पर्यावरण अध्ययन कक्षा 12 PDF - छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मण्डल
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Summary
यह दस्तावेज़ छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मण्डल द्वारा कक्षा 12 के लिए पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यचर्या प्रस्तुत करता है। इसमें जैव विविधता, पर्यावरण प्रबंधन, संधारित विकास, कृषि और पादप रोगों के अध्ययन से संबंधित विषय शामिल हैं। छात्रों के लिए विभिन्न परियोजनाओं (Projects) पर भी प्रकाश डाला गया है।
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Here is the transcription of the provided text into markdown format. # पर्यावरण अध्ययन, कक्षा 12 ## 1. जैव विविधता **छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मण्डल, रायपुर** **प्रायोजना कार्य** **विषय-पर्यावरण** **कक्षा-XII** **पाठ्यक्रम** * 1.1 जैव विविधता की अवधारणा एवं प्रकार-जैव विविधता की अवधारणा तथ...
Here is the transcription of the provided text into markdown format. # पर्यावरण अध्ययन, कक्षा 12 ## 1. जैव विविधता **छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मण्डल, रायपुर** **प्रायोजना कार्य** **विषय-पर्यावरण** **कक्षा-XII** **पाठ्यक्रम** * 1.1 जैव विविधता की अवधारणा एवं प्रकार-जैव विविधता की अवधारणा तथा महत्व जैव विविधता के प्रकार प्रजाति, पारिस्थितिक एवं अनुवांशिक जैव विविधता। प्रकृति में सन्तुलन। मानव के अस्तित्व हेतु जैव विविधता। संसाधनों की सीमायें। * 1.2 जैव विविधता की पारिस्थितिक भूमिका-विभिन्न प्रजातियों के मध्य पारस्परिक निर्भरता। भारतवर्ष विविध विपुलता वाला राष्ट्। जैव विविधता का आर्थिक महत्व। जैव विविधता में कमी, संकटग्रस्त, संकटापन्न (खतरे में पड़ी) एवं विलुप्त प्रजातियाँ। * 1.3 जैव विविधता का संरक्षण-इन सिटू एवं एक्स सिटू संरक्षण। जनता एवं जनजीवन संघर्ष को कम करना। ## 2. पर्यावरण प्रबन्धन * 2.1 पर्यावरण प्रबन्धन की आवश्यकता, पर्यावरण प्रबन्धन के प्रमुख पहलू-इथिकल, आर्थिक तकनीकी एवं सामाजिक पहलू। पर्यावरण प्रबन्धन का कानूनी प्रावधान। * 2.2 पर्यावरण प्रबन्धन के उपागमन (एप्रोचेस)- आर्थिक नीतियाँ, पर्यावरण सूचक, मानकों (स्टैंडर्ड्स) की सेटिंग, सूचनाओं का आदान-प्रदान एवं निगरानी। ## 3. संधारित विकास * 3.1 संधारित विकास की अवधारणा। संधारित उपभोग की अवधारणा। वर्तमान एवं भविष्य के जीवन स्तर में सुधार हेतु संधारित विकास की आवश्यकता। संधारित विकास की चुनौतियाँ सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक चुनौतियाँ। * 3.2 संधारित विकास के मद्दगार आधार- राजनीतिक एवं प्रशासनिक संकल्प। गतिमान एवं अनाग्राही (फ्लेक्सिबल) नीतियाँ, सटीक तकनीकें। दक्ष मानव शक्ति का विकास। व्यक्ति एवं समुदाय की भूमिका। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सियाँ (शासकीय एवं अशासकीय) की भूमिका। ## 4. प्रोजेक्ट फाइल * 4. कृषि एवं फसल सुरक्षा- * 4.1 संधारित कृषि एवं हरित क्रांति-संधारित कृषि की आवश्यकता, हरित क्रांति- पर्यावरण पर इसका प्रभाव। फसलों के लिए मृदा का महत्व। सिंचाई पद्धतियाँ, उर्वरकों एवं खादों का उपयोग। * 4.2 फसल सुरक्षा-प्रमुख पादपनाशक, प्रमुख पादप रोग, इनके नियंत्रण की प्रमुख विधियाँ (एग्रोकेमिकल)। पर्यावरण पर एग्रोकेमिकल्स का प्रभाव। संधारित कृषि के तत्व, मिश्रित फॉर्मिंग, मिश्रित खेती, फसल चक्र, जैविक एवं आर्थिक पहलू, जैव उर्वरकों एवं जैव पीड़क नाशकों का उपयोग, जैविक नियंत्रण। * 4.3 समन्वित पीड़क प्रबन्धन-समन्वित पीड़क प्रबन्धन। फसलों के सुधार में जैव तकनीकी की उपयोगिता। कृषि उत्पादों का प्रबंधन-संग्रहण, संरक्षण, परिवहन एवं प्रोसेसिंग। **प्रायोजना कार्य** शिक्षक विद्यार्थियों की समझदारी के अनुरूप पूरे सत्र में बालकों से एक परियोजना (Project) अनिवार्य रूप से तैयार करवायेंगे। यह परियोजना नीचे दिये गये उदाहरण में से एक अथवा शिक्षक द्वारा अपने पर्यावरण से सम्बन्धित कोई एक परियोजना हो सकती है- 1. किसी पर्यावरण/ परिवेश के विभिन्न जीवों की परस्पर निर्भरता का अध्ययन। 2. हानिकारक फसल कीटों का अध्ययन एवं उसकी रोकथाम के जैविक उपाय। 3. प्रमुख पादप रोगों एवं उनकी रोकथाम का अध्ययन। 4. पर्यावरण पर एग्रोकेमिकल्स के प्रभावों का अध्ययन। 5. अपने परिवेश के उत्तम फसल चक्र की खोज। ## परियोजना क्रमांक-1 उद्देश्य- जैव विविधता की अवधरणा एवं संरक्षण। जैव विविधता नाम से ही स्पष्ट है कि जीवों की विविधता अर्थात् इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के जन्तु विभिन्न प्रकार के पौधे एवं विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म जीव आते हैं। साथ-ही-साथ जीवों के परस्पर अन्तः क्रिया करने वाले परिस्थितिकीय कारक भी आते हैं। जैव-विविधता एक प्रकार से प्राकृतिक संसाधन है जिसमें विभिन्न जीवों को जीवन के लिए प्राकृतिक एवं जैविक स्रोत मिलते हैं अर्थात् जिस क्षेत्र की जैव विविधता जितनी अधिक होगी वह क्षेत्र प्राकृतिक रूप से उतना सम्पन्न होगा। सतत् विकास के लिए जैव विविधता आवश्यक है। जब हम एक नजर अपने विश्व की जैव विविधता पर डालते हैं तो मालूम पड़ता है कि विश्व में अभिनिर्धारित जातियाँ 14,13,000 हैं। बहुत अधिक जातियाँ अभी निर्धारित नहीं हैं यदि इनकी पहचान निर्धारित कर दी जाए तो इनकी संख्या 50 लाख से अधिक हो सकती है। अभिनिर्धारित जातियों की संख्या निम्नानुसार है- | कीट | पादप | अन्य प्राणी | | :------- | :------- | :--------- | | 7,51,000 | 2,48,000 | 2,81,000 | | कवक | प्रोटिस्ट | शैवाल | | 69,000 | 30,000 | 26,000 | | जीवाणु व अन्य | विषाणु | | | 4,800 | 1,000 | | सामान्य रूप से जीन की विविधता के कारण जैव-विविधता विकसित होती है जितनी अधिक जीन विविधता होगी जैव विविधता उतनी कम होगी। हमारा देश जैव-विविधता की दृष्टि से बहुत अधिक धनवान है क्योंकि यहाँ लगभग सभी प्रकार की परिस्थितिकीय पायी जाती है। विश्व के बाहर बड़े जैव-विविधता केन्द्रों में भारत एक है। एक अनुमान के अनुसार हमारे यहाँ लगभग 45,000 पादप प्रजातियाँ तथा 81,000 जन्तु प्रजातियाँ पायी जाती हैं। पादप और जन्तुओं की प्रजातियों की यह संख्या विश्व की कुल प्रजातियों का क्रमशः 7% एवं 6.5% है। परिभाषा (Definition)—टेक्नोलॉजी एसेसमेन्ट, 1987 के संयुक्त राज्य कार्यालय ने जैव विविधता की परिभाषा निश्चित की है जो निम्न प्रकार है- “जीव जन्तुओं में पायी जाने वाली विभिन्नता विषमता और परिस्थितियाँ जटिलता ही जैव-विविधता कहलाती है।" जैव विविधता का संरक्षण-इन-सिटू संरक्षण एवं एक्स-सिदू संरक्षण जैव विविधता के महत्व को देखते हुए यह आवश्यक है कि इसका संरक्षण किया जाये। इसके अत्यधिक उपयोग में बहुत-सी जातियाँ लुप्त प्रायः स्थिति में आ चुकी हैं। विश्व की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही हैं इसलिए इसकी आवश्यकता भी तेजी से बढ़ती जा रही है। इस कारण प्राकृतिक संसाधनों के साथ-साथ पादप और जन्तुओं का भी मनमाना उपयोग किया जा रहा है। जिसमें जैव जातियाँ विलुप्त हो रही हैं। आज जिस तरह से इनका दोहन किया जा रहा है उसके आधार पर अगले कुछ वर्षों में लगभग एक-तिहाई प्रजातियाँ समाप्त हो जायेंगी। एक अध्ययन के अनुसार 1600 से 1950 के मध्य प्रत्येक दशक में एक प्रजाति विलुप्त हुई है। आज तक प्रजाति को विलुप्त होने के लिए केवल एक वर्ष का समय लगता है। पादप जातियों के विलुप्त होने को कारण अत्यधिक वन कटाई है। एक अध्ययन के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग 5 से 10% वनों की अवैध कटाई होती है। प्रदूषण के कारण पादप एवं प्राणियों को जीवनयापन के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिलता जिससे उनकी जाति-प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं। इन सभी कारणों के कारण जाति प्रजातियों का संरक्षण आवश्यक है, नहीं तो पारिस्थितिकीय प्रणाली अनियमित हो जायेगी। और हमारी पृथ्वी जीव-विहीन हो जायेगी। जिसका सीधा असर मानव के अस्तित्व पर पड़ेगा। अतः यह आवश्यक हो गया है कि हम हमारी जैव विविधता की रक्षा एवं उसका संरक्षण करें। जैव विविधता का संरक्षण आज की प्राथमिक आवश्यकता हो गई है। इसके संरक्षण का कार्य केवल एक देश या द्वीप के द्वारा न होकर पूरे विश्व स्तर पर किया जाना चाहिए। जैव विविधता के संरक्षण के लिए विश्व स्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय संघ बनाया गया जिसको यूनियन फॉर प्रिजर्वेशन ऑफ नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेस के नाम से जाना जाता है। यह संगठन जैव विविधता को विश्व स्तर पर संरक्षण करने के लिए स्थान पर यथासम्भव प्रयास करता है जिसमें संरक्षण के लिए विकसित करना, संरक्षण के लिए स्थान एवं प्रजातियों का चुनाव करना, संरक्षण के लिए विशेषज्ञ उपलब्ध करवाता है। इत्यादि IUCN को विश्व संरक्षण संघ के नाम से भी जाना जाता है, इसका मुख्यालय स्विट्जरलैण्ड में स्थित है। IUCN ने जैव विविधता के संरक्षण के लिए जीवों को पाँच वर्गों में विभाजित किया है। * 1. विलुप्त (Extinct)-जातियों की ऐसी श्रेणी जो कुछ स्थानों में विलुप्त हो चुकी हैं और तेजी से अन्य स्थानों से भी विलुप्त हो रही हैं। इन्हें विलुप्त जातियों की श्रेणी में रखा है। * 2. संकटापन्न (Endangereal)- इन वर्ग में उन जातियों को रखा है जो किसी भी कारण से समाप्त हो रही हैं, उनकी संख्या नहीं बढ़ रही है अर्थात् इनकी संख्या कम होती जा रही है। * 3. सुभेद्य (असुरक्षित)(Vutenerable) - ऐसी जातियाँ जो असुरक्षित हैं, अर्थात् कभी भी नष्ट हो सकती हैं या उन्हें सहज नष्ट किया जा सकता है इन्हें सुभेद्य जातियों की श्रेणी में रखा गया है। * 4. दुर्लभ (Rare)- इस वर्ग में ऐसी जातियों को रखा गया है जो दुर्लभ हैं अर्थात् जिनकी संख्या कम है एवं उनका आवास स्थान किसी विशेष परिस्थिति में ही हो सकता है। * 5. अपर्याप्त ज्ञान जातियाँ (Insufficiently Know Species)- कुछ जातियाँ इस प्रकार की होती हैं जिनके बारे में विस्तृत जानकारी नहीं होती। इन्हें अपर्याप्त ज्ञान जातियों के वर्ग में रखा गया है। IUCN के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका है। विशेष रूप से यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों के बीच समन्वयक की भूमिका निभाता है। IUCN के पाँच वर्ग संरक्षण के लिए उनका उपयोग विश्व संरक्षण मॉनीटर केन्द्र ने किया और लगभग 60,000 और 2,000 प्राणियों की जाति को खतरों से चिन्हांकित किया। इन प्राणियों का वर्णन जिस पुस्तक में किया उसे रेड डाटा बुक के नाम से जाना जाता है। रेड डाटा बुक में प्रकाशित जातियों को थ्रेटेन्ड जाति का नाम दिया गया है। IUCN के तीन वर्ग संकटापन्न सुभेद्य एवं दुर्लभ इस थ्रेटेन्ड जातियों के अन्तर्गत आते हैं। रेड डाटा बुक में पादप जातियों का वर्णन अधिक है लेकिन कुछ प्राणी समुदाय भी इसके अन्तर्गत आते हैं। संरक्षण की विधियाँ (Methods of Conservation) - संरक्षण के प्रयास विश्व स्तर पर किये तो जा रहे हैं लेकिन संरक्षण की एक निश्चित नीति होती है जिसके आधार पर जैव विविधता का संरक्षण किया जाता है। जैव विविधता को जिस प्रकार तीन भागों में विभाजित किया गया है। उसी के आधार पर संरक्षण की भी तीन विधियाँ विकसित की गई हैं- (1) प्रजाति विविधता का संरक्षण। (2) आनुवंशिक विविधता का संरक्षण। (3) पारिस्थितिकीय तन्त्रीय विविधता का संरक्षण। उपर्युक्त तीनों प्रकार के विविधताओं का संरक्षण निम्नलिखित दो विधियों द्वारा किया जाता है- (1) इन-सिटू संरक्षण (2) एक्स-सिटू संरक्षण 1. इन-सिटू संरक्षण (In-situ Conservation) इन-सिटू संरक्षण का अर्थ इस शब्द में ही है अर्थात् ऐसा संरक्षण जो उस स्थान में हो जहाँ पादप या प्राणि पाये जाते हैं। दूसरे शब्दों में, जीवों के मूल आवास में ही यदि उनको संरक्षित किया जाये तो वह इन-सिटू संरक्षण कहलाता है। उदाहरण के लिए कुछ प्राणी किसी निश्चित वन में पाये जाते हैं तो उन प्राणियों का संरक्षण उनके उसी प्राकृतिक आवास में कर दिया जाता है तो यह इन-सिटू संरक्षण कहलाता है। इसके अन्तर्गत राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारण्य इत्यादि आते हैं। हमारे देश में वन्य प्राणी एवं पदार्थों का संरक्षण किसी रूप में किया जा रहा है। विशेष तौर से पौधों और जन्तुओं का धार्मिक महत्व बताते हुये उनको संरक्षित किया गया है। जनजातियों में तो पादपों और जन्तुओं के नाम से स्थानीय जातियों के गोत्र होते हैं जिससे वे अपने गोत्र की रक्षा के लिए जीवों का संरक्षण करते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि हम जीवों का संरक्षण सदियों से करते आ रहे हैं लेकिन वर्तमान में शासकीय संस्थाएँ संरक्षण का काम कर रही है। इन-सिटू संरक्षण के तहत अभ्यारण्य, राष्ट्रीय उद्यान, प्राणी उद्यान विभिन्न प्रोजेक्ट चलाकर संरक्षण किया जा रहा है। यह समिति राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारण्य एवं प्राणि उद्यान आदि को निर्धारित कर विकसित करती है। आज भारत में 27 राष्ट्रीय उद्यान, 413 अभ्यारण्य हैं जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 4% भाग तक फैली हैं। IUCN ने 1985 में एक नीति निर्धारित की जिसमें परिरक्षित स्थानों का उपयोग किस स्तर तक किया जा सकता है इसकी जानकारी दी। IUCN ने इन परिरक्षित क्षेत्रों को 8 भागों में विभाजित किया है। ये निम्नानुसार हैं- (1) वैज्ञानिक आरक्षित और पूर्ण प्रकृति आरक्षित ऐसे क्षेत्र केवल शिक्षा, पर्यावरणीय अवलोकन एवं वैज्ञानिक अध्ययन के लिए ही संरक्षित होते हैं। (2) राष्ट्रीय उद्यान ये प्राकृतिक सौन्दर्ययुक्त होते हैं ये वैज्ञानिक, शिक्षा और मनोरंजन के लिए प्रतिबन्धित होने के साथ-साथ इसका व्यापारिक उपयोग पूरी तरह प्रतिबन्धित होता है। (3) राष्ट्रीय स्मारक एवं भूचिन्ह । (4) प्रबन्धित वन्य जीवन अभ्यारण और प्रकृति आरक्षित। (5) परिरक्षित भूमि । (6) सम्पदा आरक्षित। (7) राष्ट्रीय जीवीय क्षेत्र और मानव विज्ञान आरक्षित। (8) बहु-उपयोगी प्रबन्ध क्षेत्र इन-सिटू संरक्षण के संरक्षित क्षेत्र इन-सिटू संरक्षण में पादपों और जीवों को उनको आवास स्थानों में ही संरक्षित किया जाता है। इन संरक्षित क्षेत्रों को उनकी श्रेणियों तथा विभिन्न विकल्पों के आधार पर अलग वर्गों में विभाजित किया गया है। ये निम्न प्रकार हैं- (1) राष्ट्रीय उद्यान। (2) अभ्यारण्य। (3) जीव-मण्डलीय आरक्षण। (4) प्राकृतिक आरक्षण। (5) प्राकृतिक स्मारक। (6) सांस्कृतिक दृश्यभूमि । IBWL की 15वीं सभा 1 अक्टूबर, 1982 को हुई जिसमें हमारी तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने वन्य जीव संरक्षण के लिए 12 बिन्दु युक्ति की कार्य योजना प्रस्तुत की। इसी योजना के तहत राष्ट्रीय उद्यान अभ्यारण्य, जैव-मण्डल अभ्यारण्य और अन्य संरक्षित क्षेत्रों की व्याख्या की गई। **2. एक्स-सिदू संरक्षण (Ex-Situ Conservation)** एक्स-सिटू संरक्षण का अर्थ है- आवास के बाहर संरक्षण। अर्थात् पादप या प्राणियों की विभिन्न जातियों या जैव विविधता का संरक्षण उनके मूल आवास से दूर ले जाकर किसी संरक्षित क्षेत्र, स्थल या प्रयोगशाला में किया जाता है तो उसे एक्स सिटू संरक्षण कहते हैं। अतः एक्स सिटू संरक्षण प्राकृतिक आवास में भी किया जा सकता है और प्रयोगशाला में भी किया जा सकता है। **एक्स-सिटू संरक्षण के संरक्षित क्षेत्र** प्राकृतिक आवासों में एक्स सिटू संरक्षण निम्न विधियों द्वारा किया जा सकता है- (1) वानस्पतिक उद्यानों की स्थापना। (3) कृषि अनुसंधान संस्थाओं द्वारा। (2) प्राणी उद्यान ($zoo$)की स्थापना द्वारा। (4) वानिकी अनुसन्धान संस्थाओं द्वारा। (1) वानस्पतिक उद्यानों की स्थापना द्वारा-वानस्पतिक उद्यानों की स्थापना एक निश्चित स्थान पर की जाती है एवं जिस पादप को संरक्षित करना होता है उसके अनुकूल आवास वहाँ बनाये जाते हैं, और उन्हें वहाँ उगाया जाता है। इस प्रकार विभिन्न आवास स्थानों की जातियों को एक स्थान पर लाकर उनका संरक्षण किया जाता है। (2) प्राणी उद्यान की स्थापना द्वारा-जिस प्रकार पौधों को वानस्पतिक उद्यान में लगाया जाता है, वैसे ही संरक्षित प्राणी को प्राणी उद्यान में रखकर उसके भोजन प्रजनन इत्यादि की व्यवस्था कर उसे संरक्षित किया जाता है। (3) कृषि अनुसन्धान संस्थाओं द्वारा-कृषि से सम्बन्धित पादप अर्थात् फसलों को विभिन्न कृषि अनुसन्धान संस्थाएँ विकसित कर उनका संरक्षण करती हैं। (4) वानिकी अनुसन्धान संस्थाओं द्वारा-वानिकी अनुसन्धान संस्थाओं द्वारा रोपणी बनाकर संरक्षित जातियों की संख्या बढ़ाई जाती है जिससे उनका संरक्षण हो सके। ## परियोजना क्रमांक-2 उद्देश्य - पर्यावरण प्रबंधन एवं पारिस्थितिक तंत्र की आवश्यकता । पर्यावरण से आशय पर्यावरण से आशय सामान्तया प्राकृतिक रूप से प्राप्त निःशुल्क भूमि, जल, वायु से लगाया जाता है जो जीवन का आधार है। प्राकृतिक रूप से प्राप्त भूमि, जल एवं वायु के माध्यम से विभिन्न जीवन प्रणालियों के निर्माण होता है। जिन्हें पारिस्थितिक तंत्र कहते हैं। इन पारिस्थितिक तंत्र का विवरण निम्नलिखित है। घास के मैदान का पारिस्थितिक तन्त्र अन्य पारिस्थितिक तंत्रों से भिन्न होता है। पर्यावरण के अध्ययन के लिये हमें पारिस्थितिक तंत्र की जानकारी होना आवश्यक है क्योंकि पर्यावरण एवं पारिस्थितिकीय दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जब तक हमें किसी स्थान की पारिस्थितिकीय तंत्र की जानकारी नहीं होगी हम वहाँ की पर्यावरण के बारे में नहीं बता सकते। अलग-अलग पर्यावरण में पारिस्थितिक तंत्र अलग-अलग होता है। पारिस्थितिक तंत्र ($ecosystem$) में जीवीय और अजीवीय के बीच ऊर्जा पदार्थों का चक्रीकरण होता है, जिससे इन घटकों का रचनात्मक सम्बन्ध बना रहता है। पारिस्थितिक तंत्र की परिभाषा पारिस्थितिक तंत्र सर्वप्रथम टेन्सले 1935 नामक वैज्ञानिक ने परिभाषित किया था। कोई भी पेड़-पौधे, जीव-जन्तु मनुष्य अकेले जीवनयापन नहीं कर सकता। उसे वातावरण के साथ संपर्क एवं सम्बन्ध बनाना ही पड़ता है। मोवीयस 1877 नामक वैज्ञानिक ने पारिस्थितिक तंत्र की बायोसीनोसिस के नाम से उल्लेखित किया है जबकि एक अन्य वैज्ञानिक फोरसिस 1877 ने पारिस्थितिक तंत्र को माइक्रोकास्म शब्द से उल्लेखित किया। पारिस्थितिक-वातावरण (environment) तंत्र-सम्बन्ध (system) ए. जी टेन्सले, 1935 के अनुसार पारिस्थितिक तंत्र वह तंत्र है जो वातावरण के जीवीय तथा अजीवीय सभी कारकों के परस्पर सम्बन्धों तथा क्रियाकलापों द्वारा प्रकट होता है। पारिस्थितिक तंत्र जिन दो भागों से बना होता है या जिनसे पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण होता है उसे पारिस्थितिक घटक के नाम से जाना जाता है। इसलिये पारिस्थितिक तंत्र को हम दो भागों में विभक्त करते हैं- 1. जीवीय घटक। 2. अजीवीय घटक। (1) जीवीय घटक (Biotic Component)- इसके अन्तर्गत हम उत्पादक, उपभोक्ता एवं अपघटनकर्ता का अध्ययन करते हैं। (2) अजीवीय घटक (Abiotic Components)- इसके अंतर्गत पारिस्थितिक तंत्र में अजीवित पदार्थ (Non- living) का अध्ययन करते हैं। पारिस्थितिक तंत्र के प्रकार-अपने वातावरण का अध्ययन करें तो हमें अपने आस-पास कई प्रकार के पारिस्थितिक तंत्र दिखाई देते हैं। पारिस्थितिक तंत्र को दो भागों में विभक्त किया गया है- (i) प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र। (ii) कृत्रिम पारिस्थितिक तंत्र। (i) प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र-प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाले पारिस्थितिक तंत्र को प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र कहा जाता है। इस पारिस्थितिक तंत्र को निम्नांकित दो भागों में बाँटा गया है- (1) भू-स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र जमीन या स्थल पर प्राप्त होने वाले पारिस्थितिक तंत्र को भू-स्थलीय परिस्थितिकी तंत्र कहते हैं। वन में होने वाले पारिस्थितिकी तंत्र को "वन पारिस्थितिक तंत्र मरुस्थल में होने वाले पारिस्थितिक तंत्र को मरुस्थल में होने वाले पारिस्थितिक तंत्र को मरुस्थल पारिस्थितिक तंत्र, घास के मैदान में होने वाले पारिस्थितिक तंत्र को घास मैदान का पारिस्थितिक तंत्र कहते हैं। (2) जलीय पारिस्थितिक तंत्र पानी या जल में पाये जाने वाले पारिस्थितिक तंत्र को जलीय पारिस्थितिकी तंत्र कहते हैं। इसे दो भागों में बाँटा गया है- (1) स्वच्छ जल परिस्थितिक तंत्र । (2) समुद्री पारिस्थितिक तंत्र । (1) स्वच्छ जल पारिस्थितिक तंत्र - तालाब, झील, नदियों में होने वाले पारिस्थितिकी तंत्र का अध्ययन करते हैं । (2) समुद्री पारिस्थितिक तंत्र समुद्र में होने वाल पारिस्थितिक तंत्र को समुद्रीय पारिस्थितिक तंत्र कहते हैं। (ii) कृत्रिम पारिस्थितिक तंत्र (Artificial Ecosystem) - मानवनिर्मित पारिस्थितिक तंत्र-कृत्रिम रूप से पाये जाने वाला पारिस्थितिक तंत्र को मनुष्य द्वारा निर्मित होता है, इसमें पाये जाने वाले तालाब, बाँध का निर्माण मनुष्य द्वारा ही किया जाता है। पारिस्थितिक तंत्रों की रचना एवं कार्य-किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में हमें मुख्य रूप से दो चीजें दिखाई देती हैं- (1) रचना, (2) कार्य। (1) रचना (Structure)-रचना में हम कई चीजों का अध्ययन करते हैं, जैसे-जीवित संगठनों में उनका फैलाव, जाति संख्या, जीवभार, उनका फैलाव उसके साथ-साथ जो अजीवित वस्तुएँ हैं उनका फैलाव एवं उनकी स्थिति इत्यादि। (2) कार्य (Function) - कार्य में ऊर्जा का प्रवाह जैव-भू-रासायनिक वनों का अध्ययन करते हैं। पारिस्थितिक तन्त्र के कार्य-विभिन्न घटकों को अपनी पहचान बनाने के लिये एक-दूसरे से कार्यों के कारण जुड़े रहते हैं जिसे इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है- 1. ऊर्जा प्रवाह चक्र ($Energy flow$) 2. भोजन चक्र (Food chain) 3. पोषण स्तर (Tropic level) 4. खनिज चक्र ($Mineral cycle$) 5. ऑक्सीजन चक्र ($Oxizen cycle$) 6. कार्बन चक्र ($Carbon cycle$) 7. सल्फर चक्र ($Sulphur cycle$) 8. नाइट्रोजन चक्र ($Nitrogen cycle$) **पारिस्थितिक तन्त्र के घटक** (A) अजैविक घटक - ओडम 1971 ने किसी पारिस्थितिक तन्त्र के आधि त्रिय घटकों को 3 भागों में बाँटा है- (1) अकार्बनिक पोषक (Inorganic nutrients) (2) कार्बनिक पोषक (Organic compounds) (3) जलवायु कारक (Climate factors) 1. अकार्बनिक पोषक (Inorganic nutrients) - इसमें जल, कैल्सियम, पोटैशियम मैग्नेशियम जैसे-खनिज, फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, सल्फर जैसे लवण तथा ऑक्सीजन कार्बन-डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन जैसे गैसें शामिल हैं। ये सब हरे पौधों के पोषक तत्व अथवा कच्ची सामग्री है। 2. कार्बनिक पोषक (Organic compounds) -इसमें मृत पौधों व जन्तुओं से व्युत्पन्न प्रोटीन, शर्करा, लिपिड जैसे कार्बनिक यौगिक और इनके अपघटन से उत्पन्न माध्यमिक या अन्तिम उत्पाद जैसे-यूरिया तथा ह्यूमस सम्मिलित है। ये अन्त में जीवों से प्राप्त होते हैं। पौधे और जन्तुओं के अवशेषों में कितने ही खनिज व लवण बद्ध रूप में होते हैं। 3. जलवायु कारक (Climate factors)- वातावरण के भौतिक भाग में जलवायवीय कारक, उदाहरणतः ताप, प्रकाश तथा वात् आते हैं। सौर ऊर्जा को प्रकाश संश्लेषण के प्रक्रम द्वारा अवशोषित करके कार्बनिक अणुओं की रासायनिक ऊर्जा के रूप में संचित कर लेते हैं। समस्त जीव जगत् में जिसमें परपोषी जीव की सम्मिलित है, यही ऊर्जा प्रवाहित होती है और इससे ही पृथ्वी पर जीवन सम्भव होता है। (B) जैविक घटक- सभी जीवों को पोषण, वृद्धि तथा जनन के लिए खाद्य पदार्थों की आवश्यकता होती है। खाद्य पदार्थों से जीवन के लिए ऊर्जा मिलती है। पारिस्थितिक तन्त्र के जीवों को कई ऊर्जा स्तरों में विभक्त किया जा सकता है। प्रत्येक ऊर्जा स्तर को पोषण रीति ($tropic level$)कहते हैं। ऊर्जा के प्रारम्भिक स्रोत अर्थात् सौर ऊर्जा से विभिन्न पोषण रीतियों की सापेक्षिक दूरी एक-दूसरे से भिन्न होती है। विभिन्न पोषण रीतियों का विवरण निम्न प्रकार है- 1. उत्पादक या स्वपोषक (Autotrophs) -ये प्रकाश संश्लेषी पौधे हैं जिनमें कुछ प्रकाश संश्लेषी जीवाणु भी सम्मिलित हैं इनमें हरा वर्णक क्लोरोफिल होता है। ये सूर्य ऊर्जा की सहायता से अकार्बनिक पोषक तत्वों से अपने कार्बनिक खाद्य पदार्थ स्वयं बना लेते हैं और इस प्रक्रम में आण्विक ऑक्सीजन, जो जन्तुओं को जीवित रखने के लिए अनिवार्य हैं, विमुक्त हो जाती है। इस प्रक्रम में जो जन्तुओं को जीवित रखने के लिये अनिवार्य है, उनमें सूर्य की ऊर्जा संचित होती है। प्रकाश संश्लेषी पौधों को प्राथमिक उत्पादक कहते हैं तथा ये पहली पोषक रीति बनाते हैं। 2. उपभोक्ता या परपोषी- इसमें क्लोरोफिल नहीं होता है। ये अपना आहार हरे पौधों से लेते हैं इन्हें उपभोक्ता कहते हैं। इनमें जन्तु, कवक तथा जीवाणु सम्मिलित हैं। ## परियोजना क्रमांक-3 उद्देश्य – मृदा एवं फसल चक्र का चयन एवं प्रभाव। कृषि का आधार मृदा की उर्वरकता है। लगातार मृदा का उपयोग उसकी उर्वकता को प्रभावित करता है अतः मृदा की उर्वरता बनाए रखने के लिए फसल चक्र का उपयोग किया जाता है। फसल चक्र से आशय मृदा की उर्वरता बनाए रखने के लिए फसल के उत्पादन करने का क्रम निश्चित करने से है। फसल बोने का यह क्रम जलवायु परिवर्तन पूर्व फसल का मृदा पर प्रभाव तथा मृदा उर्वरा शक्ति के आधार पर निश्चित होता है। सामान्य शब्दों में फसलों को बदल-बदल कर बोना फसल चक्र कहलाता है। फसल चक्र का निर्धारण करते समय सामान्यतः निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए। 1. गहरी जड़ों वाली फसलों के बाद कम गहरी जड़ों वाली फसलों को उगाया जाना चाहिए जिससे फसलें विभिन्न मृदा सतहों से पोषक तत्वों को ग्रहण कर सकें जैसे-कपास, गेहूँ। 2. अदलहनी फसलों को उगाने के बाद दलहनी फसलों का उत्पादन किया जाना चाहिए। दहलनी फसलों के जड़ों में पाया जाने वाला राइजोबियम बैक्टीरिया मिट्टी में वायुमण्डल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करता है तथा अदलहनी फसल मिट्टी से नाइट्रोजन ग्रहण करती है तथा मृदा को सन्तुलित करती है। 3. अधिक जल की आवश्यकता वाले फसलों के उत्पादन के बाद कम जल की आवश्यकता वाली फसल का उत्पादन करना चाहिए। 4. अधिक खाद की आवश्यकता वाली फसलों के बाद कम उर्वरक की आवश्यकता वाली फसल का उत्पादन करना चाहिए जिससे मिट्टी की उर्वरकता सुरक्षित रहती है। 5. अधिक निराई एवं गुड़ाई वाली फसलों के बाद कम निराई-गुड़ाई फसलों का उत्पादन करना चाहिए। 6. फसल चक्र में दो ऐसी फसलें जिनमें हानि पहुँचाने वाले कीट पतंगे बीमारियाँ एक जैसे हों लगातार नहीं बोनी चाहिये। 7. फसलों का उत्पादन चक्र निर्धारित करते समय मृदा एवं जलवायु का ध्यान रखना चाहिए। 8. फसल चक्र का निर्धारण करते समय उन फसलों का चयन किया जाना चाहिए जो किसान के पास उपलब्ध श्रम, सिंचाई, उर्वरक बीज आदि का सम्पूर्ण उपयोग हो। 9. हमारे देश में फसल चक्र का निर्धारण सामान्यतः निम्न क्रम में होता है- (i) प्रथम वर्ष - जून-जुलाई से अक्टूबर-नवम्बर तक मक्का फसल (खरीफ फसल) , नवम्बर-दिसम्बर, फरवरी-मार्च तक गेहूँ फसल, अप्रैल से जूल तक मूँग की फसल । (ii) द्वितीय वर्ष-जून-जुलाई से अक्टूबर-नवम्बर तक ज्वार, नवम्बर-दिसम्बर से फरवरी मार्च तक चना तथा अप्रैल से जून तक पड़ती। (iii) तृतीय वर्ष- पुनः प्रथम वर्ष के अनुसार जून-जुलाई तक मक्का तथा पुन: पूर्वानुसार उत्पादन क्रम। | मक्का/धान | ज्वार | | :---------- | :---------- | | तृतीय वर्ष | द्वितीय वर्ष | | पड़ती | मूंग | | मक्का | गेहूँ | | प्रथम वर्ष | चना| **चित्र - फसल निर्धारण चक्र** फसल चक्र के लाभ -फसल चक्र से सामान्यतः निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं- 1. अलग-अलग प्रकार की फसलें लगातार बोने के हानिकारक खरपतवार, बीमारियों तथा कीटों का चक्र टूट जाता है तथा उत्पादन में वृद्धि होती है। 2. भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। 3. मृदा में कार्बनिक तत्वों की मात्रा में वृद्धि होती है जो उत्पादन वृद्धि में लाभदायक होता है। 4. भूमि में नाइट्रोजन की पूर्ति के लिए सनई, ढेंचा, मूँग आदि को 3-4 वर्षों में एक बार बोकर जोत देने से कार्बनिक पदार्थ (हरी खाद) नाइट्रोजन मिलता है। 5. अधिक निराई-गुड़ाई वाले फसल बोने से खरपतवार समाप्त हो जाता है। 6. फसल चक्र से फसलों के उत्पादन में वृद्धि होती है। 7. अल्पकालिक फसलों जैसे-मूली, पालक, चुकन्दर, मूँग आदि को फसल चक्र में शामिल कर कृषकों के आय में वृद्धि किया जा सकता है। अतः स्पष्ट है कि फसल चक्र कृषि के उत्पादन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है फसल चक्र की मध्यम से मृदा में सदैव उर्वरता विद्यमान रहती है तथा कृषि उत्पादन में स्थिरता बनी रहती है। ## परियोजना क्रमांक-4 उद्देश्य पादप रोगों एवं उनके रोकथाम का अध्ययन। पौधों में रोग सामान्यतः पौधे तथा रोग कारकों (जैविक तथा अजैविक) के मध्य अभिक्रिया के परिणामस्वरूप होता है। पादप रोगों के कारण पौधों में आवश्यकतानुसार वृद्धि नहीं हो पाती या पौधों का स्वरूप विकृत होना या पौधा धीरे-धीरे सूखकर नष्ट हो जाता है। पौधे रोग से ग्रसित तथा उनमें वृद्धि वातावरण की उपयुक्तता पर निर्भर करती है। यदि वातावरण रोगों के लिए उपयुक्त होता है तो इनमे तीव्र गति से वृद्धि होती है तथा पौधों को अत्यधिक हानि होती है। रोगों के कारण पौधों में विभिन्न प्रकार की विषमताएँ उत्पन्न होती हैं जिससे रोगों का लक्षण पौधों में उभरता है जिसके कारण पौधों के उत्पादन में अत्यधिक कमी आती है तथा उत्पादन की गुणवत्ता में अत्यधिक कमी आती है। | कारक | निवारण | | :------- | :------- | | वातावरण | पादप रोग | पौधों में रोग उत्पन्न करने वाले प्रमुख दो कारक। 1. जैविक कारक 2. अजैविक कारक **1. जैविक कारक** - जैविक कारकों में सूक्ष्म जीव शामिल होते हैं जिन्हें रोगजनक ($Patogems$) कहा जाता है। रोगजनकों में मुख्य रूप से कवक विषाणु फाइटोप्लाज्मा ($Phytoplasma$) शामिल है। इनके अतिरिक्त सूत्रकृमि ($Nematodes$) तथा परजीवी पौधे के रूप में अमरबेल आदि भी फसलों को हानि पहुंचाते हैं। परजीवी पौधे अपने विशेष चूषकांगों के माध्यम से पौधों के पोषक पदार्थों को खींचकर ग्रहण कर लेते है तथा पौधों को नष्ट कर देते हैं। **2. अजैविक कारक** -अजैविक कारकों का संबंध पौधों में होने वाले रोगों से है फसलों के लिए प्रतिकूल वातावरणीय दशाएँ पौधों में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न कर देते हैं जो पौधों के लिए अत्यन्त हानिकारक होता है। जैसे-गीली तथा आर्द्र परिस्थितियाँ पौधों में ब्लाइट रोग जल की कमी या अधिक गर्मी में पोधों का कुम्हलाना ($wailt$) रोग तथा पोषक तत्वों के अभाव में कलोरोसिस आदि रोगों से घिरे प्रभावित होते हैं समय से पूर्व फसलों या बुआई करने से भी फसलों में रोगों की संभावनाएं बढ़ जाती है। अतः सही समय पर ही फसलों की बुआई या रोपाई किया जाना चाहिए। **सारणी-फसलों के प्रमुख रोग** | क्रमांक | फसलें | रोगों के नाम | रोग कारक | | :------- | :----------- | :------------------ | :-------- | | 1. | अनाज में | रतुआ ($Rust$), कण्डवा | कवक | | | धान्य वर्ग | लूज स्मट ($Smut$) | कवक | | | गेहूँ जौ | | | | 2. | सब्जियों में | | | | | आलू टमाटर | पछेती अंगमारी ($Late blight$) | कवक | | | लौकी | जड़ गढान ($Root-knot$) | सूत्र कृमि | | | बैंगन | मौजैक विषाणु | विषाणु | | 3. | फलों में | | | | | नीबू | कैंकर रोग ($Canke$) | जीवाणु | | | नीबू | तीव्र क्षय रोग ($Dedine$) | विषाणु | | | पपीता | मोजेइक विषाणु | विषाणु | | | पपीता | स्टेम रॉट | कवक | | 4. | अन्य पौधे | | | | | तम्बाकू | डेम्पिंग आफ | कवक | | | मूँगफली | टिक्का रोग | कवक | | | गन्ना | रेड रॉट | कवक | पादप रोगों में रोकथाम के उपाय-विभिन्न प्रकार के पादप रोगों पर नियंत्रण के लिए निम्नलिखित उपाय हैं- **1. कर्षण नियंत्रण (Calture method)** -फसलों या पौधों में रोगों पर नियंत्रण के लिए कर्षण नियंत्रण के अन्तर्गत निम्नलिखित क्रियाओं को शामिल किया गया है- (i) प्रमाणीकृत बीजों का उपयोग करना (ii) फसल चक्र अपनाना (iii) ग्रीष्म ऋतु में भूमि की गहरी जुताई करना (iv) कतार बोनी विधि को अपनाना (v) फसलों की बोनी के समय में लगातार परिवर्तन करना **2. रासायनिक, नियंत्रण-रासायनिक, नियंत्रण** के अन्तर्गत निम्नलिखित को शामिल किया गया है। (i) बोनी के पूर्व बीजों को दवाओं से उपचारित करना। (ii) रासायनिक दवाओं का फसलों पर छिड़काव करना। (iii) कवकनाशी दवाओं जैसे- बोर्डी नियंत्रण आदि का छिड़काव करना आदि। **3. जैविक नियंत्रण** -पौधों में रोगों के नियंत्रण के लिए जैव कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है। इन कीटनाशकों में ट्राइकोडमी कवक की प्रजातियां स्यूडोमोनास फ्लोरोसेन्स, बैसिलस जीवाणु तथा अन्य परजीवी कवक की रोग प्रतिरोधक प्रजातियां प्रयोग में लाई जाती हैं। इनके अतिरिक्त कुछ आधुनिक रोग प्रतिरोधक किस्में भी पौधों में रोग नियंत्रण के लिए प्रयुक्त किया जाता है। उपर्युक्त विधियों से विभिन्न पादप रोगों में नियंत्रण के लिए उपाय किया जाता है। ## परियोजना क्रमांक 5 उद्देशय : संधारित विकास एवं पर्यावरण । विकास की अवधारणा अत्यन्त विस्तृत है। विकास एक सतत् प्रक्रिया है जो सदैव गतिशील रहता है। किसी भी राष्ट्र के समक्ष यह चुनौती सदैव विद्यमान रहती है कि वह अपने विकास कार्यक्रमां को सदैव किस प्रकार दिशा दे जिससे सदैव सकारात्मक परिणाम प्राप्त करने में सफल रहे। नियोजन कर्ताओं के समक्ष सदैव यह चुनौती रही है कि उनकी योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन किस प्रकार से किया जाए जिससे अर्थव्यवस्था के विकास के लक्ष्यों को सकारात्मक स्वरूप में प्राप्त किया जा सके। अर्थव्यवस्था का स्वरूप अत्यन्त विस्तृत होता है तथा विकास के प्रत्येक कार्यक्षेत्र में लक्ष्य अनुरूप परिणाम प्राप्त किया जाना अत्यन्त कठिन है अतः उक्त परिणाम की समस्या के उचित समाधान के लिए संधारित विकास की अवधारणा का विकास किया गया। संधारित विकास से आशय अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र के संतुलित विकास से है जिसके माध्यम से देश के प्रत्येक क्षेत्रों का संतुलित तथा आशानुरूप विकास संभव हो । संधारित विकास के प्रमुख दो घटक हैं- * (i) आर्थिक घटक * (ii) अनार्थिक घटक **आर्थिक घटक**- आर्थिक घटकों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है सामान्यतः या पारंपरिक विचारधारा में विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक आर्थिक है। पारंपरिक विचार धाराओं में किसी भी अर्थव्यवस्था के विकास का मूल्यांकन आर्थिक आधार पर ही किया जाता रहा। विकास की विचारधाराओं के विकास के साथ-साथ इन मान्यताओं में परिवर्तन आ गया वर्तमान विचारधाराओं में आर्थिक घटक किसी भी अर्थव्यवस्था के विकासों का एक भाग है विकास का आधार नहीं है। आर्थिक घटकों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है इन घटकों में मुख्यतः अर्थव्यवस्था की आय तथा व्यय से संबंधित घटकों को शामिल किया जाता है। विकास की अवधारणाओं में यह महत्वपूर्ण है कि विकास की गतिविधियों में गति आने के साथ ही जनसंख्या में अत्यन्त तीव्र गति से वृद्धि होती है जो आर्थिक घटकों के समक्ष चुनौतियां उत्पन्न करती है। आर्थिक घटकों के आय क्षेत्र अर्थव्यवस्था संसाधनों से प्राप्त होने वाले आय से संबंधित होते हैं। अर्थव्यवस्था के संसाधनों से आय अर्थात् संसाधनों का उचित एवं संतुलित प्रयोग के द्वारा ही संसाधनों का लाभ दीर्घकाल तक प्राप्त किया जा सकता है। सामान्यतः उत्पादन के क्षेत्रों को पांच भाग में विभाजित किया गया है भूमि, पूँजी, प्रक्रिया श्रम एवं मशीन तथा इन सभी साध् ानों की सीमाएं निश्चित हैं इन सभी संसाधनों का सीमाओं के अन्तर्गत उपयोग ही अर्थव्यवस्था के विकास को उचित दिशा दे सकती है तथा आर्थिक घटक का दूसरा क्षेत्र व्यय भी अत्यन्त चुनौतीपूर्ण है व्यय का सम्बन्ध संसाधनों से प्राप्त आय की आवश्यकता के अनुसार उचित वितरण से है ताकि विकास की आवश्यकताओं की संतुलित पूर्ति की जा सके। व्यय के क्षेत्रों में रोजगार सुरक्षा नियोजन का विस्तार सुविधाओं का विस्तार, चिकित्सा, शोध, शिक्षा स्वास्थ्य आदि शामिल हैं तथा ये सभी संधारित विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वर्तमान परिवेश, में लगभग प्रत्येक अर्थव्यवस्था सामाजिक पिछडेपन बेरोजगारी वर्ग संघर्ष असमानता आदि समस्याओं से झुझ रहे हैं जिसका प्रमुख कारण व्यय के वितरण निर्धारण की है। संधारित विकास का द्वितीय घटक अनार्थिक घटक है। इस घटक का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है अनार्थिक घटकों सामाजिक राजनैतिक भौगोलिक आदि क्षेत्र शामिल है विकास के दृष्टिकोण से प्रत्येक क्षेत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सामाजिक क्षेत्र में जनसंख्या जनसंख्या का आकार जनसंख्या में वर्गीकरण डेमोग्राफी आदि महत्वपूर्ण है। जनसंख्या के माध्यम से ही उत्पादन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व श्रम की पूर्ति होती है। समाज का विकास ही आर्थिक विकास का प्रमुख उद्देश्य है और कुशल जनसंख्या ही समाज के विकास का आधार है। अनार्थिक घटक का दूसरा प्रमुख तत्व राजनैतिक तत्व है। अर्थव्यवस्था में संतुलन, शांति, स्वच्छता तथा समाज के विकास का आधार कुशल राजनीतिक है। राजनीतिक अस्थिरता आर्थिक विकास या संधारित विकास के लिए घातक है। अनार्थिक घटक का तीसरा तत्व भौगोलिक घटक है जो संधारित विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है जलवायु भूमि वर्गीकरण वर्षा, वन आदि विकास के गतिविधियों के संचालन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इन सभी क्षेत्रों का उचित अध्ययन एवं मूल्यांकन के बाद ही विकास एवं उत्पादन से संबंधित उचित नीतियों का निर्माण किया जा सकता है। उक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संधारित विकास अत्यन्त महत्वपूर्ण है | संधारित विकास के आर्थिक एवं अनार्थिक घटकों के अध्ययन तथा उसके आधार पर उचित नियोजन संधारित विकास