भारतीय भक्ति परंपरा और मानव मूल्य PDF
Document Details
Uploaded by StunnedRocket
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली
सुधीर कुमार शर्मा
Tags
Summary
यह दस्तावेज़ हिंदू धर्म में भक्ति परंपराओं और मानव मूल्यों पर चर्चा करता है। इसमें विभिन्न संप्रदायों और उनके सिद्धांतों के बारे में जानकारी दी गयी है, साथ ही भक्ति परंपरा के विकास का एक संक्षिप्त इतिहास भी है।
Full Transcript
भारतीय भि परंपरा और मानव मू य I : भारतीय भि त परं परा 1. भि त : अथ और अवधारणा ो. सध...
भारतीय भि परंपरा और मानव मू य I : भारतीय भि त परं परा 1. भि त : अथ और अवधारणा ो. सध ु ीर कुमार शमा मु त श ा व यालय, द ल व व व यालय, द ल 1.0 अ धगम का उ दे य 1.1 तावना 1.2 भि त का अथ और अवधारणा 1.2.1 बोध न 1.3 अ यास न 1.4 संदभ- ंथ इस पाठ का अ ययन कर व याथ न न ल खत को करने म स म हो सकगे— भि त का अथ समझ सकगे। भि त संबध ं ी व भ न आचाय क मा यताएँ जान सकगे। भि त के व वध प से अवगत हो सकगे। भि तकाल हंद का गौरवशाल काल माना जाता है । इस काल म भि त का चतुमखी ु वकास हुआ। यह वकास वै दक काल से लेकर भि तकाल तक हुआ। इसम भि त के ार भ से लेकर म यकाल तक क या ा पर वचार कया गया है । इस पाठ म भि त का अथ जानने के साथ-साथ उसके अ य प पर भी वचार कया गया है । 1 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस 2 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य 3 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस 2. भि त के मख ु सं दाय और स धांत ो. सुधीर कुमार शमा मु त श ा व यालय, द ल व व व यालय, द ल 2.0 अ धगम का उ दे य 2.1 तावना 2.2 भि त के मख ु सं दाय 2.2.1 बोध न 2.3 भि त के मख ु स धांत 2.3.1 बोध न 2.4 अ यास न 2.5 संदभ- ंथ इस पाठ को पढ़ने के बाद व याथ न न ल खत को करने म स म हो सकगे: भि त संबध ं ी चंतन परं परा को समझ सकगे। भि त को ति ठत करने म व भ न सं दाय के योगदान को जान पाएँगे। भि त क त ठा म भि त स धांत का मू य समझ पाएँगे। ऐसा माना जाता है क भि त का ारं भ द ण म हुआ और भि त का नरं तर चार- सार होता गया और भि त उ र भारत म आई। भि त क इस वकास या ा म बहुत कावट आ पर भि त के व भ न वै णव सं दाय के आचाय ने तथा व भ न स धांत क त ठा करने वाल आचाय ने भि त के वकास म अपना मह वपण ू योगदान दया। सामा य जनता को अपने दशन के गढ़ ू स धांत को सरलता से समझाने का यास कया। भि त के े म इन आचाय का मह वपण ू थान है । वै णव भ त ने अपने व भ न सं दाय के मा यम से भि त के यावहा रक प को सामने रखा तो भि त के दाश नक आचाय ने अपने स धांत के मा यम से ई वर, जीव, जगत ्, 4 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य माया और मो जैसे स धांत को भ त के दाश नक सामने रख कर भि त के स धांत क सरल या या क । भि त का ज म द ण म जाना जाता है। 'भि त ा वड़ उपजी लाए रामान द' कथन बहुत च चत रहा है । द ण से ह भि त क धारा उ र भारत क तरफ आई। भि त के स धांत प को व भ न व वान ने अपनी-अपनी ि ट से ति ठत कया है । इन आचाय ने म, जीव, जगत ्, माया मो संबध ं ी त व , वचार को अपने-अपने सं दाय और स धांत के मा यम से अपना मत तुत कया है। भि त से जुड़े सं दाय म जहाँ भगवान कृ ण के व प पर वचार कया गया है उनका भि त म या थान है , यह जाना गया है , जब क भि त का स धांत प तुत करने वाले आचाय ने दाश नक चंतन पर बल दया, उ ह ने ई वर जीव माया, जगत ् मो का ताि वक चंतन तत ु कया है । भि त के मख ु सं दाय और स धांत प तत ु करने वाले आचाय का सं ेप म प रचय दया जा रहा है । राधाव लभ सं दाय इसका चार करने वाले हत ह रवंश ह ये राधा कृ ण के युगल उपासक ह। कृ ण क तल ु ना म राधा को अ धक मह व दया है । भ त राधा के साथ कृ ण क उपासना करते ह। इनके अनस ु ार कृ ण के अंदर ह सभी शि तयाँ व यमान ह। कृ ण क परा कृ त राधा है, जो चत-अ चत आ हा दनी शि त है उनका मानना है क सारा जगत ् राधा-कृ ण यग ु ल का त बंब है । भगवान कृ ण का ऐसा वणन है क िजसम भगवान कृ ण गोप-गो पय के साथ ल लारत रहते ह। वे राधा के प त ह और उनके ंग ृ ार क शोभा बढ़ाने वाले ह। इस सं दाय के भ त ने राधा व लभ के नाम से राधा कृ ण क उपासना क है । न बाक सं दाय म ययग ु ीन कृ ण भि त के अंतगत न बाक सं दाय क भी चचा होती रह है । इस सं दाय के अंतगत राधा कृ ण के वामांग म वराजमान रहती है और भ त भगवान के इस प क उपासना करते ह। इनका मानना है क भगवान कृ ण भ त पर कृपा करने के लए ह अवतार लेते ह। इतना ह नह ं वयं शव और पर म कृ ण के इस प क वंदना करते ह। उनके भगवान चरण के अ त र त जीव का और कोई उ धारक नह ं है । भ त दै य भाव से भगवान क उपासना करते ह और फर ेम भि त के मा यम से जीवन को अमर व दान करते ह। 5 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस सखी सं दाय इस सं दाय को चलाने वाले वामी ह रदास जी ह। इ ह ने भगवान कृ ण क ल लाओं का वणन कया है । इन भ त के अनस ु ार भगवान कृ ण सबसे ऊपर ह। इन भ त के भगवान कृ ण अ य अवतार से एकदम भ न ह। ये भगवान कृ ण अ य अवतार क तरह न तो सिृ ट क रचना म संल न रहते ह और न ह ये द ु ट का दलन कर सामा य जन क र ा करते ह। इन भ त का मानना है क भगवान कृ ण जो पर म ह उनका लघु अंश सिृ ट क रचना और सिृ ट क र ा तथा संहारक का काय करता है। ये भगवान तो अपनी ृ ा रक ल लाओं म रत रहते ह। न य बहार ंग करते हुए ृ ार ल लाएँ करना इनका काम है और उन ल लाओं का दशन करना सखी का अभी ट है। ंग गौणीय सं दाय गौणीय सं दाय को चलाने वाले वामी चैत य महा भु ह। इनका च चत थ ं चैत य च रतामत ृ है । इस थ ं म इ ह ने राधा-कृ ण के व प तथा शि तय का बड़े व तार के साथ वणन कया है। ीकृ ण अनंत शि तय के वामी ह। उनम एक व श ट शि त आ हा दनी शि त ह। राधा इसी शि त का प है। चैत य महा भु ने ीकृ ण को जे कुमार कहा है । जब वे ज म गोलोक क ल लाओं स हत वचरण करते ह तो उनका परमत व प व यमान रहता है। वे ज के कृ ण और गोलोकधाम के कृ ण म अ भ नता मानते ह। राधा कृ ण क इन ल लाओं म उनका माधुय भाव अथवा कांता भाव ह प रल त होता है । व लभ सं दाय व लभ सं दाय को चलाने वाले वामी व लभाचाय ह। व लभाचाय ने ज म कृ ण भि त क त ठा क थी। व लभाचाय के व लभ सं दाय के अंतगत भगवान क सेवा व ध का बड़ा मह व है। इस भि त के अंतगत अ टयाम क सेवा पर बल दया जाता है । इस सेवा- व ध के अंतगत मंगलाचरण, ंग ृ ार, वाल, राजयोग, उ थापन, भोग, सं या-आरती और 'शयन' आ द व धय को इस सं दाय म बड़े उ सव के साथ कया जाता है । व लभ के अनस ु ार ीकृ ण पण ू म ह, पर म ह। वे स चदानंद ह। वे सवशि तमान, सव तथा आनंद दा यनी शि तय के क ह। न य ल ला ह उनका योजन है। इस तरह भि त के े म भि त के स धांत न पण म उसके स धा त का योगदान रहा तो भि त के व भ न सं दाय म उसका यावहा रक प सामने आया। इ ह ने भगवान के व प को प ट कर सामने रखा। 6 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य 2.2.1 बोध न 1. भि त के मख ु सं दाय के नाम बताइए। 2. राधाव लभ सं दाय को चलाने वाले आचाय कौन थे? 3. चैत य महा भु ने कौन-सा सं दाय ति ठत कया? 4. न बाक सं दाय को चलाने वाले आचाय का नाम बताइए। शंकराचाय शंकराचाय का ज म द ण म, मलाबार दे श म, मलाबार नद के कनारे कला (कालड़ी) नामक थान पर हुआ था। वे न बू ा मण थे। उनके पता का नाम शवगु और माता का नाम आया बा था। दशन के े म उनका बहुत भाव था। उ ह ने अनेक थान पर मठ क थापना क । उ ह ने ि य को छोड़कर सभी को सं यास क द ा द । जा त-पा त क था म उनका व वास नह ं था। उनका स धांत अ वैतवाद है । वे म और जीव को एक मानते थे। शंकराचाय गौऽपादाचाय के श य गो व दाचाय के श य थे। उनके पहले और उनके प चात ् उनके गु , श य के स ध नाम 'मं पु पांज ल' म ' शवम हम तो ' के अ दर दये गये ह अ वैत का ता पय है िजसम वैत न हो-“नाि त वैत भेदा य त अ वैतम ्" अथात ् िजस स धांत म जीव और म म भेद न हो वह अ वैत है । इस स धांत क बड़ी स ध हुई। पि चम के व वान ने भी इसे सराहा है । वै णव प ध त म कोई ऐसा आचाय नह ं है, िजसने शंकर के अ वैत को सामने न रखा हो। यह दस ू र बात है क कसी ने उसे अंशत: माना, कसी ने न माना, पर तु उनके सामने अ वैत स धांत रहा। इसी तरह उप नषद म भी ऐसे अनेक वा य-वचन ह जो अ वैत समथक ह- “एकोदे वः सवभत ू ष े ु गढ ू सव यापी सवभत ू ा तरा मा" अथात ् एक ह ई वर सब भत ू म छपा हुआ है वह सव या त और सब ा णय का अ तरा मा है। इसी तरह ईशावा य मदं सवम ्' (यह सारा संसार एक मा ई वर से या त है) ऐसे अनेक अ वैतपरक वा य से ु त वांङमय या त है। आचाय ने माना है क मांडू य उप नषद तो जग गु शंकराचाय के अ वैत स धांत का पण ू तः पयायवाची ह समझना चा हए। 7 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस आचाय शंकर ने 32 वष क अ पायु म ह लगभग 272 थ ं क रचना क उनम मसू का भा य अ धक मख ु और स ध है। उनके स धांत का वपल ु व तार है, पर तु उनका कुछ सं ेप सार यान दे ने यो य है । म शंकराचाय के अ वैत स धांत के अनस ु ार म क सव च स ा है। यह दे शकाल से वल ण है । बोधायन ने थम शता द म और भतह ृ र ने सातवीं शता द म म वषयक जैसे वचारसू दये थे। भतह ृ र का म को दक् काल आ द से अस ब ध, अनंत, च मा और वानभ ु ू तग य कहना अ वैत ह है । शंकराचाय ने जड़-चेतन सबका अ तभाव म म ह माना है । य सू म है और टा त वारा स ध होने वाला नह ं है। वह चत ् व प है। एक, अ वतीय और सत ् है । शंकराचाय ने दशन के स धांत अ वैतवाद के अ तगत म, जीव, माया के वषय म अपने स धांत को इस कार समझाया है— जीव म म माया क शि त होती है उसके कारण उसे ई वर कहते ह। जीव अ व या के कारण जीव कहलाता है । शंकराचाय मानते ह क जब तक बु ध आ द उपा ध के साथ जीव का स ब ध है तब तक वह जीव भी है और संसार भी। परमा मा आकाश क तरह सव यापक है , आ मा उसी का छोटा प है । जब आ मा शर रब ध होता है तो जीव कहलाता है। सामा यत: आ मा और जीव दोन को एक ह कहा गया है । व तुतः शर रा द उपा धयु त आ मा जीव है और वह आ म, ाण, मन, व ान, आनंद-इन पाँच कोश से ढका है । आ मा और म एक ह। जीव म प रमाण नह ं है। वह ई वर का अंश ह है। ई वर मायाशि त स प न है और जीव अ व या उपा ध से यु त। ई वर का अंश कहलाते हुए भी वह मु य अंश नह ं है -'अंश इव अंशन' अि न के फु लंग क तरह का अंश है । जीव म जो सखु दखु ा द होते ह, वे म या ह। वे पारमा थक नह ं ह। पारमा थक तो म ह है । जीव और आ मा के एक होते हुए भी जीव को आ म पता का बोध नह ं होता य क वह अ व या आ द उपा धय से यु त रहता है । अ व या के समा त होते ह वह आ म प हो जाता है। वह मा मकता है । माया अ व या को ह माया कहा गया है । शंकराचाय ने माया को इ जाल कहा है । जैसे इ जाल क स ा दे खने वाल के लए है, व तत ु : है नह ं। ऐसे ह इस नाम- प वाले संसार क स ा अ ा नय के लए है , परमा मा के लए नह ं है। अ वैत स धांत के अनुसार स य ह म है , जगत ् माया है । वैसे 8 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य संसार क यावहा रक स ा है जो अ ान के कारण ह वा त वक दखती है। वेदा त क श दावल म इस अ व या को 'अ यास' कहा गया है । जैसे शिु त म रजत न होकर रजत जैसा लगता है, वह रजत का अ यास है । मसू म इसे ' मृ त प पर पव ू टावभास' कहा है। अथात ् मृ त प पव ू ट का जो दस ू रे म अवभास है , वह अ यास है । इसी को दस ू र तरह समझाते हुए कहा है - "अ यासो नाम अति म त बु ध" अथात ् अ यास का अथ है—जो जैसा नह ं है उसम वैसी बु ध होना। शंकराचाय के अ वैत स धांत का भि तकाल के क वय पर कसी न कसी प म भाव दे खा जाता है । तल ु सीदास ने सम वया मक ि ट अपनाई है पर अ वैत का अनेक थल पर योग कया है । म को ने त ने त कहना उसी का प है। सारे संसार को माया के वशीभत ू बताना भी उसी का प है - य मायावशव त व वम खल मा ददे वासरु ाः नाममा म य स वादमष ृ व भा त सकल र जोयथाऽहे मः।। अथात ् िजसक माया के वश म अ खल व व है, मा द, दे व और असरु उसी के वशीभत ू ह। िजसक स ा से जगत ् असत ् होते हुए भी सत ् लगता है , जैस-े र सी म सप का म बना रहता है उसी कार जगत म सत का म बना रहता है । सरू दास ने अपने सरू सागर म य य प सब कार से अ य त को अगम बताकर सगण ु ल ला के पदगान का कथन कया है,पर तु च तन करते हुए वे भी अ वैतसम थत उि तयाँ करने लगते ह। एक उदाहरण ट य है : च ल स ख ते ह सरोवर जाँ ह। िज हं सरोवर कमल कमला र व बना वकंसा हं। हं स उ वल पंख नमल अंग मल मल हा हं। मिु त-मु ता अन गने फल, तहाँ चु न-चु न खा हं। दे ख नार जु छलाछला जग समु झ कछु मन मा हं। सरू या नाह चल अड़ तहु बहुार अड़बा ना ह। (सरू सागर) एक हं सनी दस ू र हं सनी से कहती है या आ मा दस ू र आ मा से स ख स बोधन करती हुई कहती है क हे स ख! उस सरोवर पर चल, जहाँ पर कमल-कम लनी बना-सय ू के ह वक सत होते ह। वहाँ पर हंस क तरह अपने उ वल पंख को नहा-धोकर नखार। संसार का जल तो बहुत 9 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस छछला यानी कम गहरा है । इस संबध ं म सरू कहते ह- क वहाँ उड़ चल जहाँ से फर उड़ना ह न पड़े। यह एकदम अ वैतपरक भाव है । सारांश यह है क शंकराचाय का अ वैत स धांत यापक और नगणपरक ु है। उसे भ त ने भी त व च तन क ि ट से अपनाया है । पर तु जब भ त उपासना क ओर बढ़ता है तो वह भावक ु ता म सगण ु को ह आ मसात करता है। वयं शंकराचाय ने चपरमंजर म 'भज गो वंदं भज गो वंदं गो वंदं भज मढ़ ू मते' कह कर अपने भि तभाव कट कये ह। इसी तरह आ याि मक उ च भू म से उतर कर दे वी अपराध मा तो म एक बालक क तरह 'कुपु ो जायेत व चद प कुमाता न भव त' गाने लगते ह। भाव के साथ स ब ध होता है तो नगणता ु को छोड़कर शंकराचाय भावक ु भ त क तरह भगवान का गान करते ह। अ युता टक का आरं भ का लोक इसका माण है- अ युतं केशवं रामनारायणं कृ णदामोदरं वासद ु े वं ह रम ्। ीधरं मा वं गो पकाव लभं जानक नायक रामच ं भजे।। रामानज ु ाचाय रामानज ु ाचाय का ज म द ण भारत म भत ू परु (वतमान पे बपु रु म ्) म हुआ था। इनके पता का नाम केशव और माता का नाम कां तमती था। ये नाथ मु न के पौ यमन ु ाचाय के श य थे। नाथ मु न ने द ण के वै णव आलवार भ त के गीत का संकलन करके ' ब धम ्' नामक थ ं रचा था। उस समय स ध 12 आलवार वै णव भ त म एक ीभ त आंडाल नामक भी थी। ये वै णव भ त थे। कुछ शैव भ त भी थे। उनम शवभ त कव य ी कारे काल अ पैयार बहुत स ध थी। िजस कार द ण से उ र क ओर भि त का चार बढ़ा, उस तरह दशन का भी। शंकराचाय ने अ वैत क त ठा क , पर तु उसम भि त कम थी, रामानज ु ाचाय ने इस कमी को परू ा कया। नाथ मु न और यमन ु ाचाय के मत को इ ह ने आगे बढ़ाया। उ र भारत क ओर भि त को बढ़ाने म रामानज ु ाचाय का बड़ा मह व है । इ ह ने द घकाल तक चार- सार कया। इनका शर र 120 वष क आयु म शा त हुआ (1017 से 1137 ई०)। इ ह ने ीणम म अपने स दाय क थापना क और अनेक वरोध सहने के बावजूद उ ह ने अपने स धांत को आगे बढ़ाया। रामानज ु ाचाय ने थान यी-उप नष , मसू और गीता पर भा य लखे। वेदा तसार, वेदाथ सं ह, वेदा त द पका आ द और भी अनेक थ ं क रचना क । इ ह ने शंकर के मायावाद और जगि म या के स धांत का वरोध कया। शंकराचाय जगत ् को असत ् मानते थे, पर रामानज ु ाचाय जगत ् को सत ् मानते थे। ये मानते थे क जीव यानी चत ् और जगत ् यानी अ चत ् ये दोन ई वर के शर र ह। ई वर इन दोन से व श ट है, इस लए म को च -अ च यानी चद च से व श ट - 10 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य चद च व श ट कहते ह। इनका स धांत व श टा वैतवाद कहलाता है । शंकराचाय ने सं यास पर बल दया, पर इ ह ने भि त पर बल दया। ये गहृ थ थे, पर बाद म सं यासी हो गये थे। इ ह ने उपासना और यान के लए म के पाँच प माने ह – 1. पर म : वैकंु ठवासी, शंखच गदाप मधार , ी, भू आ द पि नयाँ ह। 2. यूह : वासद ु े व, संकषण यु न, अ न ध - चार प म म के व प ह। 3. वभव : म य, क छप, वराह आ द अवतार का व प। 4. अ तयामी : यो गय के दय म रहने वाले। 5. अचा: अनेक मू तय के प म साधना करने यो य। रामानज ु के स दाय म ी व श ट यानी ल मी व श ट म क उपासना है, इस लए यह स दाय ीस दाय भी कहलाता है । इनका स धांत पांचरा स दाय से मलता जुलता है । ये पाँच रा क तरह ह पज ू न करते ह। 'पु ष सू तं' से तु त करते ह। काल सं या, आरती, भोग, शयन आ द के इनके यहाँ वधान ह पर तु पिु टमाग य सेवा-भावना क तरह आठ याम क पज ू ा का म- पालन इनम नह ं है। रामानज ु ाचाय का म वषयक स धांत यह है क चद च व श ट म ह ई वर है। म अंशी, जीव तथा जगत ् अंश ह। म आ मा है, जीव, जगत ् दे ह ह। जीव और जगत ् म के अ तगत और आ त प से स य ह, म ये ब हभत ू अथवा वतं प से नह ं। तुलसी ने इसी तरह के भाव य त कये ह— ई वर अंस जीव अ बनासी। चेतन अमल सहज सख ु रासी। सो माया बस भयउ गोसाई। बं यो क र मकट क नाई।। (रा०7/116/23) ी रामानज ु के स धांत म म लयाव था म एवं सिृ टकाल म भी चत ् एवं अ चत ् से व श ट रहता है । वे यह भी मानते ह क चद च व श ट म ह जगत ् का उपादान कारण है । वेदांत म दो कारण बतलाये गये ह-एक न म कारण और दस ू रा उपादान कारण। घड़ा बनाना है तो उसके लए कु हार क ज रत है। वह दं ड-च से घड़ा बनायेगा, तो ऐसे म कु हार घड़े का नम कारण है । काय के हो जाने पर न म कारण क कोई ज रत नह ं रहती। घड़ा बन गया, तब कु हार कह ं भी जाय। पर उपादान कारण वह होता है , िजस चीज से कुछ बनता है । घड़ा बनाने म 11 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस म ट उपादान कारण है । य द उपादान कारण न हो यानी म ठ न हो तो चाहे सकड़ कु हार आ जाय, वे घड़ा नह ं बना सकते। उपादान कारण काय के न ट होने पर भी रहता है । घड़ा फूट जाय, तब भी म ठ रहे गी। ऐसे ह म जगत ् का उपादान कारण कहा गया है । वह सिृ ट के आ द म, म य म और अंत म रहता है । वेदांत के स ध ीभा य म रामानज ु ाचाय ने जगत ् को म का न म कारण मानने के साथ उपादान कारण भी माना है । वे कहते ह- थूल सू म च अच कारकं मैव कारणं चे त मोपादानं जगत ्।' रामानज ु ाचाय म को सगण ु मानते ह। उसी म सब ु तय का सम वय करते ह। शंकराचाय ने ु त का सम वय नगण ु म कया है । रामानज ु के मत म मिु त म भी म का भेद बना रहता है। तभी तो कहा गया है - सगुण उपासक मो न लेह । यह स धांत सगण ु म का उपासक है । इसम ई वर त व वैकंु ठवासी शंखच गदाप मधार महाल मी के वामी सव समथ स पन ीम नारायण है । म वाचाय म वाचाय का ज म बे ल ाम म एक वेद व ा यण के घर हुआ। कुछ लोग राग पीठ नामक नगर म इनका ज म मानते ह। इनके पता का नाम म धजी भ ट तथा माता का नाम वेदवती था। इनका बचपन का नाम वासद ु े व था। ये बहुत कुशा बु ध थे, पर पढ़ने म इनका मन नह ं लगता था। 11 वष क अव था म इ ह ने अ वैत मत के सं यासी अ युत े ाचाय से सं यास क द ा ले ल । इनका द ा नाम पण ू था। इनका सं यास के बाद का नाम आन द तीथ होने का भी उ लेख है । जब गु ने इनको आन द तीथ नाम दया, तब इ ह मठाधीश बना दया। अनेक वष तक ाथना, उपासना, वा याय और समा ध म लगे रहे। इ ह आन द ान, ानान द और आन द ग र आ द नाम से भी जाना जाता है । इ ह ने गीता और वेदा त पर भा य लखा। उप नषद पर भी भा य लखा। महाभारत के सार के प म इ ह ने 'भारतता पय नणय' नामक कृ त भी रची। व वान लोग मानते ह क थान यी क अपे ा इ ह ने परु ाण क बात को यादा मह व दया। म वाचाय ने 37 थ ं लखे। 'माधव वजय' नामक थ ं म इनका जीवन च रत लखा है। म वाचाय ने वैत स दाय क थापना क । शंकराचाय और रामानज ु ाचाय दोन का वरोध कया। सिृ ट क उ प के स ब ध म इ ह ने वैशे षक शा को आधार बनाया है। इ ह ने म के आठ काय माने ह-उ प , पालन, लय, नय ण, आवरण, बोधन, ब धन और मो । जीव अनंत है । उनके तीन वग ह-मिु तयो य, न य संसार और तमोयो य। मु त होने पर भी जीव म म तथा 12 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य जीव जीव म पाथ य यानी वैत बना रहता है । जीवा मा व णु का न पा धक त ब ब है। परमे वर के दो अंश ह- त बबांश तथा व पांश। जीवा मा ह र का न य अनच ु र है । जीव व प आनंद व ह है और परमा मा पण ू आनंदा मक। व णु को जगत ् का न म कारण माना है, उपादान कारण नह ं। जगत ् अ न य है , पर अस य नह ं है। जीव तथा जगत ् भगवान के अधीन ह। भगवान जीव और जगत ् से पण ू तया पथ ृ क है । म वाचाय ने पाँच कार के भेद वीकार कये ह - 1. जीव ई वर का भेद, 2. जीव-जीव म पर पर भेद, 3. ई वर जड़ म भेद, 4. जीव जड़ म भेद, 5. जड़-जड़ म भेद।' 1. जीवेशयो भदा चैव जीवभेद पर परम ्। 2. जडेशयोजडानां च जलजीव भदा तथा।। (महाभारत ता पय नणय, 1/70/71) मिु त को इ ह ने चार कार क माना है-सालो य, सामी य, सा य, सायु य! इनके मत म बालकृ ण और गो पय के नाम नह ं लेते। इ ह ने साधना के ढं ग तीन बतलाये ह - अंकन : शंख च आद च शर र पर बनाना। काममा नामकरण : व णु के नाम पर अपने पु पौ ा द के नाम रखना। भजन : धा मक, मान सक, वा चक भजन। म व के मत म जीव परमा मा से भ न है तथा परत है और अणु प रमाण वाला है। परमा मा क सेवा करने से, उसक कृपा से जीव मु त होता है। न बाकाचाय ये तैलग ं जा त के ा मण थे। इनका ज म वै लर िजले के न ब या न बपरु म हुआ था। इनके ज म के बारे म ठ क-ठ क पता नह ं है । व वान ् लोग इ ह रामानज ु ाचाय के बाद और म वाचाय से पहले का बताते ह। यह भी माना जाता है क ये द ण म गोदावर नद के तट पर वैदय ू प न के पास अ णा म म ी अ णमु न क प नी वैजय ती दे वी के पु थे। इनका नाम पहले भा कराचाय था। कोई इ ह सद ु शन का अवतार बतलाते ह। इनके स ब ध म एक जन ु त है । ये व ृ दावन के पास रहते थे। एक बार कोई अ त थ इनके पास आये। त व- च तन क बात करते करते सय ू ा त हो चला। भा कराचाय ने अ त थ को भोजन कराना चाहा पर अ त थ ने सय ू ा त के बाद भोजन करना वीकार नह ं कया। इ ह ने अपनी योगशि त से सय ू क ग त रोक द और सय ू एक समीप के नीम के पेड़ पर ि थत हो गये। अ त थ ने सय ू ा त न होता दे खकर भोजन कर लया। तब सय ू अ त को गये। तभी से भा कराचाय क बजाय ये न बाकाचाय अथवा न बा द य के नाम से स ध हो गये। कोई कोई इनका नाम नयमानंद भी बतलाते ह। 13 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस न बाकाचाय ने मसू पर 'वेदा तपा रजातसौरभं' नाम का भा य लखा है । इनके मत को ' वैता वैत' कहा गया है । उसे भेदाभेद भी कहते ह। भेदाभेद वाले एक अ य आचाय भा कराचाय भी हुए ह। कुछ लोग दोन को एक मानते ह। न बाक द ण के थे पर व ृ दावन म ह रहे । ये थम आचाय थे, िज ह ने उ र भारत म राधाकृ ण क भि त को आगे बढ़ाया। इनके अनय ु ायी बंगाल म और ज म ह। इस स दाय के लोग गह ृ थ भी होते ह और सं यासी भी। वैता वैत स धांत के अनस ु ार वैत भी स य है और अ वैत भी स य है। उप नषद म आया है क नारद ने सन कुमार से म व या सीखी। नारद ने न बाक को उपदे श दया। न बाक ने अपने भा य म सन कुमार और नारद का उ लेख कया है । न बाक स दाय को सनका द स दाय भी सन कुमार के उपदे श के कारण कहा जाता है । इसे ऋ ष स दाय भी कहते ह। इस स दाय क यह वशेषता है क इसके अनय ु ायी आचाय के मत का खंडन नह ं करते। न बाक स दाय क ग द मथरु ा के पास यमन ु ा के समीप के े म है। इस स दाय म राधाकृ ण क पज ू ा होती है । साधक गोपीचंदन का तलक लगाते ह। भागवत परु ाण इस स धांत के मानने वाल का मख ु थ है। ई वर और जीव दोन ह इनक ि ट म आ मचेतन ह। जीव प र मत शि त का और ई वर अप र मत शि त वाला है। जीव भो ता है। वह संसार को भोगता है । ई वर उसका सबसे ऊँचा नय ता है। जीव और जगत ् म के अंश मा है। अंश का अंशी के साथ भेदाभेद यानी वैता वैत स ब ध है , वैसा ह जगत ् और जीव के साथ म का स ब ध है। अंश म अंशी क स ा है । वह उसका अंगीभत ू होने से अ भ न है ,पर अंश म अंशी क स ा पया त नह ं होने से वह भ न भी है । अत: दोन का स ब ध ह: अंशा श-स ब ध है अथवा वैता वैत स ब ध है । सब का ता पय एक है । म कारण है और जीव तथा जगत उसके काय। म सम है और जीव तथा जगत उसके धमगत भेद ह। यानी भेद भी है और नह ं जैसे ह, वैत भी ह और नह ं भी ह। अत: इनका स धांत भेदाभेद अथवा वैता वैत कहलाता है । व लभाचाय व लभाचाय का ज म द ण म गोदावर नद के कनारे बसे काकरवाड़ ाम म हुआ था। इनका प रवार तेलग ु ु ा मण था। इनके पता का नाम ल मण भ ट और माता का नाम इ लमागा था। व लभ दि वजय नामक थ ं म इनके परू े जीवनच रत का वणन है। इ ह ने 10 वष क अ प-आयु म ह वेद, परु ाण, उप नषद का अ ययन कर लया था। इ ह ने उ र भारत क अनेक या ाएँ क ं। गोकुल, गोवधन, आ द क या ा करके इ ह ने ीनाथ के मं दर क थापना क । इनका ववाह महाल मी नामक क या से हुआ। इनके यश वी पु गो वामी व ठलनाथ थे। व लभाचाय व णु वामी नामक आचाय क पर परा म आते ह। उ ह ने ' स दाय' चलाया, िजसे शु धा वैत कहा 14 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य जाता है । कहते ह व लभचाय तक आते आते इस स दाय के 700 आचाय हो चुके थे। व लभ स दाय म व णु वामी को ह इस पर परा का आ द आचाय माना गया है । व लभाचाय ने वेदा त पर 'अणु भा य' लखा। भागवत क सब ु ोधनी ट का लखी और कुल मलाकर लगभग 84 थ ं लखे। वे वेद, उप नष , मसू , गीता और भागवत ् को ामा णक मानते थे। इनका मत शु धा वैत अथवा वशु धा वैत कहलाता है । इनके स दाय को मवाद और अ वकृत प रणामवाद भी कहते ह। इनका दशन शु धा वैत है ,पर तु उसका आचरण प पिु टमाग य भि त है । न बाक के बाद व लभाचाय और चैत य महा भु ने कृ णभि त का बहुत चार कया है। कृ ण क ल लाएँ इनक ि ट म अलौ कक ह। राधाकृ ण क ल लाएँ न य होती ह। व ृ दावन म होती ह और वह गोलोक कहलाता है। अ धकार ह उन ल लाओं का दशन कर सकते ह। शु धा वैत श द दो श द का योग है - शु ध और अ वैत। शु धा वैत का मतलब है माया - स ब ध से र हत म। 'शु धा वैत मात ड' नामक थ ं म शु धा वैत का ल ण इस कार बतलाया है - मायास ब धर हतं शु ध म यु यते बध ु ैः। अथात ् माया स ब ध से र हत म शु ध है । इसी के अनस ु ार इनके स धांत को शु धा वैत कहा गया है । इ ह ने जगत ् को म का ह प रणाम माना है जो वकारर हत है। इस लए इस मत को अ वकृत प रणामवाद कहा गया है। ी व लभाचाय का मत शंकराचाय और रामानज ु ाचाय से भ न है। म को उ ह ने व ध धम का आ य कहा है । म से ह पदाथ का आ वभाव होता है और उसी म तरोभाव हो जाता है। वह परमे वर रस प है । 'रसो वै सः' क तरह व लभ उसे मानते ह। वह रस प म छह धम से यु त है - 1. ऐ वय, 2. बल (वीय), 3. यश, 4. ी, 5. ान और 6. वैरा य। म ह धम - सं थापन : के लए अवतार लेते ह। भागवत परु ाण को इ ह ने बहुत मह व दया है। म का न पण अनेक प म भागवतकार क तरह का है। जीव को उ ह ने अणु और सेवक माना है । जगत ् स य है। म नगण ु न वशेष है और वह जगत ् का न म तथा उपादान कारण है । गोलोक के अ धप त ीकृ ण ह और वे ह म ह। वे ह जीव के से य ह। सेवा को दो तरह क माना है - मानसी सेवा, िजसे फल पा भी कहते ह। उसम ीकृ ण का च लगाये रहने क व ध है । दस ू र सेवा साधन पा है । इसम य - अपण करना और शर र से सेवा करना आता है । भगवत ् कृपा से गोलोक व ृ दावन म रासो सव म रसावेश क अनभ ु ूत करना ह जीव का चरम ल य है, वह मो है । ब लभ मत म ई वर के वश म माया है। वे मायाधीश है। जो माया के वारा ता ड़त ह, वे जीव ह। यानी जीव माया त है , इस लए वह चेतन होकर भी दख ु का आधार है । व लभाचाय के मत म जीव के पाँच लेश ह-1. उसे अपने व प का ान नह ं ह, 2. उसे अपने बारे म अ यथा 15 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस ान है, 3. आ मा से भ न वह दे ह आ द म म, पर बु ध रखता है, 4. भेदबु ध से भय उसे रहता है , 5. शोक उसका एक और लेश है । जगत ् को उ ह ने अ वकृत प रणामी माना है । यानी जगत ् प बदल कर फर म म ह मल जायेगा। अ व या के कारण म से जगत ् बना। वणकु डल क तरह जगत ् है । अहं ता ममता को रखना ह संसार है । व ृ दावन बहार भगवान कृ ण क आठ याम क सेवा पिु टमाग य भि त कहलाती है। व लभ दशन के अनुसार सरू दास आ द अ टछाप के पिु ट स दाय म द त भ त-क व उसी पर परा का पालन करने वाले ह। भगवान क ल ला का गान करने वाले ह। सरू दास ने इस स ब ध म व लभाचाय का आभार वीकार करते हुए कहा है — ीव लभ गु त व सन ु ायो। ल ला भेद बतायो।। इस तरह से हम समझ सकते ह क भि त के सं दाय आचाय ने भगवान कृ ण के यावहा रक व प का वणन कया जब क भि त के स धांत के आचाय ने भि त के दाश नक व प को य त कया है। भि त को संपण ू ता म जानने के लए इन दोन प को जानना आव यक है । 2.3.1 बोध न 1. आचाय शंकर के गु का नाम बताइए। 2. आचाय रामानज ु ाचाय के दाश नक स धांत का नाम या है ? 3. वैत स धांत क थापना कस आचाय ने क है? 4. व लभाचाय के दाश नक स धांत का नाम बताइए। (1) भि त के व भ न सं दाय पर वचार क िजए। (2) भि त के े म आचाय शंकराचाय के दाश नक स धांत क या या क िजए। 1. ‘ हंद सा ह य का इ तहास – संपा. डॉ. नग 2. ‘ हंद सा ह य का इ तहास’ – डॉ. ी नवास शमा 3. ‘ हंद सा ह य का बह ृ त इ तहास’ – संपा. डॉ. भागीरथ म 16 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य 3. भारत क साँ कृ ितक एकता और भि डॉ. वंदना सहायक व ा (तदथ), हदी िवभाग यामा साद मुखज मिहला महािव ालय द ली िव विव ालय, द ली 3.0 अिधगम का उ े य 3.1 तावना 3.1.1 बोध न 3.2 भारतीय सं कृ ित क संक पना 3.2.1 बोध न 3.3 भारतीय सं कृ ित का इितहास एवं अनेकता का िव तार 3.3.1 बोध न 3.4 भारत म धा मक िविवधता 3.4.1 बोध न 3.5 एकता का इितहास एवं परं परा 3.5.1 बोध न 3.6 भि का व प एवं अवधारणा 3.6.1 बोध न 3.7 भारतीय भि काल का उदय, भारतीय भि आंदोलन का व प एवं िवशेषताएँ 3.7.1 बोध न 3.8 सािह य, भारतीय साँ कृ ितक एकता और भि मू य 3.8.1 बोध न 3.9 सामािजक जड़ता को तोड़ते ए भि का ितरोधी व प एवं चेतना 3.9.1 बोध न 3.10 भारतीय साँ कृ ितक एकता के व प पर भि का भाव 17 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस 3.10.1 बोध न 3.11 िन कष 3.12 अ यास न 3.13 स दभ थ इस पाठ के अ ययन के उपरांत िव ाथ िन निलिखत को करने म स म हो पायगे – अनेकता म एकता के व प को समझ सकगे। समाज, धम, भाषा, सं कृ ित और समुदाय क िविवधता के बावजूद भारत को एक संग ठत रा बनाने वाले त व को जान सकगे। भारत क सां कृ ितक एकता म भि क भूिमका से अवगत हो सकगे। भि आंदोलन क िवशेषता क जानकारी ा त कर सकगे। भि आंदोलन के अिखल भारतीय साँ कृ ितक व प से प रिचत हो सकगे। भारतीय भि आंदोलन क जड़ भारतीय समाज और सं कृ ित म ब त गहरे पैठी ह। यह जड़ लोकमानस और उसक संवेदना के साथ गहराई से जुड़ी ह। म यकाल म भि संपूण भारतीय समाज को साँ कृ ितक प से एकता के सू म बाँधती है। समाज के सभी वग और ई र के ित उनके मनोभाव से भि का िवराट कै नवास भारतीय सं कृ ित का ापक िच तुत करता है। भि आंदोलन क यह िविश ता है क अलौ कक चतन क धारा म लौ कक समाज और उसक ितब ता कह भी पीछे नह छू टती बि क यह सामािजक चेतना और जागरण के वर के प म मुख रत होती है। देश क िविभ भौगोिलक सामािजक, साँ कृ ितक एवं भािषक िभ ता के बावजूद भि क गितशील चेतना जीवन मू य को मानवता के धरातल पर मजबूती से थािपत करती है। थानीय सं कृ ितय को आ मसात् करते ए िजस तरह भारतीय सािह य म भि क अवधारणा िवकिसत होती है, वह एक मह वपूण ऐितहािसक घटना है। भारतीय समाज के बुिनयादी ल ण को समझते ए भि आंदोलन क साँ कृ ितक एकता को समझना रोचक होगा। िविभ देश और समाज से आई धम और उपासना क अनेक प ितय को मानने वाल के बीच, संबध ं और उससे पड़ने वाले आपसी भाव को भि आंदोलन के प र े य म समझना मह वपूण होगा। 3.2 भारतीय सं कृित क सक ं पना भारत एक िवशाल देश है। इसका भौगोिलक े ब त िव तृत है। इसी के साथ यहाँ क जनसं या भी ब त िवशाल है। भारत क यह ब लता उसक भौगोिलक प रिध और संसाधन म नह बि क उसक सं कृ ित 18 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य और धा मक वृि य म भी है। भारतीय सं कृ ित पर बात करने से पूव हम सं कृ ित का अथ समझना होगा। सं कृ ित क अवधारणा ब त िव तृत है। सं कृ ित श द ‘सम्’ उपसग म ‘कृ ’ धातु म ‘ित’ यय के योग से बना है। ‘सम्+कृ ित’ अथात अ छी कार से सोच समझकर कया गया काय। यह प र कृ त काय और उ म ि थित का बोध कराता है। अं ेजी म सं कृ ित श द के िलए ‘क चर’ का योग कया जाता है। सं कृ ित मनु य क सहज वृि य तथा आचार- वहार और सं कार से जुड़ी है। इस कार कसी समाज क सं कृ ित से अिभ ाय उस समाज के ि य के रहन-सहन एवं खान-पान क िविधय , वहार , मू य , िव ास , रीित- रवाज , धम-दशन, भाषा-सािह य-कला आ द के उन िविश प से होता है िजसम उनक आ था होती है और िजससे वे अपनी पहचान थािपत करते ह। सं कृ ित प रवतनशील तथा िवकासशील होती है। सं कृ ित म सामािजक गुण िनिहत होते ह। एक सं कृ ित के भीतर रहते ए मनु य सामािजक ाणी बनता है। सं कृ ित मनु य के आंत रक िवकास और उसक उ ित तथा इसके भाव व प, उसका सामािजक वहार है। भारत क साँ कृ ितक िवरासत ब त समृ और िवराट है। यहाँ कई समुदाय और जीवन प ितयाँ ह। भारत एक ाचीन देश है। सधु घाटी स यता का इितहास ब त पुराना है। हम जानते ह क मनु य क िवकास या ा भी िनरं तर जारी है। भारतीय स यता म ान को ब त मह वपूण थान िमला है। वेद , उपिनषद और महाका के प म इसका ारं िभक और ाचीन प नज़र आता है जो आज भी िविभ तर पर जारी है। भारतीय समाज और सं कृ ित म िविभ धम , िवचार और वहार को फलने-फू लने और िवकिसत होने का भरपूर अवसर िमला। इितहास पर गौर कर तो कई धम बाहरी देश से आते ह और यहाँ के लोग के िविभ मत -िव ास के साथ ताल-मेल करते ए एक ऐसा साँ कृ ितक ताना-बाना बुनते ह जो पूण प से भारतीय रंग से सजा और संवरा है। 3.2.1 बोध न: (क) िन निलिखत कथन पर सही/गलत का िनशान लगाइए– 1. भारत क साँ कृ ितक िवरासत ब त समृ है। (सही/गलत) 2. सं कृ त म सं कृ ित श द के िलए ‘क चर’ का योग कया जाता है। (सही/गलत) 3. सं कृ ित प रवतनशील तथा िवकासशील होती है। (सही/गलत) 4. मनु य क बसावट भारत म आधुिनक काल से है। (सही/गलत) 3.3 भारतीय सं कृित का इितहास एवं अनेकता का िव तार भारतीय सं कृ ित के िवकास का अ ययन ब त िव तृत और रोचक है। मुह मद इकबाल जब इन पंि य को िलखते ह तो वा तव म वे भारत क िव तृत और महान सं कृ ित को ही बखानते ह; यूनान िम रोमां सब िमट गये जहाँ से I या बात है क ह ती िमटती नह हमारीII जहाँ िव क अनेक ाचीन स यताएँ न हो चुक ह, वहाँ भारत क स यता और सं कृ ित हजार वष से अ ु ण है। वा तव म भारत का साँ कृ ितक इितहास एकता और सम वय क कहानी है। भारत म िविभ 19 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस धम, भाषा और सं कृ ित क िविवधता है। भारतीय सं कृ ित क यह िवशेषता है क यहाँ इतनी िविवधता के बावजूद साँ कृ ितक एकता भी मौजूद है। क मीर से क याकु मारी तथा गुजरात से लेकर िमज़ोरम तक िविभ जाित-समुदाय िमल-जुल कर रहते ह। इन िविभ थान क अपनी अलग-अलग भौगोिलक िवशेषता है। उसी के अनुसार उनका खान-पान, रहन-सहन, पहनावा, भाषा, यौहार, िव ास और परं पराएँ भी अलग-अलग ह। साँ कृ ितक एकता का सू इ ह रा ीय एकता म बाँधे रखता है। 3.3.1 बोध न: (क) िन निलिखत न का उ र एक-दो श द या पंि य म दीिजए- 1. भारत क सं कृ ित कै सी है? 2. भारत म कन े म िविवधता दखाई देती है? 3. भारत क भौगोिलक िवशेषता कै सी है? (ख) िन निलिखत कथन पर सही/गलत का िनशान लगाइए- 1. भारत क िव तृत और महान सं कृ ित है। (सही/गलत) 2. भारत क स यता और सं कृ ित कु छ वष से अ ु ण है। (सही/गलत) 3.4 भारत म धािमक िविवधता भारत म धा मक िविवधता के नज़ रए से देख तो भारत म आठ बड़े धा मक समुदाय और आ दवासी समुदाय के अपने धा मक िव ास ह। हदू, मुि लम, िसख, इसाई, बौ , जैन, पारसी और य दी आ द मुख धा मक समुदाय ह। इन धा मक समुदाय को भी नज़दीक से देख तो इनम भी कई सं दाय मौजूद ह। उदाहरण के िलए हदू धम म मु यत: वै णव, शैव एवं शा उपासक ह ले कन इनके साथ ही संत सं दाय जैसे रिवदास सं दाय, कबीर सं दाय आ द तथा िविभ समाज जैसे समाज, आय समाज आ द ह। मुि लम समाज दो मुख समुदाय िशया और सु ी म िवभािजत है। इसाई मु यतः कै थोिलक तथा ोटे टट म। बौ धम म हीनयान और महायान सं दाय ह। जैन धम म दगंबर और ेता बर समाज ह। इन सभी सं दाय म मत िविभ ता मौजूद है। ये सभी सं दाय और धम ाय: भारत के िविभ रा य म फै ले ए ह। भारतीय सं कृ ित का इितहास देख तो हम पाएंगे क ाचीन काल से लेकर अब तक एक सांझा सं कृ ित का इितहास यहाँ मौजूद रहा है। येक काल म िमली-जुली सं कृ ित के दशन होते ह। ाचीन भारत के राजनीितक और सा ा य िव तार को देख तो तीसरी से छठी शता दी म दि ण म पा डय, चेर और चोल राजा ने मि दर का िनमाण करवाया। इनसे आज भी दि ण भारत क एक पहचान कायम है। म यकाल तक आते-आते भारतीय उपमहा ीप िविभ धा मक िव ास और उनक तीक इमारत हमारे सम आती ह। मं दर, तूप आ द म इ ह िचि हत कया जा सकता है। इसी समय म धा मक आचरण और िव ास म गंगा-जमुनी तहजीब के ताने-बाने को बुनते ए भी देखा जा सकता है। 3.4.1 बोध न: (क) िन निलिखत न का उ र एक-दो श द या पंि य म दीिजए- 20 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य 1. भारत म कतने मुख धा मक समुदाय ह? 2. कु छ संत सं दाय का नाम िलख। 3. बौ धम कन समुदाय म िवभ है? 4. मुि लम समाज कन समुदाय म िवभ त है? 3.5 एकता का इितहास एवं परपं रा आधुिनक काल तक आते-आते इस सं कृ ित म िविवधता के गुण के साथ ही साथ एकता के सू को भी देखा जा सकता है। आप इसे इस उदाहरण से भी समझ सकते ह क ाचीन काल म मं दर और मू तय का जो व प तथा आराधना प ितयाँ चिलत थ , वे आज भी थोड़े ब त बदलाव के बावजूद लगभग वैसी ही बनी ई ह। यह भारतीय सं कृ ित क सबसे बड़ी िवशेषता कही जा सकती है क यहाँ आचार- वहार और िव ास क िविवधता को सहेजा गया है तो वह इनके बीच साँ कृ ितक एकता का व प भी िव मान है। ऐसा िब कु ल नह है क इन तमाम उदाहरण और एक करण क या को देखते ए हम इन िन कष पर प च जाएँ क यहाँ कसी भी कार के भेद और संघष मौजूद नह थे। वा तव म आप इसे समझना चाह तो देखगे क वै दक परं परा म िजन देवता जैसे इं , सूय, सोम आ द को क ीय शि के प म आरा य माना गया, वे लगभग आठव शता दी तक आते-आते गौण हो जाते ह। उनके थान पर िव णु, िशव तथा देवी के िविभ व प क आराधना चलन म आती है। हमारे देश क ब लतावादी सं कृ ित के बावजूद सांझी सं कृ ित क एकता को भी देखा सकता है। िविभ मत , आ था , िव ास और भाषा क पृथक पहचान के साथ ही साथ उनम रा ीय एकता के सू को भी प देखा जा सकता है। आप नज़दीक से देख तो पाएंगे क िविभ धा मक समुदाय और िव ास का ल य एक िवराट मानवता क अवधारणा से ही जुड़ता है। 3.5.1 बोध न: (क) िन निलिखत कथन पर सही/गलत का िनशान लगाइए- 1. भारतीय समाज म कसी भी कार का भेद और संघष मौजूद नह था। (सही/गलत) (ख) सही श द के चुनाव के ारा र थान क पू त क िजए- 1. हमारे देश म....................सं कृ ित है। (एकलवादी/ त ै वादी/ ब लतावादी) 3.6 भि का व प एवं अवधारणा भारत म भि का मु यत: आठव से अठारहव शता दी तक क समय-सीमा म फै ला आ है। म यकालीन भारतीय सािह य और सं कृ ित को समझने के िलए हम इस कालख ड क पृ भूिम को समझना होगा। उस समय भी भारत के यापा रक संपक िव व के कई देश से थािपत थे। पर तु आठव शता दी के आरं िभक वष म अरब मुसलमान के भारत पर आ मण से भारतीय समाज इ लाम और अरब के संपक म आया। हालाँ क अरब ने भारत के कु छ िह से पर ही शासन कया और अिधकांश भाग अछू ता ही था ले कन 21 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय ऑल य.ू जी.कोसस फर भी भारत म अनेक रा य छोटे-छोटे टुकड़ म िवभ होने के कारण एक के ीय शासन व था तथा कसी रा ीय सं कृ ित का अभाव था। त कालीन समाज वण- व था क ढ़य के पालन के कारण दयनीय अव था म था। अलब नी के भारत दौरे के वणन म जाित- व था और वण- व था के संबध ं म यौरे ा होते ह। इ लाम संपक का दूसरा दौर महमूद गजनवी के साथ शु होता है। तुक सु तान के शासन का भाव भी यहाँ पड़ा। म यकाल के प रवेश म अनेक आ मण को झेलते ए भारतीय समाज मुि लम तथा गैर-मुि लम समाज म बँट गया। समाज धीरे -धीरे क रपंथी और पुरातन ढ़य म जकड़ता जा रहा था। ऐसे समय म संत सािह य समाज-सुधार क दृि से अपना मह वपूण थान रखता है। इस संबंध म हजारी साद ि वेदी संत सािह य क सामािजक पृ भूिम के संबंध म िलखते ह, “म यकाल का संत सािह य धान प से धा मक सािह य है, परं तु उसका धा मक प साधारण जनता के िलए िलखा गया है। इस िवषय म तो कसी को भी मतभेद न होगा क इस सािह य म त कालीन सामािजक प रि थितय क आलोचना क गई है। दीघकाल से चिलत धा मक िव ास , सामािजक और ैि क आचरण के मान तथा िविभ सं दाय ारा वीकार िस ांत पर या तो आ मण कया गया है, या उनके संबंध म संदह े कट कया गया है। यह िविभ संत के उस ती असंतोष का फल है जो उ ह सामािजक प रि थितय के कारण अनुभत ू हो रहा था।” म यकाल क इस पृ भूिम को साँ कृ ितक िमलाप और भि के नये वर के प म भी देखा जा सकता है। मुि लम सैिनक क छावनी से ज मी उदू तथा हदी का िमि त प हदवी या िह दु तानी सम वय क सं कृ ित का तीक है। कई सं कृ ितय के मेल-िमलाप से िविभ ादेिशक बोिलय म भी अिभ ि को मह व िमला। इस काल म भि का व प साँ कृ ितक आंदोलन के प म उभरा िजसने ाचीन भारतीय सं कृ ित क परं परा को जीवंत और गितशील बनाया। भ किवय ने ाय: सभी आधुिनक भारतीय भाषा म अपना सािह य रचा। प रणाम व प त कालीन सं कृ ित को हम आज भी अपने पास सुरि त पाते ह। सािह य और भि का यह वर आज भी ासंिगक बना आ है और यह हमारे देश क साँ कृ ितक धरोहर है। सं कृ ित क या को समझ तो उसम धम का सार भी मौजूद रहता है। सािह य के तर पर भि , धम को सं कृ ित से जोड़ने क या है। आव यकता इस बात क है क हम भि , सं कृ ित और धम के अंत:संबंध को समझने का यास कर। दि ण भारत म आलवार भि का से लेकर म यकाल म भारतीय सजना मक मता क उ ेरक शि के प म उभर कर सामने आती है। सगुण भ त िनगुण संत एवं सू फय क भि , आराधना और का अिखल भारतीय तर पर साँ कृ ितक एकता को थािपत करते ह। भि का य ने िनि त प से साँ कृ ितक एकता के िलए एक आधार भूिम तैयार क । 3.6.1 बोध न: (क) िन निलिखत न का उ र एक-दो श द या पंि य म दीिजए- 1. भारत म भि का का संबध ं मु यत: कतनी शता दी क पृ भूिम म फै ला आ है? 2. भ त किवय ने कस भाषा म सािह य रचना है? 22 | पृ ठ © दरू थ एवं सतत् िश ा िवभाग, मु त िश ा प रसर, मु त िश ा िव ालय, िद ली िव विव ालय भारतीय भि परंपरा और मानव मू य 3. कसके या ा वणन म त कालीन जाित- व था का वणन िमलता है? 3.7 भारतीय भि काल का उदय, भि आदं ोलन का व प एवं िवशेषताएँ लगभग छठी शता दी म भि आंदोलन का ारं भ िव णु भ अलवार और िशवभ नयनार के नेतृ व म आ। वे तिमल भाषा म अपने इ क तुित म भजन गाते ए एक- थान से दूसरे थान पर मण करते थे। अपनी इ ह या ा के दौरान आलवार और नयनार संत ने अपने इ के िनवास थल के प म कु छ पिव थान क घोषणा क । कालांतर म इ ह थान पर िवशाल मं दर का िनमाण आ और वे इन समुदाय के तीथ थल माने गए। संत कि?