अंग्लो-मराठा युद्ध (Hindi) PDF

Summary

यह दस्तावेज़ 18वीं शताब्दी में मराठा साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुए अंग्लो-मराठा युद्धों पर केंद्रित है। दस्तावेज में इन युद्धों के कारण, परिणाम, और उनका भारतीय इतिहास पर प्रभाव का वर्णन किया गया है।

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history ? 04 - 08 complete अंग्लो-मराठा संबंध भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय हैं, जो ब्रिटिश साम्राज्य के भारत में विस्तार और मराठा साम्राज्य के उत्थान और पतन से जुड़े हुए हैं। इन संबंधों का इतिहास 18वीं शताब्दी में विकसित हुआ, जब मराठों ने दक्षिण भारत और मध्य भारत में...

history ? 04 - 08 complete अंग्लो-मराठा संबंध भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय हैं, जो ब्रिटिश साम्राज्य के भारत में विस्तार और मराठा साम्राज्य के उत्थान और पतन से जुड़े हुए हैं। इन संबंधों का इतिहास 18वीं शताब्दी में विकसित हुआ, जब मराठों ने दक्षिण भारत और मध्य भारत में अपनी शक्ति बढ़ाई और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ उनका संपर्क बढ़ा। अंग्लो-मराठा संबंधों का विकास संघर्ष और सहयोग दोनों के रूप में हुआ, लेकिन अंततः यह संघर्ष ब्रिटिश साम्राज्य की विजय और मराठा साम्राज्य के पतन की ओर अग्रसर हुआ। ### मराठा साम्राज्य का उदय 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में मराठों ने दक्षिण भारत और मध्य भारत में एक मजबूत साम्राज्य का निर्माण किया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने 17वीं शताब्दी में मराठा साम्राज्य की नींव रखी थी, लेकिन उनके बाद उनके उत्तराधिकारी जैसे राजे शंकराजी, बाजीराव प्रथम और राघोबाजी ने इस साम्राज्य को और विस्तारित किया। मराठों की सैन्य ताकत और रणनीतिक कौशल ने उन्हें एक प्रमुख शक्ति बना दिया। ### ब्रिटिशों का भारत में आगमन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में आगमन 17वीं शताब्दी के अंत में हुआ, लेकिन 18वीं शताब्दी में ब्रिटिशों ने भारत के विभिन्न हिस्सों में अपना प्रभुत्व बढ़ाना शुरू किया। मराठों के साथ ब्रिटिशों का पहला संपर्क 1756 में हुआ, जब ब्रिटिशों ने बंगाल में नियंत्रण स्थापित किया। इसके बाद धीरे-धीरे मराठा साम्राज्य और ब्रिटिशों के बीच संघर्ष बढ़ने लगा। ### पहली और दूसरी अंग्लो-मराठा युद्ध अंग्लो-मराठा संबंधों में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ 1775 से 1818 के बीच हुआ, जब दोनों पक्षों के बीच कुल तीन प्रमुख युद्ध हुए। 1. *पहला अंग्लो-मराठा युद्ध (1775-1782)*: यह युद्ध ब्रिटिशों और पुणे में मराठा पेशवा के नेतृत्व वाले मराठों के बीच हुआ। इस युद्ध का मुख्य कारण मराठों के आपसी मतभेद और ब्रिटिशों द्वारा आंतरविभाजन की नीति थी। युद्ध में एक तरह से कोई निर्णायक परिणाम नहीं आया, लेकिन दोनों पक्षों ने 1782 में सूरत समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके बाद शांति स्थापित हुई। 2. *दूसरा अंग्लो-मराठा युद्ध (1803-1805)*: यह युद्ध भी ब्रिटिशों और मराठों के बीच हुआ था। इस युद्ध का मुख्य कारण मराठा साम्राज्य में आंतरिक सत्ता संघर्ष था। पेशवा बजीराव द्वितीय और उनके समर्थकों ने ब्रिटिशों से मदद ली, लेकिन मराठा शाही परिवार के कुछ सदस्य जैसे होल्कर और सिंधिया ने ब्रिटिशों के खिलाफ संघर्ष किया। युद्ध के बाद, 1805 में ब्रिटिशों ने मराठों को शरण देने का वचन लिया और नए समझौते हुए। ### तीसरा अंग्लो-मराठा युद्ध (1817-1818) तीसरे अंग्लो-मराठा युद्ध ने मराठा साम्राज्य के समापन को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया। पेशवा बजीराव द्वितीय की नेतृत्व में मराठों ने ब्रिटिशों के खिलाफ संघर्ष किया, लेकिन ब्रिटिशों के संगठित और प्रभावशाली सैन्य रणनीतियों के आगे मराठों को हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध के परिणामस्वरूप, ब्रिटिशों ने पुणे और अन्य क्षेत्रों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया। पेशवा को नेपल्स भेज दिया गया और मराठा साम्राज्य का अस्तित्व समाप्त हो गया। ### अंग्लो-मराठा संबंधों का महत्व अंग्लो-मराठा संबंधों का भारतीय इतिहास में अत्यधिक महत्व है, क्योंकि यह संघर्ष और सम्राटों के बीच सैन्य रणनीतियों का हिस्सा था। ब्रिटिशों ने इन युद्धों के माध्यम से भारत में अपनी सामरिक और राजनीतिक स्थिति को मजबूत किया, जबकि मराठों के आपसी संघर्षों और कमजोर नेतृत्व ने उनके साम्राज्य को टूटने और खत्म होने के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इस संघर्ष ने यह भी दिखाया कि ब्रिटिशों की आंतरिक असहमति और विभाजन की नीति ने भारतीय शक्तियों को कमजोर कर दिया और उनका साम्राज्य स्थापित करने में मदद की। अंततः, मराठा साम्राज्य का पतन भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। अंग्लो-मराठा युद्धों ने यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटिश साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में स्थायित्व और प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए सैन्य और कूटनीतिक ताकत का किस प्रकार उपयोग कर सकते थे। मराठों के साथ ब्रिटिशों का संघर्ष इस बात का प्रमाण था कि भारत में ब्रिटिशों के साम्राज्य का निर्माण न केवल बाहरी आक्रमणों से, बल्कि आंतरिक राजनीतिक और सैन्य संघर्षों से भी हुआ था। ?08 *भारतीय भूमि सुधार प्रणालियाँ: स्थायी व्यवस्था (Permanent Settlement), रैयतवाड़ी (Ryotwari) और महलवाड़ी (Mahalwari) की समझ* भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान भूमि राजस्व प्रणाली में कई सुधार किए गए थे। इन सुधारों का उद्देश्य सरकारी राजस्व को बढ़ाना था, लेकिन इनका प्रभाव भारतीय किसानों और भूमि से जुड़ी व्यवस्था पर गहरा पड़ा। स्थायी व्यवस्था, रैयतवाड़ी और महलवाड़ी तीन प्रमुख भूमि सुधार प्रणालियाँ थीं, जिन्हें अलग-अलग समय पर लागू किया गया। आइए इन प्रणालियों को विस्तार से समझते हैं: ### 1. *स्थायी व्यवस्था (Permanent Settlement)* *स्थायी व्यवस्था* की शुरुआत 1793 में *लॉर्ड कॉर्नवॉलिस* द्वारा बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में की गई। इस व्यवस्था के तहत, किसानों से सीधे राजस्व लेने के बजाय, ज़मींदारों को राजस्व के लिए जिम्मेदार ठहराया गया। ज़मींदारों से यह वादा किया गया कि उन्हें भूमि का स्थायी मालिक माना जाएगा, और उनका राजस्व निश्चित कर दिया जाएगा। #### मुख्य बिंदु: - *निर्धारित राजस्व*: ज़मींदारों से एक निश्चित राजस्व की राशि तय की गई थी, जो हर साल चुकानी थी। यह राशि स्थायी रूप से तय की गई थी और किसी भी परिस्थिति में इसे बदला नहीं जा सकता था। - *ज़मींदार का अधिकार*: ज़मींदारों को अपनी भूमि का मालिकाना अधिकार दिया गया था। वे किसान से राजस्व ले सकते थे और उसका शोषण भी कर सकते थे। - *किसानों पर असर*: इस व्यवस्था के तहत किसानों को ज़मींदारों के अधीन रहना पड़ा। ज़मींदार अपने हिसाब से किसानों से ज्यादा राजस्व ले सकते थे, जिससे किसानों पर अत्यधिक बोझ पड़ा। - *लाभ*: सरकार के लिए यह व्यवस्था स्थिर राजस्व उत्पन्न करने वाली साबित हुई। - *नुकसान*: यह व्यवस्था किसानों के लिए अत्यधिक शोषणकारी रही, क्योंकि उन्हें ज़मींदारों के चंगुल से मुक्ति नहीं मिली। ### 2. *रैयतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari System)* *रैयतवाड़ी व्यवस्था* की शुरुआत *लॉर्ड वेलिंगटन* द्वारा 1799 में *मद्रास* और बाद में *बॉम्बे* क्षेत्रों में की गई थी। इस प्रणाली में, किसानों को सीधे सरकार से अपनी भूमि का पट्टा मिलता था और वे सीधे सरकार को राजस्व देते थे। #### मुख्य बिंदु: - *सीधे किसान से राजस्व*: इस व्यवस्था में, किसान को ज़मींदारों के माध्यम से नहीं, बल्कि सीधे सरकार से अपनी भूमि का पट्टा मिलता था। - *किसान की जिम्मेदारी*: किसानों को अपनी भूमि के उपज से राजस्व चुकाना पड़ता था। अगर वे अपने कर्ज़ चुका नहीं पाते थे, तो उनकी भूमि नीलाम हो सकती थी। - *कृषि उत्पादन पर प्रभाव*: इस व्यवस्था के तहत किसान को अपनी कृषि भूमि का स्वामित्व मिला, लेकिन राजस्व की भारी जिम्मेदारी ने किसानों पर दबाव डाला। - *सकारात्मक पहलू*: यह व्यवस्था सरकार को सीधे राजस्व प्राप्त करने का अवसर देती थी, लेकिन ज़मींदारों का मध्यस्थता समाप्त हो गया था। - *नकारात्मक पहलू*: किसान अपनी उपज का एक बड़ा हिस्सा सरकार को देता था, जिससे उन्हें बचे हुए पैसे से मुश्किल से जीवनयापन करना पड़ता था। ### 3. *महलवाड़ी व्यवस्था (Mahalwari System)* *महलवाड़ी व्यवस्था* की शुरुआत *लॉर्ड हेस्टिंग्स* द्वारा 1820 के दशक में हुई थी। यह व्यवस्था भारत के कुछ अन्य हिस्सों में जैसे उत्तर-पश्चिमी प्रांतों, पंजाब और मध्य भारत में लागू की गई। इस प्रणाली में एक गाँव या गाँवों के समूह (महल) को एक राजस्व इकाई माना गया था और उसमें रहने वाले सभी किसानों को एक साथ जिम्मेदार ठहराया गया था। #### मुख्य बिंदु: - *समूह के आधार पर राजस्व*: इस प्रणाली में एक समूह के रूप में गाँव या महल को एक इकाई माना गया था और समग्र राजस्व की जिम्मेदारी उस महल के निवासियों पर डाली जाती थी। - *किसान की जिम्मेदारी*: गाँव के लोग मिलकर राजस्व देने के लिए जिम्मेदार होते थे, और अगर एक व्यक्ति अपना हिस्सा नहीं चुकाता था, तो पूरा महल दोषी माना जाता था। - *स्थिर राजस्व*: महलवाड़ी प्रणाली में, ज़मींदार के स्थान पर एक कलेक्टर होता था, जो उस क्षेत्र का प्रशासन करता था और किसानों से सीधे राजस्व इकट्ठा करता था। - *किसानों की स्थिति*: यह व्यवस्था किसानों के लिए अपेक्षाकृत अधिक कठिन थी क्योंकि पूरे गाँव या महल के लोग एक दूसरे के लिए उत्तरदायी होते थे। - *सरकार की लाभ*: इस प्रणाली से सरकार को स्थिर राजस्व मिलता था, लेकिन किसान वर्ग पर दबाव अधिक था। ### निष्कर्ष: इन तीनों व्यवस्थाओं के अपने फायदे और नुकसान थे: - *स्थायी व्यवस्था* ने सरकार को स्थिर राजस्व प्रदान किया, लेकिन किसानों और श्रमिकों का शोषण बढ़ा। - *रैयतवाड़ी व्यवस्था* में किसानों को भूमि का कुछ अधिकार मिला, लेकिन उन्हें भारी राजस्व चुकाना पड़ा। - *महलवाड़ी व्यवस्था* ने पूरे गाँव या महल को एकजुट किया, लेकिन किसानों को अतिरिक्त बोझ पड़ा। इन तीनों प्रणालियों का उद्देश्य सरकारी राजस्व बढ़ाना था, लेकिन ये किसानों के जीवन को कठिन बना गईं। इन सुधारों ने भारतीय कृषि व्यवस्था को एक नई दिशा दी, लेकिन इसका लंबा-चौड़ा प्रभाव समाज और अर्थव्यवस्था पर पड़ा। निष्कर्षतः ब्रिटिश शासन के दौरान लागू की गई स्थायी व्यवस्था, रैयतवाड़ी और महलवाड़ी प्रणालियाँ भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालने वाली थीं। इन तीनों प्रणालियों का उद्देश्य सरकार के लिए स्थिर और सुनिश्चित राजस्व प्राप्त करना था, लेकिन इनका प्रभाव किसानों पर अत्यधिक शोषणकारी था। निष्कर्षतः ब्रिटिश शासन के दौरान लागू की गई स्थायी व्यवस्था, रैयतवाड़ी और महलवाड़ी प्रणालियाँ भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालने वाली थीं। इन तीनों प्रणालियों का उद्देश्य सरकार के लिए स्थिर और सुनिश्चित राजस्व प्राप्त करना था, लेकिन इनका प्रभाव किसानों पर अत्यधिक शोषणकारी था। *स्थायी व्यवस्था* में ज़मींदारों को स्थायी मालिकाना अधिकार देने के कारण किसानों को उनके शोषण का सामना करना पड़ा। राजस्व की निश्चित दर ने ज़मींदारों को अत्यधिक लाभ दिया, जबकि किसान कर्ज़ में डूबते गए। *रैयतवाड़ी व्यवस्था* ने किसानों को अपनी भूमि का मालिक बनाया, लेकिन उन्हें भारी राजस्व चुकाना पड़ा, जो उनकी आर्थिक स्थिति को और बिगाड़ता था। किसानों के पास सीमित विकल्प थे, जिससे वे अधिक शोषण का शिकार होते थे। *महलवाड़ी व्यवस्था* में, पूरे गाँव या महल को एक इकाई के रूप में जिम्मेदार ठहराया गया, जिससे किसानों पर सामूहिक दबाव पड़ा। यह प्रणाली भी किसानों के लिए कठिनाईपूर्ण रही, क्योंकि एक किसान के भुगतान न करने पर पूरा गाँव प्रभावित होता था। कुल मिलाकर, इन तीनों प्रणालियों ने भारतीय किसानों को शोषण, कर्ज़ और गरीबी में धकेल दिया। इन प्रणालियों के तहत किसानों की स्थिति और अधिक खराब हुई, और भूमि सुधार की आवश्यकता और स्पष्ट हो गई।

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