सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 PDF: भारत में नागरिक प्रक्रिया

Summary

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भारत में नागरिक प्रक्रिया से संबंधित एक महत्वपूर्ण कानूनी दस्तावेज है। यह संहिता अदालतों की अधिकारिता, वाद दायर करने, समन, निर्णयों, अपीलों, और विभिन्न प्रक्रियाओं को शामिल करती है। यह कानूनी प्रणाली को समझने और नागरिक मामलों को सुलझाने में मदद करता है। यह पेशेवर कानूनी संदर्भ के लिए प्रासंगिक है।

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िसिवल पर्िकर्या संिहता, 1908 _________ धारा का कर्म _________ धाराएं पर्ारिम्भक 1. संिक्षप्त नाम, प...

िसिवल पर्िकर्या संिहता, 1908 _________ धारा का कर्म _________ धाराएं पर्ारिम्भक 1. संिक्षप्त नाम, पर्ारं भ और िवस्तार । 2. पिरभाषाएं । 3. न्यायालय की अधीनस्थता । 4. ावृि यां । 5. संिहता का राजस्व न्यायालय को लागू होना । 6. धन-सम्बन्धी अिधकािरता । 7. पर्ान्तीय लघुवाद न्यायालय । 8. पर्ेिसडेन्सी लघुवाद न्यायालय । भाग 1 साधारणतः वाद के िवषय म न्यायालय की अिधकािरता और पूव-र् न्याय 9. जब तक िक विजत न हो, न्यायालय सभी िसिवल वाद का िवचारण करगे । 10. वाद का रोक िदया जाना । 11. पूवर्-न्याय । 12. अितिरक्त वाद का वजर्न । 13. िवदेशी िनणर्य कब िनश्चयक नह होगा । 14. िवदेशी िनणर्य के बारे म उपधारणा । वाद करने का स्थान 15. वह न्यायालय िजसम वाद संिस्थत िकया जाए । 16. वाद का वहां संिस्थत िकया जाना जहां िवषय-वस्तु िस्थत है । 17. िविभन्न न्यायालय की अिधकािरता के भीतर िस्थत स्थावर सम्पि के िलए वाद । 18. जहां न्यायालय की अिधकािरता की स्थानीय सीमाएं अिनिश्चत ह वहां वाद के संिस्थत िकए जाने का स्थान । 19. शरीर या जंगम सम्पि के पर्ित िकए गए दोष के िलए पर्ितकर के िलए वाद । 20. अन्य वाद वहां संिस्थत िकए जा सकगे जहां पर्ितवादी िनवास करते ह या वाद-हेतुक पैदा होता है । 21. अिधकािरता के बारे म आक्षेप । 21क. वाद लाने के स्थान के बारे म आक्षेप पर िडकर्ी को अपास्त करने के िलए वाद का वजर्न । 22. जो वाद एक से अिधक न्यायालय म संिस्थत िकए जा सकते ह उनको अन्तिरत करने की शिक्त । 23. िकस न्यायालय म आवेदन िकया जाए । 24. अन्तरण और पर्त्याहरण की साधारण शिक्त । 25. वाद आिद के अंतरण करने की उच्चतम न्यायालय की शिक्त । ii धाराएं वाद का संिस्थत िकया जाना 26. वाद का संिस्थत िकया जाना । समन और पर्कटीकरण 27. पर्ितवािदय को समन । 28. जहां पर्ितवादी िकसी अन्य राज्य म िनवास करता है वहां समन की तामील । 29. िवदेशी समन की तामील । 30. पर्कटीकरण और उसके सदृश बात के िलए आदेश करने की शिक्त । 31. साक्षी को समन । 32. ितकर्म के िलए शािस्त । िनणर्य और डीकर्ी 33. िनणर्य और िडकर्ी । ब्याज 34. ब्याज । खच 35. खच । 35क. िमथ्या या तंग करने वाले दाव या पर्ितरक्षा के िलए पर्ितकरात्मक खच । 35ख. िवलम्ब कािरत करने के िलए खचार् । भाग 2 िनष्पादन साधारण 36. आदेश को लागू होना । 37. िडकर्ी पािरत करने वाले न्यायालय की पिरभाषा । वे न्यायालय िजनके ारा िडिकर्यां िनष्पािदत की जा सकगी 38. वह न्यायालय िजसके ारा िडिकर्यां िनष्पािदत की जा सके गी । 39. िडकर्ी का अन्तरण । 40. िकसी अन्य राज्य के न्यायालय को िडकर्ी का अन्तरण । 41. िनष्पादन कायर्वािहय के पिरणाम का पर्मािणत िकया जाना । 42. अन्तिरत िडकर्ी के िनष्पादन म न्यायालय की शिक्तयां । 43. िजन स्थान पर इस संिहता का िवस्तार नह है, वहां के िसिवल न्यायालय ारा पािरत िडिकर्य का िनष्पादन । 44. िजन स्थान पर इस संिहता का िवस्तार नह है, वहां के राजस्व न्यायालय ारा पािरत िडिकर्य का िनष्पादन । 44क. ितकारी राज्यक्षेतर् के न्यायालय ारा पािरत िडिकर्य का िनष्पादन । 45. भारत के बाहर िडिकर्य का िनष्पादन । 46. आज्ञापतर् । पर्श्न िजनका अवधारण िडकर्ी का िनष्पादन करने वाला न्यायालय करे गा 47. पर्श्न िजनका अवधारण िडकर्ी का िनष्पादन करने वाला न्यायालय करे गा । iii धाराएं िनष्पादन के िलए समय की सीमा 48. [िनरिसत ।] अन्तिरती और िविधक पर्ितिनिध 49. अन्तिरती । 50. िविधक पर्ितिनिध । िनष्पादन-पर्िकर्या 51. िनष्पादन कराने की न्यायालय की शिक्तयां । 52. िविधक पर्ितिनिध के िवरु िडकर्ी का पर्वतर्न । 53. पैतृक सम्पि का दाियत्व । 54. सम्पदा का िवभाजन या अंश का पृथक् करण । िगरफ्तारी और िनरोध 55. िगरफ्तारी और िनरोध । 56. धन की िडकर्ी के िनष्पादन म िस्तर्य की िगरफ्तारी या िनरोध का िनषेध । 57. जीवन-िनवार्ह भ ा । 58. िनरोध और छोड़ा जाना । 59. रुग्णता के आधार पर छोड़ा जाना । कु क 60. वह सम्पि , जो िडकर्ी के िनष्पादन म कु कर् और िवकर्य की जा सके गी । 61. कृ िष-उपज को भागतः छू ट । 62. िनवास-गृह म सम्पि का अिभगर्हण । 63. कई न्यायालय की िडिकर्य के िनष्पादन म कु कर् की गई सम्पि । 64. कु क के पश्चात् सम्पि के पर्ाइवेट अन्य संकर्ामण का शून्य होना । िवकर्य 65. कर्ेता का हक । 66. [िनरिसत ।] 67. धन के संदाय की िडिकर्य के िनष्पादन म भूिम के िवकर्य के बारे म िनयम बनाने की राज्य सरकार की शिक्त । स्थावर सम्पि के िवरु िडिकर्य का िनष्पादन करने की शिक्त का कलक्टर को पर्त्यायोजन 68—72. [िनरिसत ।] आिस्तय का िवतरण 73. िनष्पादन-िवकर्य के आगम का िडकर्ीदार के बीच आनुपाितक रूप से िवतिरत िकया जाना । िनष्पादन का पर्ितरोध 74. िनष्पादन का पर्ितरोध । भाग 3 आनुषिं गक कायर्वािहयां कमीशन 75. कमीशन िनकालने की न्यायालय की शिक्त । iv धाराएं 76. अन्य न्यायालय को कमीशन । 77. अनुरोध-पतर् । 78. िवदेशी न्यायालय ारा िनकाले गए कमीशन । भाग 4 िविशष्ट मामल म वाद सरकार ारा या उसके िवरु वाद या अपनी पदीय हैिसयत म लोक अिधकारी ारा या उसके िवरु वाद 79. सरकार ारा या उसके िवरु वाद । 80. सूचना । 81. िगरफ्तारी और स्वीय उपसंजाित से छू ट । 82. िडकर्ी का िनष्पादन । अन्य देिशय ारा और िवदेशी शासक , राजदूत और दूत ारा या उनके िवरु वाद 83. अन्य देशीय कब वाद ला सकगे । 84. िवदेशी राज्य कब वाद ला सकगे । 85. िवदेशी शासक की ओर से अिभयोजन या पर्ितरक्षा करने के िलए सरकार ारा िवशेष रूप से िनयुक्त िकए गए व्यिक्त । 86. िवदेशी राज्य , राजदूत और दूत के िवरु वाद । 87. िवदेशी शासक का वाद के पक्षकार के रूप म अिभधान । 87क. “िवदेशी राज्य” और “शासक” की पिरभाषाएं । भूतपूवर् भारतीय राज्य के शासक के िवरु वाद 87ख. भूतपूवर् भारतीय राज्य के शासक को धारा 85 और धारा 86 का लागू होना । अन्तरािभवाची 88. अन्तरािभवाची वाद कहां संिस्थत िकया जा सके गा । भाग 5 िवशेष कायर्वािहयां माध्यस्थम् 89. न्यायालय के बाहर िववाद का िनपटारा । िवशेष मामला 90. न्यायालय की राय के िलए मामले का कथन करने की शिक्त । लोक न्यूसस और लोक पर पर्भाव डालने वाले अन्य दोषपूणर् कायर्] 91. लोक न्यूसस और लोक पर पर्भाव डालने वाले अन्य दोषपूणर् कायर् । 92. लोक पूतर् कायर् । 93. पर्ेिसडसी नगर से बाहर महािधवक्ता की शिक्तय का पर्योग । भाग 6 अनुपरू क कायर्वािहयां 94. अनुपूरक कायर्वािहयां । 95. अपयार्प्त आधार पर िगरफ्तारी, कु क या ादेश अिभपर्ाप्त करने के िलए पर्ितकर । v धाराएं भाग 7 अपील मूल िडिकर्य की अपील 96. मूल िडकर्ी की अपील । 97. जहां पर्ारिम्भक िडकर्ी की अपील नह की गई है वहां अिन्तम िडकर्ी की अपील । 98. जहां कोई अपील दो या अिधक न्यायाधीश ारा सुनी जाए वहां िविनश्चय । 99. कोई भी िडकर्ी ऐसी गलती या अिनयिमतता के कारण िजससे गुणागुण या अिधकािरता पर पर्भाव नह पड़ता है न तो उलटी जाएगी और न उपान्तिरत की जाएगी । 99क. धारा 47 के अधीन तब तक िकसी आदेश को उलटा न जाना या उपान्तिरत न िकया जाना जब तक मामले के िविनश्चय पर पर्ितकू ल पर्भाव नह पड़ता है । अपीली िडिकर्य की अपील 100. ि तीय अपील । 100क. कितपय मामल म आगे अपील का न होना । 101. ि तीय अपील का िकसी भी अन्य आधार पर न होना । 102. कितपय मामल म आगे ि तीय अपील का न होना । 103. तथ्य-िववा क का अवधारण करने की उच्च न्यायालय की शिक्त । आदेश की अपील 104. वे आदेश िजनकी अपील होगी । 105. अन्य आदेश । 106. कौन से न्यायालय अपील सुनगे । अपील सम्बन्धी साधारण उपबन्ध 107. अपील न्यायालय की शिक्तयां । 108. अपीली िडिकर्य और आदेश की अपील म पर्िकर्या । उच्चतम न्यायालय म अपील 109. उच्चतम न्यायालय म अपील कब ह गी । 110. [िनरिसत ।] 111. [िनरिसत ।] 111क. [िनरिसत ।] 112. ावृि यां । भाग 8 िनदश, पुनिवलोकन और पुनरीक्षण 113. उच्च न्यायालय को िनदश । 114. पुनिवलोकन । 115. पुनरीक्षण । vi धाराएं भाग 9 ऐसे उच्च न्यायालय के सम्बन्ध म िवशेष जो न्याियक आयुक्त के न्यायालय नह ह 116. इस भाग का कु छ उच्च न्यायालय को ही लागू होना । 117. संिहता का उच्च न्यायालय को लागू होना । 118. खच के अिभिनश्चय के पूवर् िडकर्ी का िनष्पादन । 119. अपर्ािधकृ त व्यिक्त न्यायालय को संबोिधत नह कर सकगे । 120. आरं िभक िसिवल अिधकािरता म उच्च न्यायालय को उपबन्ध का लागू न होना । भाग 10 िनयम 121. पर्थम अनुसच ू ी म के िनयम का पर्भाव । 122. िनयम बनाने की कु छ उच्च न्यायालय की शिक्त । 123. कु छ राज्य म िनयम-सिमितय का गठन । 124. सिमित उच्च न्यायालय को िरपोटर् करे गी । 125. िनयम बनाने की अन्य उच्च न्यायालय की शिक्त । 126. िनयम का अनुमोदन के अधीन होना । 127. िनयम का पर्काशन । 128. वे िवषय िजनके िलए िनयम उपबन्ध कर सकगे । 129. अपनी आरिम्भक िसिवल पर्िकर्या के सम्बन्ध म िनयम बनाने की उच्च न्यायालय की शिक्त । 130. पर्िकर्या से िभन्न िवषय के सम्बन्ध म िनयम बनाने की अन्य उच्च न्यायालय की शिक्त । 131. िनयम का पर्काशन । भाग 11 पर्कीणर् 132. कु छ िस्तर्य को स्वीय उपसंजाित से छू ट । 133. अन्य व्यिक्तय को छू ट । 134. िडकर्ी के िनष्पादन म की जाने से अन्यथा िगरफ्तारी । 135. िसिवल आदेिशका के अधीन िगरफ्तारी से छू ट । 135क. िवधायी िनकाय के सदस्य को िसिवल आदेिशका के अधीन िगरफ्तार िकए जाने और िनरु िकए जाने से छू ट । 136. जहां िगरफ्तार िकया जाने वाला व्यिक्त या कु कर् की जाने वाली सम्पि िजले से बाहर है वहां पर्िकर्या । 137. अधीनस्थ न्यायालय की भाषा । 138. सा य के अंगर्ेजी म अिभिलिखत िकए जाने की अपेक्षा करने की उच्च न्यायालय की शिक्त । 139. शपथ-पतर् के िलए शपथ िकसके ारा िदलाई जाएगी । 140. उ ारण, आिद के मामल म असेसर । 141. पर्कीणर् कायर्वािहयां । 142. आदेश और सूचना का िलिखत होना । 143. डाक महसूल vii धाराएं 144. पर्त्यास्थापन के िलए आवेदन । 145. पर्ितभू के दाियत्व का पर्वतर्न । 146. पर्ितिनिधय ारा या उनके िवरु कायर्वािहयां । 147. िनय ग्यता के अधीन व्यिक्तय ारा सहमित या करार । 148. समय का बढ़ाया जाना । 148क. के िवयट दायर करने का अिधकार । 149. न्यायालय-फीस की कमी को पूरा करने की शिक्त । 150. कारबार का अन्तरण । 151. न्यायालय की अन्तिनिहत शिक्तय की ावृि । 152. िनणर्य , िडिकर्य या आदेश का संशोधन । 153. संशोधन करने की साधारण शिक्त । 153क. जहां अपील संक्षेपतः खािरज की जाती है वहां िडकर्ी या आदेश का संशोधन करने की शिक्त । 153ख. िवचारण के स्थान को खुला न्यायालय समझा जाना । 154. [िनरिसत ।] 155. [िनरिसत ।] 156. [िनरिसत ।] 157. िनरिसत अिधिनयिमितय के अधीन आदेश का चालू रहना । 158. िसिवल पर्िकर्या संिहता और अन्य िवकिसत अिधिनयिमितय के पर्ित िनदश । पहली अनुसूची—पर्िकर्या के िनयम । पिरिशष्ट क—अिभवचन । पिरिशष्ट ख—आदेिशका । पिरिशष्ट ग—पर्कटीकरण, िनरीक्षण और स्वीकृ ित । पिरिशष्ट घ—िडिकर्यां । पिरिशष्ट ङ—िनष्पादन । पिरिशष्ट च—अनुपूरक कायर्वािहयां । पिरिशष्ट छ—अपील, िनदश और पुनिवलोकन । पिरिशष्ट ज—पर्कीणर् । दूसरी अनुसूची—[िनरिसत ।] तीसरी अनुसूची—[िनरिसत ।] चौथी अनुसूची—[िनरिसत ।] पांचव अनुसच ू ी—[िनरिसत ।] उपाबन्ध । िसिवल पर्िकर्या संिहता, 1908 (1908 का अिधिनयम संख्यांक 5) 1 [21 माचर्, 1908] िसिवल न्यायालय की पर्िकर्या से सम्बिन्धत िविधय का समेकन और संशोधन करने के िलए अिधिनयम यह समीचीन है िक िसिवल न्यायालय की पर्िकर्या से सम्बिन्धत िविधय का समेकन और संशोधन िकया जाए, अतः एतद् ारा िनम्निलिखत रूप म यह अिधिनयिमत िकया जाता है :— पर्ारिम्भक 1. संिक्षप्त नाम, पर्ारं भ और िवस्तार—(1) इस अिधिनयम का संिक्षप्त नाम िसिवल पर्िकर्या संिहता, 1908 है । (2) यह सन् 1909 की जनवरी के पर्थम िदन को पर्वृ होगा । 2 [(3) इसका िवस्तार— (क) जम्मू-कश्मीर राज्य; (ख) नागालैण्ड राज्य और जनजाित क्षेतर् , के िसवाय सम्पू्णर् भारत पर है ; परन्तु संबंिधत राज्य सरकार, राजपतर् म अिधसूचना ारा, इस संिहता के उपबंध का या उनम से िकसी का िवस्तार, यथािस्थित, सम्पूणर् नागालैण्ड राज्य या ऐसे जनजाित क्षेतर् या उनके िकसी भाग पर ऐसे अनुपूरक, आनुषंिगक या पािरणािमक उपान्तर सिहत कर सके गी जो अिधसूचना म िविनिदिष्ट िकए जाएं । 1 यह अिधिनयम 1941 के असम अिधिनयम सं० 2 और 1953 के असम अिधिनयम सं० 3 ारा असम को; 1950 के मदर्ास अिधिनयम सं० 34, मदर्ास िविध अनुकूलन आदेश, 1950 और 1970 के तिमलनाडु अिधिनयम सं० 15 ारा तिमलनाडु को; 1934 के पंजाव अिधिनयम सं० 7 ारा पंजाब को; 1925 के यू०पी० अिधिनयम सं० 4, 1948 के यू०पी० अिधिनयम सं० 35, 1954 के यू०पी० अिधिनयम सं० 24, 1970 के यूपी अिधिनयम सं० 17, 1976 के यू०पी० अिधिनयम सं० 57 और 1978 के यू०पी० अिधिनयम सं० 31 ारा उ र पर्देश को; 1955 के मैसूर अिधिनयम सं० 14 ारा कनार्टक को; 1957 के के रल अिधिनयम सं० 13 ारा के रल को; 1958 के राजस्थान अिधिनयम सं० 19 ारा राजस्थान को; 1960 के महारा अिधिनयम सं० 22 और 1970 के महारा अिधिनयम सं० 25 ारा महारा को लागू होने म संशोिधत िकया गया । इसका िवस्तार बरार लाज ऐक्ट, 1941 (1941 का 4) ारा और शे ूल्ड िडिस्टर्क्ट्स ऐक्ट, 1874 (1874 का 14) की धारा 5 और धारा 5क के अधीन जारी की गई अिधसूचना ारा बरार पर और िनम्निलिखत अिधसूिचत िजल पर भी िकया गया है :-- (1) जलपाईगुड़ी कछार (उ री कछार पहािड़य को छोड़कर), गोलपाड़ा (पूव ार को सिम्मिलत करते हुए), कामरूप, दारं ग, नौगांव (िमिकर पहाड़ी क्षेतर् को छोड़कर), िसबसागर (िमिकर पहाड़ी क्षेतर् को छोड़कर), और लखीमपुर (िडबरूगढ़ सीमांत क्षेतर् को छोड़कर) के िजल पर भारत का राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 5 और भारत का राजपतर् (अंगर्ेजी) 1914 भाग 1 पृ० 1690 । (2) दािजिलग िजले और हजारीबाग, रांची पालामाऊ और छोटा नागपुर म मानभूम िजले पर; कलक ा राजपतर् (अंगर्ेजी) 1909 भाग 1, पृ० 25 और भारत का राजपतर् (अंगर्ेजी) 1909 भाग 1 पृ० 33 । (3) कु माऊं तथा गढ़वाल पर्देश और तराई परगना पर (उपान्तरण सिहत) : संयुक्त पर्ान्त राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 3 और भारत का राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 31 । (4) देहरादून म जौनसर-बावर का परगना और िमजार्पुर िजले के अिधसूिचत भाग पर : संयुक्त पर्ान्त राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 4 और भारत का राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 32। (5) कु गर् पर : भारत का राजपतर्, (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 32 । (6) पंजाब के अिधसूिचत िजल पर; भारत का राजपतर्, (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 33 । (7) मदर्ास के सभी अिधसूिचत िजल पर धारा 36 से 43 तक : भारत का राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 152 । (8) मध्य पर्ान्त के अिधसूिचत िजल पर इस अिधिनयम के पहले से ही पर्वृ भाग को और उस भाग को छोड़कर िजतना िडकर्ी के िनष्पादन म स्थावर सम्पि की कु क और िवकर्य को पर्ािधकृ त करता है िकन्तु इसम सम्पि के िवकर्य का िनदेश देने वाली िडकर्ी नह है : भारत का राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909 भाग 1, पृ० 239 । (9) अजमेर-मेरवाड़ा पर धारा 1 और 155 से 158 तक को छोड़कर; भारत का राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909, भाग 2, पृ० 480 । (10) परगना डालभूम, कल्हान म चाईवासा की नगरपािलका और िसहभूम िजले म पोरहट संपदा पर; कलक ा राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 453 और भारत का राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 443 । संथाल परगनाज सेिटलमेन्ट रे ग्यूलेशन (1872 का 3) की धारा 3 (3) (क) के अधीन, धारा 38 से 42 तक तथा धारा 156 और पर्थम अनुसूची के आदेश 21 के िनयम 4 से 9 तक को संथाल परगन म और शेष संिहता की संथाल परगनाज जिस्टस रे ग्यूलेशन, 1893 (1893 का 5) की धारा 10 म िनिदष्ट वाद के िवचारण के िलए पर्वृ घोिषत कर िदया गया है : कलक ा राजपतर् (अंगर्ेजी), 1909, भाग 1, पृ० 45 देिखए । इसे पंथ पीपलोदा लाज रे ग्यूलेशन, 1929 (1929 का 1) की धारा 2 ारा पंथ पीपलोदा म; खोण्डमाल लाज रे ग्यूलेशन, 1936 (1936 का 4) की धारा 3 और अनुसूची ारा खोण्डमाल िजले म, और आंगुल लाज रे ग्यूलेशन, 1936 (1936 का 5) की धारा 3 और अनुसूची ारा आंगुल िजले म पर्वृ घोिषत िकया गया है । इसका िवस्तार उड़ीसा रे ग्यूलेशन (1951 का 5) की धारा 2 ारा कोरापुट और गंजाम िजल पर िकया गया है । इसका िवस्तार 1950 के अिधिनयम सं० 30 की धारा 3 ारा (1-1-1957 से) मिणपुर राज्य म; 1965 के िविनयम सं० 8 की धारा 3 और अनुसूची ारा (1-10-1967 से) सम्पूणर् संघ राज्यक्षेतर् लक्ष ीप पर; 1965 के अिधिनयम सं० 30 की धारा 3 ारा (15-6-1966 से) गोवा, दमन और दीव पर; 1963 के िविनयम सं० 6 की धारा 2 और अनुसूची ारा (1-7-1965 से) दादरा और नागर हवेली पर और अिधसूचना सं० का० आ० 599(अ), तारीख 13-8-1984, भारत का राजपतर्, असाधारण, भाग 2, खंड 3 ारा (1-9-1984 से) िसिक्कम पर िकया गया है । 2 1976 के अिधिनयम सं० 104 की धारा 2 ारा (1-2-1977 से) उपधारा (3) के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 2 स्पष्टीकरण—इस खण्ड म, “जनजाित क्षेतर्” से वे राज्यक्षेतर् अिभपर्ेत ह जो 21 जनवरी, 1972 के ठीक पहले संिवधान की छठी अनुसचू ी के पैरा 20 म यथािनिदष्ट असम के जनजाित क्षेतर् म सिम्मिलत थे । (4) अमीनदीवी ीपसमूह और आन्धर् पर्देश राज्य म पूव गोदावरी, पिश्चमी गोदावरी और िवशाखापटनम् अिभकरण और लक्ष ीप संघ राज्यक्षेतर् के सम्बन्ध म, इस संिहता के लागू होने का कोई पर्ितकू ल पर्भाव, यथािस्थित, ऐसे ीपसमूह, अिभकरण या ऐसे संघ राज्यक्षेतर् म इस संिहता के लागू होने के सम्बन्ध म तत्समय पर्वृ िकसी िनयम या िविनयम के लागू होने पर नह पड़ेगा ।] 2. पिरभाषाएं—इस अिधिनयम म, जब तक िक िवषय या संदभर् म कोई बात िवरु न हो,— (1) “संिहता” के अन्तगर्त िनयम आते ह ; (2) “िडकर्ी” से ऐसे न्यायिनणर्यन की पर्रूिपक अिभव्यिक्त अिभपर्ेत है जो, जहां तक िक वह उसे अिभ क्त करने वाले न्यायालय से सम्बिन्धत है, वाद म के सभी या िकन्ह िववादगर्स्त िवषय के सम्बन्ध म पक्षकार के अिधकार का िनश्चयक रूप से अवधारण करता है और वह या तो पर्ारिम्भक या अिन्तम हो सके गी । यह समझा जाएगा िक इसके अन्तगर्त वादपतर् का नामंजूर िकया जाना और 1 *** धारा 144 के भीतर के िकसी पर्श्न का अवधारण आता है िकन्तु इसके अन्तगर्त,— (क) न तो कोई ऐसा न्यायिनणर्यन आएगा िजसकी अपील, आदेश की अपील की भांित होती है ; और (ख) न ितकर्म के िलए खािरज करने का कोई आदेश आएगा । स्पष्टीकरण—िडकर्ी तब पर्ारिम्भक होती है जब वाद के पूणर् रूप से िनपटा िदए जा सकने से पहले आगे और कायर्वािहयां की जानी ह । वह तब अिन्तम होती है जब िक ऐसा न्यायिनणर्यन वाद को पूणर् रूप से िनपटा देता है । वह भागतः पर्ारिम्भक और भागतः अिन्तम हो सके गी ; (3) “िडकर्ीदार” से कोई ऐसा व्यिक्त अिभपर्ेत है िजसके पक्ष म कोई िडकर्ी पािरत की गई है या कोई िनष्पादन- योग्य आदेश िकया गया है ; (4) “िजला” से आरिम्भक अिधकािरता वाले पर्धान िसिवल न्यायालय की (िजसे इसम इसके पश्चात् “िजला न्यायालय” कहा गया है) अिधकािरता की स्थानीय सीमाएं अिभपर्ेत ह और इसके अन्तगर्त उच्च न्यायालय की मामूली आरिम्भक िसिवल अिधकािरता की स्थानीय सीमाएं आती ह ; [(5) “िवदेशी न्यायालय” से ऐसा न्यायालय अिभपर्ेत है जो भारत के बाहर िस्थत है और के न्दर्ीय सरकार के 2 पर्ािधकार से न तो स्थािपत िकया गया है और न चालू रखा गया है ;] (6) “िवदेशी िनणर्य” से िकसी िवदेशी न्यायालय का िनणर्य अिभपर्ेत है ; (7) “सरकारी प्लीडर” के अन्तगर्त ऐसा कोई अिधकारी आता है जो सरकारी प्लीडर पर इस संिहता ारा अिभ क्त रूप से अिधरोिपत कृ त्य का या उनम से िकन्ह का पालन करने के िलए राज्य सरकार ारा िनयुक्त िकया गया है और ऐसा कोई प्लीडर भी आता है जो सरकारी प्लीडर के िनदेश के अधीन कायर् करता है ; 3 [(7क) अंदमान और िनकोबार ीपसमूह के सम्बन्ध म “उच्च न्यायालय” से कलक ा उच्च न्यायालय अिभपर्ेत है ; (7ख) धारा 1, 29, 43, 44, 4 [44क], 78, 79, 82, 83 और 87क म के िसवाय “भारत” से जम्मू-कश्मीर राज्य के िसवाय भारत का राज्यक्षेतर् अिभपर्ेत है ;] (8) “न्यायाधीश” से िसिवल न्यायालय का पीठासीन अिधकारी अिभपर्ेत है ; (9) “िनणर्य” से न्यायाधीश ारा िडकर्ी या आदेश के आधार का कथन अिभपर्ेत है ; (10) “िनण तऋणी” से वह व्यिक्त अिभपर्ेत है िजसके िवरु कोई िडकर्ी पािरत की गई है या िनष्पादन-योग्य कोई आदेश िकया गया है ; (11) “िविधक पर्ितिनिध” से वह व्यिक्त अिभपर्ेत है जो मृत व्यिक्त की सम्पदा का िविध की दृिष्ट से पर्ितिनिधत्व करता है और इसके अन्तगर्त कोई ऐसा व्यिक्त आता है जो मृतक की सम्पदा से दखलंदाजी करता है और जहां कोई पक्षकार पर्ितिनिध रूप म वाद लाता है या जहां िकसी पक्षकार पर पर्ितिनिध रूप म वाद लाया जाता है वहां वह व्यिक्त इसके अन्तगर्त आता है िजसे वह सम्पदा उस पक्षकार के मरने पर न्यागत होती है जो इस पर्कार वाद लाया है या िजस पर इस पर्कार वाद लाया गया है ; 1 1976 के अिधिनयम सं० 104 की धारा 3 ारा (1-2-1977 से) “धारा 47 या” शब्द और अंक का लोप िकया गया । 2 1951 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 4 ारा खण्ड (5) के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 3 1951 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 4 ारा अंतःस्थािपत । 4 1953 के अिधिनयम सं० 42 की धारा 4 और अनुसूची 3 ारा अन्तःस्थािपत । 3 (12) सम्पि के “अन्तःकालीन लाभ” से ऐसे लाभ पर ब्याज सिहत वे लाभ अिभपर्ेत ह जो ऐसी सम्पि पर सदोष कब्जा रखने वाले व्यिक्त को उससे वस्तुतः पर्ाप्त हुए ह या िजन्ह वह मामूली तत्परता से उससे पर्ाप्त कर सकता था, िकन्तु सदोष कब्जा रखने वाले व्यिक्त ारा की गई अिभवृि य के कारण हुए लाभ इसके अन्तगर्त नह आएंगे ; (13) “जंगम सम्पि ” के अंतगर्त उगती फसल आती ह ; (14) “आदेश” से िसिवल न्यायालय के िकसी िविनश्चय की पर्रूिपक अिभव्यिक्त अिभपर्ेत है जो िडकर्ी नह है ; (15) “प्लीडर” से न्यायालय म िकसी अन्य व्यिक्त के िलए उपसंजात होने और अिभवचन करने का हकदार कोई व्यिक्त अिभपर्ेत है और इसके अन्तगर्त अिधवक्ता, वकील और िकसी उच्च न्यायालय का अटन आता है ; (16) “िविहत” से िनयम ारा िविहत अिभपर्ेत है ; (17) “लोक अिधकारी” से वह व्यिक्त अिभपर्ेत है जो िनम्निलिखत वणर्न म से िकसी वणर्न के अधीन आता है, अथार्त् :— (क) हर न्यायाधीश ; (ख) 1 [अिखल भारतीय सेवा] का हर सदस्य ; (ग) 2 [संघ] के सेना, 3 [नौसेना या वायु सेना] का 4 *** हर आयुक्त आिफसर या राजपितर्त आिफसर, जब तक िक वह सरकार के अधीन सेवा करता रहे ; (घ) न्यायालय का हर अिधकारी िजसका ऐसे अिधकारी के नाते यह कतर् है िक वह िविध या तथ्य के िकसी मामले म अन्वेषण या िरपोटर् करे , या कोई दस्तावेज बनाए, अिधपर्मािणत करे , या रखे, या िकसी संपि का भार संभाले या उस संपि का व्ययन करे , या िकसी न्याियक आदेिशका का िनष्पादन करे , या कोई शपथ गर्हण कराए, या िनवचर्न करे , या न्यायालय म वस्था बनाए रखे और हर व्यिक्त, िजसे ऐसे कतर् म से िकन्ह का पालन करने का पर्ािधकार न्यायालय ारा िवशेष रूप से िदया गया है ; (ङ) हर व्यिक्त जो िकसी ऐसे पद को धारण करता है िजसके आधार पर वह िकसी व्यिक्त को पिररोध म करने या रखने के िलए सशक्त है ; (च) सरकार का हर अिधकारी िजसका ऐसे अिधकारी के नाते यह कतर् है िक वह अपराध का िनवारण करे , अपराध की इि ला दे, अपरािधय को न्याय के िलए उपिस्थत करे , या लोक के स्वास्थ्य, क्षेम या सुिवधा की संरक्षा करे ; (छ) हर अिधकारी िजसका ऐसे अिधकारी के नाते यह कतर् है िक वह सरकार की ओर से िकसी सम्पि को गर्हण करे , पर्ाप्त करे , रखे या य करे , या सरकार की ओर से कोई सवक्षण, िनधार्रण या संिवदा करे , या िकसी राजस्व आदेिशका का िनष्पादन करे , या सरकार के धन-सम्बन्धी िहत पर पर्भाव डालने वाले िकसी मामले म अन्वेषण या िरपोटर् करे , या सरकार के धन-सम्बन्धी िहत से सम्बिन्धत िकसी दस्तावेज को बनाए, अिधपर्मािणत करे या रखे, या सरकार के धन-सम्बन्धी िहत की संरक्षा के िलए िकसी िविध के ितकर्म को रोके ; तथा (ज) हर अिधकारी, जो सरकार की सेवा म है, या उससे वेतन पर्ाप्त करता है, या िकसी लोक कतर् के पालन के िलए फीस या कमीशन के रूप म पािरशर्िमक पाता है ; (18) “िनयम” से पहली अनुसूची म अन्तिवष्ट अथवा धारा 122 या धारा 125 के अधीन िनिमत िनयम और पर्रूप अिभपर्ेत ह ; (19) “िनगम-अंश” के बारे म समझा जाएगा िक उसके अन्तगर्त स्टाक, िडबचर स्टॉक, िडबचर या बन्धपतर् आते ह ; तथा (20) िनणर्य या िडकर्ी की दशा के िसवाय “हस्ताक्षिरत” के अन्तगर्त स्टािम्पत आता है । 5 * * * * 3. न्यायालय की अधीनस्थता—इस संिहता के पर्योजन के िलए, िजला न्यायालय उच्च न्यायालय के अधीनस्थ है और िजला न्यायालय से अवर शर्ेणी का हर िसिवल न्यायालय और हर लघुवाद न्यायालय, उच्च न्यायालय और िजला न्यायालय के अधीनस्थ है । 1 1976 के अिधिनयम सं० 104 की धारा 3 ारा (1-2-1977 से) “भारतीय िसिवल सेवा” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 2 िविध अनुकूलन आदेश, 1950 ारा “िहज मैजेस्टी” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 3 1934 के अिधिनयम सं० 35 की धारा 2 और अनुसूची ारा “या नौसेना” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 4 1934 के अिधिनयम सं० 35 की धारा 2 और अनुसूची ारा “िजनम िहज मैजेस्टी की भारतीय समुदर्ी सेवा भी सिम्मिलत है,” शब्द का लोप िकया गया । 5 िविध अनुकूलन आदेश, 1950 ारा अन्तःस्थािपत खण्ड (21) का 1951 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 4 ारा लोप िकया गया । 4 4. ावृि यां—(1) इसके पर्ितकू ल िकसी िविनिदष्ट उपबन्ध के अभाव म, इस संिहता की िकसी भी बात के बारे म यह नह समझा जाएगा िक वह िकसी िवशेष या स्थानीय िविध को, जो अब पर्वृ है या तत्समय पर्वृ िकसी अन्य िविध ारा या उसके अधीन पर्द िकसी िवशेष अिधकािरता या शिक्त को या िविहत पर्िकर्या के िकसी िवशेष रूप को पिरसीिमत करती है या उस पर अन्यथा पर्भाव डालती है । (2) िविशष्टतया और उपधारा (1) म अन्तिवष्ट पर्ितपादना की ापकता पर पर्ितकू ल पर्भाव डाले िबना, इस संिहता की िकसी भी बात के बारे म यह नह समझा जाएगा िक वह िकसी ऐसे उपचार को पिरसीिमत करती है या उस पर अन्यथा पर्भाव डालती है, िजसे भू-धारक या भू-स्वामी कृ िष-भूिम के भाटक की वसूली ऐसी भूिम की उपज से करने के िलए तत्समय पर्वृ िकसी िविध के अधीन रखता है । 5. संिहता का राजस्व न्यायालय को लागू होना—(1) जहां कोई राजस्व न्यायालय पर्िकर्या सम्बन्धी ऐसी बात म िजन पर ऐसे न्यायालय को लागू कोई िवशेष अिधिनयिमित मौन है, इस संिहता के उपबन्ध ारा शािसत है वहां राज्य सरकार 1 *** राजपतर् म अिधसूचना ारा यह घोषणा कर सके गी िक उन उपबन्ध के कोई भी पर्भाग, जो इस संिहता ारा अिभ क्त रूप से लागू नह िकए गए ह, उन न्यायालय को लागू नह ह गे या उन्ह के वल ऐसे उपान्तर के साथ लागू ह गे जैसे राज्य सरकार 2 *** िविहत करे । (2) उपधारा (1) म “राजस्व न्यायालय” से ऐसा न्यायालय से ऐसा न्यायालय अिभपर्ेत है जो कृ िष पर्योजन के िलए पर्युक्त भूिम के भाटक, राजस्व या लाभ से सम्बिन्धत वाद या अन्य कायर्वािहय को गर्हण करने की अिधकािरता िकसी स्थानीय िविध के अधीन रखता है िकन्तु ऐसे वाद या कायर्वािहय का िवचारण िसिवल पर्कृ ित के वाद या कायर्वािहय के रूप म करने के िलए इस संिहता के अधीन आरिम्भक अिधकािरता रखने वाला िसिवल न्यायालय इसके अन्तगर्त नह आता । 6. धन-सम्बन्धी अिधकािरता—अिभ क्त रूप से जैसा उपबिन्धत है उसके िसवाय, इसकी िकसी बात का पर्भाव ऐसा नह होगा िक वह िकसी न्यायालय को उन वाद पर अिधकािरता दे दे िजनकी रकम या िजनकी िवषय-वस्तु का मूल्य उसकी मामूली अिधकािरता की धन-सम्बन्धी सीमा से (यिद कोई ह ) अिधक है । 7. पर्ान्तीय लघुवाद न्यायालय—उन न्यायालय पर, जो पर्ान्तीय लघुवाद न्यायालय अिधिनयम, 1887 (1887 का 9) के अधीन 3 [याबरार लघुवाद न्यायालय िविध, 1905 के अधीन] गिठत ह, या उन न्यायालय पर, जो लघुवाद न्यायालय की अिधकािरता का पर्योग 4 [उक्त अिधिनयम या िविध के अधीन] करते ह 5 [या 6 [भारत के िकसी ऐसे भाग] के , 6[िजस पर उक्त अिधिनयम का िवस्तार नह ह] उन न्यायालय पर, जो समरूपी अिधकािरता का पर्योग करते है,] िनम्निलिखत उपबन्ध का िवस्तार नह होगा, अथार्त् :— (क) इस संिहता के पाठ के उतने अंश का, जो— (i) उन वाद से संबंिधत है जो लघुवाद न्यायालय के संज्ञान से अपवािदत ह, (ii) ऐसे वाद म की िडिकर्य के िनष्पादन से संबंिधत है, (iii) स्थावर सम्पि के िवरु िडिकर्य के िनष्पादन से संबंिधत है, तथा (ख) िनम्निलिखत धारा का, अथार्त्— धारा 9 का, धारा 91 और धारा 92 का, धारा 94 और धारा 95 का 7 [जहां तक िक वे—] (i) स्थावर सम्पि की कु क के िलए आदेश , (ii) ादेश , (iii) स्थावर सम्पि के िरसीवर की िनयुिक्त, अथवा (iv) धारा 94 के खण्ड (ङ) म िनिदष्ट अन्तवर्त आदेश , को पर्ािधकृ त करती है या उनसे सम्बिन्धत है, तथा धारा 96 से धारा 112 तक की धारा और धारा 115 का । 1 1920 के अिधिनयम सं० 38 की धारा 2 और पहली अनुसूची के भाग 1 ारा “सपिरषद् गवनर्र जनरल की पूवर् मंजूरी से” शब्द का लोप िकया गया । 2 1920 के अिधिनयम सं० 38 की धारा 2 और पहली अनुसूची के भाग 1 ारा “पूव क्त मंजूरी से” शब्द का लोप िकया गया । 3 1941 के अिधिनयम सं० 4 की धारा 2 और तीसरी अनुसूची ारा अन्तःस्थािपत । 4 1941 के अिधिनयम सं० 4 की धारा 2 और तीसरी अनुसूची ारा “उस अिधिनयम के अधीन” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 5 1951 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 5 ारा अन्तःस्थािपत । 6 िविध अनुकूलन (सं० 2) आदेश, 1956 ारा “भाग ख राज्य ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 7 1926 के अिधिनयम सं० 1 की धारा 3 ारा “जहां तक िक वे आदेश और अन्तवर्त आदेश से संबंिधत ह” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 5 8. पर्ेिसडेन्सी लघुवाद न्यायालय—धारा 24, धारा 38 से धारा 41 तक की धारा , धारा 75 के खण्ड (क), (ख) और (ग), धारा 76, 1 [धारा 77, धारा 157 और धारा 158] म तथा पर्ेिसडेन्सी लघुवाद न्यायालय अिधिनयम, 1882 (1882 का 15) ारा यथा उपबिन्धत के िसवाय, इस संिहता के पाठ के उपबन्ध का िवस्तार कलक ा, मदर्ास और मुम्बई नगर म स्थािपत िकसी लघुवाद न्यायालय म के िकसी भी वाद या कायर्वाही पर नह होगा : 2 [परन्तु— (1) यथािस्थित, फोटर् िविलयम, मदर्ास और मुम्बई के उच्च न्यायालय समय-समय पर राजपतर् म अिधसूचना ारा िनदेश 3 दे सकगे िक ऐसे िकन्ह भी उपबन्ध का िवस्तार, जो पर्ेिसडेन्सी लघुवाद न्यायालय अिधिनयम, 1882 (1882 का 15) के अिभ क्त उपबन्ध से असंगत न ह और ऐसे उपान्तर और अनुकूलन सिहत, जो उस अिधसूचना म िविनिदिष्ट िकए जाएं, ऐसे न्यायालय म के वाद या कायर्वािहय पर या वाद या कायर्वािहय के िकसी वगर् पर होगा । (2) उक्त उच्च न्यायालय म से िकसी के भी ारा पर्ेिसडेन्सी लघुवाद न्यायालय अिधिनयम, 1882 (1882 का 15) की धारा 9 के अधीन इसके पहले बनाए गए सभी िनयम िविधमान्यतः बनाए गए समझे जाएंगे ।] भाग 1 साधारणतः वाद के िवषय म न्यायालय की अिधकािरता और पूव-र् न्याय 9. जब तक िक विजत न हो, न्यायालय सभी िसिवल वाद का िवचारण करगे—न्यायालय को (इसम अन्तिवष्ट उपबन्ध के अधीन रहते हुए) उन वाद के िसवाय, िजनका उनके ारा संज्ञान अिभ क्त या िवविक्षत रूप से विजत है, िसिवल पर्कृ ित के सभी वाद के िवचारण की अिधकािरता होगी । 4 [स्पष्टीकरण 1]—वह वाद िजसम सम्पि -सम्बन्धी या पद-सम्बन्धी अिधकार पर्ितवािदत है, इस बात के होते हुए भी िक ऐसा अिधकार धािमक कृ त्य या कम सम्बन्धी पर्श्न के िविनश्चय पर पूणर् रूप से अवलिम्बत है, िसिवल पर्कृ ित का वाद है । 5 [स्पष्टीकरण 2—इस धारा के पर्योजन के िलए, यह बात ताित्त्वक नह है िक स्पष्टीकरण 1 म िनिदष्ट पद के िलए कोई फीस है या नह अथवा ऐसा पद िकसी िविशिष्ट स्थान से जुड़ा है या नह ।] 10. वाद का रोक िदया जाना—कोई न्यायालय ऐसे िकसी भी वाद के िवचारण म िजसम िववा -िवषय उसी के अधीन मुकदमा करने वाले िकन्ह पक्षकार के बीच के या ऐसे पक्षकार के बीच के , िजनसे ुत्पन्न अिधकार के अधीन वे या उनम से कोई दावा करते ह, िकसी पूवर्तन संिस्थत वाद म भी पर्त्यक्षतः और सारतः िववा है, आगे कायर्वाही नह करे गा जहां ऐसा वाद उसी न्यायालय म या 6 [भारत] म के िकसी अन्य ऐसे न्यायालय म, जो दावा िकया गया अनुतोष देने की अिधकािरता रखता है या 6[भारत] की सीमा के परे वाले िकसी ऐसे न्यायालय म, जो 7 [के न्दर्ीय सरकार 8 ***] ारा स्थािपत िकया गया है या चालू रखा गया है और, वैसी ही अिधकािरता रखता है, या 9 [उच्चतम न्यायालय] के समक्ष लिम्बत है । स्पष्टीकरण—िवदेशी न्यायालय म िकसी वाद का लिम्बत होना उसी वाद-हेतुक पर आधािरत िकसी वाद का िवचारण करने से 6[भारत] म के न्यायालय को पर्वािरत नह करता । 11. पूव-र् न्याय—कोई भी न्यायालय िकसी ऐसे वाद या िववा क का िवचारण नह करे गा िजसम पर्त्यक्षतः और सारतः िववा -िवषय उसी हक के अधीन मुकदमा करने वाले उन्ह पक्षकार के बीच के या ऐसे पक्षकार के बीच के िजनसे ुत्पन्न अिधकार के अधीन वे या उनम से कोई दावा करते ह, िकसी पूवर्वत वाद म भी ऐसे न्यायालय म पर्त्यक्षतः और सारतः िववा रहा है, जो ऐसे पश्चत्वत वाद का या उस वाद का, िजसम ऐसा िववा क वाद म उठाया गया है, िवचारण करने के िलए सक्षम था और ऐसे न्यायालय ारा सुना जा चुका है और अिन्तम रूप से िविनिश्चत िकया जा चुका है । स्पष्टीकरण 1—“पूवर्वत वाद” पद ऐसे वाद का ोतक है जो पर्श्नगत वाद के पूवर् ही िविनिश्चत िकया जा चुका है चाहे वह उससे पूवर् संिस्थत िकया गया हो या नह । स्पष्टीकरण 2—इस धारा के पर्योजन के िलए, न्यायालय की सक्षमता का अवधारण ऐसे न्यायालय के िविनश्चय से अपील करने के अिधकार िवषयक िकन्ह उपबन्ध का िवचार िकए िबना िकया जाएगा । 1 1976 के अिधिनयम सं० 104 की धारा 4 ारा (1-2-1977 से) “धारा 77 और 155 से लेकर 158 तक की धारा ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 2 1914 के अिधिनयम सं० 1 की धारा 2 ारा जोड़ा गया । 3 िनदेश के ऐसे उदाहरण के िलए कलक ा राजपतर् (अंगर्ेजी), 1910, भाग 1, पृ० 814 देख । 4 1976 के अिधिनयम सं० 104 की धारा 5 ारा (1-2-1977 से) स्पष्टीकरण को स्पष्टीकरण 1 के रूप म पुनःसंख्यांिकत िकया गया । 5 1976 के अिधिनयम सं० 104 की धारा 5 ारा (1-2-1977 से) अंतःस्थािपत । 6 1951 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 3 ारा “राज्य ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 7 भारत शासन (भारतीय िविध अनुकूलन) आदेश, 1937 ारा “सपिरषद् गवनर्र जनरल” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 8 भारतीय स्वतंतर्ता (के न्दर्ीय अिधिनयम और अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948 ारा “या कर्ाउन िरपर्ेजेन्टेिटव” शब्द का लोप िकया गया । 9 िविध अनुकूलन आदेश, 1950 ारा “िहज मैजेस्टी इन काउिन्सल” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 6 स्पष्टीकरण 3—ऊपर िनदिशत िवषय का पूवर्वत वाद म एक पक्षकार ारा अिभकथन और दूसरे ारा अिभ क्त या िवविक्षत रूप से पर्त्याख्यान या स्वीकृ ित आवश्यक है । स्पष्टीकरण 4—ऐसे िकसी भी िवषय के बारे म, जो ऐसे पूवर्वत वाद म पर्ितरक्षा या आकर्मण का आधार बनाया जा सकता था और बनाया जाना चािहए था, यह समझा जाएगा िक वह ऐसे वाद म पर्त्यक्षतः और सारतः िववा रहा है । स्पष्टीकरण 5—वाद पतर् म दावा िकया गया कोई अनुतोष, जो िडकर्ी ारा अिभ क्त रूप से नह िदया गया है, इस धारा के पर्योजन के िलए नामंजूर कर िदया गया समझा जाएगा । स्पष्टीकरण 6—जहां कोई व्यिक्त िकसी लोक अिधकार के या िकसी ऐसे पर्ाइवेट अिधकार के िलए सद्भावपूवक र् मुकदमा करते ह िजसका वे अपने िलए और अन्य व्यिक्तय के िलए सामान्यतः दावा करते ह वहां ऐसे अिधकार से िहतब सभी व्यिक्तय के बारे म इस धारा के पर्योजन के िलए यह समझा जाएगा िक वे ऐसे मुकदमा करने वाले व्यिक्तय से ुत्पन्न अिधकार के अधीन दावा करते ह । [स्पष्टीकरण 7—इस धारा के उपबन्ध िकसी िडकर्ी के िनष्पादन के िलए कायर्वाही को लागू ह गे और इस धारा म िकसी 1 वाद, िववा क या पूवर्वत वाद के पर्ित िनदश का अथर् कर्मशः उस िडकर्ी के िनष्पादन के िलए कायर्वाही, ऐसी कायर्वाही म उठने वाले पर्श्न और उस िडकर्ी के िनष्पादन के िलए पूवर्वत कायर्वाही के पर्ित िनदश के रूप म लगाया जाएगा । स्पष्टीकरण 8—कोई िववा क जो सीिमत अिधकािरता वाले िकसी न्यायालय ारा, जो ऐसा िववा क िविनिश्चत करने के िलए सक्षम है, सुना गया है और अिन्तम रूप से िविनिश्चत िकया जा चुका है, िकसी पश्चत्वत वाद म पूवर्-न्याय के रूप म इस बात के होते हुए भी पर्वृ होगा िक सीिमत अिधकािरता वाला ऐसा न्यायालय ऐसे पश्चात्वत वाद का या उस वाद का िजसम ऐसा िववा क वाद म उठाया गया है, िवचारण करने के िलए, सक्षम नह था ।] 12. अितिरक्त वाद का वजर्न—जहां वादी िकसी िविशष्ट वाद-हेतुक के सम्बन्ध म अितिरक्त वाद संिस्थत करने से िनयम ारा पर्वािरत है वहां वह िकसी ऐसे न्यायालय म िजसे यह संिहता लागू है, कोई वाद ऐसे वाद-हेतुक म संिस्थत करने का हकदार नह होगा । 13. िवदेशी िनणर्य कब िनश्चयक नह होगा—िवदेशी िनणर्य उसके ारा उन्ह पक्षकार के बीच या उसी हक के अधीन मुकदमा करने वाले ऐसे पक्षकार के बीच, िजनसे ुत्पन्न अिधकार के अधीन वे या उनम से कोई दावा करते ह, पर्त्यक्षतः न्यायिनण त िकसी िवषय के बारे म वहां के िसवाय िनश्चयक होगा जहां— (क) वह सक्षम अिधकािरता वाले न्यायालय ारा नह सुनाया गया है, (ख) वह मामले के गुणागुण के आधार पर नह िदया गया है, (ग) कायर्वािहय के सकृ त दशर्ने स्पष्ट है िक वह अन्तरराष्टर्ीय िविध के अशु बोध पर या 2 [भारत] की िविध को उन मामल म िजनको वह लागू है, मान्यता देने से इं कार करने पर आधािरत है, (घ) वे कायर्वािहयां, िजनम वह िनणर्य अिभपर्ाप्त िकया गया था, नैसिगक न्याय के िवरु ह, (ङ) वह कपट ारा अिभपर्ाप्त िकया गया है, (च) वह 2[भारत] म पर्वृ िकसी िविध के भंग पर आधािरत दावे को ठीक ठहराता है । 14. िवदेशी िनणर्य के बारे म उपधारणा—न्यायालय िकसी ऐसे दस्तावेज के पेश िकए जाने पर जो िवदेशी िनणर्य की पर्मािणत पर्ित होना तात्पियत है यिद अिभलेख से इसके पर्ितकू ल पर्तीत नह होता है तो यह उपधारणा करे गा िक ऐसा िनणर्य सक्षम अिधकािरता वाले न्यायालय ारा सुनाया गया था िकन्तु ऐसी उपधारणा को अिधकािरता का अभाव सािबत करके िवस्थािपत िकया जा सके गा । वाद करने का स्थान 15. वह न्यायालय िजसम वाद संिस्थत िकया जाए—हर वाद उस िनम्नतम शर्ेणी के न्यायलय म संिस्थत िकया जाएगा जो उसका िवचारण करने के िलए सक्षम है । 16. वाद का वहां संिस्थत िकया जाना जहां िवषय-वस्तु िस्थत है—िकसी िविध ारा िविहत धन-सम्बन्धी या अन्य पिरसीमा के अधीन रहते हुए, वे वाद जो— (क) भाटक या लाभ के सिहत या रिहत स्थावर सम्पि के पर्त्यु रण के िलए, (ख) स्थावर सम्पि के िवभाजन के िलए, 1 1976 के अिधिनयम सं० 104 की धारा 5 ारा (1-2-1977 से) अंतःस्थािपत । 2 1951 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 3 ारा “राज्य ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 7 (ग) स्थावर सम्पि के बन्धक की या उस पर के भार की दशा म पुरोबन्ध, िवकर्य या मोचन के िलए, (घ) स्थावर सम्पि म के िकसी अन्य अिधकार या िहत के अवधारण के िलए, (ङ) स्थावर सम्पि के पर्ित िकए गए दोष के िलए पर्ितकर के िलए, (च) करस्थम् या कु क के वस्तुतः अधीन जंगम सम्पि के पर्त्यु रण के िलए, ह, उस न्यायालय म संिस्थत िकए जाएंगे िजसकी अिधकािरता की स्थानीय सीमा के भीतर वह सम्पि िस्थत है : परन्तु पर्ितवादी के ारा या िनिम धािरत स्थावर सम्पि के सम्बन्ध म अनुतोष की या ऐसी सम्पि के पर्ित िकए गए दोष के िलए पर्ितकर की अिभपर्ािप्त के िलए वाद, जहां चाहा गया अनुतोष उसके स्वीय आज्ञानुवतर्न के ारा पूवर् रूप से अिभपर्ाप्त िकया जा सकता है, उस न्यायालय म िजसकी अिधकािरता की स्थानीय सीमा के भीतर सम्पि िस्थत है या उस न्यायालय म िजसकी अिधकािरता की स्थानीय सीमा के भीतर पर्ितवादी वास्तव म और स्वेच्छा से िनवास करता है या कारबार करता है या अिभलाभ के िलए स्वयं काम करता है, संिस्थत िकया जा सके गा । स्पष्टीकरण—इस धारा म “सम्पि ” से 1 [भारत] म िस्थत सम्पि अिभपर्ेत है । 17. िविभन्न न्यायालय की अिधकािरता के भीतर िस्थत स्थावर सम्पि के िलए वाद—जहां वाद िविभन्न न्यायालय की अिधकािरता के भीतर िस्थत स्थावर सम्पि के सम्बन्ध म अनुतोष की या ऐसी सम्पि के िलए िकए गए दोष के िलए पर्ितकर की अिभपर्ािप्त के िलए है वहां वह वाद िकसी भी ऐसे न्यायालय म संिस्थत िकया जा सके गा िजसकी अिधकािरता की स्थानीय सीमा के भीतर सम्पि का कोई भाग िस्थत है : परन्तु यह तब जबिक पूरा दावा उस वाद की िवषय-वस्तु के मूल्य की दृिष्ट से ऐसे न्यायालय ारा संज्ञय े है । 18. जहां न्यायालय की अिधकािरता की स्थानीय सीमाएं अिनिश्चत ह वहां वाद के संिस्थत िकए जाने का स्थान—(1) जहां यह अिभकथन िकया जाता है िक यह अिनिश्चत है िक कोई स्थावर सम्पि दो या अिधक न्यायालय म से िकस न्यायालय की अिधकािरता की स्थानीय सीमा के भीतर िस्थत है वहां उन न्यायालय म से कोई भी एक न्यायालय, यिद उसका समाधान हो जाता है िक अिभकिथत अिनिश्चतता के िलए आधार है, उस भाव का कथन अिभिलिखत कर सके गा, और तब उस सम्पि से सम्बिन्धत िकसी भी वाद को गर्हण करने और उसका िनपटारा करने के िलए आगे कायर्वाही कर सके गा, और उस वाद म उसकी िडकर्ी का वही पर्भाव होगा मानो वह सम्पि उसकी अिधकािरता की स्थानीय सीमा के भीतर िस्थत हो : परन्तु यह तब जबिक वह वाद ऐसा है िजसके सम्बन्ध म न्यायालय उस वाद की पर्कृ ित और मूल्य की दृिष्ट से अिधकािरता का पर्योग करने के िलए सक्षम है । (2) जहां कथन उपधारा (1) के अधीन अिभिलिखत नह िकया गया है और िकसी अपील या पुनरीक्षण न्यायालय के सामने यह आक्षेप िकया जाता है िक ऐसी सम्पि से सम्बिन्धत वाद म िडकर्ी या आदेश ऐसे न्यायालय ारा िकया गया था िजसकी वहां अिधकािरता नह थी जहां सम्पि िस्थत है वहां अपील या पुनरीक्षण न्यायालय उस आक्षेप को तब तक अनुज्ञात नह करे गा जब तक िक उसकी राय न हो िक वाद के संिस्थत िकए जाने के समय उसके सम्बन्ध म अिधकािरता रखने वाले न्यायालय के बारे म अिनिश्चतता के िलए कोई युिक्तयुक्त आधार नह था उसके पिरणामस्वरूप न्याय की िनष्फलता हुई है । 19. शरीर या जंगम सम्पि के पर्ित िकए गए दोष के िलए पर्ितकर के िलए वाद—जहां वाद शरीर या जंगम सम्पि के पर्ित िकए गए दोष के िलए पर्ितकर के िलए है वहां यिद दोष एक न्यायालय की अिधकािरता की स्थानीय सीमा के भीतर िकया गया था और पर्ितवादी िकसी अन्य न्यायालय की अिधकािरता की स्थानीय सीमा के भीतर िनवास करता है या कारबार करता है या अिभलाभ के िलए स्वयं काम करता है तो वाद वादी के िवकल्प पर उक्त न्यायालय म से िकसी भी न्यायालय म संिस्थत िकया जा सके गा । दृष्टांत (क) िदल्ली म िनवास करने वाला क कलक े म ख को पीटता है । ख कलक े म या िदल्ली म क पर वाद ला सके गा । (ख) ख की मानहािन करने वाले कथन िदल्ली म िनवास करने वाला क कलक े म पर्कािशत करता है । ख कलक े म या िदल्ली म क पर वाद ला सके गा । 20. अन्य वाद वहां संिस्थत िकए जा सकगे जहां पर्ितवादी िनवास करते ह या वाद-हेतक ु पैदा होता है—पूव क्त पिरसीमा के अधीन रहते हुए, हर वाद ऐसे न्यायालय म संिस्थत िकया जाएगा िजसकी अिधकािरता की स्थानीय सीमा के भीतर— (क) पर्ितवादी, या जहां एक से अिधक पर्ितवादी ह वहां पर्ितवािदय म से हर एक वाद के पर्ारम्भ के समय वास्तव म और स्वेच्छा से िनवास करता है या कारबार करता है या अिभलाभ के िलए स्वयं काम करता है ; अथवा 1 1951 के अिधिनयम सं० 2 की धारा 3 ारा “राज्य ” के स्थान पर पर्ितस्थािपत । 8 (ख) जहां एक से अिधक पर्ितवादी ह वहां पर्ितवािदय म से कोई भी पर्ितवादी वाद के पर्ारम्भ के समय वास्तव म और स्वेच्छा से िनवास करता है या कारबार करता है या अिभलाभ के िलए स्वयं काम करता है, परन्तु यह तब जबिक ऐसी अवस्था म या तो न्यायालय की इजाजत दे दी गई है या जो पर्ितवादी पूव क्त रूप म िनवास नह करते या कारबार नह करते या अिभलाभ के िलए स्वयं काम नह करते, वे ऐसे संिस्थत िकए जाने के िलए उपमत हो गए ह; अथवा (ग) वाद-हेतुक पूणर्तः या भागतः पैदा होता है । 1* * * * [स्पष्टीकरण]—िनगम के बारे म यह समझा जाएगा िक वह 3 [भारत] म के अपने एकमातर् या पर्धान कायार्लय म या िकसी 2 ऐसे वाद-हेतुक की बाबत, जो ऐसे िकसी स्थान म पैदा हुआ है जहां उसका अधीनस्थ कायार्लय भी है, ऐसे स्थान म कारबार करता है । दृष्टांत (क) क कलक े म एक ापारी है । ख िदल्ली म कारबार करता है । ख कलक े के अपने अिभकतार् के ारा क से माल खरीदता है और ईस्ट इं िडयन रे ल कम्पनी को उनका पिरदान करने को क से पर्ाथर्ना करता है । क तद्नुसार माल का पिरदान कलक े म करता है । क माल की कीमत के िलए ख के िवरु वाद या तो कलक े म जहां वाद-हेतुक पैदा हुआ है, या िदल्ली म जहां ख कारबार करता है, ला सके गा (ख) क िशमला म, ख कलक े म और ग िदल्ली म िनवास करता है । क, ख और ग एक साथ बनारस म ह जहां ख और ग मांग पर देय एक संयुक्त वचनपतर् तैयार करके उसे क को पिरद कर देते ह । ख और ग पर क बनारस म वाद ला सके गा, जहां वाद- हेतुक पैदा हुआ । वह उन पर कलक े म भी, जहां ख िनवास करता है, या िदल्ली म भी, जहां ग िनवास करता है, वाद ला सके गा, िकन्तु इन अवस्था म से हर एक म यिद अिनवासी पर्ितवादी आक्षेप करे , तो वाद न्यायालय की इजाजत के िबना नह चल सकता । 21. अिधकािरता के बारे म आक्षेप— 4 [(1)] वाद लाने के स्थान के सम्बन्ध म कोई भी आक्षेप िकसी भी अपील या पुनरीक्षण न्यायालय ारा तब तक अ

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