आर्याभिविनय का स्वाध्याय PDF

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गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद

2024

प्रो. कमलेशकुमार छ. शास्त्री

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Sanskrit study guide Aryabhivinaya Hinduism

Summary

This book, "आर्याभिविनय का स्वाध्याय", is a study guide on Aryabhivinaya written by Maharishi Dayanand Saraswati, produced in June 2024. The author is Professor Kamlesh Kumar Ch. Shastri, and the publication is from Gujarat University, Ahmedabad.

Full Transcript

महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत - लेखक प्रो. कमलेशकुमयर छ. चोकसी पूवि अध्यक्ष, भाषासाहहत्यभवन तथा संस्कृतर्वभाग, गुजरात यनु नवर्सिटी, अहमदावाद...

महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत - लेखक प्रो. कमलेशकुमयर छ. चोकसी पूवि अध्यक्ष, भाषासाहहत्यभवन तथा संस्कृतर्वभाग, गुजरात यनु नवर्सिटी, अहमदावाद प्रकाशक................................................ आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 1 आयािर्भर्वनय का स्वाध्याय (महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत आयािर्भर्वनय का सरलीकृत अवतार) ARYABHIVINAY KA SWADHYAYA (Simplified version of Aryabhivinaya written by Maharishi Dayanand Saraswati) संकल्पना तथा लेखन प्रो. कमलेशकुमार छ. शास्री पूवि प्रोफेसर तथा अध्यक्ष, संस्कृत र्वभाग, भाषासाहहत्यभवन, गज ु रात यनु नवर्सिटी, अमदावाद – 380009 तथा प्रधान, आयिसमाज, महर्षि दयानन्द मागि, कांकररया, अमदावाद – 380022 संपकि – मोबा. 9825478876 ईमेल – [email protected] प्रनत – 1000 संस्करण प्रथम, जन ू 2024 प्रकाशक – मल् ू य - मुद्रक - आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 2 ।। ओ३म ् ।। मल ू -ग्रन्थ के रचनयता की प्रस्तावना...................................................................................................... अथायािर्भर्वनयोपक्रमणणकार्वचारः...................................................................................................... सियात्मय सच्चचदयनन्दोऽनन्तो र्ो न्र्यर्कृचछुचचिः । िर् ू यत्तमयां सहयर्ो नो दर्यलिःु सिाशच्ततमयन ् ।। 1 ।। चक्षूरयमयङ्कचन्रे ʃब्दे चैत्रे मयभस भसते दले । दशमर्यां गरु ु ियरे ʃर्ां ग्रन्थयरमििः कृतो मर्य ।। 2 ।। दर्यर्य आनन्दो विलसतत परिः स्ियत्मविददतिः सरस्ित्र्स्र्यग्रे तनिसतत मद ु य सत्र्तनलर्य । इर्ां ख्र्यततर्ास्र् प्रलभसतगण ु य िेदशरणय - स्त्र्नेनयर्ां ग्रन्थो रचचत इतत बोद्धव्र्मनघयिः ।। 3 ।। बहुभििः प्रयचथातिः समर्ग ् ग्रन्थयरमििः कृतो ʃधन ु य । दहतयर् सिालोकयनयां ज्ञयनयर् परमयत्मनिः ।। 4 ।। िेदस्र् मल ू मन्त्रयणयां व्र्यख्र्यनां लोकियषर्य । क्रिर्ते सख ु बोधयर् ब्रह्मज्ञयनयर् समप्रतत ।। 5 ।। स्तत्ु र्प ु यसनर्ोिः समर्क् प्रयथानयर्यश्च िर्णातिः । विषर्ो िेदमन्त्रैश्च सिेषयां सख ु िद्ाधनिः ।। 6 ।। विमलां सख ु दां सततां सदु हतां जगतत प्रततां तद ु िेदगतम ् । मनभस प्रकटां र्दद र्स्र् सख ु ी स नरो ʃच्स्त सदे श्िरियगचधकिः ।। 7 ।। विशेषियगीह िण ृ ोतत र्ो दहतां नरिः परयत्मयनमतीि मयनतिः । अशेषदिःु खयत्तु विमच ु र् विद्र्र्य स मोक्षमयप्नोतत न कयमकयमक ु िः ।। 8 ।। व्र्यख्र्यन - जो परमात्मा, सबका आत्मा, सत ्-चचत ्-आनन्दस्वरूप, अनन्त, अज, न्याय करने वाला, ननमिल, सदा पर्वर, दयाल,ु सब सामर्थयिवाला हमारा इष्टदे व है , वह हमको सहाय ननत्य दे वे, जजससे महाकहिन काम भी हम लोग सहज से करने को समथि हों । हे कृपाननधे ! यह काम हमारा आप ही र्सद्ध करनेवाले हो, हम आशा करते हैं कक आप अवश्य हमारी कामना र्सद्ध करें गे ।। 1 ।। संवत ् 1932 र्मती चैर सद ु ी 10, गरु ु वार के हदन इस ग्रन्थ का आरम्भ हमने ककया ।। 2 ।। (दयानन्द सरस्वती स्वामी का नाम इस श्लोक से ननकलता है ।। 3 ।। आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 3 बहुत सज्जन लोग, सबके हहतकारक, धमाित्मा, र्वद्वान ्, र्वचारशील जनों ने मझ ु से प्रीनत से कहा तब सब लोगों के हहत और यथाथि परमेश्वर का ज्ञान तथा प्रेमभजतत यथावत ् हो, इसर्लए इस ग्रन्थ का आरम्भ ककया है ।। 4 ।। इस ग्रन्थ में केवल चार वेदों के और ब्राह्मणग्रन्थों के१ मल ू मन्रों का प्राकृतभाषा में व्याख्यान ककया है , जजससे सब लोगों को सख ु से बोध हो और ब्रह्म का ज्ञान यथाथि हो ।। 4 ।। इस ग्रन्थ में परमेश्वर की स्तनु त, प्राथिना, उपासना तथा धमािहद र्वषय (का) वणिन ककया है , परन्तु मल ू संहहता मन्र और ब्राह्मण प्रमाण से ही, सब को सख ु बढाने वाला यह र्वषय है ।। 5 ।। जो ब्रह्म र्वमल, सख ु कारक, पण ू क ि ाम, तप्ृ त, जगत ् में व्याप्त, वही सब वेदों से प्राप्य है , जजसके मन में इस ब्रह्म की प्रकटता (यथाथि र्वज्ञान) है , वही मनष्ु य ईश्वर के आनन्द का भागी है और वही सबसे सदै व अचधक सख ु ी है । ऐसे मनष्ु य को धन्य है ।। 7 ।। जो नर इस संसार में अत्यन्त प्रेम, धमाित्मता, र्वद्या, सत्सङ्ग, सर्ु वचारता, ननवैरता, जजतेजन्द्रयता, प्रत्यक्षाहद प्रमाणों से परमात्मा का स्वीकार (आश्रय) करता है , वही जन अतीव भाग्यशाली है , तयोंकक वह मनष्ु य यथाथि सत्यर्वद्या से सम्पण ू ि दःु ख से छूटके परमानन्द परमात्मा का ननत्य संगरूप जो मोक्ष उसको प्राप्त होता है , कफर कभी जन्म मरण आहद दःु ख सागर को प्राप्त नहीं होता, परन्तु जो र्वषयलम्पट, र्वचाररहहत, र्वद्या, धमि, जजतेजन्द्रयता, सत्सङ्गरहहत, छल, कपट, अर्भमान, दरु ाग्रहाहद दष्ु टतायत ु त है , सो वह मोक्ष-सख ु को प्राप्त नहीं होता, तयोंकक वह ईश्वरभजतत से र्वमख ु है ।। 8 ।। और वह मनष्ु य जन्म-मरण, ज्वराहद पीडाओं से पीड़डत होके सदा दःु खसागर में ही पडा रहता है । इससे सब मनष्ु यों को उचचत है कक परमेश्वर और उसकी आज्ञा से र्वरुद्ध कभी नहीं हों, ककन्तु ईश्वर तथा उसकी आज्ञा में तत्पर होके इस लोक (संसार-व्यवहार) और परलोक (जो पव ू ोतत मोक्ष) इनकी र्सद्चध यथावत ् करें , यही सब मनष्ु यों की कृतकृत्यता है । इस आयािर्भर्वनय ग्रन्थ में मख् ु यता से वेदमन्रों का परमेश्वर-सम्बन्धी एक ही अथि संक्षेप से ककया है । दोनों अथि करने से ग्रन्थ बढ जाता, इससे व्यवहार-र्वद्यासम्बन्धी अथि नहीं ककया गया, परन्तु वेदों के भाष्य में यथावत ् र्वस्तारपव ू क ि परमाथि और व्यवहाराथि — ये दोनों अथि सप्रमाण ककये जायेंगे । — जैसे कक (तदे वाजग्नस्तदाहदत्यस्तद्वायरु रत्याहद । यजव ु ेद संहहता प्रमाण । - यजव ु ेद 32.1. इन्द्रं र्मरं वरुणर्मत्याहद । ऋग्वेद संहहता प्रमाण । - ऋग्वेद 1.164.46. शतपथ (ब्राह्मण प्रमाण) 3.1.4.15 बह ृ स्पनतवै ब्रह्म । ऐतरे य (ब्राह्मण प्रणाम) – 1.13. गणपनतवै ब्रह्म । प्राणो वै ब्रह्म । शतपथ (ब्राह्मण प्रमाण) 14.6.10.2. आपो वै ब्रह्म । ब्रह्म ह्यजग्नररत्याहद ।। शतपथ (ब्राह्मण प्रमाण) 1.5.1.11. आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 4 शतपथ, ऐतरे य ब्राह्मणाहद प्रमाण और महान्तमेवात्मानर्मत्याहद । - ननरुतत (शास्र प्रमाण) 16.1. ननरुतताहद प्रमाणों से (अजग्न आहद शब्दों का) परब्रह्म ही अथि र्लया जाता है तथा मख ु ादजग्न- रजायतेत्याहद । यजव ु ेद संहहता प्रमाण – यजव ु द े 31.12., वायोरजग्नररत्याहद । ब्राह्मण (प्रमाण) तैर्िरीयोपननषद् (3.1.) तथा अजग्नरग्रणीभिवतीत्याहद । - ननरुतत (प्रमाण) 7.14. ननरुतत प्रमाणों से यह प्रत्यक्ष जो रूपगण ु वाला दाह-प्रकाशयत ु त भौनतक अजग्न, वह र्लया जाता है, इत्याहद दृढ प्रमाण, यजु तत और प्रत्यक्ष व्यवहार से दोनों अथि (रूढ तथा यौचगक) वेदभाष्य में र्लखे जायेंगे, जजससे सायणाहदकृत भाष्य-दोष और उनके अनस ु ार अंग्रेजी (र्वद्वानों के) कृताथि (ककये हुए अथि) दोषरूप (होकर) वेदों के कलङ्क ननवि ृ हो जाएँगे और वेदों के सत्याथि का प्रकाश होने से, वेदों का महत्त्व तथा वेदों का अनन्ताथि जानने से मनष्ु यों को महालाभ और वेदों में यथावत ् सबकी प्रीनत होगी । इस ग्रन्थ से तो मनष्ु यों को केवल ईश्वर का स्वरूपज्ञान और भजतत, धमिननष्िा, व्यवहारशद् ु चध इत्याहद प्रयोजन र्सद्ध होंगे, जजससे नाजस्तक और पाखण्डमताहद अधमि में मनष्ु य लोग न फँसें । ककञ्च सब प्रकार से मनष्ु य अत्यि ु म हों और सविशजततमान ् जगदीश्वर की कृपा सब मनष्ु यों पर हो, जजससे सब मनष्ु य दष्ु टता को छोडके श्रेष्िता को स्वीकार करें , यह मेरी परमात्मा से प्राथिना है , सो परमेश्वर अवश्य परू ी करे गा ।। ।। इत्यप ु क्रमणणका संक्षेपतः सम्पण ू ाि ।। आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 5 व्याख्यान-र्वमशि कताि की ।। प्रस्तावना ।। आयिसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती को सामाजजक सध ु ारक, वेदों को उद्धारक, राष्रवाद के पोषक, पाखण्डों के खण्डक, संस्कृत भाषा के प्रसार, गोपररपालक, मानवोद्धारक आहद आहद के रूप में जजतनी प्रर्सद्चध र्मली है , उसके र्वरुद्ध उन्हें (ईश्वर में र्वश्वास न रखने वाले, ईश्वर भजतत न करने वाले, ईश्वर की ननन्दा करने वाले – इत्याहद रूप) नाजस्तक के रूप में अचधक प्रर्सद्चध र्मली है । आज भी जानकारी के अभाव में लोगों के मख ु से सन ु ा जाता है कक आयिसमाज के लोग तो नाजस्तक होते हैं । तयोंकक आयिसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती स्वयं नाजस्तक थे । सामान्य जनमानस में इस प्रकार की बबलकुल र्वपरीत जानकारी कई कारणों से फैली है । उसमें एक कारण महर्षि दयानन्द सरस्वती की सत्याथिप्रकाश, संस्कारर्वचध, ऋग्वेदाहदभाष्यभर्ू मका तथा वेदभाष्य आहद को जो प्रर्सद्चध र्मली है , वैसी प्रर्सद्चध उनके द्वारा रचचत इस आयािर्भर्वनय को नहीं र्मली है । एक तो इसका नाम थोडा हट कर है । बोलने में भी थोडा कहिन है और समझने में भी थोडा कहिन है । कई लोग तो इसके नाम को पढ कर इसे छूने का र्वचार ही नहीं करते । न ही इसके र्वषय को सद्यः समझ पाते हैं । इस जस्थनत में यहद इस आयािर्भर्वनय कृनत को अचधक से अचधक प्रचाररत तथा प्रकार्शत ककया जाय, तो महर्षि दयानन्द सरस्वती की आजस्तकता को, उनके द्वारा प्रवनतित वैहदक ऋर्ष परं परा की भजतत को जनसमान्य जान सकता है । यही जानकारी महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती को सच्चे ईश्वर भजतत के रूप में प्रनतष्िार्पत करवाने पण ू त ि ः समथि बनती है । इस ग्रन्थ में जजस प्रकार से ईश्वर भजतत को प्रस्तत ु ककया गया है , उसमें आत्मकल्याण तो केन्द्र में है ही, साथ साथ राष्रवाद को भी केन्द्र में रखा गया है । यह उस कला की मांग थी । भारत दे श परतन्र था । अंग्रेजों का शासन था । समाज के सभी वगि, जजसमें र्शक्षा का प्रसार था, अंग्रेजी र्शक्षा के प्रभाव में आये हुए थे । उसमें उनके मत के अनस ु ार आजस्तकता को आकार हदया गया था । ऐसे पहित वगि में जो भी आजस्तकता थी, वह राष्रवाद की नहीं परन्तु अंग्रज े , अंग्रेजीयत तथा उनके ईसाई संप्रदाय की पोषक थी । इधर तत्कालीन भारत में ईश्वर भजतत के नाम से सब अपनी अपनी चलाते थे । ईश्वर या परमात्मा नहीं, र्वर्वध प्रकार के दे वी - दे वता कों की र्वर्वध प्रकार से भजतत प्रचर्लत थी । इस भजतत में न तो ईश्वर का वास्तर्वक स्वरूप स्पष्ट होता था और नहीं भजतत का ही कोई आकार-प्रकार ननधािररत होता पाता था । आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 6 भजतत को प्रचाररत तथा प्रसाररत करने वाला मध्यकालीन जो भजतत साहहत्य था, वह जजस नवधा भजतत की बात करता था, उसका अपने ननहहत स्वाथि को र्सद्चध के र्लये उपयोग ककया जा रहा था । भारतीय आयिप्रजा (हहन्दल ु ोग) भजतत के नाम से िगे जाते थे । भतत के र्लये न तो भजतत हो पाती थी और नही भगवान ् की पहचान । हाँ, उसका समय, शजतत तथा धन आहद भजतत के नाम से खूब लट ूं ा जाता था । इतना ही नहीं, जजसकी भजतत करने का उपदे श हदया जाता था, उस ईश्वर या भगवान ् का स्वरूप इतना प्रवाही था कक ननत्य नये नये भगवानों का, दे वी-दे वताओं का प्रचलन होता रहता था । पज ू ा-र्वचध तथा समपिण के नाम से पदाथों का महाभयंकर पररग्रह (संग्रह) ककया जाता था । एक ननयत वगि उसका प्रयोग करता था । समाज का शेष वगि बस दे खा करता था । ऐसी पररजस्थनत में भजतत कायि में तथा भतत के जीवन में राष्र का स्थान कहाँ हो सकता था । उस समय (अथाित ् यवन तथा कफरं चगयों के राज्यकाल में ) भजतत के नाम से एकबरत होने वाले ककसी भी धमिस्थान में , ककसी भी धमिगरु ु के द्वारा राष्रवाद की न तो चचाि की जाती था, न तो भततों को उसके र्लये प्रेररत ककया जाता था । उधऱ कुछ दे श में तथा कुछ र्वदे श में अंग्रज े ी र्शक्षा पाकर र्शक्षक्षत हुए यव ु ानों में दे श की दद ु ि शा का अनभ ु व होने लगा था । आयिधमिशास्र से उनका उतना पररचय न था, जजससे वे वेदाहदशास्रों में उपहदष्ट ईश्वर तथा धमि के वास्तर्वक स्वरूप को समझ सके । न ही वास्तर्वक भजतत और भतत को समझने में समथि हो सके । वे धमि के नाम पर, भजतत के नाम पर जो हो रहा था, उससे संतष्ु ट तथा संमत नहीं थे, अतः उसमें सध ु ार की कामना रखते थे, पर इसके र्लये उनके पास धमिशास्रीय ग्रन्थों के यथाथिज्ञान से प्राप्त होने वाली कोई योग्यता थी । फलतः एक ओर तो वे प्रचर्लत परं परा के ननन्दक बने, तो दस ू री ओर ईसाईयत आहद र्वदे शी धमि-संप्रदायों के प्रचारक बनकर रह गये । कुछ यव ु क राष्रवाद का आश्रय लेकर दे श को स्वतंर बनाने के र्लये सकक्रय हो गये । उन्हों ने इस भजतत-मागि के र्वकार-व्यवहार के प्रनत ध्यान रखने की आवश्यकता नहीं मानी । ऐसी र्वकट जस्थनत में संवत ् 1932 में (सन ् 1876 के आस पास) महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इस आयािर्भर्वनय कृनत की रचना की । आपके द्वारा प्रवनतित आयिसमाज की र्वचारधारा से प्रभार्वत भततों ने इसी ग्रन्थ से प्रेरणा लेकर एक ओर अपने जीवन को भजततमय बनाया, तो दस ू री ओर इसी भजतत की शजतत से संपन्न होकर राष्रवाद को अपनाया । राष्र के र्लये अपना सविस्व समर्पित कर हदया । दभ ु ािग्य से भारत दे श के स्वतन्र हो जाने के बाद भारतीय प्रजाजन में राष्र की ओर से तथा धमिसस् ं थानों का ओर से जो अपेक्षक्षत पररवतिन ककया जाना था, वह हुआ नहीं । पररणाम यह हुआ की आज स्वतन्र भारत में हमारे हहन्दस ु माज में जजस प्रकार का भजततभाव रममाण हो रहा है , उससे न तो भतत आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 7 का कोई कल्याण हो रहा है , न तो राष्र को कुछ लाभ र्मल रहा है । वही जस्थनत है , जैसी परतन्र भारत में , र्वदे र्शयों के राज्यकाल में थी । इसमें सध ु ार की आवश्यकता को अब नये भारत में अनभ ु व ककया जा रहा है । आज जब आयिसमाज महर्षि दयानन्द सरस्वती के जन्म की द्र्वशताब्दी मना रहा है और इसके र्लये भारत के यशस्वी प्रधानमन्री श्री नरे न्द्र मोदी जी की अध्यक्षता में महर्षि दयानन्द सरस्वती की दो सोवीं जन्म जयन्ती के उपलक्ष्य में परू े दे श में वषिभर र्वर्वध कायिक्रम आयोजजत ककये जा रहे हैं, तब हमने ईश्वर के वास्तर्वक स्वरूप का बोध कराने वाली, वास्तर्वक भजततकमि के भतत को जीवनव्यवहार र्सखाने वाली तथा भजतत में राष्र को भी केन्द्र में रखने की प्रेरणा दे ने वाली आयािर्भर्वनय कृनत के सरलीकृत अवतार को प्रस्तत ु करने का र्वनम्र उपक्रम ककया है । हमें पण ू ि र्वश्वास है कक आयािर्भर्वनय के इस सरलीकृत अवतार के स्वाध्याय से (1) महर्षि दयानन्द सरस्वती के भजततमय व्यजततत्व का पररचय हो सकेगा । (2) प्रत्येक पािक को ईश्वर के वास्तर्वक स्वरूप का सरलता से ज्ञान हो सकेगा । (3) ईश्वर की भजतत के वास्तर्वक आकार-प्रकार की जानकारी हो सकेगी । (4) ईश्वर भजतत के साथ साथ राष्र के प्रनत अपने कतिव्य का बोध भी हो सकेगा । अथाित ् ईश्वर की भजतत व्यजतत या ककसी समह ू तक सीर्मत न रह कर राष्रव्यापी बन सकेगी । यद्यर्प हमने आयािर्भर्वनय के प्रथम प्रकाश के प्रारं र्भक पच्चीस मन्रों के व्याख्यान का ही समावेश ककया है , शेष मन्रों के व्याख्यान का र्वमशि भर्वष्य में करने का संकल्प रखा है , सो सभी पािकों को ज्ञात हो । इसका प्रकाशन..... संस्था द्वारा ककया जा रहा है । मेरे र्लये यह गौरव की बात है । इससे इस कृनत के प्रसार का कायि व्यापक रूप से सरलता के साथ हो सकेगा । मैं इसे भी ईश्वर भजतत की कृपा का ही फल मान रहा हूँ । प्रकाशक संस्था का हाहदि क धन्यवाद करता हूँ । र्वशेष रूप से श्री..........................., जो कक............................ संस्था के................................ है , उनका । उनके उदारता पण ू ि सहयोग कक बबना इसका प्रकाशन करना कहिन था । ईश्वर की भजतत कहिन कायि को सरल बना दे ता है , यह इसका जीता जागता उदाहरण है । र्वज्ञेषु ककं बहुना, र्वरमार्म ।। अमदावाद प्रो. कमलेशकुमार शास्री हदनांक 6-6-2024 आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 8 ।। अनि ु मर्णकय ।। 0. मल ू ग्रन्थकयर की प्रस्तयिनय 0. व्र्यख्र्यनविमशा के कतया की प्रस्तयिनय 0. प्रथम पयठ 0. द्वितीर् पयठ 0. तत ृ ीर् पयठ 0. चतथ ु ा पयठ 0. पञ्चम पयठ 0. षष्ठ पयठ 0. सप्तम पयठ 0. अष्टम पयठ 0. निम पयठ 0. दशम पयठ 0. एकयदश पयठ 0. द्ियदश पयठ 0. त्रर्ोदश पयठ 0. चतुदाश पयठ 0. पञ्चदश पयठ 0. षोडश पयठ 0. सप्तदश पयठ 0. अष्टयदश पयठ आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 9 प्रथम पाि कृनत पररचय....................................................................... कृतत पररचर् – 1. आन्तररक सांरचनय 1.1. आयिसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आयािर्भर्वनय शीषिक से एक लघु ग्रन्थ की (संवत ् 1932 में) रचना की है । इस कृनत में प्रथम तथा द्र्वतीय प्रकाश नाम से दो आन्तररक र्वभाग है । प्रथम प्रकाश में ऋग्वेद के 53 मन्रों का व्याख्यान ककया गया है , जब कक द्र्वतीय प्रकाश में यजव ु ेद के 54 मन्रों का तथा तैर्िरीय आरण्यक के एक मन्र का व्याख्यान ककया गया है । इस प्रकार कुल र्मला कर 108 मन्रों को संग्रह करके उन मन्र पर स्वामी दयानन्द ने व्याख्यान ककया है । यह व्याख्यान संस्कृतननष्ि हहन्दी भाषा में है । ग्रन्थ कय नयमकरण 2.1. इस कृनत का नामकरण करते हुए इसके रचनयता ने आयािर्भर्वनय नाम पसंद ककया है । यह एक र्वशेष नाम है । इस नाम में जो भाव नछपा है , वह भी र्वशेष है । 2.2. आयािर्भर्वनय शब्द में आयि तथा अर्भर्वनय दो पद हैं । आयि कारक 1 के रूप में है तथा अर्भर्वनय कक्रया के रूप में है । इस जगत ् में (ईश्वर को छोड कर) जजतने भी पशु, पक्षी प्राणी के रूप में कारक अथाित ् कक्रया को करने वाले कताि हैं, उनमें सबसे श्रेष्ि मानव है । मानवों में भी जो सबसे श्रेष्ि है , वह आयि है । तयोंकक इस आयि पद से जजस श्रेष्िता रूप गुण की अर्भव्यजतत होती है , वह मानवीय व्यजतित्व की सवोिमता का प्रतीक है । इसके आगे के मानवीय व्यजततत्व की कोई कल्पना नहीं की जा सकती । 2.3. वस्तत ु ः वेद के कृण्िन्तो विश्िमयर्ाम ् – इस वचन में समग्र र्वश्व के आयि बनाने की जो भावना अर्भव्यतत हुई है , वह प्रत्येक मानव को उस मानवीय व्यजततत्व तक पहुँचा दे ने की भावना है , जजससे आगे मानवीय व्यजततत्त्व के र्वषय में ओर कुछ र्वचारा ही नहीं जा सकता । सार यह है कक मानव का मानव के रूप में जो पररपण ू ि व्यजततत्व है , उसे ही आयि शब्द से कहा जाता है । यह कोई जानत की संज्ञा नहीं है , अर्पतु यह तो एक गण ु वाचक शब्द है । ऐसे आयि मानव के द्वारा की जाने वाली जजतनी भी कक्रयाएँ हैं, उनमें सब में, नय नहीं, र्वनय नहीं, परन्तु अर्भर्वनय कक्रया सब से श्रेष्ि है , श्रेष्ितम है । इस श्रेष्ि कक्रया से आगे की कोई श्रेष्ि कक्रया नहीं र्वचारी जा सकती । 1. ककसी कक्रया को र्सद्ध करने के र्लये जो उपयोगी होते हैं, उन्हें संस्कृत में कारक कहा गया है । ये कताि, कमि, करण, संप्रदान, अपादान तथा अचधकरण के रूप में छः प्रकार के होते हैं । आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 10 2.4. इस अर्भर्वनय कक्रया के चार चरण है । प्रथम चरण ईश्वर के गुणों का ज्ञान कर, उन गुणों को अपने अंदर प्रस्थार्पत करने के रूप में है । दस ू रा चरण ईश्वर के कमों को ईश्वर से करवाने के संकल्प के रूप में है । तीसरा चरण ईश्वर के स्वभाव को सहने के र्लये दृढप्रनतज्ञ बने रहने के रूप में है । और चौथा चरण अपने स्वार्मत्व के पदाथों पर ईश्वर के स्वार्मत्व की भावना रखते हुए (इदं न मम – यह मेरा नहीं है - की भावना से) अपने जीवन के समस्त व्यवहारों को संपन्न करने के रूप में है । इस प्रकार अर्भर्वनय कक्रया वह कक्रया है , जजसमें एक ओर ज्ञान, कमि तथा उपासना तीनों का समावेश हो जाता है , तो दस ू री ओर ईश्वर की स्तनु त, प्राथिना तथा उपासना – इन तीनों का भी समावेश हो जाता है । ईश्वर भजतत के संदभि में इसके आगे ओर कुछ र्वचारा ही नहीं जा सकता । 2.5. सार यह है कक ग्रन्थ की संज्ञा (आयािर्भर्वनय) में प्रयुतत आयि नामपद तथा अर्भ - र्व उपसगि के साथ प्रयुतत नय आख्यातपद सम्पूणत ि ः संस्कृत तथा योग्यतावान ् भतत तथा उसके द्वारा की जाने वाली अर्भर्वनय पद से अर्भव्यतत उिमोिम कक्रया रूप भजतत के भाव को अर्भव्यतत करता है । 3. मन्त्रों के व्र्यख्र्यन कय स्िरूप 3.1. इस ग्रन्थ में वेद के मन्रों का जजस प्रकार से व्याख्यान ककया गया है , उसमें ग्रन्थकताि ने अधोर्लणखत रूप से कम से कम चार बबन्दओ ु ं का यथाप्रसंग समावेश कर हदया है । तद्यथा – (क) वेद के मन्रों के व्याख्यान से पव ू ि स्तनु तर्वषय या प्राथिना र्वषय – इस प्रकार का शीषिक रखा है । जैसे कक – प्रथम प्रकाश के द्र्वतीय मन्र का शीषिक है – मूल स्तनु त तथा तत ृ ीय मन्र का शीषिक है – मल ू प्राथिना । इसी प्रकार प्रत्येक मन्र के प्रारं भ में मूल स्तनु त या मूल प्राथिना इन में से ककसी एक को शीषिक के रूप में रखा गया है । (ख) व्याख्यान के अन्तगित मन्राथि प्रस्तत ु करने से पहले ईश्वर को (अर्भमुख करने के र्लये) प्रायः सम्बोधन पद का प्रयोग ककया है । ये संबोधन पद कहीं एक है , तो कहीीँ कहीीँ एकाचधक भी है । इन संबोधनों की यह र्वशेषता है कक मन्र के र्वषय के अनुरूप संबोधन पदों का ग्रन्थकताि ने प्रयोग ककया है । तद्यथा – प्रथम प्रकाश के द्र्वतीय मन्र के व्याख्यान के प्रारं भ में - हे वन्द्येश्वराग्ने ! यह एक संबोधन पद रखा गया है , तो तत ृ ीय मन्र के व्याख्यान के प्रारं भ में - हे महादातः ! ईश्वराग्ने ! – इस प्रकार दो संबोधन पद रखे गये हैं । ऐसे ही अन्यर भी ग्रन्थकताि ने संबोधन पदों का प्रयोग ककया है । (ग) मन्रगत पदों का आश्रय लेकर तवचचत ् उन पदों का र्वस्तत ृ भावाथि हदया गया है , तो तवचचत ् तात्पयािथि हदया गया है । उदाहरण के र्लये – (प्रथम प्रकाश का पांचवाँ मन्र व उसका व्याख्यान दे णखये, जो इस प्रकार है ।) अ॒ जग्नहोताा॑ क॒ र्वक्रा॑तःु स॒ त्यजश्च॒ रश्रा॑वस्तमः । दे॒ वो दे॒ वेर्भ॒ रा गा॑मत ् ।। 5 ।। ऋ॰ 1.1.1.5. व्याख्यान - हे सविदृक् ! सब को दे खने वाले “क्रतुः” सब जगत ् के जनक “सत्यः” अर्वनाशी अथाित ् कभी जजसका नाश नहीं होता, “चचरश्रवस्तमः” आश्चयि-श्रवणाहद, आश्चयि-गुण, आश्चयि-शजतत, आश्चयि-स्वरूपवान ् और अत्यन्त उिम आप हो, जजन आपके तुल्य वा आपसे बडा कोई नहीं है । हे जगदीश ! “दे वेर्भः” हदव्य गुणों के आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 11 सह वििमान हमारे हृदय में आप प्रकट हों, सब जगत ् में भी प्रकार्शत हों, जजससे हम और हमारा राज्य हदव्यगुणयुतत हो । वह राज्य आपका ही है , हम तो केवल आपके पुर तथा भत्ृ यवत ् हैं ।। 5 ।। इस मन्र में प्रयत ु त “सत्यः” पद का अथि अर्वनाशी बता कर आगे अथाित ् कह कर - कभी जजसका नाश नहीं होता – इस प्रकार से सत्य शब्द का र्वस्तत ृ भावाथि हदया है । इसी प्रकार “चचरश्रवस्तमः” पद का अथिर्वस्तार करते हुए 1. आश्चयि-श्रवणाहद 2, 2. आश्चयि-गुण, 3 3. आश्चयि-शजतत, 4 4. आश्चयि-स्वरूपवान ् 5 और 5. अत्यन्त उिम – इस प्रकार पांच तरह से अथिर्वस्तार करते हुए भावाथि हदया है । साथ ही - आपके तल् ु र् िय आपसे बडय कोई नह ां है । - ऐसा कह कर तात्पयािथि भी बताया है ।। (घ) प्रत्येक मन्र के व्याख्यान के अन्त में प्रायः उपसंहारात्मक वातय भी रखे गये हैं । तद्यथा – प्रथम प्रकाश के सातवें मन्र के व्याख्यान को दे खें, जो इस प्रकार है – मूल स्तनु त वाय॒ वा याा॑हह दशित॒ ेमे सोमा॒ अरा॑ ङ्कृताः । तेषांा॑ पाहह श्र॒ धी ु हवा॑म ् ।। 7 ।। ऋ॰ 1.1.3.1. व्याख्यान - हे अनन्तबल परे श, वायो ! दशिनीय ! आप अपनी कृपा से ही हमको प्राप्त हो । हम लोगों ने अपनी अल्पशजतत से सोम (सोमवल्याहद) ओषचधयों का उिम रस सम्पादन ककया है और जो कुछ भी हमारे श्रेष्ि पदाथि हैं, वे आपके र्लए “अरङ्कृताः” अलङ्कृत अथाित ् उिम रीनत से हमने बनाये हैं, वे सब आपके समपिण ककये गये हैं, उनको आप स्वीकार करो (सवाित्मा से पान करो) । हम दीनों की पुकार सुनकर जैसे र्पता को पुर छोटी चीज़ समपिण करता है , उस पर र्पता अत्यन्त प्रसन्न होता है , वैसे आप हम पर प्रसन्न होओ ।। 7 ।। इस उपयत ुि त व्याख्यान के अन्त में - हम दीनों की पक ु ार सुनकर जैसे र्पता को पुर छोटी चीज़ समपिण करता है , उस पर र्पता अत्यन्त प्रसन्न होता है , वैसे आप हम पर प्रसन्न होओ ।। - इस प्रकार का जो वातय र्लखा गया है , वह एक तरह से तो मन्राथि का उपसंहार ही है ।। 4. कृतत कय उद्दे श्र् 4.1. जजन लोगों को कणोपकणि से स्वामी दयानन्द तथा आयिसमाज का पररचय होता है , वे अपने मन में एक भ्राजन्त पाल लेते हैं कक स्वामी दयानन्द तथा उनकी आयिसमाजी परं परा ईश्वर के नहीं मानती । इस रूप में वे स्वामी दयानन्द तथा उनकी परं परा को नाजस्तक के रूप में मान लेते हैं । इस जस्थनत में महर्षि स्वामी दयानन्द की यह कृनत महर्षि स्वामी दयानन्द को तथा उनकी आयिसमाजी परं परा को ईश्वर के सच्चे भतत के रूप में प्रनतष्िार्पत करवाती है । इतना ही नहीं, भारत के र्वर्भन्न भूभाग 2. जजनके बारे में जो सन ु ाई दे ता है , वह सभी सुनने वालों को आश्चयि से चककत कर दे ता है । 3. जजसके गण ु ों को जानने पर, गण ु जानने वालों को आश्चयि से चककत कर दे ते हैं । 4. जजसकी शजतत का पता लगने पर, वह शजतत भी ज्ञाता को आश्चयि में डाल दे ती है । 5. जजसके स्वरूप का ज्ञान होने पर, उस स्वरूप के ज्ञाता को आश्चयि की अनुभूनत होती है । आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 12 में र्वर्भन्न कालखण्ड में जजस भजतत परं परा का प्रचार प्रसार हुआ है, उसमें स्वामी दयानन्द तथा उनकी आयिसमाजी परं परा कहाँ जस्थत है ? इस प्रश्न का समचु चत उिर भी यह कृनत दे ती है । 4.2. आयािर्भर्वनय के प्रारं भ में अपनी इस कृनत की रचना के उद्दे श्यों का बताते हुए कहते है - " इस ग्रन्थ से मनुष्यों को ईश्वर का स्वरूप-ज्ञान और भजतत, धमिननष्िा, व्यवहार शद् ु चध इत्याहद प्रयोजन र्सद्ध होंगे, जजससे नाजस्तक और पाखण्डमताहद अधमि में मनुष्य न फँसे । " अथाित ् जो कोई भी व्यजतत इस आयािर्भर्वनय कृनत का स्वाध्याय करे गा, उसे उपयत ुि त 1. ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होगा । 2. ईश्वर भजतत के स्वरूप का ज्ञान होगा । 3. भजतत करने वाले व्यजतत में धमिननष्िा की स्थापना होगी । और 4. भतत के सभी व्यवहारों में शद् ु चध प्रवनतित होगा । साथ ही नाजस्तकता तथा पाखण्ड रूप अधमि से बचा जा सकेगा ।। सार यह है कक ईश्वर की भजतत के संदभि में महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की उनकी समस्त र्शष्य मण्डली की जो र्वरासत प्राप्त हुई है , उसको जानने के र्लये भी यह कृनत उपयोगी बनती है । उपसांहयर – महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी इस आयािर्भर्वनय कृनत में वेद-मन्रों का व्याख्यान करते हुए ईश्वर के वास्तर्वक स्वरूप को तथा उसकी भजतत के वास्तर्वक स्वरूप को उजागर ककया है । इस प्रकार यह ग्रन्थ केवल स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनय ु ानय-जनों को ही नहीं, अर्पतु र्वश्व के समस्त मानव समाज को ईश्वर के वास्तर्वक स्वरूप का उसकी भजतत करने की प्रकक्रया का सही सही बोध करता है ।। स्ियध्र्यर् (1) अधोर्लणखत प्रश्नों के उिर दीजजये । क. आयािर्भर्वनय का रचना वषि तया है ? ख. आयािर्भर्वनय में कुल ककतने मन्रों पर व्याख्यान है ? ग. मन्र के व्याख्यान से पव ू ि ककतने शीषिक रखे गये हैं ? कौन कौन से । घ. ङ. च. (2) एक वातय में उिर दीजजये । क. आयािर्भर्वनय के प्रथम प्रकाश में ककस वेद के ककतने मन्रों का व्याख्यान है ? ख. अजग्नमीडे.. । मन्र के व्याख्यान से पव ू ि तया शीषिक रखा गया है ? ग. घ. ङ. च. (3) ननम्नर्लणखत प्रश्नों के अपने शब्दों में उिर र्लणखये । आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 13 क. ख. ग. घ. ङ. (4) दश बाहर पंजतत में र्ववरणात्मक हटप्पणी र्लणखये । क. ख. ग. घ. ङ. च. (5) ररततस्थान की पनू ति कीजजये । क. आयािर्भर्वनय का आन्तररक र्वभाजन................... नाम से है । ख. ग. घ. ङ. च. आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 14 द्र्वतीय पाि कताि पररचय कतया पररचर् – 1. ग्रन्थ कतया कय नयम इस आयािर्भर्वनय कृनत के कताि का नाम दयानन्द सरस्वती है । संन्यासी होने के नाते इनके नाम के साथ स्वामी शब्द का भी प्रयोग ककया जाता है । इन्हों ने सजृ ष्ट के आहद में ऋर्षयों के अन्तःकरण में प्रकट हुए वेद – ऋग्वेद, यजुवेद, सामवेद तथा अथविवद े का, जजन्हें उस समय भल ू ा हदया गया था, उन्हें कफर से याद कराया तथा वेद के प्रचार प्रसार को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था, इसके कारण उनके भततों ने (उनके ननवािण के बाद) उन्हें महर्षि के रूप में प्रनतष्िार्पत ककया । इस कारण इनके नाम के साथ महर्षि शब्द भी प्रयोग ककया जाता है । इस प्रकार आयािर्भर्वनय ग्रन्थ के कताि का परू ा नाम महवषा स्ियमी दर्यनन्द सरस्िती है । 2. ग्रन्थ कतया कय पररचर् स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म सन ् 1924 में (तत्कालीन समय में काहियावाड तथा वतिमान काल में ) गज ु रात राज्य के राजकोट जजले के टं कारा नामक गाँव में हुआ था । जन्म के बाद माता-र्पता के द्वारा ककये गये नामकरण के अनस ु ार आपका बचपन का नाम मल ू शंकर था । बचपन में एक बार र्शवराबर के पवि के प्रसंग पर घहटत घटना से उन्हें सच्चे र्शव को प्राप्त करने की तथा अपने चाचा तथा बहन के मत्ृ यु की घटना से मत्ृ यु पर र्वजय प्राप्त करने की प्रबल इच्छा जागी । फलतः उन्हों ने मार बाईस वषि की वय में गह ृ त्याग ककया । टं कारा से वे सायला (जज. सरु े न्द्रनगर, गज ु रात) आये । यहाँ उन्हों ने ब्रह्मचयि की दीक्षा ली और शद् ु धचैतन्य नाम धारण ककया । यहाँ से वे कानतिकी पणू णिमा के मेले में ककसी र्सद्ध गरु ु के दशिन होगें , इस आशा से र्सद्धपरु (जज. महे साणा, उिर गज ु रात) पहुँचे । र्सद्धपरु के इसी मेले में उनका अपने र्पताजी से र्मलन हुआ । र्पताजी उन्हें पकड कर घर ले जा रहे थे, परन्तु तीव्र वैराग्य के कारण र्पता की पकड से मत ु त हो गये । ककसी योगी गरु ु की खोज में वे अहमदावाद होते हुए नमिदा नदी के तट पर बसे हुए चांणोद- करनाली नगर में आ गये । यहँ उन्हों ने थोडे हदन ननवास ककया । इस दौरान पण ू ािनन्द सरस्वती नामक संन्यासी से संन्यास दीक्षा लेकर स्वामी दयानन्द बने । आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 15 संन्यासी बनने के बाद वे चौदह वषि (संवत ् 1903 से 1917) तक र्वर्वध स्थानों में घम ू ते रहे और प्रसंगोपाि रूप से संस्कृत-भाषा तथा योग का प्रर्शक्षण लेते रहे । परन्तु उससे उनको संतोष नहीं हुआ । उन्हें अभी संस्कृतभाषा तथा योगशास्र का ओर अचधक गहरा अध्ययन करना था । इसके र्लये वे ककसी योग्य गरु ु की शोध में लगे थे । उन्हें जानकारी र्मली कक मथरु ा में एक प्रज्ञा-चक्षु संन्यासी स्वामी र्वरजानन्द दण्डी हैं । उनकी पािशाला में संस्कृत के शास्रों का गहन अध्ययन करवाया जाता है । अतः वे मथुरा आ गये । गरु ु र्वरजानन्द जी के साथ की प्रथम भेट का एक सरस प्रसंग प्रर्सद्ध है । पािशाला के द्वार पर उपजस्थत स्वामी दयानन्द ने गरु ु जी का द्वार खटखटाया । अंदर से आवाज आई – कौन है ? स्वामी दयानन्दे उिर हदया – मैं यही जानने के र्लये आया हूँ कक मैं कोन हूँ । उिर सन ु कर गरु ु र्वरजानन्द के आनन्द हुआ । उनको प्रतीनत हुई कक जजस प्रकार के र्शष्य की मैं प्रतीक्षा कर रहा था, वैसा र्शष्य आ गया है । स्वामी र्वरजानन्द ने स्वामी दयानन्द को र्शष्य के रूप में स्वीकार कर र्लया । स्वामी दयानन्द बहुत ही ध्यान से पररश्रम पव ू क ि सतत दो वषि तक संस्कृत व्याकरण शास्र का अध्ययन करते रहे । (संवत ् 1917 से 1919) इस अध्ययन के फल स्वरूप स्वामी दयानन्द को यह बोध हो गया कक जो आषि ग्रन्थ हैं, उनमें ही ज्ञान का सत्य स्वरूप प्रनतपाहदत है । वही मानव को मानवजीवन के वास्तर्वक लक्ष्य तक पहुंचा सकता है । र्वद्याध्ययन की समाजप्त पर, गरु ु जी से र्वदाय लेने का प्रसंग आया । स्वामी दयानन्द ने गरु ु जी को दक्षक्षणा के रूप में थोडी लोंग समर्पित की । गरु ु जी ने कहा – दयानन्द ! मझ ु े तेरे पास से यह गरु ु दक्षक्षणा नहीं चाहहये । समग्र मानव समाज अर्वद्या के अन्धकार में डूबा है । उसके कारण धमि के नाम पर आडंबर हो रहे हैं । मानव समाज में सामाजजक कुरीनतयाँ व्याप्त हो गई हैं । मानव मानव का शरु बना हुआ है । तम ु वेद के ज्ञान का मानव समाज में प्रकाश फैलाओ, जजससे सभी प्रकार का आडंबर तथा कुरीनतयाँ समाप्त हो कर मानव समाज स्वस्थ तथा सख ु ी बने । स्वामी दयनन्द ने बहुत ही र्वनय पव ू क ि गरु ु आज्ञा का पालन करते हुए अपने जीवन को वेद के प्रचार प्रसार के र्लये समर्पित करने का संकल्प ककया । इस संकल्प की पनू ति के र्लये स्वामी दयानन्द ने प्रथम तो दे श का पररभ्रमण ककया । भारतीय समाज में व्याप्त अन्धश्रद्धा, अन्धर्वश्वास, अज्ञान तथा आलस्य का अनभ ु व ककया । इन के कारण पररवरों में व्याप्त दररद्रता के भी दशिन ककये । गंगा के ककनारे पर अपने मत ृ बालक को नदी में बहा कर उस पर र्लपटा हुआ कफन वापस लेती हुई एक माता को दे ख कर उस दे वात्मा दयालु दयानन्द का हृदय द्रर्वत हो गया । उस राबर को उन्हें नींद नहीं आई । आणखर कार दररद्रता के दःु ख को दरू करने के र्लये दे श में व्याप्त अर्वद्या के अन्धकार को दरू करना अतीव आवश्यक है , ऐसा र्वचार कर दे श के अनेक नगरों में प्रवचन ककये । उस समय के धार्मिक आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 16 अग्रणी महानभ ु ावों के साथ अनेकर शास्राथि ककये । पाखण्डखजण्डनी पताका फहराई । इस कायि में सातत्य तथा गनत बनी रहे इसके र्लये उस समय के अग्रगण्य महानभ ु ावों के आग्रह से सन ् 1875 में मब ुं ई में आयिसमाज की स्थापना की । घमि के नाम पर चल रहे पाखण्ड को दरू करने के र्लये तथा धमि के वास्तर्वक स्वरूप का पररचय करवाने के र्लये सत्याथिप्रकाश नामक ग्रन्थ की रचना की । धमि के आहद मल ू वेद के महत्त्व को प्रस्थार्पत करने के र्लये ऋग्वेदाहदभाष्य़भर्ू मका नाम का ग्रन्थ र्लखा तथा वेद का हहन्दी भाषा में अनव ु ाद ककया । (स्वामी दयानन्द अपने अजस्तत्व काल में यजव ु ेद का संपण ू ि वेदभाष्य तथा ऋग्वेद का 6.62.2. तक अनव ु ाद कर सके ।) वैहदक सामाजजक परं परा में प्रचर्लत सोलह संस्कारों के वेदानक ु ू ल र्वचध के संग्रहरूप संस्कारर्वचध नामक पस् ु तक की रचना की । इनके अनतररतत अन्य कई र्वषयों पर छोटे बडे कुल........ ग्रन्थों का आपने प्रणयन ककया । इन्हीं ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ है आयािर्भर्वनय । उपसांहयर – इस प्रकयर महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त अनेक कुरीनतयों तथा कुररवाजों को, धमि के नाम पर चल रहे पाखण्ड को, तथा वेदर्वरुद्ध आचरणों को दरू करने के र्लये ग्रन्थों का लेखन ककया, आयिसमाज की स्थापना कर सज्जनों को संगहित करने का उपक्रम ककया तथा गोशाला, संस्कृत पािशाला, श्रीमती परोपकाररणी सभा आहद संस्थाओं की स्थापना रूप अनेक समाजजक सेवा के प्रकल्पों का प्रवतिन कर उनके सच ु ारु संचालन की सविर्वध व्यवस्था की । बहुत ही अल्प कायिकाल में व्यापक स्तर पर जन आन्दोलन करते हुए आपने सन ् 1883 में राजस्थान के अजमेर नगर में मोक्ष गनत प्राप्त की । स्वामी दयानन्द सरस्वती से प्रेरणा लेकर उनके अनय ु ानययों ने भारतीय समाज में भारतीय रीनत से र्शक्षा के प्रचार प्रसार की बहुत ही व्यापक स्तर पर व्यवस्था खडी की । जजसके पररणाम स्वरूप बबना ककसी भेदभाव के सभी के र्लये प्राचीन परं परागत रीनत से र्शक्षा प्रदान करने वाले गरु ु कुलों का तथा आधनु नक रीनत से र्शक्षा दे ने वाले स्कूलों का भारत के आधे से भी अचधक भूभाग में जाल बबछ गया । डीएवी स्कूल्स इन्हीं में से एक हैं । स्ियध्र्यर् आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 17 तत ृ ीय पाि आयािर्भर्वनय ग्रन्थ का मख् ु य र्वषय...................................................................................................... 0.1. स्वामी दयानन्द ने अपने आयािर्भर्वनय नामक ग्रन्थ के प्रारं भ में एक उपक्रमणणका नाम से प्रस्तावना र्लखी है । इस प्रस्तावना में आपने कहा है कक - " इस ग्रन्थ से मनुष्यों को ईश्वर का स्वरूप-ज्ञान और भजतत, धमिननष्िा, व्यवहार शुद्चध इत्याहद प्रयोजन र्सद्ध होंगे, जजससे नाजस्तक और पाखण्डमताहद अधमि में मनुष्य न फँसे । " इस कथन में जो सबसे पहली बात है (ईश्वर का स्वरूप ज्ञान) वह इस ग्रन्थ का मख् ु य र्वषय है । अथाित ् इस ग्रन्थ के स्वाध्याय से मनष्ु य को ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होगा । इस संदभि में आगे र्वचार करने से पव ू ि थोडी स्पष्टता करनी आवश्यक है । 0.2. इस जगत ् में जजतने भी पदाथि हैं, पशु-पक्षी प्राणी हैं तथा मानव हैं, उन सब का ज्ञान अथाित ् पररचय करने के र्लये ये पांच बबन्द ु होते हैं - 1. नाम, 2. गुण, 3. कमि, 4. स्वभाव तथा 5. पदाथि । अथाित ् जब हम ककसी भी पदाथि, प्राणी या मानव के र्वषय में इन पांच बबन्दओ ु ं को जान लेते हैं, तो उस पदाथि, प्राणी या मानव का पररचय हो जाता है । इसी पररचय को हम उस उस पदाथि, प्राणी या मानव के स्वरूप का ज्ञान भी कह सकते हैं । 0.3. पदयथा कय पररचर् इस पर्थ ृ वी पर कई धातु अजस्तत्व रखती हैं । मानों कक हमारे सामने ककसी एक धातु का छोटा सा खण्ड पडा हुआ है । हम उसका पररचय करना चाहते हैं, तो इसके र्लये सविप्रथम उस धातु खण्ड के नाम को जानना होता है । ककसी जानकार व्यजतत के पास जाकर हमें पछ ू ना होता है कक इस धातु खण्ड का नाम तया है ? जब कोई जानकार व्यजतत हमें उसका नाम बताते हुए कहता है कक यह सव ु णि है , तो हमें उस धातुखण्ड का नाम से पररचय हो जाता है । पर, नाम से हुआ पररचय तो बहुत ही प्राथर्मक होता है । इस पररचय को आगे बढाने या ओर गहरा करने के र्लये गण ु ों को जानना होता है । ककसी जानकार व्यजतत के पास जाकर हमें पछ ू ना होता है कक इस सव ु णि के गुण तया है ? जब कोई जानकार व्यजतत हमें उसके गुण बताता है , कक इस सव ु णि में जंग का न लगता, वजन में भारी होना, मुलायम होना अथाित ् खींचने पर खीचा चला जाना – इत्याहद गुण हैं, तो हमें सुवणि का गुण से पररचय हो जाता है । नाम से हुआ पररचय अब गण ु ों के जान लेने पर ओर गहरा हो जाता है । इस गहरे हुए पररचय को ओर गहरा बनाने के र्लये अब उसके कमों को जानना होता है । आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 18 ककसी जानकार व्यजतत के पास जाकर हमें पछ ू ना होता है कक इस सव ु णि के कमि तया है ? जब कोई जानकार व्यजतत हमें सुवणि के कमि बताते हुए कहता है कक यह सुवणि पाणी में डूब जाता है , अजग्न में जाकर पीघल जाता है , आप चाहो उस आकार में वह आ जाता है , लोहे के साथ टकराने पर बजता नहीं है , अर्पतु शान्त रहता है – इत्याहद सव ु णि के कमि है , तो हमें उस सव ु णि का कमि से पररचय हो जाता है । नाम तथा गुण से हुआ पररचय अब कमि के जान लेने पर ओर गहरा हो जाता है । इस गहरे हुए पररचय को ओर गहरा बनाने के र्लये अब इसके स्वभाव को जानने का उपक्रम करना होता है । ककसी जानकार व्यजतत के पास जाकर जब हम पूछते हैं कक इस सव ु णि का स्वभाव तया है ? जब जानकार व्यजतत हमें सुवणि के स्वभाव से पररचय करवाता हुआ कहता है कक अजग्न में डालने पर सव ु णि अचधक चमकने लगता है , वारं वार अजग्न में तपाने पर भी वह उतना का उतना ही रहता है , अंश मार भी कम नहीं होता – इत्याहद सव ु णि का स्वभाव है , तो हमें उस सुवणि का स्वभाव से पररचय हो जाता है । नाम, गण ु तथा कमि से हुआ पररचय अब स्वभाव के जान लेने पर ओर गहरा हो जाता है । इस गहरे हुए पररचय को ओर गहरा बनाने के र्लये अब अन्त में इसके साथ संलग्न पदाथि को जानने का भी उपक्रम करना होता है । जगत ् में जजतने भी पदाथि है, उनका अजस्तत्व दो प्रकार से होता है । एक तो वे स्वतंर रूप से अपना अजस्तत्व रखते हैं, और दस ू रा वे ककसी न ककसी पदाथि के साथ संयुतत होकर अपना अजस्तत्व रखते हैं । जब कोई पदाथि अपना अजस्तत्व स्वतंर रूप से रखता है , तब स्वाभार्वक रूप से ही उसके पास कोई पदाथि नहीं होता । इस जस्थनत में ककसी एक पदाथि का ककसी दस ू रे पदाथि के द्वारा पररचय नहीं करवाया जा सकता है । पर, जब कोई पदाथि ककसी अन्य पदाथि के साथ अपना अजस्तत्व रखता है , तो उसका उस पदाथि के द्वारा पररचय करवाया जाता है । जैसे कक – हीरे के साथ सोना ते हीरे के द्वारा सोने का पररचय होता है । (यह हीरा वाला सोना है – इस रूप में) तांबे के साथ सोना हो, तो तांबे के द्वारा सोने का पररचय होता है । (यह तांबे वाला सोना है – इस रूप में) । इस प्रकार सव ु णि का अपने साथ संलग्न अन्य ककसी पदाथि से भी पररचय करवाया जाता है । इस प्रकार सव ु णि के नाम से, गुण से, कमि से, स्वभाव से तथा पदाथि से पररचय होता है , तो वह पररचय सघन होता है , सदृ ु ढ होता है । यहाँ एक ओर बात स्मतिव्य है । ककसी भी पदाथि के गण ु , कमि, स्वभाव तथा पदाथि – ननयत अथाित ् सीर्मत नहीं होते । अतः जजतने प्रमाण में गण ु ाहद की जानकारी होगी, उतने प्रमाण में उस पदाथि का पररचय सघन तथा सदृ ु ढ होता जाता है । 0.4. स्वामी दयानन्द ने अपनी इस कृनत में वेद के मन्रों के व्याख्यान के अन्तगित ईश्वर के गुण, कमि, स्वभाव तथा पदाथि का पररचय करवाते हुए बहुत ही प्रभावी रूप से ईश्वर का ज्ञान करवाया है । तद्यथा - आर्याभिविनर् कय स्ियध्र्यर्, प्रो. केसीसी 19 (क) स्वामी दयानन्द ने वेदाहद शास्रों के आधार पर (सत्याथिप्रकाश आहद में) ईश्वर के मुख्य या ननज नाम ओम ् का पररचय करवा हदया है । उसे ग्रन्थ के प्रारं भ में मन्र के आहद में एक बार प्रयुतत करके प्रकट रूप से ईश्वर के नाम का पररचय करवा हदया है । इस प्रकार ईश्वर का हमें नामतः ज्ञान हो जाता है । (ख) जजस ईश्वर का हमें नामतः पररचय हो गया, उसका गुण, कमि, स्वभाव तथा पदाथि से पररचय करवाने के र्लये आयािर्भर्वनय में स्वामी दयानन्द ने ऋग्वेद और यजव ु ेद के चन ु े हुए कुछ मन्रों का संकलन ककया है तथा उनका व्याख्यान ककया है । तद्यथा – प्रथम प्रकाश के द्र्वतीय मन्र के रूप में ऋग्वेद के प्रथम मन्र 6 का ननम्नानुसार व्याख्यान ककया गया है - ।। स्तुनत र्वषय ।। व्र्यख्र्यन :- हे वन्धेश्वराग्ने ! आप ज्ञानस्वरूप हो, आपकी मैं स्तुनत करता हूँ । सब मनुष्यों के प्रनत परमात्मा का यह उपदे श है , हे मनुष्यो ! तुम लोग इस प्रकार से मेरी स्तुनत, प्राथिना और उपासनाहद करो, जैसे र्पता वा गुरु अपने पुर वा र्शष्य को र्शक्षा करता है कक, तुम र्पता वा गुरु के र्वषय में इस प्रकार से स्तुनत आहद का वििमान करना वैसे सबके र्पता और परम गुरु ईश्वर ने हमको कृपा से सब व्यवहार और र्वद्याहद पदाथों का उपदे श

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