राजस्थान की भाषाएँ एवं बोलियाँ PDF
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यह दस्तावेज़ राजस्थान की विभिन्न भाषाओं और बोलियों के बारे में विस्तृत जानकारी देता है। इसमें राजस्थानी भाषा का इतिहास, वर्गीकरण और विकास का विश्लेषण शामिल है।
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# तृतीय श्रेणी अध्यापक भर्ती परीक्षा विशेषांक ## राजस्थान की भाषा एवं बोलियाँ ### सामान्य परिचय - राजस्थान एक वृहत् प्रांत है जिसमें भाषाई विविधता पाये जाना स्वाभाविक है। - राजस्थान के भौगोलिक क्षेत्र में आम जन द्वारा बोली जाने वाली भाषा को 'राजस्थानी भाषा' कहा जाता है। - भाषा विज्ञान के अनुसार र...
# तृतीय श्रेणी अध्यापक भर्ती परीक्षा विशेषांक ## राजस्थान की भाषा एवं बोलियाँ ### सामान्य परिचय - राजस्थान एक वृहत् प्रांत है जिसमें भाषाई विविधता पाये जाना स्वाभाविक है। - राजस्थान के भौगोलिक क्षेत्र में आम जन द्वारा बोली जाने वाली भाषा को 'राजस्थानी भाषा' कहा जाता है। - भाषा विज्ञान के अनुसार राजस्थानी ‘भारोपीय’ भाषा परिवार की भाषा है। ### राजस्थानी भाषा का नामरण - राजस्थानी भाषा के मरुभाषा, मरुभूम भाषा, मरुदेशीय भाषा, मरुवाणी आदि अनेक नाम मिलते हैं। - वि.सं. 835 में उद्योतन सूरी द्वारा जालौर में 'कुवलयमाला' नामक ग्रंथ की रचना की गई। इस ग्रंथ में 18 देशी भाषाओं का उल्लेख मिलता है। जिसमें मारवाड़ क्षेत्र की भाषा को मरुवाणी कहा गया है। - कवि कुशललाभ के ग्रंथ 'पिंगल शिरोमणि' और अबुल फजल द्वारा रचित 'आइने अकबरी' में भी मारवाड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है। - 17वीं शताब्दी की 'नौबोली छन्द' तथा 18वीं शताब्दी की 'आठदेसरी गूजरी' नामक रचनाओं में भी 'मरुभाषा' का उल्लेख हुआ है। - राजस्थान की भाषा के लिए राजस्थानी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1912 ई. में अपने ग्रंथ 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया' में किया था। ### राजस्थानी भाषा का विकास - राजस्थानी साहित समस्त भारतीय भाषाओं की जननी वैदिक संस्कृत रही है। यह अत्यधिक जटिल होने के कारण लौकिक संस्कृत में परिवर्तित हो गई। - जब लौकिक संस्कृत में जटिलता आने लगी तो इसका स्थान पालि भाषा ने ले लिया और पालि भी जब लोक से अलग होने लगी तो उसका स्थान 'प्राकृत' ने ले लिया। - भाषा हमेशा कठिनता से सरलता की ओर अग्रसर होती है, प्राकृत भी जब कठिन लगने लगी तो अपभ्रंश भाषाओं का विकास हुआ। - राजस्थानी भाषा का विकास भी अपभ्रंश भाषाओं (मरूगुर्जरी, शौरसेनी, नागर) से हुआ। - इन सभी अपभ्रंश भाषाओं में राजस्थानी के विकास में मरूगुर्जरी अपभ्रंश का मत अधिक तार्किक लगता है क्योंकि मरूगुर्जरी अपभ्रंश से ही मरूभाषा (राजस्थानी) तथा गुर्जरी से गुजराती भाषा का विकास हुआ है। | वंश-वृक्ष | आर्यभाषाएँ | |:--:|:--:| | + | वैदिक संस्कृत | | ↓ | लौकिक संस्कृत | | ↓ | पालि | | ↓ | मरुगुर्जरी अपभ्रंश | | ↓ | राजस्थानी | | संस्कुत | प्राकृत | | ↓ | शौरसेनी अपभ्रंश | | ↓ | गुजराती | | ↓ | नागर अपभ्रंश | | ↓ | हिन्दी | - 16वीं सदी के बाद राजस्थानी का विकास एक स्वतंत्र भाषा के रूप में हुआ। - राजस्थानी भाषा का स्वर्णयुग 1650 ई. से 1850 ई. तक माना जाता है। ### राजस्थानी भाषा के विकास के विभिन्न चरण | चरण | अवधि | |:--:|:--:| | गुर्जर-अपभ्रंश | 11वीं से 13वीं सदी | | प्राचीन राजस्थानी | 13वीं से 16वीं सदी | | मध्य राजस्थानी | 16वीं से 18वीं सदी | | आधुनिक राजस्थानी | 18वीं सदी से अब तक | - प्रो. नरोत्तम स्वामी के अनुसार प्राचीन काल में गुजराती और राजस्थानी एक ही भाषा थी। दोनों का स्वतंत्र विकास 16वीं शताब्दी के अन्त में हुआ। अतः काल विभाजन की दृष्टि से ही वे राजस्थानी के विकास के दो ही चरण मानते हैं - - प्राचीन राजस्थानी - वि.सं. 1600 से पूर्व तथा - नवीन राजस्थानी - वि.सं. 1600 के बाद ### राजस्थानी भाषा का विस्तार - भारतीय आर्य भाषाओं की भीतरी उपशाखा के केन्द्रीय समुदाय या मध्यदेशीय समुदाय की प्रमुख उपभाषा राजस्थान का क्षेत्रफल लगभग डेढ़ लाख वर्ग मील में है। - यह भाषा राजस्थान, मध्यभारत के पश्चिमी भाग, सिंध तथा पंजाब के निकटवर्ती क्षेत्रों में बोली जाती है। ### राजस्थानी भाषा के वक्ताओं की संख्या - वक्ताओं की दृष्टि से भारतीय भाषाओं एवं बोलियों में राजस्थानी का 7वाँ एवं विश्वभाषाओं में 24वाँ स्थान है। - सन् 1961 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार राजस्थानी वक्ताओं की संख्या 1,49,33,016 थी। - सन् 1961 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान की 73 बोलियाँ मानी गई है। इनमें 46 बोलियों की संख्या एक हजार से भी कम है। ## राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण ### डॉ. अब्राहम ग्रियर्सन के अनुसार वर्गीकरण:- - सर्वप्रथम राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक "लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया" में दिया। - डॉ. ग्रियर्सन राजस्थान की 20 वास्तविक विभाषाओं को 5 मुख्य वर्गों में वर्गीकृत किया है - | | | |:--:|:--:| | पश्चिमी राजस्थानी | मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी एवं शेखावाटी | | मध्य-पूर्वी राजस्थानी | ढूँढाड़ी एवं हाड़ौती | | उत्तर-पूर्वी राजस्थानी | मेवाती एवं अहीरवाटी | | दक्षिण-पूर्वी राजस्थानी | मालवी एवं निमाड़ी | | दक्षिण राजस्थानी | | ### डॉ. टैस्सीटोरी के अनुसार वर्गीकरण :- - डॉ. टैस्सीटोरी ने राजस्थानी भाषा को निम्नलिखित दो भागों में वर्गीकृत किया है: - पश्चिमी राजस्थानी - शेखावाटी, जोधपुर की खड़ी राजस्थानी, ढटकी, थली, बीकानेरी, किशनगढ़ी, खैराड़ी, गोडवाड़ी एवं देवड़ावाटी (सिरोही) - पूर्वी राजस्थानी (ढूँढ़ाड़ी) - तोरावाटी, खड़ी जयपुरी, काठैड़ी, अजमेरी, राजावाटी, चौरासी, नागरचोल। - भाषा वैज्ञानिकों का एक बड़ा समूह डॉ. ग्रियर्सन तथा टैस्सीटोरी के वर्गीकरण से संतुष्ट नहीं है। मुख्य रूप से उन सभी के विचार-मन्थन को ध्यान में रखते हुए राजस्थानी की बोलियों को दो भागों में बाँटा जा सकता है। | राजस्थान की बोलियां | |:--:| | पश्चिमी राजस्थानी | | मारवाड़ी, मेवाड़ी | | वागड़ी, शेखावाटी | | पूर्वा राजस्थानी | | ढूँढाडी, हाडौती | | मेवाडी, अहीरवाटी | ### राजस्थान की प्रमुख क्षेत्रिय बोलियाँ #### मारवाड़ी :- * क्षेत्र- यह पश्चिमी राजस्थान की प्रमुख बोली है। यह मुख्य रूप से जोधपुर, पाली, बीकानेर, नागौर, सिरोही, जैसलमेर, बाड़मेर, शेखावाटी आदि जिलों में बोली जाती हैं। विशुद्ध मारवाड़ी जोधपुर क्षेत्र में बोली जाती है। * उपबोलियाँ - मारवाड़ी बोली की उपबोलियों में मेवाड़ी, बागड़ी, बीकानेरी, शेखावाटी, नागौरी, खैराड़ी, गोडवाड़ी, ढटकी, थली, देवड़ापाड़ी आदि शामिल हैं। | उपबोली | क्षेत्र | |:--:|:--:| | थली | उत्तरी राजस्थान | | ढाटी | बाड़मेर | | गोडवाड़ी | जालौर, पाली, सिरोही | | देवड़ावाटी | सिरोही | | खैराड़ी | शाहपुरा (भीलवाड़ा) | * साहित्य - मारवाड़ी बोली के साहित्यिक रूप को 'डिंगल' कहा जाता है। अधिकांश जैन साहित्य 'मारवाड़ी' में ही लिखा गया है। राजिया के सोरठे, वेलि क्रिसन रूकमणी री, ढोला-मरवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य इसी बोली में है। * विशेषताएँ - यह बोली क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थानी बोलियों में प्रथम स्थान रखती है। यह ओजगुण विशिष्ट बोली है। छंदों में सोरठा छंद और रागों में मांड राग जितना अच्छा इस बोली में मिलता है भारत की अन्य किसी प्रांतीय बोली में नहीं मिलता है। #### मेवाड़ी :- * क्षेत्र- यह बोली उदयपुर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, राजसमन्द, भीलवाड़ा जिलों के अधिकांश भागों में बोली जाती है। मेवाड़ के पर्वतीय क्षेत्रों में बोली जाने वाली मेवाड़ी को पर्वतीय मेवाड़ी तथा मैदान में बोली जाने वाली मेवाड़ी को मैदानी मेवाड़ी कहा जाता है। * उपबोली - उदयपुर में बोली जाने वाली धावडी बोली मेवाड़ी की उपबोली है। * साहित्य - कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के अनुसार महारणा कुम्भा द्वारा रचित चार नाटकों में मेवाड़ी बोली का प्रयोग किया गया है। संत कवि चतुर सिंह बावजी ने मेवाड़ी भाषा में योगसूत्र, भगवद्गीता एवं सांख्यिकारिका ग्रंथों की रचना की। * विशेषताएँ - मोतीलाल मेनारिया ने मेवाड़ी को मारवाड़ी की ही उपबोली माना है। मेवाड़ी व मारवाड़ी बोली की भाषागत विशेषताओं में साम्यता है। मारवाड़ी के बाद मेवाड़ी बोली राजस्थान की दूसरी महत्वपूर्ण बोली है। मेवाड़ी में 'ए' और 'ओ' की ध्वनि का विशेष प्रयोग होता है। #### वागड़ी :- * क्षेत्र - डूंगरपुर व बाँसवाड़ा का सम्मिलित क्षेत्र 'वागड़' कहलाता है और इस क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली 'वागड़ी' कहलाती है। मेवाड़ के दक्षिण एवं सूंध राज्य के उत्तर में तथा अरावली प्रदेश एवं मालवे की पहाड़ियों तक इसका विस्तार है। * साहित्य - वागड़ी भाषा में प्रकाशित साहित्य का अभाव है। संत मावजी द्वारा हस्तलिखित चौपड़ा ग्रंथ वागड़ी भाषा में लिखा गया है। * विशेषताएँ - वागड़ क्षेत्र गुजरात के नजदीक होने के कारण इस बोली पर गुजराती प्रभाव परिलक्षित होता है। ग्रियर्सन ने इसे 'भीली' बोली कहा था। इसमें 'च' और 'छ' का उच्चारण 'स' किया जाता है तथा 'था' के स्थान पर 'हतो' का प्रयोग होता है। #### शेखावाटी :- * क्षेत्र - राव शेखा के नाम से प्रसिद्ध राजस्थान का क्षेत्र शेखावाटी कहलाता है। इस क्षेत्र की बोली को शेखावाटी कहाँ गया है। वर्तमान सीकर, चूरू, झुन्झुनू, हनुमानगढ़, सूरतगढ़, गंगानगर तक का क्षेत्र इस बोली का क्षेत्र कहाँ जा सकता है। * विशेषताएँ - यह मारवाड़ी की ही एक उपबोली है। #### ढूँढ़ाड़ी- * क्षेत्र - पूर्वी राजस्थानी की इस मुख्य बोली को जयपुरी या झाड़शाही भी कहते है। ढूँढ़ाड़ी बोली जयपुर, किशनगढ़, टोंक, दौसा एवं अजमेर के उतरी-पश्चिमी भाग में बोली जाती है। * उपबोली - ढूँढ़ाड़ी की उपबोलियों में तोरावाटी, चौरासी, अजमेरी, किशनगढ़ी, नागरचोल, काठोड़ी, राजावाटी, सिपाड़ी शामिल है । | उपबोली | क्षेत्र | |:--:|:--:| | काठेड़ी | दक्षिणी जयपुर | | नागरचौल | टोंक, सवाईमाधोपुर | | करौली | करौली | | किशनगढ़ी | किशनगढ़ (अजमेर) | | चौरासी | शाहपुरा (जयपुर) | * साहित्य - संत दादू व उसके शिष्यों का अधिकांश साहित्य इसी बोली में लिखा गया है। ईसाई मिशनरियों ने बाइबिल का ढूँढ़ाड़ी अनुवाद भी प्रकाशित किया था। * विशेषताएँ - गुजराती एवं ब्रजभाषा से प्रभावित इस बोली के करीब 15 रूप सुनने को मिलते हैं। इस बोली में वर्तमान काल के लिए 'छै' और भूतकाल के लिए 'छी' या 'छौ' का प्रयोग होता है। ढूँढ़ाड़ी बोली के लिए प्राचीनतम उल्लेख 'आठ देस गूजरी' नामक पुस्तक में मिलता है। #### हाड़ौती :- * क्षेत्र - कोटा, बूँदी, बारां व झालावाड़ क्षेत्र को हाड़ौती कहा जाता है और इस क्षेत्र में प्रचलित बोली हाड़ौती कहलाती है। * साहित्य - बूंदी के प्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मिश्रण (मीसण) की रचनाओं में हाड़ौती का प्रयोग मिलता है। * विशेषताएँ - इस बोली में भी ढूँढ़ाड़ी की तरह 'छै' शब्द का प्रयोग किया जाता है। इस बोली पर गुजराती व मारवाड़ी का प्रभाव भी है। हाडौती के उत्तर में नागरचोल, उत्तर-पूर्व में श्योपुरी, पूर्व व दक्षिण में मालवी बोली जाती है। हाड़ौती पर प्राचीन काल में हूणों, गुर्जरों व अन्य विदेशियों के सम्पर्क का प्रभाव भी देखा जा सकता है। #### मालवी :- * क्षेत्र - मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग (रतलाम, झाबुआ, मंदसौर आदि) को मालवा क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। मालवा प्रदेश से जुड़े राजस्थान के क्षेत्रों झालावाड़, कोटा, प्रतापगढ़ के कुछ भाग में मालवी बोली जाती है। * उपबोली - मालवी की प्रमुख उपबोलियों में निमाड़ी, रांगड़ी, उमठवाड़ी, रतलामी, पाटवी, सौंधवाड़ी शामिल है। * साहित्य - चन्द्रसखी, नटनागर आदि की रचनाओं में इसका कहीं-कहीं अच्छा रूप देखने में आता है। * विशेषताएँ - यह कोमल एवं मधुर बोली है। इसकी मुख्य विशेषता सम्पूर्ण क्षेत्र में एक रूपता है। इस बोली पर गुजराती एवं मराठी भाषा का प्रभाव है। इस बोली में मारवाड़ी व ढूँढ़ाड़ी दोनों की कुछ विशेषताएँ पाई जाती है। #### रांगड़ी :- * क्षेत्र - यह बोली मुख्यतः मालवा के राजपूतों में प्रचलित है। * विशेषताएँ - इस बोली में मारवाड़ी व मालवी का मिश्रण है। यह बोली अपनी कर्कशता के लिए जानी जाती है। #### मेवाती :- *- क्षेत्र - मेव जाति का बाहुल्य होने से अलवर (किशनगढ़, तिजारा, रामगढ़, गोविन्दगढ़ तथा लक्ष्मणगढ़ तहसीलों), भरतपुर (कामा, डीग तथा नगर तहसीलों) के क्षेत्र को मेवात क्षेत्र कहा गया है। इस क्षेत्र की बोली को मेवाती कहा गया है। * उपबोली - स्थान भेद के आधार पर इसके कई रूप देखने को मिलते है। जैसे - खड़ी मेवाती, राठी मेवाती, कठोर मेवाती, भयाना मेवाती, बीघोता मेवाती, ब्राह्मण मेवाती । * साहित्य - संत लालदास, चरणदास, दयाबाई, सहजोबाई, डूंगरसिंह, भीक, शक्के आदि का साहित्य इसी बोली में है। * विशेषताएँ - भरतपुर के सीमावर्ती क्षेत्रों में इस बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव है। उद्भव व विकास की दृष्टि से यह बोली पश्चिमी हिन्दी व राजस्थानी के मध्य सेतु का कार्य करती है। मेवाती में कर्मकारक में 'लू' विभक्ति एवं भूतकाल में हा, हो, ही, सहायक क्रिया का प्रयोग विशेष उल्लेखनीय है। #### अहीरवाटी :- * क्षेत्र - यह बोली अलवर जिले की बहरोड़, मुण्डावर तथा किशनगढ़ तहसील के पश्चिमी भाग व जयपुर के कोटपुतली तहसील में बोली जाती है। प्राचीनकाल में 'आभीर' जाति की एक पट्टी इस क्षेत्र में आबाद हो जाने से यह क्षेत्र अहीरवाटी या हीरवाल कहा जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस क्षेत्र को राठ एवं यहाँ की बोली को 'राठी' भी कहा जाता है। * साहित्य - नीमराना के राजा चंद्रभानसिंह चौहान के दरबारी कवि जोधराज का 'हम्मीर रासो' और शंकरराव का 'भीम विलास' इसी बोली में है। अलीबक्स (मुण्डावर), पं. रामानन्द (गौखा), पं. मंगतराम भरद्वाज (माजरा-कान्हावास) आदि ने भी इस बोली के साहित्य सृजन में अन्य महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अलवर का अलीबख्शी ख्याल लोकनाट्य भी इसी बोली में किया जाता है। * विशेषताएँ - यह बोली देवनागरी, गुरुमुखी तथा फारसी लिपि में भी लिखी मिलती है। यह बोली बागरू (हरियाणवी) व मेवाती के बीच की बोली है। #### खैराड़ी :- * क्षेत्र - शाहपुरा (भीलवाड़ा) व बूँदी के कुछ भागों में बोली जाती है। * विशेषताएँ - यह मारवाड़ी की उपबोली है। इस बोली पर मेवाड़ी, ढूँढाड़ी एवं हाडौती का प्रभाव है। #### गौडवाड़ी :- * क्षेत्र - जालौर की आहोर तहसील व बाली (पाली) तथा सिरोही के कुछ भागों में बोली जाती है। * साहित्य - इस बोली की मुख्य रचना बीसलदेव रासो है। #### तोरावाटी :- * क्षेत्र - झुंझुनूं जिले के दक्षिणी भाग, सीकर जिले के पूर्वी भाग नीम का थाना तथा जयपुर जिले का कुछ उत्तरी भाग को तोरावाटी कहा जाता है। वहां पर प्रचलित बोली 'तोरावाटी' कहलाती है। ### राजस्थानी भाषा का साहित्यिक वर्गीकरण - राजस्थानी भाषा को साहित्यिक रूप से मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है 1. डिंगल तथा 2. पिंगल | डिंगल | पिंगल | |:--:|:--:| | पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप/काव्य (मारवाड़ी) का साहित्यिक रूप/काव्यशैली | ब्रजभाषा एवं पूर्वी राजस्थानी शैली | | अधिकांश साहित्य चारण कवियों द्वारा लिखित | अधिकांश साहित्य भाट जाति के कवियों द्वारा लिखित | | डिंगल का विकास गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ है। | पिंगल का विकास 'शौरसेनी अपभ्रंश' से हुआ है। | | डिंगल साहित्य 'गीत रूप' में लिखा गया | पिंगल साहित्य 'छंद व पदों' के रूप में लिखा गया। | | ढोला मारू रा दुहा, अचलदास खींची री वचनिका, राजरूपक, राव जैतसी रो छंद, रूकमणि हरण, नाग दमण, सगत रासौ आदि। | पृथ्वीराज रासो, रतन रासो, विजयपाल रासो, खुमाण रासो, हम्मीर रासो, वंश भास्कर इत्यादि । | ### राजस्थानी भाषा की लिपि - राजस्थानी लिपि अधिकांशतः देवनागरी लिपि से मिलती है। यह लिपि लकीर खींचकर घसीट रूप मे लिखी जाती है। राजकीय अदालतों आदि में प्रायः राजस्थानी लिपि (घसीट लिपि) का विशुद्ध प्रयोग किया जाता है। लेकिन बणिये-महाजन अपने बही-खातों में इस लिपि का विशुद्ध प्रयोग नहीं करते। इसीलिए महाजनों द्वारा प्रयुक्त लिपि को महाजनी अथवा बणियावटी लिपि के नाम से जाना जाता है। महाजनी या बणियावटी लिपि के अक्षर 'मुड़िया' कहलाते है और इनमें मात्राएँ नहीं रहती। अतः यह लिपि 'मुड़िया लिपि' कहलाती है। मुड़िया लिपी का आविष्कारक 'टोडरमल' ने किया था। ### अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य - केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने राजस्थानी भाषा को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दे दी है, लेकिन इसे अभी तक संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया है। - राजस्थानी भाषा दिवस प्रतिवर्ष 21 फरवरी को मनाया जाता है। - राजस्थान की मानक बोली मारवाड़ी है। - राजस्थान भाषा की पहली फिल्म नजराना थी। - मरुवाणी राजस्थानी भाषा की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका थी। - राजस्थान में हर 9-10 किमी. के अन्तराल पर बोली में अंतर आ जाता है। इस सम्बन्ध में यह कहावत है- "पाँच कोस पर पाणी बदले, सात कोस पर बाणी।" - डिंगल शैली का सर्वप्रथम प्रयोग कवि कुशल लाभ द्वारा रचित 'पिंगल शिरोमणी' में किया गया। ### महत्त्वपूर्ण प्रश्न | प्रश्न | | |:--:|:--:| | 'राजस्थानी' का स्वतंत्र भाषा के रूप में वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करने वाले प्रथम विद्वान कौन थे [Lecturer (Technical Education Department-2021)] | जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन | | राजस्थानी भाषा का उत्पत्ति काल है - [RAS-1996] | बारहवीं शताब्दी का अंतिम चरण | | किस भाषा से राजस्थान का उद्भव हुआ है? [College Lecturer(Sangeet) Exam-2019] | शौरसेनी अपभ्रंश | | निम्न में से कौन विद्वान है, जो राजस्थानी भाषा बोलियों से संबंधित कार्य के लिए नहीं जाने जाते ? [Asstt. Agriculture Officer Exam-2019] | नोम चोम्स्की | | मारवाड़ी भाषा का विशुद्ध रूप कहाँ दृष्टिगत होता है? [II Grade (Urdu) Exam-2011] | जोधपुर और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में | | राजस्थानी भाषा एवं संस्कृति में, डिंगल है - [Assistant Professor Exam-2021] | काव्य शैली | | पृथ्वीराज राठौड़, द्वारा रचित पुस्तक 'वेलि कृष्ण रुखमणी री' किस भाषा में लिखी गई है? [II Grade (GK)Exam-2019] | डिंगल | | निम्नलिखित संतों में से किसने अपने लेखन में मेवाती बोली का प्रयोग नहीं किया? [AEN Exam-2018] | सहजोबाई | | निम्नांकित में से कौन-सा युग्म सुमेलित नहीं है? [Agriculture Officer-2013] | मालवी - बाँसवाड़ा | | 'निमाड़ी एवं रागड़ी' किस बोली की विशेषता है? [PSI Exam-2021] | मालवी | | राजस्थान की बोली एवं क्षेत्र के संबंध को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित में से गलत युग्म को पहचानिए- [RAS Exam-2012] | करौली - मेवाती | | डूंगरपुर-बाँसवाड़ा क्षेत्र में कौन-सी भाषा बोली जाती है? [Agriculture Officer-2013] | बागड़ी | | ग्रियर्सन ने बागड़ (डूंगरपुर-बाँसवाड़ा) में बोली जाने वाली बोली को कहा है - [College Lecturer (Sarangi) Exam-2019] | भीली | | 'मुडिया' लिपि के अक्षरों के आविष्कारकर्ता किसे माना जाता है- [A - [Asstt. Agriculture Officer Exam-2019] | टोडरमल | | गौड़वाड़ी बोली का क्षेत्र है - | सिरोही | | 'तोरावाटी' है - [Asst. Agriculture Officer Exam-2013] | ढूँढाड़ी बोली | | दादू पंथ का साहित्य किस भाषा में संगृहीत है? [II Grade (GK)-2019] | ढूँढ़ाड़ी | | कौनसी ढूँढाड़ी की उपबोली नहीं है? [PSI-2018] | राठी | | ढूँढाड़ी बोली के प्रचलित विविध रूपों में निम्न में से कौनसी सही नहीं है? [Asstt. Agriculture Officer Exam-2019] | खेराड़ी | | तोरावाटी बोली प्रचलित है - [Veterinary Officer Exam-2020] | नीम का थाना में | | रांगड़ी बोली मिश्रण है - [PTI Exam-2015] | मारवाड़ी - मालवी | | मालव प्रदेश के राजपूतों में प्रचलित मारवाड़ी और मालवी के सम्मिश्रण से उत्पन्न बोली का क्या नाम है? [Asstt. Agriculture Officer Exam-2019] | रांगड़ी | | 'ढ़टकी', 'थाली' एवं 'खैराड़ी' उपबोलियाँ राजस्थान की किस बोली से सम्बन्धित है - | मारवाड़ी | | संबंधित कीजिए - [College Lecturer Exam-2016] | | | जगरौती - उदयपुर | | ढाटी - बाड़मेर | | नागरचोल - टोंक | | धावड़ी - करौली | | बोली - जिला सुमेलित कीजिए - [Assistant Professor - 2021] | | | बागड़ी - हनुमानगढ़ | | जगरौती - उदयपुर | | धावड़ी - करौली | | गौड़वाड़ी - सिरोही | ## राजस्थानी साहित्य ### राजस्थानी साहित्य का इतिहास - राजस्थानी साहित्य का प्रारंभिक साहित्य हमें अभिलेखीय सामग्री के रूप में मिलता है। यद्यपि यह सामग्री अत्यल्प मात्रा में उपलब्ध होती है, उसका साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व है। राजस्थानी साहित्य में लिखित साहित्य वाणीनिष्ठता की विशेषता को लिये रहा है, जिसे लोक साहित्य कहा जाता है। राजस्थानी साहित्य की इतिहास परम्परा को हम निम्न रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं- | क्र.सं. | काल-परक | प्रवृत्ति-परक | काल-परक | |:--:|:--:|:--:|:--:| | 1 | प्राचीन काल | वीरगाथा काल | 1050 से 1450 ई. | | 2 | पूर्व मध्य काल | भक्तिकाल | 1450 से 1650 ई. | | 3 | उत्तर मध्य काल | श्रृंगार, रीति एवं नीतिपरक काल | 1650 से 1850 ई. | | 4 | आधुनिक काल | विविध विषयों एवं विधाओं से युक्त | 1850 ई. से अब तक | #### प्राचीनकाल - वीरगाथा काल (1050 से 1450 ई.): - इस काल में वीरता प्रधान काव्यों की प्रमुखता के कारण इस काल को वीरगाथाकाल नाम दिया गया है। इस काल की महत्वपूर्ण रचना श्रीधर व्यास की रणमल्ल छंद है। इस काल में जैन रचनाकारों की रचनाएं भी उल्लेखनीय रही है। जैन कवियों की धर्मप्रधान कृतियों ने रास साहित्य की समृद्धि में बड़ा योगदान दिया है। 'रिपु-दाररणरस' जिसकी रचना 905 ई. के लगभग भीनमाल में हुई थी, प्राचीन 'रास' रचना है। वज्रसेन सूरि रचित 'भरतेश्वर बाहुबली घोर' वीर एवं शांत रस का छोटा-सा काव्य है। 1184 ई. में शालिभद्र सूरि द्वारा रचित खण्डकाव्य 'बाहुबलि' भी छंदों एवं राग-रागिनियों से युक्त है। तेरहवीं शताब्दी के राजस्थानी साहित्य की कृतियों में जिनवल्लभ सूरि का वृद्ध नवकार, विनयचन्द्र सूरी की रचना नेमिनाथ चतुष्पादिका, जम्बू स्वामी की रचनाएँ-स्थलिभद्ररास, रेवतिगिरिरास, आबूरास आदि प्रमुख है। चौदहवीं शताब्दी के बाद राजस्थानी भाषा के साहित्य में देशी शब्दों के साथ-साथ अरबी-फारसी के शब्द भी प्रयुक्त किये जाने लगे। सोमसुंदर रचित नेमिनाथ-नवरस-फाग, हीरानन्द सूरि रचित मुनिपति राजर्षि चरित्र, मणिकचन्द्र सूरि रचित पृथ्वीचन्द्र चरित्र प्रमुख है। #### पूर्व मध्य काल-भक्तिकाल (1450 से 1650 ई.) - संतों व भक्तों की रचनाओं की अधिकता के कारण इस काल को भक्ति काल का नाम दिया। इस समय की रचनाओं में भक्त शिरोमणि मीराबाई की पदावली और नरसीजी रो माहेरो, पृथ्वीराज राठौड़ की वेलि क्रिसन रूकमणि री, माधोदास दधवाड़िया की रामरासो, ईसरदास की हरिरस और देवियांग, सायांजी झूला की नागदमण और रूक्मणी हरण प्रमुख रचनाएँ है। मेवाड़ राजपरिवार से संबंद्ध चतुरसिंह जी ने वैराग्य धारण कर संस्कृत, हिन्दी व राजस्थानी भाषाओं में जनोपयोगी साहित्य की रचना की। मेवाड़ी भाषा में इनके द्वारा रचित योगसूत्र, भगवद्गीता, सांख्यकारिका, चन्द्रशेखराष्टक, हनुमानपंचक आदि की टीकाओं ने जनसामान्य को धार्मिक पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया। अलख पच्चीसी, अनुभव प्रकाश और चतुर चिंतामणि आदि रचनाओं में चतुरसिंह का गूढ़ चिंतन प्रकट होता है। #### उत्तर मध्यकाल-श्रृंगार, रीति (काव्यशास्त्र) एवं नीति परक काल (1650 से 1850 ई.) - यह काल राजनीतिक दृष्टि से अपेक्षाकृत शांति का काल रहा। शासकों ने अपने राज्य में कलाकारों और साहित्यकारों को संरक्षण प्रदान किया, जिन्होंने साहित्य और कला के विविध आयामों का विकास किया। इस काल में श्रृंगार, रीति तथा नीति से संबंधित रचनाएँ प्रस्तुत की गई। लोक में प्रचलित प्रेमाख्यानों को विभिन्न ग्रंथों के रूप में प्रस्तुत किया गया। काव्य शास्त्र से संबंधित रचनाओं में कवि मंछाराम ने रघुनाथ रूपक प्रस्तुत किया तथा संबोधन परक नीति कारकों में राजिया रा सोरठा, चकरिया रा सोरठा