गुनाहों का देवता PDF

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Summary

यह गुनाहों का देवता नामक उपन्यास है, जो धमर्वीर भारत द्वारा लिखा गया है। यह उपन्यास इलाहाबाद के एक रोचक वातावरण और पात्रों की कहानी कहता है।

Full Transcript

गन ु ाह का दे वता धमर्वीर भारत धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 2 गुनाह का दे वता धमर ्वीर भा...

गन ु ाह का दे वता धमर्वीर भारत धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 2 गुनाह का दे वता धमर ्वीर भारत इस उपन्यास के नये संस्करण पर दो शब्द लखते समय म समझ नह ं पा रहाह क क्या लखूँ? अ धक-से-अ धक म अपनी हा दर ्क कृत ता उन सभी पाठक के प्र त व्यक्त कर सकता िजन्ह ने इसक कलात्मक अप रपक्वता के बावजूद इसको पसन्द कया है। मेरे लए इस उपन्या लखना वैसा ह रहा है जैसा पीड़ा के ण म पूर आस्था से प्राथर्ना , और इस समय भी मझ ु े ऐसा लग रहा है जैसे म वह प्राथर्ना-ह -मन दोहरा रहा हूँ, बस... - धमर्वीर भारत धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 3 भाग-१ अगर पुराने जमाने क नगर-दे वता क और ग्र-दे वता क कल्पनाएँ आज भी मान्य होतीं त म कहता क इलाहाबाद का नगर-दे वता जरूर कोई रोमैिण्टक कलाकार है। ऐसा लगता है क इस शहर क बनावट, गठन, िजंदगी और रहन-सहन म कोई बँधे-बँधाये नयम नह ं, कह ं कोई कसाव नह ं, हर जगह एक स्वच्छन्द खु, एक बखर हुई-सी अ नय मतता। बनारस क ग लय से भी पतल ग लयाँ और लखनऊ क सडक़ से चौड़ी सडक़ । याकर्शयर और ब्राइटन के उपनगर का मुकाबल करने वाले स वल लाइन्स और दलदल क गन्दगी को मात करने वाले मुहल्ले। मौसम म भी कह कोई सम नह ं, कोई सन्तुलन नह ं। सुबह मलयज, दोपहर अंगार , तो शाम रे शमी! धरती ऐसी क सहारा के रे गस्तान क तरह बालू भी मल, मालवा क तरह हरे -भरे खेत भी मल और ऊसर और परती क भी कमी नह ं। सचमुच लगता है क प्रयाग का न-दे वता स्वग-कंु ज से नवार् सत कोई मनमौजी कलाकार है िजसके सज ृ न म हर रंग के डोरे ह । और चाहे जो हो, मगर इधर क्वा, का तर्क तथा उधर वसन्त के बाद और होल के बीच मौसम से इलाहाबाद का वातावरण नैस्ट शर्यम और प जी के फूल से भ ी ज्याद खूबसूरत ा और के बौर क खुशबू से भी ज्यादा महकदार होता है। स वल लाइन्स हो या अल्फ्रेड , गग ं ातट हो या खुसरूबा, लगता है क हवा एक नटखट दोशीजा क तरह क लय के आँचल और लहर के मजाज से छे डख़ानी करती चलती है। और अगर आप सद से बहुत नह ं डरते तो आप जरा एक ओवरकोट डालकर सुबह-सुबह घूमने नकल जाएँ तो इन खुल हुई जगह क फजाँ इठलाकर आपको अपने जाद ू म बाँध लेगी। खासतौर से पौ फटने के पहले तो आपको एक बल्कुल नयी अनुभू त होगी। वसन्त नये-नये मौसमी फूल के रंग से मुकाबला करने वाल हल्क सुनहल, बाल-सूय् र क अँगु लयाँ सुबह क राजकुमार के गुलाबी व पर बखरे हुए भ राले गेसओ ु ं को धीरे -धीरे हटाती जाती ह और तज पर सनु हल तरुणाई बखर पड़ती है एक ऐसी ह खुशनुमा सब ु ह थी, और िजसक कहानी म कहने जा रहा हूँ, वह सुबह से भी ज्यादा मासूम युव, प्रभाती गाकर फूल को जगाने वाले देवदूत क तरह अल्फ्रेड पाकर् के ल फूल क सरजमीं के कनारे - कनारे घम ू रहा था। कत्थई स्वीटपी के रंग का पश्मीने का लम्बा, िजसका एक कालर उठा हुआ था और दसू रे कालर म सरो क एक पत्ती बटन होल म लगी हुई थ, सफेद मक्खन जीन क पतल प ट और पैर म सफेद जर क पेशावर सैिण्ड, भरा हुआ गोरा चेहरा और ऊँचे चमकते हुए माथे पर झूलती हुई एक रूखी भूर लट। चलत-चलते उसने एक रंग- बरंगा गुच्छा इकट्ठा कर लया था और-रह कर वह उसे सूँघ लेता था। पूरब के आसमान क गल ु ाबी पाँख रय ु ाँ बखरने लगी थीं और सन ु हले पराग क एक बौछार सुबह के ताजे फूल पर बछ रह थी। ''अरे सुबह हो गयी?'' उसने च ककर कहा और पास क एक ब च पर बैठ गया। सामने से एक माल आ रहा था। ''क्य ज, लाइब्रेर खुल ग?'' ''अभी नह ं बाबूजी!'' उसने जवाब दया। वह फर सन्तोष से बैठ गया और फूल क पाँखु रयाँ नोचकर नीचे फ कने लगा। धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 4 जमीन पर बछाने वाल सोने क चादर परत पर परत बछाती जा रह थी और पेड़ क छायाओं का रंग गहराने लगा था। उसक ब च के नीचे फूल क चन ु ी हुई पित्तयाँ बखर थीं और अब उसके पास सफर् एक फूल बाक रह गया था। हलके फालसई रंग के उस फूल पर गहरे ब जनी डोरे थे ''हलो कपूर!'' सहसा कसी ने पीछे से कन्धे पर हाथ रखकर कह, ''यहाँ क्या झक मार रहे हो सुबह-सुबह?'' उसने मुडक़र पीछे दे खा, ''आओ, ठाकुर साहब! आओ बैठो यार, लाइब्रेर खुलने का इन्तजार रहा हूँ।'' ''क्य, यू नव सर्ट लाइब्रेर चाट ड, अब इसे तो शर फ लोग के लए छोड़ दो!'' ''हाँ, हाँ, शर फ लोग ह के लए छोड़ रहा हूँ; डॉक्टर शुक्ला क लड़क है, वह इसक मेम्बर बनना चाहती थी तो मझ ु े आना पड़ा, उसी का इन्तजार भी कर रहा हूँ'' ''डॉक्टर शुक्ला तो पॉ ल टक्स डपाटर्म ट म?'' ''नह ं, गवनर्म ट साइकोलॉिजकल ब्यूरो म'' ''और तुम पॉ ल टक्स म रसचर् कर रहे ?'' ''नह ं, इकनॉ मक्स म!'' ''बहुत अच्छ ! तो उनक लड़क को सदस्य बनवाने आये ह?'' कुछ अजब स्र म ठाकुर ने कहा। '' छह!'' कपूर ने हँसते हुए, कुछ अपने को बचाते हुए कहा, ''यार, तुम जानते हो क मेरा उनसे कतना घरे लू सम्बन्ध है। जब से म प्रयाग म , उन्ह ं के सहारे हूँ और आजकल तो उन्ह ं के यहा पढ़ता- लखता भी हूँ...।'' ठाकुर साहब हँस पड़े, ''अरे भाई, म डॉक्टर शुक्ला को जानता नह ं क? उनका-सा भला आदमी मलना मुिश्कल है। तुम सफाई व्यथर् म दे रहे '' ठाकुर साहब यू नव सर्ट के उन वद्या थर्य म से थे जो बरायनाम वद्याथ होते ह और तक वे यू नव सर्ट को सुशो भत करते रह ग, इसका कोई नश्य नह ं। एक अच्छ -खासे रुपये वाले व्यिक्त थे और घर के ताल्लुकेदार। हँस, फिब्तयाँ कसने म मजा लेने वाल, मगर दल के साफ, नगाह के सच्चे। बोल- ''एक बात तो म स्वीकार करता हूँ क तुम्हार पढ़ाई का सारा श्रे. शक ु ्ला को ह! तुम्हारे घर वाले तो कुछ खचार भेजते नह ं?'' ''नह ं, उनसे अलग ह होकर आया था। समझ लो क इन्ह ने कस-न- कसी बहाने मदद क है।'' ''अच्छ, आओ, तब तक लोटस-प ड (कमल-सरोवर) तक ह घूम ल । फर लाइब्रेर भी खु जाएगी!'' दोन उठकर एक कृ त्रम क-सरोवर क ओर चल दये जो पास ह म बना हुआ था। सी ढय़ाँ चढक़र ह उन्ह ने देखा क एक सज्जन कनारे बैठे कमल क ओर एकटक देखते हुए ध्य म तल्ल न ह । छपकल से दुबल-पतले, बाल क एक लट माथे पर झूमती हुई- ''कोई प्रेमी , या कोई फलासफर ह , दे खा ठाकुर?'' ''नह ं यार, दोन से नकृष्ट को ट के जी ह -ये क व ह । म इन्ह जानता हूँ। ये रवीन् बस रया ह । एम. ए. म पढ़ता है। आओ, मलाएँ तुम्ह !'' ठाकुर साहब ने एक बड़ा-सा घास का तनका तोडक़र पीछे से चप ु के-से जाकर उसक गरदन गद ु गद ु ायी। बस रया च क उठा-पीछे मड ु क़र दे खा और बगड़ गया-''यह क्या बदतमीजी है, ठाकुर धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 5 साहब! म कतने गम्भीर वचार म डूबा था'' और सहसा बड़े व चत्र स्वर म आँख बन्द बस रया बोला, ''आह! कैसा मनोरम प्रभात ! मेर आत्मा म घोर अनुभू त हो रह थ...।'' कपूर बस रया क मुद्रा पर ठाकुर साहब क ओर देखकर मुसकराया और इरे म बोला, ''है यार शगल क चीज। छे ड़ो जरा!'' ठाकुर साहब ने तनका फ क दया और बोले, ''माफ करना, भाई बस रया! बात यह है क हम लोग क व तो ह नह ं, इस लए समझ नह ं पाते। क्या सोच रहे थे तु?'' बस रया ने आँख खोल ं और एक गहर साँस लेकर बोला, ''म सोच रहा था क आ खर प्रे क्या होता ह, क्य होता ह? क वता क्य लखी जाती ह? फर क वता के संग्रह उतने क्य नह ं बक िजतने उपन्यास या कहान-संग्?'' ''बात तो गम्भीर है'' कपूर बोला, ''जहाँ तक मन े समझा और पढ़ा है-प्रेम एक तरह क बीमार होती है , मान सक बीमार , जो मौसम बदलने के दन म होती है, मसलन क्वा-का तर्क या फागु-चत ै । उसका सम्बन्ध र ढ़ क हड्डी से होता है। और क वता एक तरह का सिन्नपात होता है। मेरा म आप समझ रहे ह , म. सब रया?'' '' सब रया नह ं, बस रया?'' ठाकुर साहब ने टोका। बस रया ने कुछ उजलत, कुछ परे शानी और कुछ गस्से से उन ु क ओर देखा और बोल, '' मा क िजएगा, आप या तो फ्रायडवाद ह या प्रग तवाद और आपके वचार सवर्दा वदेशी ह । म इस के वचार से घ ृणा करता हूँ...।'' कपूर कुछ जवाब दे ने ह वाला था क ठाकुर साहब बोले, ''अरे भाई, बेकार उलझ गये तुम लोग, पहले प रचय तो कर लो आपस म । ये ह श्री चन्द्रकुमार, वश्व वद्यालय म रसचर् कर र ह और आप ह श्री रवीन्द्र ब, इस वषर् ए. ए. म बैठ रहे ह । बहुत अच्छे क व ह '' कपूर ने हाथ मलाया और फर गम्भीरता से बोल, ''क्य साह, आपको द ु नया म और कोई काम नह ं रहा जो आप क वता करते ह ?'' बस रया ने ठाकुर साहब क ओर दे खा और बोला, ''ठाकुर साहब, यह मेरा अपमान है, म इस तरह के सवाल का आद नह ं हूँ।'' और उठ खड़ा हुआ। ''अरे बैठो-बैठो!'' ठाकुर साहब ने हाथ खींचकर बठा लया, ''दे खो, कपूर का मतलब तुम समझे नह ं। उसका कहना यह है क तुमम इतनी प्र तभा है क लोग तुम्हार प्र तभा का आदर करना जानते। इस लए उन्ह ने सहानुभू त म तुमसे कहा क तुम और कोई काम क्य नह ं करते। वरन कपूर साहब तम्हार क वता के बहुत शौ ु क न ह । मुझसे बराबर तार फ कते ह ।'' बस रया पघल गया और बोला, '' मा क िजएगा। मन े गलत समझा, अब मेरा क वता-संग्र छप रहा है, म आपको अवश्य भ ट करूँग'' और फर बस रया ठाकुर साहब क ओर मुडक़र बोला, ''अब लोग मेर क वताओं क इतनी माँग करते ह क म परे शान हो गया हूँ। अभी कल ' तवेणी' के सम्पादक मले। कहने लगे अपना चत्र दे दो। म ने कहा क कोई चत्र नह ं है तो पीछे पड़ आ खरकार म ने आइडेिण्टट काडर् उठाकर दे द!'' ''वाह!'' कपूर बोला, ''मान गये आपको हम! तो आप राष्ट्र य क वताएँ लखते ह या प्र?'' ''जब जैसा अवसर हो!'' ठाकुर साहब ने जड़ दया, ''वैसे तो यह वारफ्रण्ट का -सम्मेल, शराबबन्द कॉन्फ्रेन्स क-सम्मेल, शाद -ब्याह का क -सम्मेल, सा हत्-सम्मेलन का क - सम्मेलन सभी जगह बुलाये जाते ह । बड़ा यश है इनक!'' बस रया ने प्रशंसा से मुग्ध होकर द, मगर फर एक गवर का भाव मँह ु पर लाकर गम्भीर हो गया। धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 6 कपूर थोड़ी दे र चुप रहा, फर बोला, ''तो कुछ हम लोग को भी सन ु ाइए न!'' ''अभी तो मड ू नह ं है।'' बस रया बोला। ठाकुर साहब बस रया को पछले पाँच साल से जानते थे, वे अच्छ तरह जानते थे क बस रया कस समय और कैसे क वता सुनाता है। अत: बोले, ''ऐसे नह ं कपूर, आज शाम को आओ। ज़रा गंगाजी चल , कुछ बो टंग रहे , कुछ खाना-पीना रहे तब क वता भी सुनना!'' कपूर को बो टंग का बेहद शौक था। फौरन राजी हो गया और शाम का वस्तृत कायर्क्रम गया। इतने म एक कार उधर से लाइब्रेर क ओर गुजर । कप ने दे खा और बोला, ''अच्छ, ठाकुर साहब, मुझे तो इजाजत द िजए। अब चलूँ लाइब्रेर म । वो लोग आ गये। आप कहाँ चल रहे ?'' ''म ज़रा िजमखाने क ओर जा रहा हूँ। अच्छा भा, तो शाम को पक्क रह '' '' बल्कुल पक्!'' कपूर बोला और चल दया। लाइब्रेर के पो टर्को कार रुक थी और उसके अन्दर ह डॉक्टर साहब क लड़क बैठ ''क्य सुध, अन्दर क्य बैठ ?'' ''तुम्ह ह देख रह थ, चन्दर'' और वह उतर आयी। दबल ु -पतल , नाट -सी, साधारण-सी लड़क , बहुत सन ु ्दर नह , केवल सन ु ्द, ले कन बातचीत म बहुत दल ु ार । ''चलो, अन्दर चलो'' चन्दर ने कहा वह आगे बढ़ , फर ठठक गयी और बोल , ''चन्द, एक आदमी को चार कताब मलती ह ?'' ''हाँ! क्य?'' ''तो...तो...'' उसने बड़े भोलेपन से मुसकराते हुए कहा, ''तो तुम अपने नाम से मेम्बर बन जाओ और दो कताब हम दे दया करना बस, ज्यादा क हम क्या कर ग?'' ''नह ं!'' चन्दर हँस, ''तुम्हारा तो दमाग खराब है। खुद क्य नह ं बनतीं मेम?'' ''नह ं, हम शरम लगती है , तुम बन जाओ मेम्बर हमार जगह पर'' ''पगल कह ं क !'' चन्दर ने उसका कन्धा पकडक़र आगे ले चलते हुए क, ''वाह रे शरम! अभी कल ब्याह हगा तो कहना, हमार जगह तुम बैठ जाओ चन्द! कॉलेज म पहुँच गयी लड़क ; अभी शरम नह ं छूट इसक ! चल अन्द!'' और वह हचकती, ठठकती, झ पती और मुड़-मुडक़र चन्दर क ओर रूठ हुई नगाह से देखत हुई अन्दर चल गयी थोड़ी दे र बाद सध ु ा चार कताब लादे हुए नकल । कपूर ने कहा, ''लाओ, म ले लूँ!'' तो बाँस क पतल टहनी क तरह लहराकर बोल , ''सदस्य म हूँ। तुम्ह क्य दूँ कत?'' और जाकर कार के अन्दर कताब पटक द ं। फर बोल , ''आओ, बैठो, चन्द!'' ''म अब घर जाऊँगा।'' ''ऊँहूँ, यह दे खो!'' और उसने भीतर से कागज का एक बंडल नकाला और बोल , ''दे खो, यह पापा ने तुम्हारे लए दया है। लखनऊ म कॉन्फ्रेन्स है न। वह ं पढऩे के लए यह नबन्ध लखा है उन शाम तक यह टाइप हो जाना चा हए। जहाँ संख्याएँ ह वहाँ खुद आपको बैठकर बोलना होगा। और पापा सुबह से ह कह ं गये ह । समझे जनाब!'' उसने बल्कुल अल्हड़ बच्च क तरह गरदन हला शोख स्वर म कहा कपूर ने बंडल ले लया और कुछ सोचता हुआ बोला, ''ले कन डॉक्टर साहब का हस्तल, इतने पषृ ्, शाम तक कौन टाइप कर दे गा?'' धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 7 ''इसका भी इन्तजाम ह,'' और अपने ब्लाउज म से एक पत्र नकालकर चन्द हाथ म दे ती हुई बोल , ''यह कोई पापा क परु ानी ईसाई छात्रा है। टाइ पस्ट। इसके घर म तुम्ह पहुँचाये देती ह मुकज रोड पर रहती है यह। उसी के यहाँ टाइप करवा लेना और यह खत उसे दे दे ना।'' ''ले कन अभी म ने चाय नह ं पी।'' ''समझ गये, अब तुम सोच रहे होगे क इसी बहाने सुधा तुम्ह चाय भी पला देगी। सो मेरा काम नह ं है जो म चाय पलाऊँ? पापा का काम है यह! चलो, आओ!'' चन्दर जाकर भीतर बैठ गया और कताब उठाकर देखने लग, ''अरे , चार क वता क कताब उठा लायी-समझ म आएँगी तुम्हार ? क्य, सुधा?'' ''नह ं!'' चढ़ाते हुए सुधा बोल , ''तुम कहो, तुम्ह समझा द । इकनॉ मक्स पढऩे वाले क्या जा सा हत्?'' ''अरे , मुकज रोड पर ले चलो, ड्राइ!'' चन्दर बोल, ''इधर कहाँ चल रहे हो?'' ''नह ं, पहले घर चलो!'' सुधा बोल , ''चाय पी लो, तब जाना!'' ''नह ं, म चाय नह ं पऊँगा।'' चन्दर बोला ''चाय नह ं पऊँगा, वाह! वाह!'' सुधा क हँसी म द ू धया बचपन छलक उठा-''मँह ु तो सूखकर गोभी हो रहा है , चाय नह ं पएँगे।'' बँगला आया तो सुधा ने महरािजन से चाय बनाने के लए कहा और चन्दर को स्टडी रूम बठाकर प्याले नकालने के लए चल द वैसे तो यह घर, यह प रवार चन्द्र कपूर का अपना हो चुका; जब से वह अपनी माँ से झगडक़र प्रयाग भाग आया था पढऩे के , यहाँ आकर बी. ए. म भरती हुआ था और कम खचर् के खयाल से चौक म एक कमरा लेकर रहता था, तभी डॉक्टर शुक्ला उसके सी नयर ट चर थे और उसक प रिस्थ तय से अवग थे। चन्दर क अँग्रेजी बहुत ह अच्छ थी औ. शक ु ्ला उससे अक्सर छो- छोटे लेख लखवाकर प त्रकाओं म भजवाते थे। उन्ह ने कई पत्र के आ थर्क स्तम्भ का क को दलवा दया था और उसके बाद चन्दर के लए ड. शक ु ्ला का स्थान अपने संर क और पता स भी ज्याद हो गया था। चन्दर शरमीला लड़का थ, बेहद शरमीला, कभी उसने यू नव सर्ट के वजीफे के लए भी को शश न क थी, ले कन जब बी. ए. म वह सार यू नव सर्ट म सवर्प्रथम आया तब स इकनॉ मक्स वभाग ने उसे यू नव सर्ट के आ थर्क प्रकाशन का वैत नक सम्पादक बना द एम. ए. म भी वह सवर्प्रथम आया और उस के बाद उसने रसचर् ले ल । उसके बा. शक ु ्ला यू नव सर्ट से हटकर ब्यूरो म चले गये थे। अगर सच पूछा जाय तो उसके सारे कै रयर का श्रे. शक ु ्ला को था िजन्ह ने हमेशा उसक हम्मत बढ़ायी और उसको अपने लड़के से बढक़र मा अपनी सार मदद के बावजूद डॉ. शक ु ्ला ने उससे इतना अपनापन बनाये रखा क कैसे धीर-धीरे चन्दर सार गै रयत खो बैठा; यह उसे खद ु नह ं मालूम। यह बँगला, इसके कमरे , इसके लॉन, इसक कताब , इसके नवासी, सभी कुछ जैसे उसके अपने थे और सभी का उससे जाने कतने जन्म का समन्ध था और यह नन्ह दुबल-पतल रंगीन चन्द्र -सी सुधा। जब आज से वष पहले यह सातवीं पास करके अपनी बुआ के पास से यहाँ आयी थी तब से लेकर आज तक कैसे वह भी चन्दर क अपनी होती गयी थी, इसे चन्दर खुद नह ं जानता था। जब वह आयी थी तब वह बहुत शरमील थ, बहुत भोल थी, आठवीं म पढऩे के बावजद ू वह खाना खाते वक्त रोती थ, मचलती थी तो अपनी कॉपी फाड़ डालती थी और जब तक डॉक्टर साहब उसे गोद म बठाकर नह ं मनाते थ, वह स्कूल नह ं जाती थी। तीन बरस क अवस्था म ह उसक माँ चल बसी थी और दस साल तक वह अपनी बुआ के पास एक गाँव म रह थी। अब तेरह वषर् क होने पर गाँव वाल ने उसक शाद पर जोर देना और धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 8 शाद न होने पर गाँव क औरत ने हाथ नचाना और मँह ु मटकाना शर ु ू कया तो डॉक्टर साहब न उसे इलाहाबाद बल ु ाकर आठवीं म भत करा दया। जब वह आयी थी तो आधी जंगल थी, तरकार म घी कम होने पर वह महरािजन का चौका जूठा कर दे ती थी और रात म फूल तोडक़र न लाने पर अकसर उसने माल को दाँत भी काट खाया था। चन्दर से जरूर वह बेहद डरती , पर न जाने क्य चन्दर भी उससे नह ं बोलता था। ले कन जब दो साल तक उसके ये उपद्रव जार रहे और अक डॉक्टर साहब गुस् के मारे उसे न साथ खलाते थे और न उससे बोलते थे, तो वह रो-रोकर और सर पटक-पटककर अपनी जान आधी कर दे ती थी। तब अक्सर चन्दर ने पता और पुत्री का समझ कराया था, अक्सर सुधा को डाँटा थ, समझाया था, और सुधा, घर-भर से अल्हड़ पुरवाई और वद्रो झ के क तरह तोड़-फोड़ मचाती रहने वाल सुधा, चन्दर क आँख के इशारे पर सुबह क नसीम क तरह शान्त हो जाती थी। कब और क्य उसने चन्दर के इशार का यह मौन अनुशासन स्वी कार लया था, यह उसे खुद नह ं मालूम था, और यह सभी कुछ इतने स्वाभा वक ढंग स, इतना अपने-आप होता गया क दोन म से कोई भी इस प्र क्रया से वा कफ नह , कोई भी इसके प्र त जागरूक था, दोन का एक-दस ू रे के प्र त अ धकार और आकषर्ण इतना स्वाभा वक था जैसे शरद क प व या सुबह क रोशनी। और मजा तो यह था क चन्दर क शक्ल देखकर छप जाने वाल सुधा इतनी ढ ठ हो गय थी क उसका सारा वद्र, सार झँझल ु ाहट, मजाज क सार तेजी, सारा तीखापन और सारा लड़ाई- झगड़ा, सभी क तरफ से हटकर चन्दर क ओर केिन्द्रत हो गया था। वह वद्रो हनी अब शा गयी थी। इतनी शान्, इतनी सुशील, इतनी वनम, इतनी मष्टभा षणी क सभी को देखकर ताज्जु होता था, ले कन चन्दर को देखकर जैसे उसका बचपन फर लौट आता था और जब तक वह चन्द को खझाकर, छे डक़र लड़ नह ं लेती थी उसे चैन नह ं पड़ता था। अक्सर दोन म अनबोला रहता थ, ले कन जब दो दन तक दोन मँह ु फुलाये रहते थे और डॉक्टर साहब के लौटने पर सुधा उत्साह स उनके ब्यूरो का हाल नह ं पूछती थी और खाते वक्त दुलार नह ं दखाती थी तो डॉक्टर साहब फौ पूछते थे, ''क्य... चन्दर से लड़ाई हो गयी क्?'' फर वह मँह ु फुलाकर शकायत करती थी और शकायत भी क्य-क्या होती थी, चन्दर ने उसक हेड मस्ट्रेस का नाम एल फ(श्रीमतह थनी) रखा था, या चन्दर ने उसको डबेट के भाषण के प्वाइंट नह ं बता, या चन्दर कहता है क सुधा क स खयाँ कोयला बेचती ह , और जब डॉक्टर साहब कहते ह क वह चन्दर को डाँट द गे तो वह खुशी स फूल उठती और चन्दर के आने पर आँख नचाती हुई चढ़ाती थ, ''कहो, कैसी डाँट पड़ी?'' वैसे सध ु ा अपने घर क परु खन थी। कस मौसम म कौन-सी तरकार पापा को मा फक पड़ती है , बाजार म चीज का क्या भाव ह, नौकर चोर तो नह ं करता, पापा कतने सोसाय टय के मेम्बर ह, चन्दर के इक्नॉ मक्स के कोसर् म क्, यह सभी उसे मालूम था। मोटर या बजल बगड़ जाने पर वह थोड़ी-बहुत इंजी नय रंग भी कर लेती थी और मात ृत्व का अंश तो उसम इतना था क हर नौकर और नौकरानी उससे अपना सख ु -द:ु ख कह दे ते थे। पढ़ाई के साथ-साथ घर का सारा काम-काज करते हुए उसका स्वास्थ्य भी कुछ बगड़ गया था और अपनी उम्र के हस कुछ अ धक शान्, संयम, गम्भीर और बुजुगर् , मगर अपने पापा और चन्द, इन दोन के सामने हमेशा उसका बचपन इठलाने लगता था। दोन के सामने उसका हृदय उन्मुक्त था और स्नेह बाधा ले कन हाँ, एक बात थी। उसे िजतना स्नेह और स्न-भर फटकार और स्वास्थ्य के प चन्ता अपने पापा से मलती थ, वह सब बड़े न:स्वाथर् भाव से वह चन्दर को दे डालती थी। ख- पीने क िजतनी परवाह उसके पापा उसक रखते थे, न खाने पर या कम खाने पर उसे िजतने दल ु ार से फटकारते थे, उतना ह ख्याल वह चन्दर का रखती थी और स्वास्थ्य के लए जो उपदेश उपा धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 9 से मलते थे, उसे और भी स्नेह म पागकर वह चन्दर को दे डालती थी। चन्दर कै बजे खाना खाता, यहाँ से जाकर घर पर कतनी दे र पढ़ता है, रात को सोते वक्त दूध पीता है या नह , इन सबका लेखा- जोखा उसे सध ु ा को दे ना पड़ता, और जब कभी उसके खाने-पीने म कोई कमी रह जाती तो उसे सुधा क डाँट खानी ह पड़ती थी। पापा के लए सुधा अभी बच्ची थ; और स्वास्थ्य के मामले म सुधा लए चन्दर अभी बच्चा था। और क-कभी तो सध ु ा क स्वास्- चन्ता इतनी ज्यादा हो जाती थ क चन्दर बेचारा जो खुद तन्दुरुस्, घबरा उठता था। एक बार सुधा ने कमाल कर दया। उसक तबीयत खराब हुई और डॉक्टर ने उसे लड़ कय का एक टॉ नक पीने के लए बताया। इम्तहान म जब चन्दर कुछ दुबल-सा हो गया तो सुधा अपनी बची हुई दवा ले आयी। और लगी चन्दर से िजद करने क '' पयो इसे!'' जब चन्दर ने कसी अखबार म उसका व ापन दखाक बताया क लड़ कय के लए है , तब कह ं जाकर उसक जान बची। इसी लए जब आज सुधा ने चाय के लए कहा तो उसक रूह काँप गयी क्य क जब कभ सुधा चाय बनाती थी तो प्याले के मुँह तक दूध भरकर उसम द-तीन चम्मच चाय का पानी डाल दे ती थी और अगर उसने ज्यादा स्ट्रांग चाय क ग क तो उसे खा लस दध ू पीना पड़ता था। और चाय के साथ फल और मेवा और खुदा जाने क्य-क्य, और उसके बाद सुधा का इसरार, न खाने पर सध ु ा का गस्सा और उसके बाद ु क लम्-चौड़ी मनह ु ार; इस सबसे चन्दर बहुत घबराता था। ले कन जब सुधा उसे स्टडी रूम म बठाकर जल्द से बना लायी तो उसे मजबूर होना पड़ा, और बैठे -बैठे नहायत बेबसी से उसने दे खा क सुधा ने प्याले म दूध डाला और उसके बाद थोड़-सी चाय डाल द । उसके बाद अपने प्याले म चाय डालकर और दो चम्मच दूध डालकर आप ठाठ से पीने ल, और बेतकल्लुफ से दू धया चाय का प्याला चर के सामने खसकाकर बोल , ''पीिजए, नाश्ता आ रहा है'' चन्दर ने प्याले को अपने सामने रखा और उसे चार तरफ घुमाकर देखता रहा क क तरफ से उसे चाय का अंश मल सकता है। जब सभी ओर से प्याले म ीरसागर नजर आया तो उसने हारकर प्याला रख दया ''क्य, पीते क्य ह ं?'' सध ु ा ने अपना प्याला रख दया ''पीएँ क्य? कह ं चाय भी हो?'' ''तो और क्या खा लस चाय पीिजएग? दमागी काम करने वाल को ऐसी ह चाय पीनी चा हए।'' ''तो अब मुझे सोचना पड़ेगा क म चाय छोड़ूँ या रसचर्। न ऐसी चाय मुझे पसन, न ऐसा दमागी काम!'' ''लो, आपको वश्वास नह ं होता। मेर क्लासफेलो है गेसू काज; सबसे तेज लड़क है, उसक अम्मी उसे दूध म चाय उबालकर देती है'' ''क्या नाम है तुम्हार सखी ?'' ''गेसू!'' ''बड़ा अच्छा नाम ह!'' ''और क्य! मेर सबसे घ नष्ठ मत्र है और उतनी ह अच्छ है िजतना अच्छ!'' ''जरू-जरू,'' मँहु बचकाते हुए चन्दर ने कह, ''और उतनी ह काल होगी, िजतने काले गेसू।'' ''धत ्, शरम नह ं आती कसी लड़क के लए ऐसा कहते हुए!'' ''और हमारे दोस्त क बुराई करती हो त?'' ''तब क्य! वे तो सब ह ह बुरे! अच्छा तो नाश्, पहले फल खाओ,'' और वह प्लेट म छ - छ लकर सन्तरा रखने लगी। इतने म ज्य ह वह झुककर एक गरे हुए सन्तरे को नीचे से उठा धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 10 लगी क चन्दर ने झट से उसका प्याला अपने सामने रख लया और अपना प्याला उधर रख द और शान्त चत्त से पीने लगा। सन्तरे क फाँक उसक ओर बढ़ाते हुए ज्य ह एक घूँट चाय ल तो वह च ककर बोल , ''अरे , यह क्या हु?'' ''कुछ नह ं, हमने उसम दध ू डाल दया। तुम्ह दमागी काम बहुत रहता ह !'' चन्दर ने ठाठ से चाय घूँटते हुए कहा। सुधा कुढ़ गयी। कुछ बोल नह ं। चाय खत्म करके चन्दर ने घड़ी देख ''अच्छा ला, क्या टाइप करना है? अब बहुत दे र हो रह है।'' ''बस यहाँ तो एक मनट बैठना बरु ा लगता है आपको! हम कहते ह क नाश्ते और खाने के वक्त आदमी को जल्द नह ं करनी चा हए। बै ठए!'' ''अरे , तो तुम्ह कॉलेज क तैयार नह ं करनी ह?'' ''करनी क्य नह ं है। आज तो गेसू को मोटर पर लेत हुए तब जाना है!'' ''तुम्हार गेसू और कभी मोटर पर चढ़ ह ?'' ''जी, वह सा बर हुसैन काजमी क लड़क है, उसके यहाँ दो मोटर ह और रोज तो उसके यहाँ दावत होती रहती ह ।'' ''अच्छ, हमार तो दावत कभी नह ं क ?'' ''अहा हा, गेसू के यहाँ दावत खाएँगे! इसी मँह ु से! जनाब उसक शाद भी तय हो गयी है , अगले जाड़ तक शायद हो भी जाय।'' '' छह, बड़ी खराब लड़क हो! कहाँ रहता है ध्यान तुम्हा?'' सुधा ने मजाक म परािजत कर बहुत वजय-भर मुसकान से उसक ओर दे खा। चन्दर ने झ पकर नगाह नीची कर ल तो सुधा पास आकर चन्दर का कन्धपकडक़र बोल -''अरे उदास हो गये, नह ं भइया, तुम्हारा भी ब्याह तय कराएँ, घबराते क्य ह!'' और एक मोट -सी इकनॉ मक्स क कताब उठाकर बोल , ''लो, इस मुटक से ब्याह करोग! लो बातचीत कर लो, तब तक म वह नबन्ध ले आऊ , टाइप कराने वाला।'' चन्दर ने ख सयाकर बड़ी जर से सध ु ा का हाथ दबा दया। ''हाय रे !'' सध ु ा ने हाथ छुड़ाकर मँह ु बनाते हुए कहा, ''लो बाबा, हम जा रहे ह , काहे बगड़ रहे ह आप?'' और वह चल गयी! डॉक्टर साहब का लखा हुआ नबन्ध उठा लायी और बोल, ''लो, यह नबन्ध क पाण्डु ल प ह'' उसके बाद चन्दर क ओर बड़ेदल ु ार से दे खती हुई बोल , ''शाम को आओगे?'' ''न!'' ''अच्छ, हम परे शान नह ं कर गे। तम ु चप ु चाप पढऩा। जब रात को पापा आ जाएँ तो उन्ह नबन्ध क प्र त ल प देकर चले ज!'' ''नह ं, आज शाम को मेर दावत है ठाकुर साहब के यहाँ।'' ''तो उसके बाद आ जाना। और दे खो, अब फरवर आ गयी है, मास्टर ढूँढ़ दो हम '' ''नह ं, ये सब झूठ बात है। हम कल सुबह आएँगे।'' ''अच्छ, तो सुबह जल्द आना और देख, मास्टर लाना मत भूलना। ड्राइवर तुम्ह मुकज पहुँचा दे गा।'' वह कार म बैठ गया और कार स्टाटर् हो गयी क फर सुधा ने पुकारा। वह उतरा। सुधा बोल , ''लो, यह लफाफा तो भूल ह गये थे। पापा ने लख दया है। उसे दे दे ना।'' ''अच्छा'' कहकर फर चन्दर चला क फर सुधा ने पुकार, ''सुनो!'' ''एक बार म क्य नह ं कह देती स!'' चन्दर ने झल्लाकर कह धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 11 ''अरे बड़ी गम्भीर बात है। देख, वहाँ कुछ ऐसी-वैसी बात मत कहना लड़क से, वरना उसके यहाँ दो बड़े-बड़े बल ु डॉग ह ।'' कहकर उसने गाल फुलाकर, आँख फैलाकर ऐसी बल ु डॉग क भं गमा बनायी क चन्दर हँस पड़ा। सुधा भी हँस पड़ी ऐसी थी सुधा, और ऐसा था चन्दर स वल लाइन्स के एक उजाड़ हस्से म एक पुरा-से बँगले के सामने आकर मोटर रुक । बँगले का नाम था 'रोजलान' ले कन सामने के कम्पाउंड म जंगल घास उग रह थी और गुलाब के फूल के बजाय अहाते म मरु गी के पंख बखरे पड़े थे। रास्ते पर भी घास उग आयी थी और और फाटक पर, िजसके एक खम्भे क कॉ नर्स टूट चुक , बजाय लोहे के दरवाजे के दो आड़े बाँस लगे हुए थे। फाटक के एक ओर एक छोटा-सा लकड़ी का नामपटल लगा था, जो कभी काला रहा होगा, ले कन िजसे धूल, बरसात और हवा ने चतकबरा बना दया था। चन्दर मोटर से उतरकर उस बोडर् प लखे हुए अध मटे सफेद अ र को पढऩे क को शश करने लगा, और जाने कसका मँह ु दे खकर सुबह उठा था क उसे सफलता भी मल गयी। उस पर लखा था, 'ए. एफ. डक्र'। उसने जेब से लफाफा नकाला और पता मलाया। लफाफे पर लखा था, ' मस पी. डक्र'। यह बँगला है, उसे सन्तोष हुआ ''हॉनर दो!'' उसने ड्राइवर से कहा। ड्राइवर ने हॉनर् दया। ले कन कसी का बाहर आना त, एक मरु गा, जो अहाते म कुडक़ुड़ा रहा था, उसने मड ु क़र बड़े सन्देह और त्रास से चन्दर क ओर द और उसके बाद पंख फडफ़ड़ाते हुए, चीखते हुए जान छोडक़र भागा। ''बड़ा मनहूस बँगला है, यहाँ आदमी रहते ह या प्र?'' कपूर ने ऊबकर कहा और ड्राइवर से बो, ''जाओ तम ु , हम अन्दर जाकर दे खते ह !'' ''अच्छा हुजू, सुधा बीबी से क्या कह द ग?'' ''कह दे ना, पहुँचा दया।'' कार मुड़ी और कपूर बाँस फाँदकर अन्दर घुसा। आगे का पो टर्को खाल पड़ा था और नी क जमीन ऐसी थी जैसे कई साल से उस बँगले म कोई सवार गाड़ी न आयी हो। वह बरामदे म गया। दरवाजे बन्द थे और उन पर धूल जमी थी। एक जगह चौखट और दरवाजे के बीच म मकड़ी ने जाला बुन रखा था। 'यह बँगला खाल है क्य?' कपूर ने सोचा। सुबह साढ़े आठ बजे ह वहाँ ऐसा सन्नटा छाया था क दल घबरा जाय। आस-पास चार ओर आधी फला ग तक कोई बँगला नह ं था। उसने सोचा बँगले के पीछे क ओर शायद नौकर क झ प डय़ाँ ह । वह दाय बाजू से मुड़ा और खुशबू का एक तेज झ का उसे चूमता हुआ नकल गया। 'ताज्जुब ह, यह सन्नाट, यह मनहूसी और इतनी खशबू ु !' कपूर ने कहा और आगे बढ़ा तो दे खा क बँगले के पछवाड़े गल ु ाब का एक बहुत खूबसूरत बाग है। कच्ची र वश और बड़-बड़े गुलाब, हर रंग के। वह सचमुच 'रोजलान' था। वह बाग म पहुँचा। उधर से भी बँगले के दरवाजे बन्द थे। उसने खटखटाया ले कन कोई जवाब नह ं मला। वह बाग म घस ु ा क शायद कोई माल काम कर रहा हो। बीच-बीच म ऊँचे-ऊँचे जंगल चमेल के झाड़ थे और कह ं-कह ं लोहे क छड़ के कटघरे । बेगमबे लया भी फूल रह थी ले कन चार ओर एक अजब-सा सन्नाटा था और हर फूल पर कसी खामोशी के फ रश्ते क छाँह थी फूल म रंग था, हवा म ताजगी थी, पेड़ म ह रयाल थी, झ क म खुशबू थी, ले कन फर भी सारा बाग एक ऐसे सतार का गुलदस्ता लग रहा था िजनक चम, िजनक रोशनी और िजनक ऊँचाई लट ु चक ु हो। लगता था जैसे बाग का मा लक मौसमी रंगीनी भूल चक ु ा हो, क्य क नैस्ट शर्यम स्वीटपी या फ्लाक, कोई भी मौसमी फूल न था, सफर् गुलाब थे और जंगल चमेल थी और बेगमबे लया थी जो साल पहले बोये गये थे। उसके बाद उन्ह ं क का-छाँट पर बाग चल रहा था। बागबानी म कोई नवीनता और मौसम का उल्लास न था धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 12 चन्दर फूल का बेहद शौक न था। सुबह घूमने के लए उसने रया कनारे के बजाय अल्फ्र पाकर् चुना था क्य क पानी क लहर के बजाय उस े फूल के बाग के रंग और सौरभ क लहर स बेहद प्यार था। और उसे दूसरा शौक था क फूल के पौध के पास से गुजरते हुए हर फूल को समझने क को शश करना। अपनी नाजुक टह नय पर हँसते-मुसकराते हुए ये फूल जैसे अपने रंग क बोल म आदमी से िजंदगी का जाने कौन-सा राज कहना चाहते ह । और ऐसा लगता है क जैसे हर फूल के पास अपना व्यिक्तगत सन्देश है िजसे वह अपने दल क पाँखु रय म आ हस्ते से स कर रखे हुए ह क कोई सुनने वाला मले और वह अपनी दास्ताँ कह जाए। पौधे क ऊपर फुनगी पर मुसकराता हुआ आसमान क तरफ मँह ु कये हुए यह गल ु ाब जो रात-भर सतार क मस ु कराहट चुपचाप पीता रहा है , यह अपने मो तय -पाँखु रय के होठ से जाने क्य खल खलाता ह जा रहा है। जाने इसे कौन-सा रहस्य मल गया है। और वह एक नीच वाल टहनी म आधा झक ु ा हुआ गलु ाब, झुक हुई पलक -सी पाँखु रयाँ और दोहरे मखमल तार-सी उसक डड ं ी, यह गुलाब जाने क्य उदास ह? और यह दबल ु -पतल लम्ब-सी नाजुक कल जो बहुत सावधानी से हरा आँचल लपेटे है और प्रथ ात-यौवना क तरह लाज म जो समट तो समट ह चल जा रह है, ले कन िजसके यौवन क गुलाबी लपट सात हरे परद म से झलक ह पड़ती ह , झलक ह पड़ती ह । और फारस के शाहजादे जैसा शान से खला हुआ पीला गल ु ाब! उस पीले गल ु ाब के पास आकर चन्दर रुक गया और झुकक दे खने लगा। का तक पनू ो के चाँद से झरने वाले अमत ृ को पीने के लए व्याकुल कसी सुकुमा, भावुक पर क फैल हुई अंज ल के बराबर बड़ा-सा वह फूल जैसे रोशनी बखेर रहा था। बेगमबे लया के कंु ज से छनकर आनेवाल तोतापंखी धूप ने जैसे उस पर धान-पान क तरह खुशनुमा ह रयाल बखेर द थी। चन्दर ने सोच, उसे तोड़ ल ले कन हम्त न पड़ी। वह झुका क उसे सूँघ ह ल । सूँघने के इरादे से उसने हाथ बढ़ाया ह था क कसी ने पीछे से गरजकर कहा, ''ह यर यू आर, आई है व काट रे ड-है ण्डेड टुड!'' (यह तुम हो; आज तुम्ह मौके पर पकड़ पाया हू) और उसके बाद कसी ने अपने दोन हाथ म जकड़ लया और उसक गरदन पर सवार हो गया। वह उछल पड़ा और अपने को छुड़ाने क को शश करने लगा। पहले तो वह कुछ समझ नह ं पाया। अजब रहस्यमय है यह बँगला। एक अव्यक्त भय और एक सहरन म उसके -पाँव ढ ले हो गये। ले कन उसने हम्मत करके अपना एक हाथ छुड़ा लया और मुडक़र देखा तो एक हुत कमजोर, बीमार-सा, पील आँख वाला गोरा उसे पकड़े हुए था। चन्दर के दूसरे हाथ को फर पकडऩे क को शश करता हुआ वह हाँफता हुआ बोला (अँग्रेजी ), ''रोज-रोज यहाँ से फूल गायब होते थे। म कहता था, कहता था, कौन ले जाता है। हो...हो...,'' वह हाँफता जा रहा था, ''आज मन े पकड़ा तम्ह । रोज चुपके से ु चले जाते थे...'' वह चन्दर को कसकर पकड़े था ले कन उस बीमार गोरे क साँस जैसे छूट जा रह थी। चन्दर ने उसे झटका देकर धकेल दया और डाँटकर बोल, ''क्या मतलब है तुम्हा! पागल है क्य! खबरदार जो हाथ बढ़ाया, अभी ढे र कर दूँगा तझ ु !े गोरा सअ ु र!'' और उसने अपनी आस्तीन चढ़ायीं। वह धक्के से गर गया थ, धूल झाड़ते उठ बैठा और बड़ी ह रोनी आवाज म बोला, '' कतना जुल्म ह, कतना जुल्म ह! मेरे फूल भी तुम चुरा ले गये और मुझे इतना हक भी नह ं क तुम्ह धमकाऊँ! अब तुम मुझसे लड़ोगे! तुम जवान हो, म बूढ़ा हूँ। हाय रे म !'' और सचमुच वह जैसे रोने लगा हो। चन्दर ने उसका रोना देखा और उसका सारा गुस्सा हवा हो गया औरहँस ी रोककर बो, ''गलतफहमी है , जनाब! म बहुत द ूर रहता हूँ। म चठ्ठी लेकर मस डक्रूज से मलने आया'' धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 13 उसका रोना नह ं रुक, ''तुम बहाना बनाते हो, बहाना बनाते हो और अगर म वश्वास नह ं करता तो तम ु मारने क धमक दे ते हो? अगर म कमजोर न होता...तो तम्ह पीसकर ु खा जाता और तुम्हार खोपड़ी कुचलकर फ क देता जैसे तुमने मेरे फूल फ के ह ग?'' '' फर तुमने गाल द ! म उठाकर तुम्ह अभीनाले म फ क दूँगा!'' ''अरे बाप रे ! दौड़ो, दौड़ो, मुझे मार डाला...पॉपी...टॉमी...अरे दोन कुत्ते मर गय...।'' उसने डर के मारे चीखना शर ु ू कया ''क्या ह, बट ? क्य चल्ला रहे ?'' बाथरूम के अन्दर से कसी ने चल्लाकर क ''अरे मार डाला इसने...दौड़ो-दौड़ो!'' झटके से बाथरूम का दरवाजा खुला बे द-गाउन पहने हुए एक लड़क दौड़ती हुई आयी और चन्दर को देखकर रुक गय ''क्या ह?'' उसने डाँटकर पूछा। ''कुछ नह ं, शायद पागल मालूम दे ता है!'' ''जबान सँभालकर बोलो, वह मेरा भाई है!'' ''ओह! कोई भी हो। म मस डक्रूज से लने आया था। मन े आवाज द तो कोई नह ं बोला। म बाग म घम ू ने लगा। इतने म इसने मेर गरदन पकड़ ल । यह बीमार और कमजोर है वरना अभी गरदन दबा दे ता।'' गोरा उस लड़क के आते ह फर तनकर खड़ा हो गया और दाँत पीसकर बोला, ''अरे म तुम्हारे दाँत तोड़ दूँगा। बदमाश कह का, चुपके-चुपके आया और गुलाब तोडऩे लगा। म चमेल के झाड़ के पीछे छपा दे ख रहा था।'' ''अभी म पु लस बुलाती हूँ, तुम दे खते रहो बट इसे। म फोन करती हूँ।'' लड़क ने डाँटते हुए कहा। ''अरे भाई, म मस डक्रूज से मलने आया हू'' ''म तम्ह नह ं जानत ु , झूठा कह ं का। म मस डक्रूज हू'' ''दे खए तो यह खत!'' लड़क ने खत खोला और पढ़ा और एकदम उसने आवाज बदल द । '' छह बट , तुम कसी दन पागलखाने जाओगे। आपको डॉ. शक ु ्ला ने भेजा है। तुम तो मुझे बदनाम करा डालोगे!'' उसक शक्ल और भी रोनी हो गयी, ''म नह ं जानता था, म जानता नह ं था।'' उसने और भी घबराकर कहा। ''माफ क िजएगा!'' लड़क ने बड़े मीठे स्वर म साफ हन्दुस्तानी म , ''मेरे भाई का दमाग ज़रा ठ क नह ं रहता, जब से इनक पत्नी क मौत हो गयी'' ''इसका मतलब ये नह ं क ये कसी भले आदमी क इज्जत उतार ल।'' चन्दर ने बगडक़र कहा। ''दे खए, बुरा मत मा नए। म इनक ओर से माफ माँगती हूँ। आइए, अन्दर च लए'' उसने चन्दर का हाथ पकड़ लया। उसका हाथ बेहद ठण्डा था। वह नहाकर आ रह थी। उसके हाथ के उ तष ु ार स्पशर् से चन्दर सहर उठा और उसने हाथ झटककर , ''अफसोस, आपका हाथ तो बफर् ह?'' लड़क च क गयी। वह सद्:स्नाता सहसा सचेत हो गयी और बोल, ''अरे शैतान तम्ह ले जा ु , बट ! तुम्हारे पीछे म बे दङ् गाउन म भाग आय'' और बे दङ् गाउन के दोन कालर पकडक़र उसने अपनी खल ु गरदन ढँ कने का प्रयास कया और फर अपनी पोशाक पर लित होकर भागी। धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 14 अभी तक गस्से के मारे चन्दर ने उस पर ध्यान ु ह नह ं दया था। ले कन उसने देखा वह तेईस बरस क दबल ु -पतल तरुणी है। लहराता हुआ बद, गले तक कटे हुए बाल। एंग्ल-इं डयन होने के बावजूद गोर नह ं है। चाय क तरह वह हल्क, पतल , भूर और तुश् थी। र भगते वक्त ऐसी लग रह थी जैसे छलकती हुई चाय। इतने म वह गोरा उठा और चन्दर का कन्धा छूकर बो, ''माफ करना, भाई! उससे मेर शकायत मत करना। असल म ये गुलाब मेर मत ृ पत्नी क यादगार ह । जब इनका पहला पेड़ आया था तब म इतना ह जवान था िजतने तम ु , और मेर पत्नीउतनी ह अच्छ थी िजतनी पम्म'' ''कौन पम्म?'' ''यह मेर बहन प्र मला डक!'' ''ओह! कब मर आपक पत्न?ï माफ क िजएगा मझ ु े भी मालूम नह ं था!'' ''हाँ, म बड़ा अभागा हूँ। मेरा दमाग कुछ खराब है; दे खए!'' कहकर उसने झुककर अपनी खोपड़ी चन्दर के सामने कर द और हुत गड़ गड़ाकर बोला, ''पता नह ं कौन मेरे फूल चुरा ले जाता है ! अपनी पत्नी क मृत्यु के बाद पाँच साल से म इन फूल कोसँभाल रहा हूँ। हाय रे ! जाइए, पम्मी बुला रह है'' पछवाड़े के सहन का बीच का दरवाजा खल ु गया था और पम्मी कपड़े पहनकर बाहर झाँक रह थी। चन्दर आगे बढ़ा और गोरा मुडक़र अपने गुलाब और चमेल क झाड़ी म खो गया। चन्द गया और कमरे म पड़े हुए एक सोफा पर बैठ गया। पम्मी ट्वायलेट कर चुक थी और एक हल् फ्रान्सीसी खुशबू से महक रह थी। शैम्पू से धुले हुए रूखे बाल जो मचले पड़ र, खश ु नम ु ा आसमानी रंग का एक पतला चपका हुआ झीना ब्लाउज और ब्लाउज पर एक फ्लैनेल का फुलप िजसके दो गे लस कमर, छाती और कन्धे पर चपके हुए थे। होठ पर एक हल्क लपिस्टक झलक मात्र , और गले तक बहुत हल्का पाउड, जो बहुत नजद क से ह मालूम होता था। लम्बे नाखून पर हल्क गुलबी प ट। वह आयी, नस्संकोच भाव से उसी सोफे पर कपूर के बगल म बैठ गयी और बड़ी मल ु ायम आवाज म बोल , ''मझ ु े बड़ा द:ु ख है, मस्टर कपू! आपको बहुत तवालत उठानी पड़ी। चोट तो नह ं आयी?'' ''नह ं, नह ं, कोई बात नह ं!'' कपूर का सारा गुस्सा हवा हो गया। कोई भी लड़क न:सक ं ोच भाव से, इतनी अपनायत से सहानुभू त दखाये और माफ माँगे, तो उसके सामने कौन पानी-पानी नह ं हो जाएगा, और फर वह भी तब जब क उसके होठ पर न केवल बोल अच्छ लगती ह, वरन लपिस्टक भी इतनी प्यार हो। ले कन चन्दर क एक आदत थी। और चाहे कुछ न , कम-से-कम वह यह अच्छ तरह जानता था क नार जा त से व्यवहार करते समय कहाँ पर कतनी ढ ल देनी चा , कतना कसना चा हए, कब सहानुभू त से उन्ह झुकाया जा सकता ह , कब अकड़कर। इस वक्त जानता था क इस लड़क से वह िजतनी सहानभू ु त चाहे , ले सकता है, अपने अपमान के हजार्ने के तौर पर। इस लए कपूर साहब बोले, ''ले कन मस डक्र, आपके भाई बीमार होने के बावजूद बहुत मजबूत ह । उफ! गरदन पर जैसे अभी तक जलन हो रह है।'' ''ओहो! सचमुच म बहुत श मर्न्दा हूँ। देख!'' और कालर हटाकर उसने गरदन पर अपनी बफ ल अँगु लयाँ रख द ं, ''लाइए, लोशन मल दूँ म !'' ''धन्यवा, धन्यवा, इतना कष्ट न क िजए। आपक अँगु लयाँ गन्द हो जाएँ!'' कपूर ने बड़ी शाल नता से कहा। पम्मी के होठ पर एक हल्-सी मुस्कराह, आँख म हल्क-सी लाज और व म एक हल्क- सा कम्पन दौड़ गया। यह वाक्य कपूर ने चाहे शरारत म ह कहा , ले कन कहा इतने शान्त और धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 15 संयत स्वर म क पम्मी कुछ प्र तवाद भी न कर सक और फर छह बरस से साठ बरस तक कौन ऐसी स्त्री है जो अपने रूप क प्रशंसा पर बेहोश न ह ''अच्छा लाइ, वह स्पीच कहाँ है जो मुझे टाइप करनी है'' उसने वषय बदलते हुए कहा। ''यह ल िजए।'' कपूर ने दे द । ''यह तो मुिश्कल से ती-चार घण्टे का काम ह?'' और पम्मी स्पीच को उ-पुलटकर दे खने लगी। ''माफ क िजएगा, अगर म कुछ व्यिक्तगत सवाल पूछ; क्या आप टाइ पस्ट ?'' कपूर ने बहुत शष्टता से पूछा ''जी नह ं!'' पम्मी ने उन्ह ं कागज पर नजर गते हुए कहा, ''मन े कभी टाइ पग ं और शाटर ्ह ड सीखी थी, और तब म सी नयर केिम्ब्रज पास करके यू नव सर्ट गयी थी। यू नव सर्ट मुझे छोडऩी क्य क म ने अपनी शाद कर ल '' ''अच्छ, आपके प त कहाँ ह ?'' ''रावल पंडी म , आम म ।'' ''ले कन फर आप डक्रूज क लखती ह , और फर मस?'' ''क्य क हमलोग अलग हो गये ह '' और स्पीच के कागज को फर तह करती हुई बोल- '' मस्टर कपू, आप अ ववा हत ह ?'' ''जी हाँ?'' ''और ववाह करने का इरादा तो नह ं रखते?'' ''नह ं।'' ''बहुत अच्छे। तब तो हम लोग म नभ जाएगी। म शाद से बहुत नफरत करती हूँ। शाद अपने को दया जानेवाला सबसे बड़ा धोखा है। दे खए, ये मेरे भाई ह न, कैसे पीले और बीमार-से ह । ये पहले बड़े तन्दुरुस्त और टे नस म प्रान्त के अच्छे खला डय़ म से थे। ए क बशप क- पतल भावक ु लड़क से इन्ह ने शाद कर ल, और उसे बेहद प्यार करते थे। सुब-शाम, दोपहर, रात कभी उसे अलग नह ं होने दे ते थे। हनीमून के लए उसे लेकर सीलोन गये थे। वह लड़क बहुत कला प्रय थी। बहुत अच्छा नाचती, बहुत अच्छा गाती थी और खुद गीत लखती थी। यह गुलाब का बाग उसी ने बनवाया था और इन्ह ं के बीच म दोन बैठकर घंट गुजार दे ते थे। ''कुछ दन बाद दोन म झगड़ा हुआ। क्लब म बॉल डान्स था और उस दन वह लड़क बहु अच्छ लग रह थी। बहुत अच्छ । डान्स के वक्त इनका ध्यान डान्स क तरफ, अपनी पत्नी क तरफ ज्यादा। इन्ह ने आवेश म उसक अँगु लयाँ जोर दबा द ं। वह चीख पड़ी और सभी इन लोग क ओर दे खकर हँस पड़े। ''वह घर आयी और बहुत बगड़ी, बोल , 'आप नाच रहे थे या टे नस का मैच खेल रहे थे, मेरा हाथ था या टे नस का रैकट?' इस बात पर बट भी बगड़ गया, और उस दन से जो इन लोग म खटक तो फर कभी न बनी। धीरे -धीरे वह लड़क एक साज ट को प्यार करने लगी। बट को इतना सदमा हुआ क वह बीमार पड़ गया। ले कन बट ने तलाक नह ं दया, उस लड़क से कुछ कहा भी नह ं, और उस लड़क ने साज ट से प्यार जार रखा ले कन बीमार म बट क बहुत सेवा क । बट अच्छा हो गया। उसकेबाद उसको एक बच्ची हुई और उसी म वह मर गयी। हालाँ क हम लोग सब जानते ह क वह बच्ची उस साज ट क थी ले कन बट को यक न नह ं होता क वह साज ट को प्या करती थी। वह कहता है , 'यह दस ू रे को प्यार करती होती तो मेर इतनी सेवा कैसे कर सकती थी भला!' उस बच्ची क नाम बट ने रोज रखा। और उसे लेकर दनभर उन्ह ं गुलाब के पेड़ के बीच म धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 16 बैठा करता था जैसे अपनी पत्नी को लेकर बैठता था। दो साल बाद बच्ची को साँप ने काट ल, वह मर गयी और तब से बट का दमाग ठ क नह ं रहता। खैर, जाने द िजए। आइए, अपना काम शर ु ू कर । च लए, अन्दर के स्ट-रूम म चल!'' ''च लए!'' चन्दर बोला। और पम्मी के पी -पीछे चल दया। मकान बहुत बड़ा था और पुराने अँग्रेज के ढंग पर सजा हुआ था। बाहर से िजतना पुराना और गन्दा नजर आता, अन्दर से उतना ह आल शान और सुथरा। ईस्ट इं डया कम्पनी के जमाने क छ थी अन्दर। यहाँ तक क बजल लगने के बावजद ू अन्दर पुराने बड़-बड़े हाथ से खींचे जाने वाले पंखे लगे थे। दो कमर को पार कर वे लोग स्टड-रूम म पहुँचे। बड़-सा कमरा िजसम चार तरफ आलमा रय म कताब सजी हुई थीं। चार कोने म चार मेज लगी हुई थीं िजनम कुछ बस्ट और कुछ तस्वीर स्ट ड के सहारे रखी हुई थीं। आलमार म नीचे खाने म टाइपराइटर रखा था। पम्मी ने बजल जला द और टाइपराइटर खोलकर साफ करने लगी। चन्दर घूमकर कताब देखने लगा। एक कोने म कुछ मराठ क कताब रखी थीं। उसे बड़ा ताज्जुब हु-''अच्छ पम्म, ओह, माफ क िजएगा, मस डक्र...'' ''नह ं, आप मुझे पम्मी पुकार सकते ह । मुझे यह नाम अच्छा लगता -हाँ, क्या पूछ रहे थे आप?'' ''क्या आप मराठ भी जानती ह?'' ''नह ं, म तो नह ं, मेर नानीजी जानती थीं। क्या आपको डॉक्टर शुक्ला ने हमलोग के बारे कुछ नह ं बताया?'' ''नह ं!'' कपूर ने कहा। ''अच्छ! ताज्जुब ह!'' पम्मी बोल, ''आपने ट्रेनाल डक्रूज का नाम सुना ?'' ''हाँ हाँ, डक्रूज िजन्ह ने कौशाम्बी क खुदाई करवायी थी। वह तो बहुत बड़े पुरातत्ववेत?'' कपूर ने कहा। ''हाँ, वह । वह मेरे सगे नाना थे। और वह अँग्रेज नह ं , मराठा थे और उन्ह ने मेर नानी से शाद क थी जो एक कश्मीर ईसाई म हला थीं। उनके कारण भारत म उन्ह ईसाइयत अपनानी पड़ी यह मेरे नाना का ह मकान है और अब हम लोग को मल गया है। डॉ. शुक्ला के दोस्त मस् श्रीवास्तव बै र ह न, वे हमारे खानदान के ऐटन थे। उन्ह ने और ड. शक ु ्ला ने ह यह जायदाद हम दलवायी। ल िजए, मशीन तो ठ क हो गयी।'' उसने टाइपराइटर म काबर्न और कागज लगाकर कहा, ''लाइए नबन्!'' इसके बाद घंटे -भर तक टाइपराइटर रुका नह ं। कपूर ने देखा क यह लड़क जो व्यवर म इतनी सरल और स्पष्ट , फैशन म इतनी नाजुक और शौक न है , काम करने म उतनी ह मेहनती और तेज भी है। उसक अँगु लयाँ मशीन क तरह चल रह थीं। और तेज इतनी क एक घंटे म उसने लगभग आधी पांडु ल प टाइप कर डाल थी। ठ क एक घण्टे के बाद उसने टाइपराइटर बन्द कर या, बगल म बैठे हुए कपूर क ओर झुककर कहा, ''अब थोड़ी दे र आराम।'' और अपनी अँगु लयाँ चटखाने के बाद वह कुरसी खसकाकर उठ और एक भरपूर अँगड़ाई ल । उसका अंग-अंग धनुष क तरह झुक गया। उसके बाद कपूर के कन्धे पर बेतकल्लुफ से हाथ रखकर बो, ''क्य, एक प्याला चायमँगवायी जाय?'' ''म तो पी चक ु ा हूँ।'' ''ले कन मुझसे तो काम होने से रहा अब बना चाय के।'' पम्मी एक अल्हड़ बच्ची क त बोल , और अन्दर चल गयी। कपूर ने टाइप कये हुए कागज उठाये और कलम नकालकर उनक धमर्वीर भारत / गन ु ाह का दे वता / 17 गल तयाँ सुधारने लगा। चाय पीकर थोड़ी दे र म पम्मी वापस आयी र बैठ गयी। उसने एक सगरे ट केस कपूर के सामने कया। ''धन्यवा, म सगरे ट नह ं पीता।'' ''अच्छ, ताज्जुब ह, आपक इजाजत हो तो म सगरे ट पी लूँ!'' ''क्या आप सगरेट पीती ह? छह, पता नह ं क्य औरत का सगरेट पीना मुझे बहुत ह नासपन्द है'' ''मेर तो मजबूर है मस्टर कपू, म यहाँ के समाज म मलती-जल ु ती नह ं, अपने ववाह और अपने तलाक के बाद मुझे ऐंग्ल-इं डयन समाज से नफरत हो गयी है। म अपने दल से हन्दुस्तान हूँ। ले कन हन्दुस्ता नय से घुल- मलना हमारे लए सम्भव नह ं। घर म अकेले रहती हूँ। सगरेट और चाय से तबीयत बदल जाती है। कताब का मझ ु े शौक नह ं।'' ''तलाक के बाद आपने पढ़ाई जार क्य नह ं रख?'' कपूर ने पूछा। ''मन े कहा न, क कताब का मुझ?

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