाहरण के लिए, गांधीजी की राज्य की अवधारणा में आर्थिक और सामाजिक नैतिकता पर अधिक जोर है, जबकि आधुनिक लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों पर अधिक ध्यान दिया जाता है।** **5. गांधीवादी राज्य की प्रासंगिकता** **आज के युग में भी गांधीवादी राज्य का दर्शन प्रासंगिक है:** - **सतत विकास: गांधीजी की आत्मनिर्भरता और पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा टिकाऊ विकास के लिए आदर्श है।** - **सामाजिक न्याय: जाति, धर्म और लिंग के आधार पर असमानता को खत्म करने के लिए गांधीजी के सिद्धांत आज भी महत्वपूर्ण हैं।** - **ग्राम स्वराज्य: विकेंद्रीकरण और ग्रामीण विकास की उनकी अवधारणा ग्रामीण क्षेत्रों के उत्थान के लिए आज भी प्रासंगिक है।** - **शांति और अहिंसा: वैश्विक संघर्षों और हिंसा को समाप्त करने के लिए गांधीजी का अहिंसा का सिद्धांत आदर्श है।** **6. गांधीवादी राज्य की आलोचना** **हालांकि गांधीवादी राज्य का दृष्टिकोण आदर्शवादी है, इसे कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है:** 1. **अव्यवहारिकता: आधुनिक समाज में केवल विकेंद्रीकरण और ग्राम स्वराज्य पर आधारित शासन व्यवस्था लागू करना कठिन है।** 2. **आर्थिक प्रतिस्पर्धा: वैश्वीकरण और औद्योगीकरण के युग में आत्मनिर्भरता की अवधारणा सीमित हो सकती है।** 3. **अहिंसा का कठोर पालन: सुरक्षा और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कभी-कभी सख्त उपायों की आवश्यकता होती है।** **कुछ प्रमुख विचारकों और उनके विचारों का उल्लेख किया गया है** **1. विनोबा भावे** - **विचार: गांधीजी के प्रमुख अनुयायी विनोबा भावे ने गांधीवादी राज्य को \"आध्यात्मिक लोकतंत्र\" कहा। उनके अनुसार, गांधीजी का राज्य सत्य और अहिंसा पर आधारित होता है, जहाँ सभी लोगों के अधिकारों का सम्मान किया जाता है।** - **ग्राम स्वराज्य पर बल: भावे ने कहा कि गांधीजी का \"ग्राम स्वराज्य\" हर व्यक्ति को सशक्त और आत्मनिर्भर बनाता है, जिससे सामाजिक असमानता समाप्त हो सकती है।** - **अहिंसा और नैतिकता का महत्व: उन्होंने राज्य को नैतिकता और अहिंसा के सिद्धांतों पर चलाने की आवश्यकता को दोहराया।** **2. जे.सी. कुमारप्पा** - **विचार: गांधीवादी अर्थशास्त्री जे.सी. कुमारप्पा ने गांधीजी के राज्य के विचार को \"अहिंसक अर्थशास्त्र\" के साथ जोड़ा।** - **ग्राम आधारित विकास: उन्होंने कहा कि गांधीवादी राज्य स्थानीय संसाधनों और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर आत्मनिर्भरता को संभव बनाता है।** - **पर्यावरण संरक्षण: कुमारप्पा ने गांधीजी की नीतियों को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रासंगिक बताया।** **3. लियो टॉलस्टॉय** - **विचार: रूसी लेखक और विचारक लियो टॉलस्टॉय, जिनसे गांधीजी बहुत प्रभावित थे, ने भी समान विचार प्रस्तुत किए।** - **अहिंसा का समर्थन: टॉलस्टॉय ने राज्य को अहिंसक और सत्य पर आधारित तंत्र के रूप में देखा। उनका विचार था कि राज्य को जनता की भलाई के लिए कार्य करना चाहिए, न कि शक्ति प्रदर्शन के लिए।** - **सरल जीवन: टॉलस्टॉय और गांधीजी दोनों ने सरल और सामूहिक जीवन जीने पर जोर दिया।** **4. डॉ. बी.आर. अंबेडकर** - **आलोचना: डॉ. अंबेडकर ने गांधीवादी राज्य की अवधारणा की आलोचना की। उन्होंने कहा कि गांधीजी का \"रामराज्य\" एक आदर्शवादी और अव्यावहारिक दृष्टिकोण है, जो आधुनिक युग में लागू करना कठिन है।** - **जातिगत असमानता: अंबेडकर ने यह भी कहा कि गांधीजी का ग्राम स्वराज्य जातिगत भेदभाव और सामाजिक अन्याय को समाप्त करने में पर्याप्त नहीं है।** - **केंद्रीकरण का समर्थन: अंबेडकर ने राज्य की शक्ति के विकेंद्रीकरण के बजाय सशक्त केंद्र सरकार का समर्थन किया।** **5. जॉन रॉल्स (John Rawls)** - **विचार: आधुनिक राजनीतिक दार्शनिक जॉन रॉल्स ने गांधीवादी राज्य को \"न्याय का सिद्धांत\" (Theory of Justice) के साथ जोड़ा।** - **समानता पर जोर: रॉल्स के अनुसार, गांधीजी का दृष्टिकोण उन सिद्धांतों के साथ मेल खाता है जो समाज में समानता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करते हैं।** - **नैतिकता और राजनीति का समन्वय: रॉल्स ने गांधीजी के नैतिक सिद्धांतों को राजनीति में महत्वपूर्ण माना।** **6. सरोजिनी नायडू** - **विचार: गांधीजी की अनुयायी और स्वतंत्रता सेनानी सरोजिनी नायडू ने गांधीवादी राज्य को \"मानवता की भलाई के लिए एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण\" कहा।** - **सामाजिक सुधार: उन्होंने कहा कि गांधीवादी राज्य जाति, धर्म और लिंग के भेदभाव को समाप्त करने के लिए सबसे उपयुक्त है।** **7. मार्क्सवादी विचारक** - **आलोचना: मार्क्सवादी विचारकों ने गांधीजी के राज्य को वर्ग संघर्ष की अनदेखी करने के लिए आलोचना की।** - **आदर्शवाद: उनके अनुसार, गांधीजी का अहिंसक राज्य और ग्राम स्वराज्य पूंजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ आवश्यक क्रांतिकारी संघर्ष को नजरअंदाज करता है।** - **व्यवहारिकता पर सवाल: मार्क्सवादियों ने कहा कि गांधीवादी राज्य का दर्शन गरीब और कमजोर वर्गों को संरक्षित करने में पर्याप्त नहीं हो सकता।** **8. नलिनीधर शर्मा (Nalini Dhar Sharma)** - **विचार: शर्मा ने गांधीवादी राज्य को \"मूल्य आधारित राजनीतिक प्रणाली\" के रूप में परिभाषित किया।** - **नैतिकता और आध्यात्मिकता: उन्होंने कहा कि गांधीजी का राज्य सत्ता और लालच से मुक्त होता है और सत्य, नैतिकता और सेवा पर आधारित है।** **9. सुभाष चंद्र बोस** - **आलोचना: सुभाष चंद्र बोस ने गांधीजी के अहिंसा और ग्राम स्वराज्य की अवधारणा को औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ संघर्ष के लिए कमजोर बताया।** - **व्यवहारिक दृष्टिकोण: बोस का मानना था कि आधुनिक युग में राज्य को शक्ति और औद्योगीकरण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।** **10. एडमंड बर्क (Edmund Burke)** - **समान विचार: बर्क, जो नैतिक और नैतिक राजनीति के समर्थक थे, गांधीजी के दृष्टिकोण से सहमत थे कि राज्य का आधार नैतिकता होना चाहिए।** - **आलोचना: हालांकि, बर्क ने यह भी माना कि कुछ परिस्थितियों में राज्य को कठोर और प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता होती है।** **निष्कर्ष** **गांधीजी का राज्य का दृष्टिकोण एक नैतिक और आदर्श समाज की कल्पना करता है, जहां हर व्यक्ति स्वतंत्र, समान और सशक्त हो। उनका \"रामराज्य\" केवल राजनीतिक संरचना नहीं है, बल्कि एक ऐसा सामाजिक और नैतिक ढांचा है जो मानवता की भलाई के लिए कार्य करता है। आज की वैश्विक चुनौतियों जैसे पर्यावरण संकट, सामाजिक असमानता, और हिंसा के समाधान के लिए गांधीवादी राज्य का सिद्धांत एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक हो सकता है। हालांकि, इसे आधुनिक आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप ढालना भी जरूरी है।** **========================================================================** **Question 9 (a)** **राज्य का नागरिकवादी दृष्टिकोण।** **राज्य का नागरिकवादी दृष्टिकोण (Civic View of State)** **राज्य का नागरिकवादी दृष्टिकोण (Civic View of State) एक ऐसी अवधारणा है जो राज्य और उसके नागरिकों के बीच के संबंधों को परिभाषित करती है। यह दृष्टिकोण नागरिकों की सक्रिय भागीदारी, उनके अधिकारों और कर्तव्यों, और राज्य के प्रति उनकी जिम्मेदारियों पर आधारित है। नागरिकवादी दृष्टिकोण यह मानता है कि राज्य का मुख्य उद्देश्य अपने नागरिकों के कल्याण को सुनिश्चित करना और उन्हें समानता, स्वतंत्रता और न्याय प्रदान करना है। इस विचार में राज्य को नागरिकों के हित में कार्य करने वाली एक संस्था माना गया है।** **1. राज्य का नागरिकवादी दृष्टिकोण: परिभाषा और मुख्य विचार** **(i) परिभाषा** **नागरिकवादी दृष्टिकोण के अनुसार, राज्य का मुख्य उद्देश्य अपने नागरिकों को अधिकार और कर्तव्य प्रदान करना और उनकी भलाई सुनिश्चित करना है। राज्य नागरिकों का सेवक है, न कि शासक। इस दृष्टिकोण में नागरिकों की भागीदारी को राज्य की सफलता के लिए महत्वपूर्ण माना गया है।** **(ii) मुख्य विचार** 1. **नागरिकों की समानता: सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर प्रदान करना।** 2. **नागरिकों की भागीदारी: राज्य के निर्णय लेने की प्रक्रिया में नागरिकों की सक्रिय भागीदारी।** 3. **अधिकार और कर्तव्य: नागरिकों को न केवल अधिकार प्राप्त होते हैं, बल्कि उनके कर्तव्य भी होते हैं।** 4. **न्याय और कल्याण: राज्य का उद्देश्य समाज में न्याय और समग्र कल्याण सुनिश्चित करना है।** 5. **लोकतांत्रिक मूल्य: यह दृष्टिकोण लोकतंत्र और लोगों की संप्रभुता को बढ़ावा देता है।** **2. नागरिकवादी दृष्टिकोण के तत्व** **(i) नागरिक स्वतंत्रता (Civil Liberties)** - **नागरिक स्वतंत्रता के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे अधिकार आते हैं।** - **राज्य को इन स्वतंत्रताओं की रक्षा करनी चाहिए और किसी भी प्रकार के दमन को रोकना चाहिए।** **(ii) समानता और न्याय (Equality and Justice)** - **सभी नागरिकों को जाति, धर्म, लिंग या आर्थिक स्थिति के आधार पर समान अवसर प्रदान करना।** - **राज्य को ऐसा तंत्र स्थापित करना चाहिए जो सामाजिक और आर्थिक न्याय को बढ़ावा दे।** **(iii) सक्रिय नागरिक भागीदारी (Active Citizenship)** - **नागरिक राज्य की नीतियों और निर्णयों में सक्रिय रूप से भाग लें।** - **इस दृष्टिकोण के अनुसार, राज्य की सफलता नागरिकों की जागरूकता और सक्रियता पर निर्भर करती है।** **(iv) सामाजिक कल्याण (Social Welfare)** - **नागरिकवादी दृष्टिकोण राज्य को कल्याणकारी संस्थान मानता है, जिसका मुख्य उद्देश्य अपने नागरिकों की भौतिक, सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करना है।** **3. नागरिकवादी दृष्टिकोण पर विचारकों के विचार** **(i) प्लेटो (Plato)** - **प्लेटो ने अपने ग्रंथ \"The Republic\" में आदर्श राज्य की परिकल्पना की, जहाँ राज्य नागरिकों की नैतिक और बौद्धिक उन्नति सुनिश्चित करता है।** - **उनके अनुसार, राज्य का उद्देश्य न्याय और समानता सुनिश्चित करना है।** **(ii) अरस्तू (Aristotle)** - **अरस्तू ने राज्य को \"मानव के नैतिक और सामाजिक विकास के लिए एक अनिवार्य इकाई\" माना।** - **उनके अनुसार, नागरिकों का उद्देश्य केवल अपने अधिकार प्राप्त करना नहीं, बल्कि राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना भी है।** **(iii) जॉन लॉक (John Locke)** - **जॉन लॉक नागरिकवादी दृष्टिकोण के प्रमुख समर्थक माने जाते हैं।** - **उन्होंने \"सामाजिक अनुबंध\" (Social Contract) का सिद्धांत दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि राज्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए बना है।** - **लॉक ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकारों पर बल दिया।** **(iv) रूसो (Jean-Jacques Rousseau)** - **रूसो ने \"सामाजिक अनुबंध\" में कहा कि राज्य नागरिकों की इच्छाओं और जरूरतों के अनुसार काम करता है।** - **उनके अनुसार, राज्य का मुख्य उद्देश्य \"सामान्य इच्छा\" (General Will) को पूरा करना है।** **(v) थॉमस हॉब्स (Thomas Hobbes)** - **हॉब्स ने राज्य को एक \"लेविथान\" के रूप में देखा, जो नागरिकों की सुरक्षा और सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी है।** - **हालांकि, उन्होंने राज्य को मजबूत और केंद्रीकृत बनाने की वकालत की, जो नागरिकवादी दृष्टिकोण से थोड़ा अलग है।** **(vi) महात्मा गांधी** - **गांधीजी ने राज्य और नागरिकों के बीच संबंधों को \"आत्मनिर्भरता\" और \"सत्य और अहिंसा\" पर आधारित किया।** - **उनके अनुसार, राज्य को नागरिकों के कल्याण के लिए कार्य करना चाहिए और नागरिकों को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।** **(vii) जॉन स्टुअर्ट मिल (John Stuart Mill)** - **मिल ने नागरिक स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बल दिया।** - **उन्होंने कहा कि राज्य को नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए और समाज में समानता सुनिश्चित करनी चाहिए।** **(viii) भीमराव अंबेडकर** - **डॉ. अंबेडकर ने राज्य को सामाजिक न्याय और नागरिक समानता के लिए एक उपकरण के रूप में देखा।** - **उन्होंने कहा कि राज्य का उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना और सामाजिक असमानताओं को समाप्त करना है।** **(ix) हेराल्ड लास्की (Harold Laski)** - **लास्की ने कहा कि राज्य का मुख्य कार्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें अवसर प्रदान करना है।** - **उन्होंने नागरिकों और राज्य के बीच एक संतुलित संबंध की आवश्यकता पर जोर दिया।** **(x) डॉ. राम मनोहर लोहिया** - **लोहिया ने राज्य को \"सामाजिक क्रांति\" का साधन माना।** - **उन्होंने कहा कि राज्य का उद्देश्य नागरिकों की भलाई और उनके अधिकारों की रक्षा करना है।** **4. नागरिकवादी दृष्टिकोण की विशेषताएँ** **(i) लोकतांत्रिक प्रक्रिया (Democratic Process)** - **यह दृष्टिकोण लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रक्रियाओं को बढ़ावा देता है।** - **नागरिकों की भागीदारी और पारदर्शिता इसकी मुख्य विशेषताएँ हैं।** **(ii) कल्याणकारी राज्य (Welfare State)** - **नागरिकवादी दृष्टिकोण राज्य को एक कल्याणकारी संस्थान मानता है, जो नागरिकों की भलाई के लिए काम करता है।** **(iii) अधिकार और कर्तव्य (Rights and Duties)** - **यह दृष्टिकोण नागरिकों को न केवल उनके अधिकारों की जानकारी देता है, बल्कि उनके कर्तव्यों की भी शिक्षा देता है।** **(iv) सामाजिक न्याय और समानता (Social Justice and Equality)** - **यह दृष्टिकोण सामाजिक असमानताओं को समाप्त करने और न्याय सुनिश्चित करने पर बल देता है।** **5. नागरिकवादी दृष्टिकोण के लाभ** 1. **नागरिक भागीदारी को बढ़ावा: यह दृष्टिकोण नागरिकों को राज्य की नीतियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करता है।** 2. **समानता की गारंटी: यह दृष्टिकोण सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर प्रदान करता है।** 3. **लोकतांत्रिक मूल्य: यह दृष्टिकोण लोकतंत्र को मजबूत करता है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है।** 4. **सामाजिक समरसता: यह दृष्टिकोण समाज में एकता और सामंजस्य बनाए रखता है।** **6. नागरिकवादी दृष्टिकोण की आलोचना** 1. **आदर्शवाद: यह दृष्टिकोण अत्यधिक आदर्शवादी है और इसे व्यावहारिक रूप से लागू करना कठिन हो सकता है।** 2. **सक्रिय नागरिकों की कमी: सभी नागरिक राज्य की नीतियों और प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने में सक्षम नहीं होते।** 3. **राज्य की सीमाएँ: यह दृष्टिकोण राज्य पर अत्यधिक निर्भरता को बढ़ावा दे सकता है।** 4. **वास्तविकता से दूर: यह दृष्टिकोण समाज के वर्ग संघर्ष और असमानताओं को पूरी तरह से संबोधित नहीं कर पाता।** **7. नागरिकवादी दृष्टिकोण की प्रासंगिकता** **आज के युग में नागरिकवादी दृष्टिकोण अत्यधिक प्रासंगिक है। यह एक ऐसा मार्गदर्शक है जो नागरिकों को उनके अधिकार और कर्तव्यों के प्रति जागरूक करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में यह दृष्टिकोण नागरिकों और राज्य के बीच सामंजस्य बनाए रखने में मदद करता है।** 1. **सतत विकास: नागरिकों की भागीदारी सतत विकास के लिए महत्वपूर्ण है।** 2. **सामाजिक न्याय: यह दृष्टिकोण समाज में न्याय और समानता सुनिश्चित करता है।** 3. **पर्यावरण संरक्षण: नागरिकों की भागीदारी पर्यावरण संरक्षण में सहायक होती है।** 4. **शासन की पारदर्शिता: यह दृष्टिकोण शासन को अधिक पारदर्शी और उत्तरदायी बनाता है।** **निष्कर्ष** **राज्य का नागरिकवादी दृष्टिकोण राज्य और उसके नागरिकों के बीच एक आदर्श संबंध की स्थापना करता है। यह दृष्टिकोण न केवल नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि उनके कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को भी स्पष्ट करता है। विभिन्न विचारकों ने इस दृष्टिकोण की सराहना की है और इसे एक न्यायपूर्ण, समान और कल्याणकार?