पाषाण काल PDF

Summary

This document discusses the Stone Age, dividing it into the Palaeolithic, Mesolithic, and Neolithic periods. It explores the development of human civilization during this era, based on archeological findings and tools used. The document also touches upon the Indus Valley Civilization, discussing its various characteristics and timelines.

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पाषाण काल – त्रियुग पद्धत्रि के आधार पर मानव त्रवकास का अध्ययन त्रकया जािा है। डेनमाकक के कोपेनहेगन संग्रहालय की सामग्री के आधार पर 1816 ई. में सी. जे. थामसन ने पाषण युग, कांस्य युग, एवं लौह युग, के रूप में त्रियुग त्रवभाजन त्रकया। ित्पश्चात् जान लुब्बाक नामक त्रवद्वान ने पाषाण युग को दो भागों में ब...

पाषाण काल – त्रियुग पद्धत्रि के आधार पर मानव त्रवकास का अध्ययन त्रकया जािा है। डेनमाकक के कोपेनहेगन संग्रहालय की सामग्री के आधार पर 1816 ई. में सी. जे. थामसन ने पाषण युग, कांस्य युग, एवं लौह युग, के रूप में त्रियुग त्रवभाजन त्रकया। ित्पश्चात् जान लुब्बाक नामक त्रवद्वान ने पाषाण युग को दो भागों में बााँट त्रदया – 1. पुरापाषाण काल 2. नवपाषण काल ित्पश्चात् पुरापाषाण काल एवं नवुपाषाण काल के बीच संक्रमण काल के रूप में मध्य पाषाण काल को भी स्वीकार त्रकया। एडुवाडड लारटेट ने उपकरणों के आधार पर पुरापाषाण काल को त्रनम्न िीन उपकालों में त्रवभात्रजि त्रकया – अ – त्रनम्न पुरापाषाण काल ब – मध्य पुरापाषाण काल स – उच्च पुरापाषाण काल पाषाण काल पुरापाषाण काल नवाषाण काल नवाषाण काल 5 लाख ई. पू. 6 हजार ई. पू. के 6 हजार ई. पू. के 10 हजार ई. पू. पश्चात् पश्चात् मध्य पुरा पाषाण त्रनम्न पुरापाषाण काल मध्यपाषाण काल काल 5 लाख ई. पू. से 1 10 हजार ई. पू. से 1 लाख ई. पू. से 40 लाख ई. िक 4 हजार ई. पू. िक हजार ई. पू. िक पुरापाषाण काल – भारि की पुरापाषाण काल युगीन सभ्यिा का त्रवकास प्लीस्टोसीन या त्रहम युग से हुआ था। पृथ्वी का अत्रधकांश भाग बर्क अच्छाच्च्दि था। 10 लाख वषष पूवष ग्रह गमष होना प्रारम्भ हुआ। भारिीय पुरापाषाण काल का मावन द्वारा इस्िेमाल त्रकये गये औजारों के आधार पर िीन अवस्थाओं में त्रवभात्रजि त्रकया गया। अ – निम्न पुरापाषाण काल - कुल्हाडी या हस्ि कुठार (hand axe.), त्रवदारणी (Deaver), खंडक (chopper) प्रमुख हत्रथयार था। 1863 में राबटड ब्रुसर्ुट ने मद्रास के समीप पल्लवग्म नामक स्थल से हस्ि कुल्हाडी प्राप्ि की। इनसाइक्लोत्रपत्रडया त्रब्रटात्रनका के अनुसार – राबटड ब्रुसर्ुट त्रब्रत्रटश भूगभष वैज्ञात्रनक और पुराित्वत्रवद् थे। इस युग में क्रोड या शल्क उपकरण की प्रधानमिा थी। सभ्यिा से सम्बद्ध स्थल ‘सोहन घाटी’ में त्रमलिा है 1928 ई. में डी. एन. वात्रहया ने क्षेि से पूवष पाषाण काल उपकरण प्राप्ि त्रकया है। सोहन परम्परा के पेबुल िथा र्लक िथा मद्रास परम्परा के हैन्ड एक्स आत्रद त्रमलिे हैं। सम्बद्ध स्थल – उत्तर प्रदेश के त्रमजाषपुर के पास ‘बेलनघाटी’ राजस्थान के मरूभूत्रम क्षेि में डीडवाना, भोपाल के पास भीमबेटका, महाराष्ट्र के नेवासा के भी सभ्यिा के साक्ष्य प्राप्ि हुए हैं। उपकरण बनाने के सच्चे माल के रूप में क्वार्टषइट के साथ जैस्पर, चटड कैल्सीडोनी आत्रद पत्थरों का प्रयोग होने लगा। 1 ब – मध्य पाषाणकाल - र्लक संस्कृत्रि की संज्ञा दी गयी। नेवास (गोदावरी नदी के िट पर) मध्य पुरापाषाण काल संस्कृत्रि का प्रारूप स्थल है। एच.डी. संकात्रलया ने इसे ‘प्रारूप स्थल’ घोत्रषि त्रकया हैं। इस काल के स्थल प्राय: सम्पूणष देश से संबंध है यथा महाराष्ट्र, गुजराि, आध्रप्रदेश, उडीसा, कनाषटक, पच्श्चम बंगाल, त्रबहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, आत्रद। उत्तर प्रदेश में चत्रकया, त्रसंगरौली बेत्रसन िथा बेलनघाटी महत्वपूणष स्थल है। नेवासा मध्य पुरापाषाणकाल का ‘प्रारूप स्थल माना जािा है। स – उच्च पुरापाषाण काल – इस काल में जलवायु अपेक्षाकृि गमष हो गई। िक्ष्णी, खुरचन, हड्डी, उपकरण इत्यात्रद का प्रयोग होिा रहा। भीमबेटका में त्रचिकारी के प्रमाण त्रमलिे हैं। त्रजसमें हर व लाल रंगों का प्रधानिा थी। इस काल के उपकरण चकमक पत्थरों से त्रनत्रमिष होिे थे। बेलनघाटी च्स्थि लोहदा नाले से प्राप्ि अच्स्थ त्रनत्रमिष मािृदेवी की मूत्रिष इसी काल की है। मध्य पाषाण काल – इस काल का में लोग सवषप्रथम पशुपालन करना प्रारम्भ त्रकया गया। 1867 ई. में सी. एन. कलाषइल द्वारा त्रसहं ल क्षेि में लघु उपकरण खोजने के साथ जानकारी त्रमली। पुरापाषाण काल व नवपाषाणकाल के मध्य संक्रमण को रेखांत्रकि करिा है। मनुष्ट्य मुख्यि: त्रशकारी िथा खाद्य संग्राहक ही रहा, परन्िु त्रशकार करने के िकनीकी में पररविषन आ गया. मध्य प्रदेश में आदमगढ़ और राजस्थान के बागोर पशुपालन के प्राचीनिम साक्ष्य प्रस्िुि करिे हैं। इसका समय लगभग 5000 ई. पू. हो सकिा है। इसी काल में सवषप्रथम िीर-कमान का त्रवकास हुआ। मध्य पाषाण काल के उपकरण छोटे पत्थरों से बने हैं। त्रजन्हें माइक्रोत्रलत्रथस के नाम से जाना जािा है। इस काल के महत्वपूणष उपकरण ब्लेड (र्लक) नुकीले क्रोड, त्रिकोण, नवचन्द्राकार आत्रद हैं। मध्य पाषाण स्थल – राजस्थान, दत्रक्षण उत्तर प्रदेश, मध्य व पूवी भारि में िथा दत्रक्षणी भारि में कृष्ट्णा नदी से दत्रक्षण में पाये जािे हैं। (सराय नाहर राय एवं महादहा) भारि के सबसे पुराने मध्य पाषाण कालीन युग स्थल हैं। बागोर से मानव कंकाल भी प्राप्ि हुए हैं। मानवीय आक्रमण या युद्ध के प्रारच्म्भक साक्ष्य सराय नाहर राय से प्राप्ि हुआ है। लेखत्रनया से 17 नर कंकाल प्राप्ि हुए हैं। आत्रि का प्रयोग इस काल में प्रारम्भ हो गया था। महादहा से गमष चूल्हे प्राप्ि हुए हैं। महादहा के त्रकसी न त्रकसी समात्रध से स्िी, पुरूष के साथ – साथ दर्नाने के साक्ष्य त्रमलें हैं। िवपाषाण काल - पहला नव पाषात्रणक स्थल एच.सी.मेस्यूरर के द्वारा 1860 में उत्तर प्रदेश में खोजा गया। त्रनयोत्रलत्रथक शब्द का सवषप्रथम प्रयोग सर जाल लुबका 1965 में त्रकया था। 2 नव पाषाण युग का प्रारम्भ 9000 ई. पू. में मानी जािी है, परन्िु भारि में बलूत्रचस्िान के मेहरगढ़ से कृत्रष का प्रारच्म्भक साक्ष्य त्रमलिा है। जो लगभग 7000 ई. पू. पुराना हैं। कश्मीर में बुजहष ोम एवं गुफ्र्कराल ये दो महत्वपूणष स्थल हैं। बुमषहोम में गिष त्रनवास व पालिू कुत्ते का मात्रलक के साथ दर्नाने के साक्ष्य त्रमलें हैं। कृत्रष का प्रारम्भ नव पाषाण काल ही माना जािा है। चौपानीमंडो उत्तर प्रदेश से संसार में मृदभाण्ड के प्रयोग के प्राचीनिम् साक्ष्य त्रमलिे हैं। यहां के लोग कच्ची ईंटों के आयिाकार मकान में रहिे थे। बेलनघाटी में च्स्थि कोच्ल्डहवा से चावल उगाने का प्रमाण त्रमलिा हैं। मृदभाण्डो के प्रयोग इसी काल से प्रारम्भ हुए। इसी काल में बच्स्ियों का त्रवकास हुआ। मेहरगढ़ प्राचीनिम बस्िी है। कृत्रष का प्राचीनिम प्रमाण लहुरादेव उत्तर प्रदेश से प्राप्ि हुआ हैं। लहुरादेव से चावल का प्राचीनिम प्रमाण प्राप्ि होिा है। मेहरगढ़ से जौ, गेहूाँ की प्राचीनिम प्रमाण प्राप्ि हुए हैं। ताम्र पाषाण काल – त्रजस काल में मानव ने पत्थर के उपकरणों के साथ िांबे के उपकरणों का प्रयोग प्रारंभ त्रकया, उसी काल को िाम्र पाषाण काल कहिे हैं। िाम्र पाषात्रणक संस्कृत्रियां ग्रामीण संस्कृत्रियां थी। कृत्रष एवं पशुपालन मुख्य व्यवसाय था। लेत्रकन जीवन में त्रशकार का महत्व था। चाक त्रनत्रमषि मृदभाण्डों का प्रोयग सभ्यिा की त्रवत्रशष्ट्टिा थी। िाम्र त्रनत्रमषि संस्कृत्रियां दो भागों में बााँटा जा सकिा है – 1. पूवष सैंधव िाम्र-पाषात्रणक संस्कृत्रियां 2. उत्तर सैंधव िाम्र-पाषात्रणक संस्कृत्रियां 1. पूवव सैंधव ताम्र–पाषानणक संस्कृनतयां – यह संस्कृत्रि त्रसधं ु सभ्यिा के पूवष त्रवकात्रसि हुई। क – क्वेटा संस्कृनत – ब्लूत्रचस्िान में त्रवकत्रसि हुई। पांडुरंग के मृदभाण्डों पर काले रंग से त्रचिण सभ्यिा की त्रवशेषिा थी। ख – कुल्ली संस्कृनत – ब्लूत्रचस्िान में त्रवकात्रसि हुई। पांडुरंग के लेप पर काले एवं लाल रंग के त्रचिण वाले मृदभाण्ड सभ्यिा की त्रवशेषिा थी। ग – िाल - आमी संस्कृनत – ब्लूत्रचस्िान एवं त्रसंध क्षेि में त्रवकात्रसि हुई। पांडुरंग के लेप पर बहुरगं ी अंलकरण वाले मृदभाण्ड संस्कृत्रि की त्रवशेषिा थी। घ – झोब संस्कृनत – ब्लूत्रचस्िान क्षेि में त्रवस्िाररि लाल रंग के लेप पर काले रंग से त्रचिण वाले मृदभाण्ड। च – कोनटदीजी संस्कृनत – त्रसंध क्षेि में त्रवस्िाररि लाल रंग के लेप दुत्रधया रंग की त्रमट्टी त्रजस पर बहुरंगी अलंकरण वाले मृदभाण्ड संस्कृत्रि की त्रवशेषिा है। छ – पूवव हड़प्पा संस्कृनत – पंजाब (पात्रकस्िान) में त्रवस्िाररि। लाल या बैंगनी रंग के लेप पर काले रंग की धाररयों वाले मृदभाण्ड संस्कृत्रि की त्रवशेषिा थी। 3 1. उत्त्तर सैंधव ताम्र-पाषानणक संस्कृनतयां – इन संस्कृत्रियों के साक्ष्य त्रसंधु सभ्यिा के उपरान्ि देखा गया। क – कायथा संस्कृनत – मध्य प्रदेश के नमषदा घाटी में त्रवस्िाररि था। लाल अथवा भूरे रंग के लेप पर बैंगनी रंग से त्रचिण वाले मृदभाण्ड संस्कृत्रि की त्रवशेषिा थी। ख – अहाड़ संस्कृनत – राजस्थान में बनास घाटी क्षेि में त्रवस्िाररि क्षेि था। काले एवं लाल लेप पर सर्ेद रंग से त्रचिण वाले मृदभाण्ड इस संस्कृत्रि की त्रवशेषिा थी। ग – मालवा संस्कृनत – मध्य प्रदेश में नमषदा घाटी में संस्कृत्रि का त्रवस्िार था। गुलाबी रंग के लेप पर काले रंग से त्रचिण वाले मृदभाण्ड इस संस्कृत्रि की त्रवशेषिा थी। घ – जावे संस्कृनत - महाराष्ट्र क्षेि में त्रवस्िाररि थी। लाल रंग के मृदभाण्ड गोदावारी घाटी में इस संस्कृत्रि के साक्ष्य उपलब्ध हुए हैं। प्रमुख तथ्य - कुल्ली संस्कृि से अलकृि नारी मृण्मूत्रिषयां प्राप्ि हुई हैं। कुल्ली संस्कृत्रि के अन्िगषि मेही िांबें का दपषण प्राप्ि हुआ है। नाल संस्कृत्रि से सेलखडी पत्थर की बनी मुहर पर पंजे में सपष दबाए गरुण का त्रचि त्रमलिा है। अहाड का प्राचीन नाम िाम्रविी त्रमलिा है। जावे संस्कृत्रि के लोग अपने मृिकों को घर के अंदर दर्नािे थे। त्रसर उत्तर और पैर दत्रक्षण में रखकर दर्नािे थे। िाम्र पाषाण काल को कैल्कोत्रलत्रथक युग भी कहा जािा है। नवदा टोली मध्य प्रदेश का एक महत्वपूणष िाम्र-पाषत्रणक पुरास्थल है जो इंदौर के त्रनकट च्स्थि है। यहां के मृदभाण्ड लाल व काले रंग के हैं। 4 हड़प्पा सभ्यता 1. प्रमुख स्त्रोत 2. महत्वपूर्ण स्त्थल से प्राप्त वस्त्तुएं 3. भौगोललक स्त्थलों से प्राप्त वस्त्तुएं 4. काल लिर्ाणरर् 5. िगर लियोजि 6. र्ालमणक स्स्त्थलत 7. सामालजक स्स्त्थलत 8. आलथणक स्स्त्थलत 9. पति के कारर् इस सभ्यता को सार्ारर्त: तीि िामों से जािा जाता है। 1. लसंर्ु सभ्यता 2. लसन्र्ु घाटी की सभ्यता 3. हड़प्पा सभ्यता इिमें प्रत्येक शब्द की एक पृष्ठभूलम है। प्रारम्भ में पस्चिमी पंजाब के हड़प्पा एवं तत्पचिात् मोहिदड़ों की खोज हुई तब यह सोि गया लक यह सभ्यता अलिवायणत: लसन्र्ु घाटी तक सीलमत है। अत: इसे लसन्र्ु घाटी की सभ्यता का िाम लदया गया। हड़प्पा या लसन्र्ु संस्त्कृलत का उदय ताम्र-पाषालर्क पृष्टभूलम पर भारतीय उपमहाद्वीप के पस्चिमोत्तर भाग में हुआ। 1921 में पालकस्त्ताि के पस्चिममी पंजाब प्रांत में सवणप्रथम हड़प्पा िामक स्त्थल की खोज हुई। इस कारर् इसे हड़प्पा संस्त्कृलत िाम लमला। इस पररपक्व हड़पा संस्त्कृलत का केन्र- स्त्थल पंजाब और लसन्र्ु में मुख्यत: लसन्र्ु घाटी में पड़ता है। अत: इसे लसन्र्ु घाटी सभ्यता िाम लदया गया। अध्ययन के स्रोत – 1. टेराकोटा लिगसण (मृण्मूलतणयां) 2. महल और खण्डहर 3. लोथल से प्राप्त बेलिाकार मुहर 4. मोहिजोदड़ो से प्राप्त एक बाट 5. र्ौलावीरा से प्राप्त एक लिराक्षर लेख 6. िक्र की आकृलत 7. मेसोपोटालमया से प्राप्त बेिलाकार मुहर 8. 2350 ई.पू. की मेसोपोटालमया की मुहर 9. लोथल से प्राप्त हाथी दांत के माप के पैमािे 10. अध्ययि स्रोत के रूप में सालहस्त्यक साक्ष्य अिुपलब्र् है। काल ननर्ाारण - कालािुक्रम के संबंर् में लवलभन्न दृस्ष्टकोर् उपस्स्त्थत है। एि हेरास के िक्षरीय आर्ार पर इसकी उत्पलत्त का काल 6000 ई. पू. मािा है। मेसोपोटालमया के शासि सरगाि का 2350 ई. पू. का अलभलेख लमला है, उसके आर्ार पर इसकी समयवलर् 3250-2750 ई. पू. मािी गई है। 5 निद्वान काल ननर्ाारण जाि माशणल 3250 ई. पू. – 2750 ई. पू. अिेस्त्ट मैके 2800 ई. पू. – 2500 ई. पू. एम. एस. वत्स 3500 ई. पू. – 2700 ई. पू. सी. जे. गैड 2300 ई. पू. – 1750 ई. पू. व्हीलर, लपगट 2500 ई. पू. – 1500 ई. पू. ऑस्चिि 2200 ई. पू. – 1750 ई. पू. डी.पी. अग्रवाल 2300 ई. पू. – 1700 ई. पू. जी. एि वेचस 2154 ई. पू. – 1864 ई. पू. िेयर सलवणस 2000 ई. पू. – 1500 ई. पू. काबणि डेलटिंग पद्धलत 2350 ई. पू. – 1750 ई. पू. एि.सी.ई.आर.टी. 2500 ई. पू. – 1800 ई. पू. लवकलसत अवस्त्था 2200 ई. पू. – 2000 ई. पू. हड़प्पा सभ्यता की निशेषता - यह भारत की प्रथम िगरीय सभ्यता थी। ▪ नगर ननयोजन – िगर लियोजि इस सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण लवशेषता है । सम्पूर्ण िगर प्राय: दो असमाि भागों में लवभालजत है। पहला दुगीकृत है तो दूसरा भाग अिावृत है, यद्यलप कुछ स्त्थलों पर एक लवभाजि (लोथल) दोिों खण्डों का दुगीकरर् (कालींबगा) तथा िगर में मध्य स्त्तरीय लवभाजि (र्ौलावीरा) में देखिे को लमलता है। हड़प्पा िगर लियोजि व्यवस्स्त्थत था। ये िगर आयताकार या वगाणकार आकृलत में मुख्य सड़कों तथा िौड़ी गललयों के लग्रड पर आर्ाररत था। िगर का मुख्य मागण उत्तर से दलक्षर् जाता था। तथा दूसारा मागण पूरब से पस्चिम समकोर् पर काटता था। मोहिजोदड़ों का मुख्य सड़क (राजपथ) की िौड़ाई इस मीटर तक थी। अन्य सड़को की िौडाई 2.75 मीटर से 3.66 मीटर तक थी। गललयां 1.8 मीटर तक िौड़ी होती थी। सड़कों के लकिारे पािी बहिे के ललए िाली की व्यवस्त्था थी, लजसमें कूड़ा-करकट एकलरत करिे के ललए जगह- जगह मेिहोल बिे थे। िाललयों तथा मेिहोल पर ढक्कि रहता था। भिन ननर्ााण - इस सभ्यता के बड़े – बड़े भवि लमले हैं। लजसमें महाि स्नािागार, पुरोलहत आवास, अन्नागार, सभा भवि आलद प्रमुख हैं। मोहिजोदड़ों की सबसे बड़ी इमारत अन्नागार है जो 45 मीटर लंबी तथा 15 मीटर िौड़ी है। यह अन्नागार दुगण के भीतर है। हड़प्पा के प्रत्येक मकािों में अिेक कमरे , कुएुं , स्नािागार तथा आंगि होता था। यहााँ का िशण भी कच्चा होता था, केवल कालीबंगा में िशण पक्कीकरर् करिे का साक्ष्य प्राप्त हुआ है। मोहिजोदड़ों का हड़प्पा के भविों में स्त्तंभों का कम प्रयोग हुआ है। यहााँ कहीं ितुभुणजाकार अथवा वगाणकार स्त्तभं लमलते हैं , गोलाकार िहीं। मकािों ता औसत आकार 30 मीटर है। ईंटों आकार 4:2:1 है। सभ्यता निस्तार क्षेत्र ि स्थल – अब तक इस सभ्यता के अवशेष पालकस्त्ताि और भारत में पंजाब , लसन्र्, ब्लूलिस्त्ताि , गुजरात , राजस्त्थाि , हररयार्ा , पस्चिमी उत्तर प्रदेश, जम्मू-कचमीर , पस्चिमी महाराष्र के भागों में पाये जा िुके हैं। इस सभ्यता का िैलाव उत्तर में जम्मू-कचमीर से लेकर दलक्षर् में िमणदा के मुहािे तक और पस्चिम में मकराि समुर तट से लेकर पस्चिमी उत्तर प्रदेश में मेरठ तक है। सभ्यता का सवाणलर्क पस्चिमी पुरास्त्थल सुत्कागेंडोर (ब्लूलिस्त्ताि), पूवी पुरास्त्थल आलमगीर, उत्तरी पुरास्त्थल मांडा (जम्मू) तथा दलक्षर्ी पुरास्त्थल दैमाबाद है। 6 इस लरभुजाकार क्षेरिल वतणमाि में लगभग 13 लाख वगण लकमी. है। इस सभ्यता के लवस्त्तार के आर्ार पर ही स्त्टुअटट लपगट िे हडप्पा एवं मोहिजोदड़ो का एक लवस्त्तृत की जुड़वा राजर्ालियााँ बताया है। मााँडा (जम्म-कचमीर) सुत्कागेंडोर (ब्लूलिस्त्ताि) आलमगीरपुर (मेरठ,उत्तर प्रदेश) दैमाबाद (महाराष्र) हड़प्पा – पालकस्त्ताि के पंजाब प्रांत में स्स्त्थत मांण्टगोमरी लजले में रावी िदी के बांयें िट पर यह पुरास्त्थल स्स्त्थत है। हडप्पा के लजले या वंशावशेषों के लवषय में सवणप्रथम जािकारी 1826 िाचसण मेसणि िे दी। 1921 दयाराम साहिी िे इसका सवेक्षर् लकया और 1923 में इसका लियलमत उत्खिि आरम्भ हुआ। 1926 में मार्ोस्त्वरूप वत्स िे तथा 1946 में माटीमर व्हीलर िे व्यापक स्त्तर पर उत्खिि काराया। सम्पूर्ण शहर दो भागों में लवभालजत है। पस्चिमी भाग दुगण है लजसे िारों ओर से दीवार से घेरा गया है। यह दीवार कच्ची ईंटों से लिलमणत है लजसे बाहर से पक्की ईंटों से ढक लदया गया है। पूवी भाग ररहायसी इलाका था। मजदूरों की बस्त्ती, मजूरों का आवास, अन्नागार, दो कतारों में श्रलमक आवास लमले हैं। यहााँ छ:- छ: के दो कतारों में र्ान्य कोठार लमलें हैं। अिाजों को दबािे के ललए िबूतरों तथा उसकी दरारों में जौ एवं गेंहूाँ के दािे लमले हैं। एक बतणि पर मछुआरे का लिर बिा लमला है। शंख का बिा हुआ एक बैल प्राप्त हुआ है। यहााँ से एक प्रसार्ि केस प्राप्त हुआ है। लसंर्ु सभ्यता की सवाणलर्क अलभलेख युक्त मुहरें हड़प्पा से ही प्राप्त हुई हैं। (जबलक सवाणलर्क संख्या में मुहरें मोहिजोदड़ों से लमली हैं)। लसर के बल खड़ी िग्न स्त्री का लिर लमला है इसके गभण से एक पौर्ा लिकलता लदखाई देता है। िटराज की आकृलत जैसी स्त्लेटी िूिे पत्थर की िृत्य मुरा वाली मूलतण प्राप्त हुई है। ठोस पलहये एवं छतरी से युक्त तांबे की बिी इक्का गाड़ी प्राप्त हुई है। एक मुहर से पैर में सांप दबाये गरुड़ का लिरर् है। काजल की लडलबयां भी प्राप्त हुआ है। र्ोहनजोदड़ो - यह स्त्थल 1992 में रखालदास बिजी द्वारा खोजा गया। वतणमाि में यह स्त्थल लसंर् के लरकािा लजले में लसंर् िदी के लकिारे स्स्त्थत है। मोहिजोदड़ो का शास्ब्दक अथण है – ‘मृतकों का टीला’। यहााँ के दुगण क्षेर में एक सभागार, पुरोलहतों का आवास, महालवद्यालय तथा महािस्नािागार के सक्ष्य लमले हैं। 7 मोहिजोदड़ो के भवि पक्की ईंटों से लिलमणत है। मकािों में आंगि, रसोईघर, कुुंआ स्नािागार, आवचयक रूप से जुड़़ें होते है थे। ये मकाि तीि मंलजल तक के होते थे। घर का प्रवेश द्वारा सड़क पर िहीं होता था। एक श्रृंगी पशु आकृलत वाले मुहर, हाथी का कपाल खंड, सेलखड़ी का वाट, हाथ लहलािे वाले बंदर, लगलहारी तथा तीि बंदर प्राप्त हुए हैं। लोथल – गुजरात के अहमदाबाद लजले में भोगवा िदी के लकिारे खम्भत की खाड़ी के लिकट स्स्त्थत आयताकार स्त्थल की खोज 1957 में रंगिाथ राव िे ली थी। लोथल का अथण है मुदो का िगर एकमार स्त्थल जहााँ गोदीवाड़ा (डॉकयॉडट) का साक्ष्य लमला है । लजसका आकार 214 मीटर गुर्े 36 मीटर गुर्े 3.3 मीटर गहराई है। लोथल शहर लवभाजि दुगण तथा लििले शहर में िहीं है। बतणि के टुकडों पर लगे िावल के दािे प्राप्त हुए हैं। यहााँ तीि युस्ममता समालर् लमली है। साथ ही एक ममी का उदाहरर् भी लमला है। लमट्टी की बिी दो पशु आकृलतयााँ, गोररचला के अकुंि वाली मुरा तथा बारहलसंघें के अंकि वाली मुहर प्राप्त हुई है। सांप के लिरर् वाली मुरा लमली है। कालीबंगा– वतणमाि में यह राजस्त्थाि राज्य के लुप्त हो िुकी घघ्घर िदी के लकिारे स्स्त्थत था। कालीबंगा का शास्ब्दक अथण – काले रंग की िूलडयां है। उत्खिि 1953 में अमलािंद घोष के िेतृत्व में तथा 1960 में बीके – थापर के िेतृत्व में हुआ। दुगण का आकार वगाणकार है। ईंट के िबूतरे पर सात हवि कुुंड के साक्ष्य लमलें है। लसिफ िाली के रूप में लकड़ी की पाइप लमली है। बेलिाकार मुहरें प्राप्त, यहााँ की एक मुरा में व्याघ्र का अंकि है। एक बालक के शव का कपाल खंड लमला है। लजसमें छ: छेद हैं, यह शचय लिलकत्सा का प्रमार् है। र्ौलािीरा- वतणमाि समय में गुजरात प्रांत के भरूि लजले में अवस्स्त्थत है। सवणप्रथम स्त्थल की खोज 1967-68 में जगपलत जोशी द्वारा लकया गया। र्ौलावीरा का शास्ब्दक अथण – सिेद कुुँआ है। र्ौलावीरा का आकार आयताकार है। अन्य स्त्थलों के लवपरीत यह िगर तीि भागों में लवभालजत है। दुगण, मध्य तथा लििला िगर। तीिों भागों दुगाणकतृ हैं। यह जल प्रबंर्ि लवलशष्ट है। लजसमें जल का रोकिे के ललए िाली तथा अपूलतण के ललए कुुँआ तथा बरसाती पािी इक्कट्ठा करिे के ललए 12 मीटर का एक गड्डा और 24 मीटर की एक – एक िहर बिी थी। यहााँ आयताकार मुहरें ज्यादा लमली हैं। लजस पर श्रृगं ी पशु का अंकि है। गुलाबी रंग के बतणि प्राप्त हुए है लजसमें पका कर काले रंग की लिरकारी की गई है। यहााँ दुगण भाग तथा मध्यम भाग के मध्य अवस्स्त्थत 283 गुर्े 47 की भव्य इमारत के अवशेष लमले हैं, इसे स्त्टेलडयम कहते हैं। भारत में उत्खलित दूसरा सबसे बड़ा स्त्थल है। चान्हुदड़़ों (नसंर्ु) – 1931 में एि.जी. मजूमदार के प्रयास से इस स्त्थल की खोज हुई। 1935 में मैके िे इस कायण को आगे बढाया। वतणमाि में यह स्त्थल लसंर् में मोहिजोदड़ो से 130 लकमी. दलक्षर् में बांयें लकिारे पर स्स्त्थत है । 8 यहााँ से प्राक् लवकलसत तथा उत्तर हड़प्पा के साक्ष्य लमले हैं। यहााँ के मिके बिािे के साक्ष्य भी लमले है। सौन्दयण प्रसार्ि में लललपस्स्त्टक तथा इर रखिे के ललए बतणि का साक्ष्य प्राप्त हुए है। यहााँ से वक्राकारा ईंटे लमली हैं। बनािली - वतणमाि में हररयार्ा के लहसार लजले में स्स्त्थत है । इसकी खोज 1973 में आर.एस. लवष्ट िे की थी। तांबे का एक वार्ाग्र पाप्त हुआ है। हल की आकृलत का लखलौिा प्राप्त हुआ है। यहााँ से तांबे की कुचहाड़ी लमली है। बिावली की िगर लियोजि शतरंज के लवसात या जाल के आकार की बिायी गयी थी। रोपड़ – यह स्त्थल वतणमाि में पंजाब में सतलज िदी के लकिारे स्स्त्थत है। 1953-54 में यज्ञदत्त शमाण के िेतृत्व में कराई गई थी। स्त्वतंरता के पचिात सबसे पहले यहीं खुदाई हुई थी। यहााँ मािव के साथ कुत्ते को दििाएं जािे का साक्ष्य लमला है। स्थल ितार्ान स्स्थनत खोजकताा प्राप्त सार्ग्री सुरकोटडा गुजरात के कच्छ 1964, जगपलत जोशी घोड़े की अस्स्त्थयााँ, शााँलपंग काम्पलेक्स रंगपुर गुजरात के कलठयावाड़ 1953-54, रंगिाथ राव र्ाि की भूसी कोटदीजी वतणमाि पालकस्त्ताि 1955-57, आर, एि. खाि कांस्त्य से बिी मोटी िूड़ी का टुकड़ा आर्री पालकस्त्ताि के लसंर् में 1929 में, एि.जी. मजूमदार बारहलसंघें का साक्ष्य अल्लाहदीऩों लसंर्ु तथा अरब सागर के संगम 1982 में, िेयर सलवणस लमट्टी की बिी लखलौिी गाड़ी पर स्स्त्थत रोजदी गुजरात के सौराष्र कुणाल हररयार् के लहसार लजले में 1973 में, जे.पी.जोशी, िााँदी के दो मुकुट प्राप्त आर.एस.लवष्ट संघोल पंजाब के लुलर्यािा में पंजाब के लुलर्यािा में तांबे की दो छेलियााँ, वृत्ताकार अलग्न हड़प्पा राजनीनतक व्यिस्था:- व्यापकता एवं लवकास को देखते हुए - संस्त्कृलत के केन्रीय शस्क्त से संिाललत होिे का अिुमाि है। हड़प्पाकाल वालर्ज्य की ओर अलर्क आकलषणत थे इसललए सभ्यता का शासि वलर्क वगण के हाथ में होिे की संभाविा है। व्हीलर िे लसन्र्ु प्रदेश के लोगों, शासि को, मध्यम वगीय जितंरात्मक शासि और उसमें र्मण की महत्ता को स्त्वीकार लकया। स्त्टुअटट लपमगट – लसन्र् प्रदेश के शासि पर पुरोलहत वगण का - प्रभाव था। मैके के कथिािुसार - मोजिजोदड़ों का शासि एक प्रलतलिलर् शासक के हाथ में था। हण्टर के अिुसार - मोहिजोदड़ों का शासि राजतंरात्मक ि हो कर जितंरात्मक था। सर्ानजक व्यिस्था:- मातृदवे ी की पूजा तथा मुहरों पर अंलकत लिर से यह पररललक्षत होता है, हड़प्पा समाज सम्भवतः मातृसत्तात्मक था। सैंर्व सभ्यता के लोग युद्ध लप्रय कम शांलत लप्रय अलर्क थे। 9 िगर लियोजि दुगण, मकािों के आकार व रूपरेखा तथा शवों के दििािे के ढिंग को देखकर सैंर्व समाज के अिेक वगों, पुरोलहत, व्यापारी, अलर्कारी, लशचपी, जुलाहें एवं श्रलमकों में लवभालजत होिे की सम्भाविा है। शाकाहारी एवं मांसाहारी दोिों थे। मिोरंजि के ललए पासे का खेल, िृत्य लशकार, पशुओं की लड़ाई आलद प्रमुख सार्ि थे। शवों की अन्त्येस्ष्ट संस्त्कार में तीि प्रकार के शवोत्सगण के प्रमार् लमलें हैं। अन््येस्टट संस्कार पूर्ं समालर्करर् दाह संस्त्कार पशु आंलशक समालर्करर् सम्पूर्ण शव को भूलम में अलग्न संस्त्कार द्वारा दििा लदया जाता था। पलक्षयों के खािे के बाद बच्चे, शेष भाग को भूलम में दििा लदया जाता था। र्ानर्ाक जीिन:- मातृदेवी, पुरुषदेवता (पशुपलतिाथ), ललंग योलि, ललंग-योलि, वृक्ष प्रतीक पशु, जल आलद की पूजा की जाती थी। मोहिजोदड़ों से प्राप्त एक सील पर तीि मुख वाला एक मुख ध्याि की मुरा में बैठा हुआ है। माशणल िे इन्हें आद्यलशव की संज्ञा दी। हड़प्पा से प्राप्त मूलतणका में स्त्री के गभण से लिकलता एक पौर्ा लदखया गया है। सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता के लोग र्रती की उवणरता की देवी मािकर इसकी पूजा करते हैं। स्त्वास्स्त्तक, िक्र और कास के भी साक्ष्य लमलते हैं। र्ालमणक दृस्ष्टकोर् का आर्ार इहलौलकक तथा व्यावहाररक अलर्क था। आनथाक जीिन:- अथणव्यवस्त्था लसंलित कृलष अलर्शेष, पशुपालि, - लवलभन्न दस्त्तकाररयों में दक्षता और समृद्ध आन्तररक और लवदेशी व्यापार पर आर्ाररत थी। काले रंग की आकृलतयों से लिलरत लाल मृदभाण्ड, हड़प्पा सभ्यता की लवशेषता थी। कृलष-लसंर्ु घाटी के लोग बाढ उतर जािे पर िवम्बर के महीिे में बाढ वाले मैदािों में बीज बो देते थे और अप्रैल माह में गेहूाँ और जौ की िसल काट लेते थे। राजस्त्थाि में जुते हुए खेत के प्रमार् लमलते है। सवणप्रथम कपास उत्पन्न करिे का श्रेय लसंर्ु सभ्यता के लोगों को था। इसललए यूिालियों िे इसे लसंडोि लजसकी उत्पलत्त लसंर्ु में हुई है, िाम लदया है। बैल, भेड़, बकरी, सुअर, आलद पालते थे। कूबड़ वाले सांड का लवशेष महत्व था। सैंर्व लोग पत्थर के अिेक प्रकार के औजार का प्रयोग करते थे। तांबे के साथ लटि लमलाकर कांस्त्य तैयार लकया जाता था। तौल की इकाई सम्भवतः 16 के अिुपात में था। उदाहरर् 16,64,160 आलद। व्यापार आदाि-प्रदाि वस्त्तु लविमय द्वारा होता था। लोथल से िारस की मुहरें तथा कालीबंगा से बेलिाकार मुहरें भी लसंर्ु सभ्यता के व्यापार के साक्ष्य प्रस्त्ततु करते हैं। 10 आयात की जाने िाली िस्तु स्थल (क्षेत्र) नटन ईराि (मध्यएलशया), अिगालिस्त्ताि तांबा खेतड़ी (राजस्त्थाि) चााँदी ईराि, अिगालिस्त्ताि लाखिदा बदक्ख्शां (अिगालिस्त्ताि), मेसोपोटालमया सेलखड़ी ब्लूलिस्त्ताि, राजस्त्थाि, गुजरात निरोजा ईराि हड़प्पा सभ्यता का पतन:- सभ्यता के पतिोन्मुख और अन्ततः - लवलुप्त हो जािे के अिेक कारर् है जो इस प्रकार है- बाहूय आक्रमर् (गाडटि िाइचड एवं व्हीलर) भू-तास्त्वक पररवतणि (एस. आर. साहिी) जलवायु पररवतणि (आरेल स्त्टाइि, ए. एि. घोष) लवदेशी व्यापार में गलतरोर् सार्िों का तीव्रता से उपभोग 11 वैदिक काल ( 1500 ई.पू. - 600 ई. पू.) वैदिक सभ्यता के दिर्ााता आया थे। आया शब्ि का अथा- 'श्रेष्ठ' होता है। वैदिक काल (1500 ई.पू. से 600 ई.पू.) को िो भागों र्ें अध्ययि दकया जाता है । 1. ऋग्वैदिक काल (1500ई.पू. - 600 ई.पू.) 2. उत्तर वैदिक काल (1000ई. पू. - 600 ई.पू.) दसिंधु सभ्यता के पति के बाि जो िवीि सिंस्कृदत प्रकाश र्ें आई इसके दवषय र्ें हर्ें सम्पूर्ा जािकारी वेिों से दर्लती हैं । इसदलए इस काल को हर् वैदिक काल कहते हैं। यह सभ्यता अपिी पूवावती सभ्यता से काफी दभन्न थी । इस सभ्यता के सिंस्थापक आया थे। इसदलए कभी कभी इसे आया सभ्यता भी कहते हैं। ऋग्वैदिक काल (1500ई. पू. 1000ई. पू.) वैदिक सादहत्य - वैदिक सादहत्य र्ें वेि ब्राहृण्य, अरण्यक, एविं उपदिषि सभी को शादर्ल दकया जाता है। वेि शब्ि दवद् धातु से बिा है। दजसका अथा होता है जाििा अथाात् ज्ञाि। वैदिक सादहत्य को िो भागों र्ें बािंटते है। र्िंत्र तथा ब्राह्मर् र्िंत्र चारों वेिों र्ें सिंकदलत है और ब्राम्हर् का अथा होता है सिंबिंधी ज्ञाि। ब्राम्हूर् को हर् तीि भागों र्ें बािंट सकते हैं। 1. ब्राम्हर् 2. अरण्यक 3. उपदिषि वैदिक सादहत्य र्ें सबसे र्हत्वपूर्ा स्थाि वेिों का है। वेि सिंस्कृत भाषा के दवद् धातु से बिा है। दजसका अथा है - 'जाििा' या 'ज्ञाि' प्राप्त करिा। वेिों को ‘श्रुदत' के िार् से भी जािा जाता है। क्योंदक वैदिक ज्ञाि को बहुत दििों तक सुिकर सुरदित रखा गया था । जब वैदिक ग्रिंथों को दलदपबद्ध कर दिया गया तो इन्हें सिंदहता कहा गया। वेिों को सिंकदलत करिे का श्रेय कृष्र् द्वैपायि को है। इसदलए इन्हें वेिव्यास के िार् से भी जािा जाता है । क्योंदक इिकी उत्पदत्त िेवताओं से र्ािी गई है। ऋग्वेि, यजुवेि तथा सार्वेि इि तीि वेि को वेित्रयी कहा जाता है। वेिों की सिंख्या चार है - 1. ऋग्वेि 2. यजुवेि 3. सर्वेि 4. अथवावेि 1. ऋग्वेि यह सबसे प्राचीि एविं दवशाल वेि है। ऋग्वेि र्ें 10 र्िंडल हैं। दजिर्ें िवम्बर 2 से 7 सबसे प्राचीि है। 10वािं र्िंडल सबसे िवीि हैं। ऋग्वेि को होतृ (होता) िार्क पुरोदहत गाते थे। लोपार्ुद्रा, घोषा, सच्ची, पौलोर्ी किावृप्प्त िार्क पािंच दविुषी प्स्त्रयों िे कदतपय र्िंत्रों की रचिा की थी। ऋग्वेि र्ें िस र्ण्डल तथा 1028 सूक्त हैं। ऋग्वेि के तीि पाठ दर्लते हैं। क. साकल 1017 र्िंत्र ख. वालदखल्य 11 र्िंत्र ग. बाष्कल 56 र्िंत्र (इिर्ें से दसफफ साकल शाखा ही उपलब्ध है) 12 ऋग्वेि के िूसरे से सातवें र्ण्डल को गोत्र र्िंडल कहते हैं। 9 वािं र्िंडल सोर् को सर्दपात है। अतः इसे सोर् र्िंडल कहा गया है। ऋग्वेि की रचिा की दतदथ - र्ैक्सर्ूलर 1200-1000 ई.पू. जैकोबी 3000 ई.पू. दतलक 6000 ई.पू. दवन्टर दिट्स 2500 - 2000 ई.पू. र्ान्य दतदथ 1500-1000 ई.पू. ऋग्वेि के र्िंत्र दवदभन्न िेवी-िेवताओं की स्तुदत र्ें रचे गये है। कुछ र्िंत्र यज्ञों से सम्बप्न्धत है। सवाप्रथर् वर्ा का उल्लेख ऋग्वेि र्ें दकया जाता है। 2. यजुवेि यज्ञ से सम्बप्न्धत होिे के कारर् इसे यजुविे कहा गया। यजुवेि की िो शाखाएिं है- 1. कृष्र् यजुवेि – यह गद्य एविं पद्य िोिों र्ें रचा गया है। 2. शुक्ल यजुविे यह केवल पद्य र्ें दलखा गया है। इसे वाजसिेयी सिंदहता के िार् से जािा जाता है। कृष्र् यजुवेि के अन्तगात काण्क सिंदहता, कपप्ष्टल सिंदहता, र्ैत्रायर्ी सिंदहता एविं तैप्तरीय सिंदहता आते हैं। यजुवेि के र्िंत्रों से यज्ञ करािे वाले पुरोदहत को र्ध्वायु कहा था। 3. सामवेि - 'सार्' अथाात् 'गायि' से सम्बप्न्धत होिे के कारर् इसका िार् सार्वेि पडा। सिंगीत की सवाप्रथर् जािकारी सार्वेि से दर्लती है। इसर्ें कुल 1810 र्िंत्र हैं। दजसर्ें 261 र्िंत्र िोहरायें गये है, र्ूल र्िंत्रों की सिंख्या 1549 है। सार्वेि के र्िंत्रों का गायि करिे वाला पुरोदहत उद्घाता कहा जाता था। सार्वेि के कुल 75 सूक्तों को छोडकर शेष सूक्त ऋग्वेि से दलए गए है। 4. अथवववेि - अथवाा ऋदष के िार् पर इस वेि का िार् अथवावेि पडा। इसर्ें भूत-प्रेत, जािू-टोिा, रोग दिवारक, शत्रु िर्ि, र्ेल-दर्लाप, दववाह, आशीवााि सूचक र्िंत्र दिये गये हैं। अथवावेि र्ें 20 काण्ड 731 सूक्त तथा 5987 र्िंत्रों का सिंग्रह है। इसर्ें लगभग 200 र्िंत्र ऋग्वेि के हैं। अथवावेि की िो शाखाएिं है- शोिक तथा दपप्पलाि। शल्य दिया का उल्लेख अथवाविे र्ें दर्लता हैं। ब्राह्मण वेिों के बाि ब्राम्हर् ग्रिंथों की रचिा की गई। ब्राम्हर् ग्रिंथ गद्य र्ें रचे गए हैं। ये सिंस्कृत गद्य सादहत्य प्राचीितर् रूप हैं। ब्राम्हर् ग्रिंथों र्ें यज्ञ से सम्बप्न्धत बातों का वर्ाि हैं। यह वेिों के व्याख्या ग्रिंथ के रूप र्ें भी है। शतपथ ब्राम्हर् र्ें पुरूरवा - उवाशी आख्याि तथा अप्वविों द्वारा च्यवि ऋदष को यौवि िाि की कथा है। अथवावेि का एक र्ात्र ब्राम्हर् ग्रिंथ 'गोपथ' ब्राम्हर् है। इसर्ें 'ओर् एविं गायत्री' का र्हत्व बताया गया है। एतरेय ब्राम्हर् र्ें शुिः शेष आख्याि दर्लता है। 13 आरण्यक ब्राम्हर् ग्रिंथों के बाि आरण्यक की रचिा की गई है। इसकी दवषय-वस्तु को सर्झिे के दलए अरण्य (जिंगल) अथाात् एकािंत की आववयकता होती है। इसदलए इन्हें आरण्यक कहा गया। अथवावेि का कोई आरण्यक िहीं हैं। उपदिषि वैदिक साप्त्य का अिंदतर् भाग होिे के कारर् उपदिषिों को वेिािंत भी कहा जाता है। गुरू के सर्ीप बैठकर इसके गूढ़ रहस्य को सर्झा जा सकता है, इसदलए इिका िार् उपदिषि पडा उपदिषिों की सिंख्या 108 बताई जाती हैं। उपदिषिों र्ें आध्याप्त्र्क एविं िाशादिक बातों का चर्ोत्कषा है। वृहिारण्यक उपदिषि सबसे प्राचीि उपदिषि है। इसी र्ें राजा जिक के िरबार र्ें याज्ञवाल्क्य एविं गागी के बीच शास्त्राथा का वर्ाि है। छान्िोग्य उपदिषि र्ें िेवकी पुत्र कृष्र् का सवाप्रथर् उल्लेख दर्लता है। र्ुण्डकोपदिषि र्ें 'सत्यर्ेव जयते' उल्लेख दर्लता है। कठोपदिषि र्ें 'यर् - िदचकेत सिंवाि' दर्लता है। वेि पुरोदहत काया ऋग्वेि होतृ िेव स्तुदत करिा यजुवेि अध्वुया यज्ञ करािा सार्वेि उिघाता ऋचाओं का गायि करिे वाला अथवावेि ब्रम्् दिरीिर्कताा (यज्ञों का) वैदिक साहत्य चार्ट वेि ब्राह्मण आरण्यक उपदिषि ऋग्वेि एतरेय, कौदषदतकी एतरेय, कौदषदतकी एतरेय, कौदषदतकी यजुवेि कृष्ण तैतरीय तैतरीय तैतरीय, कंठ ववेताववर शुक्ल शतपथ शतपत वृह्िरण्यक इष सामवेि पिंचदवश, षडदवश छान्िोगय, छान्िोग्य, केि अथवववेि गोपथ कोई िहीं र्ुिंडक, र्ािंडूक्य प्रश्न वेिाांग - वेिों को जाििे व सर्झिे के दलए वेिािंगों की रचिा की गई। इसकी सिंख्या 6 है- 1. दशक्षा - वैदिक शब्िों के शुद्ध उच्चारर् हेतु। 2. कल्प – दवधािों का वर्ाि हैं इिकी सिंख्या तीि है- क – श्रौतसूत्र - यज्ञ सम्बन्धी दियर्। ख – गृह सूत्र – लौदकक एविं पारलौदकक जीवि के दवदध-दवधाि। ग – धमव सूत्र - राजा प्रजा के अदधकार एविं कताव्य। 14 1. व्याकरण - भाषा को वैज्ञादिक रूप िेिे के दलए इसकी रचिा की गई। पादर्िी द्वारी रदचत अष्टाध्यायी प्राचीितर् ग्रिंथ है। 2. दिरूक्त - वैदिक शब्िों की उत्पदत्त एविं अथा जाििे के दलए इसकी रचिा की गई। 3. छंि - वैदिक र्िंत्रों के लिर् एविं दवशेषतायें प्राचीितर् उपलब्ध ग्रिंथ हैं। दपिंगल का छंिशास्त्र। 4. ज्योदतष - ब्रम्हाण्य एविं िित्रों की जािकारी लगध र्ुदि का वेिािंग ज्योदतष का प्राचीितर् उपलब्ध ग्रिंथ है। उपवेि- इिकी सांख्या चार है- 1. धिुवेि - युद्ध सम्बप्न्धत जािकारी, यजुवेि से सम्बन्ध। 2. दशल्पवेि - दशल्प व्यवसाय की जािकारी, अथवावेि से सम्बन्ध। 3. गन्धवववेि - सिंगीत आदि की जािकारी, सार्वेि से सम्बन्ध। 4. आयुवेि – दचदकत्सा सम्बन्धी जािकारी, ऋग्वेि से सम्बन्ध। ऋग्वैदिक काल ( 1500ई.पू. 1000ई. पू.) आयों का मूल दिवास स्थाि- पिं. गिंगािाथ झा ब्रम्हदषा दतलक उत्तरी ध्रुव र्ैक्सर्ूलर र्ध्य एदशया रोड्स बैप्क्िया ियाििंि सरस्वती दतब्बत गाडडि चाइल्ड, पीक िदिर्ी रूस गाइल्स हिंगरी या डेन्यूब घाटी एल.डी.कल्ल कवर्ीर तथा दहर्ालय प्रिेश भौगोदलक दवस्तार ऋग्वेि काल की सवाादधक र्हत्वपूर्ा ििी दसिंधु का वर्ाि कई बार आया है। इसके अदतररक्त गिंगा का ऋग्वेि र्ें एक बार तथा यर्ुिा का 3 बार दजक दर्लता है। ऋग्वैदिक काल की िूसरी सवाादधक पदवत्र ििी सरस्वती थी । ऋग्वेि र्ें सरस्वती को ििीतर्ा (िदियों र्ें प्रर्ुख) कहा गया है। ऋग्वेि र्ें 'ििी सूक्त' र्ें व्यास (दवपाशा) को पररगदर्त ििी कहा गया है। उसके स्थाि पर र्रूवृधा ििी का उल्लेख है। ऋग्वेि र्ें आया दिवास स्थल सवात्र 'सप्त सैन्धव' शब्ि का प्रयोग दकया गया है। सरस्वती और िृष्द्वती िदियों के र्ध्य का प्रिेश अत्यिंत पदवत्र र्ािा जाता है। दजसे ब्रम्हवता कहा जाता है। ऋग्वेि र्ें दहर्ालय एविं उसकी चोटी र्ूिंजवन्त का वर्ाि दर्लता है। अपाया ििी िृषद्वती एविं सरस्वती ििी के बीच बहती थी। 15 ऋग्वैदिक काल र्ें बहिे वाली िदियों के िार् दिम्नदलदखत है – ििी प्राचीि िाम सतलज शत्रुदद्र रावी परूष्र्ी चेिाब अप्ष्किी झेलर् दवतस्ता व्यास दवपाशा गोर्ल गोर्ती काबुल कुंभा कुरार् िुर्ु दसन्ध दसन्धु गिंडक सिािीरा ऋग्वेि दहर्ालय पवात के सिंिभा र्ें दहर्विंत शब्ि का प्रयोग दकया गया है। ऋग्वेि र्ें र्ूिंजविंत से सोर् आता है। ऋग्वेि र्ें र्रूस्थल को धन्व कहा गया है। राजिीदतक वयस्था दपतृसत्तात्र्क पररवार आयों के कबीलाई सर्ाज की बुदियािी इकाई थी। ऋग्वेि र्ें आयों के पािंच कबीले के होिे की वजह से उन्हें पिंचजन्य कहा गया है। ये कबीले थे। अिु, िुह्य, पुरू, तुवस ा तथा युद्ध ग्रार्, दवश और जि ये उच्चतर इकाई थे। ग्रार् सम्भवतः कई पररवारों के सर्ूह को कहते थे। ग्रार्र्ी, ग्रार् का प्रधाि होता था। दवश कई गााँवों का सर्ूह था। दजसका प्रधाि दवशपदत था। दवशों का सर्ूह जि होता था। इसका प्रधाि अदधपदत को जिपदत या राजा कहा जाता था। िेश या राज्य के दलए राष्ि शब्ि आया है। ऋग्वैदिक काल र्ें राजा का पि आिुविंदशक हो चुका था दफर भी प्रधाि या राजा के हाथ र्ें असीदर्त अदधकार िहीं थे। सभा, सदर्दत, दविथ तथा गर् जैसे अिेक कबीलाई पररषिों का उल्लेख है। ये सिंगठि (पररषिें) दवचारात्र्क सैदिक एविं धादर्ाक काया िेखते थे। राजा भूदर् का स्वार्ी िहीं था, वस्तुतः युद्ध का स्वार्ी था। स्परा - गुप्तचर तथा सूत रथ हािंकिे वालों का प्रदतदिदधत्व करता था। कबीले के सिस्य राजा को बदल िार्क स्वैप्च्छक कर ( उपहार स्वरूप) िेते थे। सामादजक व्यवस्था सिंयुक्त पररवार की प्रथा थी। पररवार का प्रधाि कुलप या गृहपदत कहलाता था। आया सर्ाज दपतृसत्तात्र्क था। 16 ऋग्वेि के िशवें र्िंडल र्ें वदर्ात पुरुष सूक्त र्ें दवराट द्वारा चार वर्ों की उत्पदत्त का वर्ाि दर्लता है। दजसर्ें कहा गया है दक ब्राम्हर् परम्-पुरूष के र्ुख से, िदत्रय उसकी भुजाओं से, वैवय उसकी जािंघों से एविं शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ है। प्रारम्भ र्ें सर्ाज तीि वर्ों र्ें दवभक्त था - ब्रम्हू, ित्र तथा दवश शूद्र शब्ि का उल्लेख सवाप्रथर् ऋग्वेि के िशवें र्िंडल के पुरूष सूक्त र्ें दर्लता है। बाल-दववाह प्रचदलत िहीं थे । अन्तजाातीय दववाह भी होते थे। आजीवि अदववादहत रहिे वाली कन्याओं को अर्ाजू कहा जाता था। सर्ाज र्ें दियोग प्रथा प्रचदलत थी। पिााप्रथा का कहीं उल्लेख। पुिदवावाह िहीं दर्लता। पुिदवावाह भी होते थे। शतपथ ब्राम्हर् र्ें पत्नी को अद्धाांदगिी कहा गया है। पुत्री का उपियि सिंस्कार होता था। स्त्री को यज्ञ करिे का अदधकार प्राप्त था। ऋग्वेि के िौवें र्िंडल र्ें एक ब्राम्हर् का कथि है दक, र्ैं कारू (र्िंत्र दिर्ााता) हूिं, र्ेरे दपता भेषज (वैद्य) है तथा र्ेरी र्ाता उपलप्रदिर्ी (पत्थर की चक्की चलाती है)। आदथवक जीवि जीवि का र्ूलभूत आधार कृदष एविं पशुपालि था। कृदष योग्य भूदर् को उवारा अथवा िेत्र कहा जाता था। ऋग्वेि र्ें 'गण्य' एविं 'गण्यपदत' शब्ि चारागाह के रूप र्ें प्रयुक्त होता था। आदथाक प्स्थदत का र्ूलाधार पशुधि 'गाय' र्ुद्रा की भािंदत सर्झ जाती थी। अदधकािंश लडाईयााँ गायों के दलए लडी जाती थी। बढ़ई, रथकार, बुिकर, चर्ाकार, कुम्हार आदि दशप्ल्पयों का उल्लेख दर्लता है। दवदिर्य के र्ाध्यर् के रूप र्ें दिष्क का उल्लेख दर्लता है। घोडा आया सर्ाज का अदत उपयोगी पशु था। अन्य जािवर हाथी, ऊँट, बैल, बकरी, कुत्ते आदि का उल्लेख दर्लता है। ऋग्वेि र्ें एक ही अिाज 'यव' का उल्लेख दर्लता है। ऋग्वेि र्ें कृदष सम्बन्धी प्रदिया का उल्लेख 'चतुथार्िंडल' र्ें दर्लता है। 'सीता' शब्ि हल से बिी िादलयों के दलए प्रयुक्त होता था। पजान्य बािल के दलये, 'लािंगल' हल के दलये प्रयुक्त होता था। 'उवारा ' जुते हुए खेत को कहा जाता था। 'पदर्' िार्क सर्ुिाय व्यापार काया र्ें दिपुर् थे। आया पदर् से घृर्ा करते थे। ऋग्वेि र्ें धातुओं के दलए 'दहरण्य' (सोिा) एविं अयस् (तािंबा / कािंसा) का उल्लेख दर्लता है। ऋग्वैदिक धादमवक जीवि लोग सावाभौदर्क सत्ता र्ें दवववास रखते थे, वह एकेववरवािी थी। अिेक िेवताओं के अप्स्तत्व को र्ािते थे। सावाभौदर्क सत्ता र्ें दवववास रखिे के साथ बहुलवािी भी थे। िेवकुल र्ें िेदवयों की िगण्यता थी। सभी िेवता प्राकृदत शप्क्तयों के प्रतीक थे। प्रकृदत के प्रदतदिदध के रूप र्ें आयो के िेवताओं की तीि श्रेदर्यााँ थी। 17 क. आकाश के िेवता - सूया, धौस, वरुर्, दर्त्र, पूषि, दवष्र्ु, सादवत्री, आदित्य, उषा, अप्ववि आदि। ख. अांतररक्ष के िेवता - इन्द्र, रूद्र, र्ारूत, वायु, पजान्य आदि। ग. पृथ्वी के िेवता - अदि, सोर्, पृथ्वी, वृहस्पदत, सरस्वती आदि। सबसे महत्वपूणव िेवता- इन्द्र को पुरन्िर भी कहा गया है। उन्हें वषाा का िेवता भी र्ािा गया है। पुरन्िर को शत्रुओं के पुरों (दकलों) को िष्ट करिे वाला कहा जाता है। इन्द्र की स्तुदत र्ें 250 सूक्त हैं। िूसरे र्हत्वपूर्ा िेवता- अदि है । अदि की स्तुदत र्ें 200 सूक्त दर्लते हैं। र्ारूत - आाँधी-तूफाि के िेवता हैं। ऋग्वेि र्ें एक र्िंत्र र्ें रूद्र 'दशव' को त्र्यम्बक कहा गया है। िेवताओं की उपासिा की र्ुख्य रीदत स्तुदतपाठ करिा व यज्ञ बदल अदपात करिा था। स्तुदत पाठ पर अदधक जोर था। ऋग्वैदिक के पशुओं के िेवता पूषि थे जो उत्तर वैदिक काल र्ें शूद्रों के िेवता हो गये। सार्वेि का सिंकलि ऋग्वेि पर आधाररत है। सार्वेि की 3 र्ुख्य शाखाएिं है- 1. कौर्ुथीय 2. रार्ायिीय 3. जैदर्िीय उपदिषिों का र्ुख्य दवषय िशाि है । उपदिषिों र्ें र्ोि की चचाा दर्लती है। उपदिषि काल र्ें राजा अववपदत केकय के शासक था। आप्स्किी ििी की पहचाि चेिाब ििी से की जाती है। वैदिक ििी कुंभा अफगादिस्ताि र्ें बहती है। वैदिक सादहत्य का िर् - वैदिक सिंदहताएिं, ब्राम्हर्, आरण्यक, उपदिषि यर्- िदचकेता आख्याि का उल्लेख कठोपदिषि र्ें दर्लता है। जो कृष्र् यजुवेि का उपदिषि है। िुर्ु (कुरार्) ििी भी अफगादिस्ताि र्ें बहती थी। िसराज्ञयुद्ध परूष्र्ी (रावी) ििी के तट पर लडा गया था। यह युद्ध भरत जि के सुिास एविं 10 राजाओं के बीच लडा गया था। सुिास के पुरोदहत वदशष्ठ थे जबदक 10 राजाओं को दवववादर्त्र िे सिंगदठत दकया था। इस युद्ध र्ें राजा सुिास दवजयी हुए। 18 उत्तर वैदिक काल (1000 ई.पू.-600 ई.पू.) भारतीय इततहास में उस काल को तिसमें सामवेद, यिुवेद एवं अथवववेद तथा ब्राम्हण ग्रंथों, आरण्यकों एवं उपतिषदों की रचिा हुई, को उत्तर वैतदक काल कहा िाता है। इस युग की सभ्यता का केन्द्र पंिाब से बढ़कर कुरूक्षेत्र (तदल्ली और गंगा-यमुिा दोआब का उत्तरी भाग) में आ गया था। उत्तर वैतदक काल के अंततम समय 600 ई.पू. के आस-पास आयव लोग कोशल तवदेह एवं अंग राज्य से पररतचत थे। उत्तर वैतदक काल अध्ययि के तलए तचतत्रत धूसर मृदभाण्ड, लोहे के उपकरण महत्वपूणव साक्ष्य है। अभी तक उत्खिि में लौह उपकरणों की सवावतधक संख्या अतरंिीखेडा से प्राप्त हुई हैं। अध्ययि के सातहत्त्यक स्त्त्रोत- सामवेद, यिुवेद, अथवववेद, ब्राम्हण, आरण्यक एवं उपतिषद। राजनीदिक दवस्िार उत्तर वैतदक काल में कबीलाई व्यवस्त्था टूटिे लगी और कबीले आपस में तमलकर क्षेत्र पर आधाररत अपेक्षाकृत बड़े राज्यों का तिमावण होिे लगा। अब 'िि' के स्त्थाि पर 'ििपद' का तिमावण होिे लगा। राज्य का स्त्वरूप 'राितंत्रात्मक' था। यद्यतप गणतंत्र राज्यों का भी उल्लेख तमलता है। भरत एवं पुरू कबीले िे आपस में तमलकर 'कुरू' राज्य का तिमावण तकया। तितव एवं तुववश िे तमलकर 'पांचाल' राज्य का तिमावण तकया। रािा का पद वंशािुगत होता था। रािा का तिवावचि भी तकया िाता था। उत्तर वैतदक काल में तियतमत कर प्रणाली का तवकास हुआ। रािा की सहायता के तलए सभा एवं सतमतत िामक पररषदें होती थी। राज्यातभषेक के बाद रािा का प्रथम कतवव्य रतियों, पदातधकाररयों के प्रतत सम्माि प्रकट करिा होता था। इस काल में भाग अथवा बतल िामक कर तलया िाता था िो उपि का 1 / 16 भाग होता था। रािा के पदातधकारी को रिी कहा िाता था। शतपथ ब्राम्हण में 12 रतियों का उल्लेख हैं। 1. सेनानी – सैतिक कायव में सहायता करिे वाला। - 2. पुरोदिि – धातमवक कायव सम्पन्न करता था। 3. युवराज – रािा का उत्तरातधकारी था। 4. मदिषी 5. सूि – रािा की मुख्य रािी। रथ हांकिे वालों का प्रतततितध। 6. ग्रामणी – गांव का मुतखया तथा रािा का प्रतततितध। 7. क्षप्िा – प्रततहारी । 8. संग्रिीिा – कोषाध्यक्ष । 9. भागिुध – क?

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