हिन्दी पाठ: आत्म-ज्ञान और संसार का स्वरूप (PDF)
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यह पाठ आत्म-ज्ञान और इस जगत के स्वरूप की व्याख्या करता है, जिसमें आत्म-निर्भरता और वास्तविक सुख की प्राप्ति पर प्रकाश डाला गया है।
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हे सर्वज्ञ परमात्मा! हे जिनेन्द्र देव! आपने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से अपने निजस्वभाव को प्रकट करके समस्त कर्मों का सर्वथा अभाव कर दिया है। जिसके फलस्वरूप आप तीनलोक-तीनकाल के पूर्ण ज्ञानी हैं, वीतरागी हैं और अपने पूर्ण निर्मल स्वभाव के आनन्द में मग्न हैं। इसीलिये हे भगवन! मैं भी आप ही के समान कर्मों क...
हे सर्वज्ञ परमात्मा! हे जिनेन्द्र देव! आपने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से अपने निजस्वभाव को प्रकट करके समस्त कर्मों का सर्वथा अभाव कर दिया है। जिसके फलस्वरूप आप तीनलोक-तीनकाल के पूर्ण ज्ञानी हैं, वीतरागी हैं और अपने पूर्ण निर्मल स्वभाव के आनन्द में मग्न हैं। इसीलिये हे भगवन! मैं भी आप ही के समान कर्मों के नाश द्वारा पूर्ण स्वभाव की प्राप्ति के संकल्प के साथ आपको नमस्कार करता हूँ। स्वर्णरूप परिणमन की योग्यता वाले पत्थर में छिपे सोने को जिसप्रकार अग्नि में ही तपाकर शुद्ध किया जा सकता है, प्रगट किया जा सकता है अर्थात एकमात्र स्वर्ण की पूर्ण शुद्धता में अग्नि ही कारण है अन्य नही; उसी प्रकार संसार में रहने वाले आत्मा की शुद्धता में उसी के अनुरूप शुद्ध द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की उपादानगत योग्यता ही कारण है, अन्य नही। इनकी सम्पूर्णता हो जाने पर आत्मा निश्चल एवं पूर्ण निर्मल हो जाता है। संसार से निकलकर परमात्मा होने का यही मार्ग है। एक बार तीन मित्र नगर से बाहर की ओर किसी कार्य से जाने लगे और बीच में ही उनमें से एक मित्र को किसी कारण से पुनः नगर में जाना पडा, अब बाकि दो मित्र उसके वापिस आने की प्रतीक्षा करने लगे -- जिनमें से एक छांव में बैठा है और एक धूप में। ध्यान से देखने पर दोनों में बहुत बडा अन्तर दिखाई देता है। क्योंकि छांव में बैठकर प्रतीक्षा करने वाला व्यक्ति सुख से समय व्यतीत करता है और धूप में बैठकर प्रतीक्षा करने वाला दुख से। क्योंकि प्रतीक्षा तो दोनों को ही करनी है लेकिन समझदारी स्थान चुनने में है। उसीप्रकार जब तक हमें पूर्ण सुख की प्राप्त नही होती, तबतक व्रतादिक का आचरण करने वाला स्वर्गादिक में आनन्द के साथ रहता है और अव्रती पुरुष नरकादिक में दुख भोगता है। अतः व्रतादिक का पालन निरर्थक नही अपितु सार्थक है। जिसप्रकार कोई व्यक्ति भार उठाकर दो कोस तक आसानी से चलता है तो क्या उसके लिये भार सहित आधा कोस चलने में कोई समस्या हो सकती है? अवश्य नही! क्योंकि जिसने दो कोस का रास्ता सहजता से पार कर लिया वह आधे कोस के लिये क्यों परेशान होगा? क्योंकि अधिक शक्तिवान व्यक्ति के लिये अल्पशक्ति वाले कार्य तो स्वाभाविक ही है। ठीक उसीप्रकार जिस उत्कृष्ट आत्मपरिणाम से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, उन परिणामों से स्वर्गादिक की प्राप्ति तो सहज ही है। स्वर्ग में निवास करने वाले जीवों को स्वर्ग में इन्द्रिय जनित वैसा ही सुख होता है, जैसा कि स्वर्ग में रहने वालों देवों को हुआ करता है, अर्थात स्वर्ग में रहने वाले देवों का ऐसा अनुपमेय (उपमा रहित) सुख हुआ करता है कि उस सरीखा अन्य सुख बतलाना कठिन ही है। उन्नत विमान, सुन्दर वातावरण, मनोहारी देव-देवियाँ और निरोगी शरीर; यह सब इन्द्रिय जनित सुख ही है। जो किसी राजा व शत्रु इत्यादि के द्वारा हरण को प्राप्त नही होता अर्थात यह सुख सर्व प्रकार के आतंक अर्थात भय से रहित है तथा भोगभूमि की भाँति अल्पकालीन नही अपितु यह सुख तो सागरोपम काल तक बने रहने वाला है। आश्चर्य है कि एक पक्षी का जोडा तपती धूप में भी एक-दूसरे के साथ रहने पर संतोष से रहता हैं लेकिन जब रात्रि के समय उनमें से एक का भी वियोग हो जाता है तो मानो चन्द्रमा की शीतल किरणे भी उनके मन के संताप को दूर नही कर पाती, उनका हृदय दूसरे के वियोग से संतप्त रहता है, आकुलित हो उठता है। इससे पता चलता है कि इन इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला यह सुख मात्र वासना ही है, भ्रम ही है, अनाकुल एवं वास्तविक नही हैं। हम भी जिस इन्द्रिय सुख के पीछे दिन-रात एक कर देते हैं, न्याय-विवेक के बिना बस इन भोगों की ही चाह में लगे रहते हैं उन भोगों से प्राप्त सुख की दास्तान का अंत वियोग पर ही होता है, ये सुख ये भोग; रोग आने पर, अनिष्ट संयोग होने पर या व्यवधान आने पर निश्चित ही दूर हो जाते हैं। अतः देहधारियों का सुख व दुख; दोनो ही कल्पनामात्र है, वास्तविक सुख तो आत्मस्वभाव में ही है। लोक में प्रसिद्ध है कि नशीली वस्तु खाने से नशा ही पैदा होगा और नशे में धुत्त व्यक्ति विवेकहीन हो जाता है। वह जाने हुए पदार्थों को भी भूल जाता है, जानने में आने वाले पदार्थों का भी ठीक प्रकार से ज्ञान नही कर पाता अर्थात इस नशे के कारण ज्ञानवान पुरुष भी अज्ञानियों की भाँति आचरण करता है। ठीक उसीप्रकार आत्मा व उसका ज्ञानगुण यद्यपि अमूर्त है फिर भी मूर्तिमान कर्मादि से मिलकर वह गुण भी पत्थर की भाँति आवरणित हो जाते हैं। जिसकारण अपने से प्रत्यक्ष भिन्न जड पदार्थों में जीव अपनत्व करता है, उनका वियोग होने पर खेद-खिन्न होता है, ज्ञानियों द्वारा समझाये जाने पर भी पथभ्रष्ट होकर अज्ञानी की भांति आचरण करता है। एक किसान कूएँ से सिंचाई हेतु पानी निकालने के लिये घटियंत्र को अपने पैरों से चलाता है, एक पटली पर पैर रखता है तो दूसरी ऊपर आ जाती है, दूसरे पर पैर रखता है तो तीसरी ऊपर आ जाती है, ये पूरी प्रक्रिया उसकी इच्छानुसार ही हो रही है। यदि वह ऐसा करना ना चाहे और इस पदावर्त के चक्र से बाहर निकलना चाहे तो कौन रोकने में समर्थ है? हे जीव! यह संसार भी घटियंत्र जैसा ही है। इस संसार में एक विपत्ति दूर करते ही तुरंत ही अन्य अनेक विपत्तियाँ उत्पन्न हो जाती है। वास्तव में तो ये इच्छायें ही विपदा है। इनका निवारण भी तेरे ही हाथ में है। इसलिए संसार अवश्य ही नाश करने योग्य है। जरा विचार कर! एक बार एक व्यक्ति जंगल पहुँचा और एक ऊंचा सा पेड देखकर उसपर चढ गया, जंगल की शान्ति और शीतल वातावरण में उसे नींद आयी और वह सो गया। कुछ देर बाद अचानक उसकी आँख खुलती है और वह देखता है कि पूरे जंगल में भयंकर आग लग चुकी है, सभी पशु-जानवर इधर-उधर भाग रहे हैं, चारो ओर अग्नि की भीष्ण ज्वालायें उठ रही हैं परन्तु उसे लगता है कि ये पशु ही अग्नि में झुलस रहे हैं, मै तो इतने ऊपर पेड पर आराम से बैठा हूँ, मुझे तो इस अग्नि से खतरा नही है। इसीप्रकार इस जीव को अपने चारो ओर रहने वाले जीवों की तो चिंता है, वह उन्हें तो विपदा में देखता है परन्तु स्वयं इन विषय-भोग रूपी विपत्तियों के चक्र में दुखी है वह नही जानता। इस चक्र में ही सुख का भ्रम लेकर इसी में फसा रहता है। जिन विषय-भोगों की चाह में यह जीव भ्रमित होकर असहनीय कष्ट उठाता है उनकी वास्तविकता अति भयावह है। देह, इन्द्रिय और मन को क्लेश को कारणरूप ये भोग अस्थायी व महाकष्टदायी हैं। जब तक प्राप्त नही होते तब तक प्राप्ति की इच्छा रूप संताप के कारण हैं; जब प्राप्त हो जाते हैं तब अन्य भोगों की अतृप्ति के कारण हैं; और अन्त समय में जब छूटने का अवसर आता है तो छोडने रूप आकुलता के कारण है। अर्थात इन भोगों का आदि-मध्य-अन्त तीनों ही महादुखदायी है। अतः ऐसे भोगों को कौन बुद्धिमान चाहेगा? एक ओर तो देवाधिष्ठित अर्थ को देने वाला दिव्य चिन्तामणि रत्न और दूसरी ओर बुरा व छोटा सा खली का टुकडा, यदि ये दोनो ही ध्यान के द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं तो कहो विवेकी पुरुष दोनों में से किसका आदर करेंगे? इसलिये आर्त व रौद्र ध्यान रूप इस लोक संबंधी फल की अभिलाषा को छोडकर धर्म व शुक्लध्यान वाले परलोक संबंधी उत्कृष्ट फल की प्राप्ति के लिये ही आत्मा का ध्यान करना चाहिये। मुनिराज आत्मध्यान में लीन हैं, वे द्रव्य-भाव-नोकर्म से भिन्न अपने शुद्धात्म स्वरूप का रसास्वादन कर रहे हैं। जब जीव आत्मा में आत्मा के ही चिन्तवन रूप ध्यान में मग्न होता है तो उसका लक्ष्य एकमात्र अपने ज्ञायक स्वभाव पर केन्द्रित होता है। आत्मा व शरीर के भेदज्ञान से उत्पन्न आनन्द से परिपूर्ण मुनिराज इस अवस्था में आने वाले भयंकर उपसर्गों व घोर परिषहों को भोगते हुए भी खेद-खिन्न नही होते। वे तो समस्त आधि-व्याधि-उपाधियों से रहित निरुपाधिक आत्मा में ही मग्न हैं और इस ध्यान से कर्मों के आगमन को रोकने वाली उत्कृष्ट कर्म-निर्जरा होती है। हे अबंध स्वभावी आत्मन्! बंधन से प्रत्येक प्राणी दुखी है और मुक्त तो होना चाहता है परन्तु उपाय के अभिज्ञान बिना कैसे हो? परमार्थ से तो जीव को; ना ही कर्मस्कंधों से भरा यह तीन लोक, ना ही हलनचलनादि रूप क्रिया, ना इन्द्रियाँ, ना विषय-भोग और ना ही कोई चेतन-अचेतन पदार्थ बंधन के कारण हैं; जीव बंधता है तो मात्र अपने मोह रूप अज्ञान से। "ये मेरे हैं, मैं इसका हूँ", इन विकल्पों के चक्रव्यूह में ये जीव अपनी वास्तविक सम्पत्ति भूलकर स्व से भिन्न द्रव्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने की चेष्टा करता है। इसलिये हर प्रकार से निर्ममता का विचार करना चाहिये। अनादि काल से इस भव चक्र में फंसा यह जीव, अनन्त बार -- अनन्त वस्तुओं का बार-बार भोगता आया है। इस विश्व के प्रत्येक परमाणु को भोगने के बाद भी मोह के कारण इसकी आसक्ति नही छूटती। भोगों को नीरस कर-करके छोडा लेकिन उनके प्रति मोह नही छूटा। वास्तव में स्वयं भोगकर छोडे झूठन, गंध, मालादिक में जैसे लोगों को फिर भोगने की इच्छा नही होती उसी तरह इस समय तत्त्वज्ञान से युक्त हुए मुझ ज्ञानी जीव को उन छिनकी हुई रेंट (नाक) समान पुद्गलों में क्या अभिलाषा होगी? वास्तव में हर वो जीव जो अपना हित चाहते हैं और दूसरे के भी हित के अधिकारी है इस भावना से उस उपाय को दूसरों तक पहुँचाते हैं अर्थात हित के प्रवर्तक होते हैं; वे ही सच्चे गुरु हैं। आश्चर्य वाली बात तो यह है कि समस्या व समाधान स्वयं में ही है, मोक्ष सुख की अभिलाषा करने वाला भी मैं, मोक्ष सुख के उपायों को जताने वाला भी मैं और मोक्ष सुख के उपाय को प्रवर्तन करने वाला भी मैं अतः परमार्थ से तो ये आत्मा ही आत्मा का गुरु है, अन्य कोई नही। विश्व में सबसे बड़ा सुख का केंद्र और सत्य तो अपना शुद्धात्मा ही है। जिसे इस सत्य तत्त्व का भावभासन हो गया ऐसे योगी को; तथा जिसने समस्त परिग्रह का त्याग करके एक शुद्धात्मा को ही निज संपत्ति मान लिया हो, उसे समस्त लोक इंद्रजाल में प्रस्तुत सर्पहार की भांति मिथ्या प्रतीत होता है। यदि किसी अन्य विषय भोगों में प्रवृत्ति करे तो मन-वचन-काय से उनका त्याग करके पश्चाताप करता है कि उन विषयों में पड़कर ये मैंने शुद्धात्मा का कैसा अहित कर दिया। जिन्हें अध्यात्म से प्रेम है वे पर की चिंता नही करते, वास्तव में चिन्ता तो उसी की होती है जो अपना नही होता परन्तु मोहवश उसे अपना मानकर बैठ जाते है; योगिजन तो परमार्थ जीवन जीते है, वे शुद्धात्मा जो स्व पदार्थ है उसे ही स्वयं अनुभव करते हैं। एकबार बलराम मुनिराज जब नगर में आये तो उनके शरीर की सुन्दरता देख स्त्रियाँ पात्र की जगह अपने बच्चों के गले में ही रस्सी बाँधकर उन्हें कुएँ में डालने लगी; यह देख मुनिराज पुनः वन की ओर गमन कर गये। मुनिराज को शरीर की सुन्दरता-कुरूपता का आकर्षण नही अतः उस जातिगत राग-द्वेष पैदा न होने से वे कभी बंधन को प्राप्त नही होते अपितु समस्त बंधनों से मुक्त ही होते हैं। आचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित गागर में सागर स्वरूप इस इष्टोपदेश ग्रन्थ के तत्त्व का जिसने भलीप्रकार अर्थ अवधारण किया है और अब जो हित-अहित का विवेक रखते हुए परीक्षा करने में निपुण हुआ है ऐसा भव्य जीव समस्त मान-अपमान छोडकर आत्मज्ञान पूर्वक साम्यभाव का ही पुरुषार्थ करता है। मिथ्यात्व व कषायों के त्याग पूर्वक परम्परा से पुरुषार्थ करते हुए व कर्मों की हानि करते हुए वह भव्य शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है।