शल्यतन्त्र परिभाषा एवं परिचय PDF
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This document provides an introduction to Shalya Tantra, a branch of Ayurveda focused on surgery and surgical procedures. It details the history of the subject, its objectives, and influential figures.
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# शल्यतन्त्र परिभाषा एवं परिचय ## Introduction to Shalya Tantra - Learning Objectives. - To know and understand the history of shalya tantra as well as modern surgery. - First teacher of surgery: Acharya Dhanvantari - Scholars of Dhanvantari: - 7 (Susruta, Aopadhenava, Aorabhra, karvirya, Gopu...
# शल्यतन्त्र परिभाषा एवं परिचय ## Introduction to Shalya Tantra - Learning Objectives. - To know and understand the history of shalya tantra as well as modern surgery. - First teacher of surgery: Acharya Dhanvantari - Scholars of Dhanvantari: - 7 (Susruta, Aopadhenava, Aorabhra, karvirya, Gopurarakshita, Vaitarana, Poshkalavata) - Father of surgery: Acharya susruta - Susruta Samhita: Main textbook of Ayurveda surgery. ## विश्व के विद्वानों ने एकमत से स्वीकार किया है कि वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं - तथा उनमें रोग, कीटाणु, औषधियों और मन्त्रों का वर्णन उपलब्ध है, अतएव चरक, सुश्रुत प्रभृति आचार्यों ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपाङ्ग माना है- - इह खल्वायुर्वेदो नामोपाङ्गमथर्ववेदस्यानुत्पाद्यैव प्रजाः श्लोकशत-सहस्रमध्यायसहस्रञ्चकृतवान् स्वयम्भूः । (सु. सू. 1/6) - अर्थात् आयुर्वेद अथर्ववेद का उपाङ्ग है और इसके आठ भाग हैं। पूर्वकाल मे ब्रह्मदेव ने सृष्टिरचना के पूर्व इस आयुर्वेद को एक लक्ष (लाख) श्लोकों और एक हजार अध्यायों के रूप में बनाया था। ## यद्यपि आयुर्वेद मानव सृष्टि के प्रारम्भ से ही प्रादुर्भूत हुआ माना जाता है - किन्तु यूरोपीय इतिहासकारों ने आज से तीन-चार हजार वर्ष के पूर्व में भारत चिकित्सा शास्त्र समुन्नत था, ऐसा स्वीकृत किया है, क्योंकि उनके पास यहाँ के पूर्व के एतिहासिक तत्त्व उपलब्ध नहीं हैं। किन्तु अब अनुसंधान हुए हैं उनसे भारतीय संस्कृति की प्राचीनता मानी हुई परिधि से भी अधिक पुरातन सिद्ध हो रही है। भारत से ही इस चिकित्सा शास्त्र का प्रसार यूनान और यूरोप आदि पाश्चात्य देशों में हुआ, यह भी ऐतिहासिक तथ्य है। - वाग्भट ## आयुर्वेद के आठ अंग - तद्यथा- शल्यं, शालाक्यं, कायचिकित्सा, भूतबिद्या, कौमारभृत्यम्, अगदतन्त्रं, रसायनतन्त्र वाजीकरणतन्त्रमिति । (सु.सू. 1/7) - शल्य तन्त्र, शालाक्य तन्त्र, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, रसायनतन्त्र, वाजीकरण तन्त्र ये आयुर्वेद के आठ अंग हैं। ## आयुर्वेदावतरण - ब्रह्मा प्रोवाच ततः प्रजापतिरधिजगे, तस्मादश्विनौ, अश्विभ्यामिन्द्रः, इन्द्रादहं, मया त्विह प्रदेयमर्थिभ्यः प्रजाहितहेतोः । (सु. सू. 1/28) - इस आयुर्वेद को सर्वप्रथम ब्रह्मा ने कहा। ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति ने प्राप्त किया, दक्ष प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने प्राप्त किया, अश्विनी कुमारों से इन्द्र ने प्राप्त किया तथा इन्द्र से धन्वन्तरि ने प्राप्त किया। धन्वन्तरि से सुश्रुतादि आचार्यों ने ग्रहण किया। ## वेदों में आयुर्वेद - वेदों में वर्णित चिकित्सकों में शल्य चिकित्सा में सर्वाधिक प्रवीण अश्विनी कुमारों का वर्णन प्राप्त होता है। इनके द्वारा देवताओं पर की गई चमत्कारिक चिकित्सा का वर्णन वेदों में मिलता है। - **प्रत्यारोपण**: इन दोनों जुड़वा भाइयों ने अपने शिक्षक दधीचि के कटे हुए सिर के स्थान पर घोड़े का सिर जोड़ दिया और पुनः उसे हटा कर उनका सिर वापस अपने शरीर में लगा दिया, जिससे यह पता चलता है कि इन दो प्रत्यारोपण कर्मो के बीच की अवधि में उनके कटे सिर को सुरक्षित रखने की प्रक्रिया उन्होंने विकसित कर ली थी। इसी प्रकार शरीर के दूसरे अंगों जैसे- आँख, दाँत, आदि का भी सफलतापूर्वक प्रत्यारोपण करने का वर्णन मिलता है। - **कृत्रिम प्रत्यारोपण**: कृत्रिम प्रत्यारोपण से सम्बन्धित एक कहानी प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार राजा स्वेल की पुत्री विशाला की टाँग टूट गई थी, जिसके स्थान पर लोहे की टाँग लगाई और उसे पुनः स्वस्थ किया। - **सद्योव्रण चिकित्सा** सभी प्रकार के व्रणों की चिकित्सा मे वे निपुण थे। उन्होंने श्याव, ऋषि श्रोण, यज्ञ इत्यादि के भिन्न-भिन्न व्रणों की चिकित्सा कर उन्हें ठीक किया। इन-सद्योवण की चिकित्सा के साथ-साथ उन्होंने अत्रि के दग्ध वणों को भी चिकित्सा की। - **नेत्र चिकित्सा**: कक्षीवान एवं ऋजाश्व के अन्धेपन और भग के विदीर्ण नेत्रों को ठीक किया था। - **दन्त चिकित्सा**: पूषण के टूटे हुए दाँतों को ठीक किया था। ## कुछ दिन पूर्व तक इन लिखित उदाहरणों पर वैज्ञानिक विश्वास नहीं करते थे - क्योंकि तब तक सफलतापूर्वक अंगो का प्रत्यारोपण नहीं हो पाया था। अश्विनी कुमारों से प्राप्त इस ज्ञान को धन्वन्तरि ने अल्प बुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए संक्षिप्त कर, अपने शिष्यों को दिया जिनमें निम्न 7 शिष्य प्रमुख हैं- - औपधेनव औरभ्र - वैतरण - करवीर्य - गोपुरक्षित - सुश्रुत - पौष्कलावत ## इन शिष्यों ने अपनी रूचि के अनुसार ज्ञान प्राप्त कर उस-उस विषय पर अपनी-अपनी संहिता लिखी। - आचार्य सुश्रुत की रूचि शल्य तन्त्र में विशेष रूप से होने के कारण उन्होंने शल्य तन्त्र की प्रधानता को दर्शाते हुए सुश्रुत संहिता लिखी। ## Chapter 1 शल्य विज्ञान - **द्वितीय द्वापर में काशी के राजा धन्व ने पुत्रकामना के लिए ब्रह्मदेव की तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने पुत्रप्राप्ति का वरदान दिया। इस तरह काशिराज धन्व के यहाँ पुत्र हुआ जिसका नाम धन्वन्तरि रखा गया। धन्वन्तरि के पुत्र केतुमान, केतुमान के भीमरथ तथा भीमरथ के दिवोदास हुए।** - **अहं हि धन्वन्तरिरादिदेव जरारूजामृत्युहरोऽमराणाम्। शल्याङ्गमङ्गैरपरैरूपेतं प्राप्तोऽस्मि गां भूय इहोपदेष्टुम् । (सु. सू. 1/29)** - सुश्रुत संहिता में धन्वन्तरि का परिचय इस प्रकार है कि मैं (धन्वन्तरि) देवताओं की वृद्धावस्था, रोग तथा मृत्यु को नप्ट करने वाला आदिदेव धन्वन्तरि आयुर्वेद के अन्य अंगों के साथ शल्य तन्त्र का उपदेश करने के लिए फिर से इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ हूँ। - **धन्वन्तरि का काल- विद्वानों द्वारा धन्वन्तरि का काल ईसा से 1500 वर्ष पूर्व का माना गया है।** - **औपधेनवमौरभ्रं सौश्रुतं पौष्कलावतम्। शेषाणां शल्यतन्त्राणां मूलान्येतानि निर्दिशेत्। (सु. सू. 4/9)** - अर्थात् औपधेनव, औरभ्र, सुश्रुत और पौष्कलावत ये चार तन्त्र शेष (अन्य) शल्यतन्त्रों के मूल माने जाते हैं। ## धन्वन्तरि परिचय - **1. धनुः= शल्यं, तस्यान्तं = पारमियतिं गच्छतीति धन्वन्तरिः ।** - शल्य शास्त्र का आद्यन्त सम्यग्ज्ञाता धन्वन्तरि कहलाता है। - **2. धनुः = धर्म, अन्त = नकारात्मक** - इसलिए धन्वन्त = अधर्म (धर्म के विपरीत), अधर्म = व्याधि, अरि = शत्रु, (व्याधि का शत्रु) धन्वन्तरि ## धन्वन्तरि के विभिन्न मत - **धन्वन्त अरि अधर्म का शत्रु** - **वेदों में धन्वन्तरि का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में दिवोदास नामक राजा का उल्लेख मिलता है। इस वैदिक दिवोदास का काशिराज होना तथा धन्वन्तरि के साथ कोई सम्बन्ध था, ऐसा प्रमाणित नहीं होता।** - **महाभारत, विष्णुपुराण, भागवत, वायुपुराण आदि ग्रन्थों में लिखित इतिवृत से विदित होता है कि पूर्वकाल में अमृत प्राप्ति के लिए देवता और असुरों के द्वारा समुद्र मन्थन करने पर भगवान् धन्वन्तरि का आविर्भाव हुआ।** ## Fig. 1: Acharya susruta performing eye surgery ## विश्वामित्रसुतः श्रीमान् सुश्रुतः परिपृच्छति। सु. उ. 66 - विश्वामित्रसुतः शिष्यमृषिं सुश्रुतमन्वशात्। सु. चि. 2 ## पाठ शुद्धि - **द्वितीय प्रतिसंस्कर्ता नागार्जुन** - पाँचवी सदी - **चन्द्रट** - दसवीं सदी ## सुश्रुत संहिता के टीकाकार - **1. जेज्जटाचार्य**: ये अष्टांग हृदय के रचयिता आचार्य वाग्भट के शिप्य थे। इनकी व्याख्या प्राचीनतम मानी जाती है, जो कि वर्तमान में अनुपलब्ध है। - **2. गयदास**: इनके द्वारा लिखी टीका पत्रिका या न्याय चन्द्रिका नाम से जानी जाती है। यह वर्तमान में केवल निदान स्थान पर ही उपलब्ध होती है। इनका काल 7 वीं - 8वीं सदी माना जाता है। - **3. चक्रपाणिदत्त**: इन्होंने चरक संहिता पर भी टीका लिखी है, तदुपरान्त सुश्रुत संहिता पर भानुमति टीका लिखी है। वर्तमान में यह केवल सूत्रस्थान पर ही उपलब्ध होती है। चरक एवं सुश्रुत दोनों पर टीका करने के कारण इन्हें चरक चतुरानन एवं सुश्रुत सहस्रनयन की उपाधि दी गई है। इनका काल 11 वीं सदी माना जाता है। - **4. डल्हण**: इन्होंने निबंध संग्रह नामक सुश्रुत संहिता की टीका की है। यह आजकल व्यावहारिक दृष्टि से मुख्य मानी जाती है और सम्पूर्ण उपलब्ध भी है। डल्हण ने अपनी टीका में अपना पूरा परिचय दिया है, जिसके अनुसार वे मधुरा के नजदीक भादानक प्रदेश के निवासी थे। इनके पिता का नाम भरतपाल था, जो उस प्रदेश के राजा सहपाल के मित्र थे। ये 10 वीं सदी में हुए थे। ## उपरोक्त चार मुख्य टीकाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य टीकाकार भी है, परन्तु इनकी टीकाएँ सम्प्रति (now a days) अनुपलब्ध हैं- - 5. विप्रण्यचार्य 6. श्री माधव 7. ब्रह्मदेव 8. भास्करभट्ट 9. माधवकार 10. कार्तिक कुण्ड 11. सुधीर 12. सुबीर 13. सुकीर 14. नन्दि 15. वराह 16. वंगदत्त 17. गदाधर ## 18. हारणचन्द्र: ये आचार्य गंगाधर के शिष्य थे। - इन्होंने वर्ष 1917 में सुश्रुत संहिता की टीका लिखने का महान कार्य किया। यह टीका सुश्रुतार्थ संदीपन के नाम से प्रसिद्ध है। ## हिन्दी टीकाकार - **1. भास्कर गोविन्द घाणेकर** - आयुर्वेद रहस्य दीपिका - 20वीं सदी - **2. अंबिका दत्त शास्त्रो** - आयुर्वेद तत्व सन्दीपिका - 20 वीं सदी - **3. अनन्तराम शर्मा** - सुश्रुत विमर्शिनी - 21 वीं सदी - **4. कविरत्न शर्मा** - निबंध संग्रह व्याख्या हिन्दी अनुवाद - 21 वीं सदी - **5. रमानाथ द्विवेदी** - सौश्रुती - 20 वीं सदी ## अंग्रेजी टीकाकार - **1. यू. सी. दत्त** - 19 वीं सदी - **2. जे.डो. सिंगल** - 20 वीं सदी - **3. प्रियव्रत शर्मा** - 21 वीं सदी - **4. कृष्णमूर्ति** - 21 वीं सदी ## सुश्रुत संहिता रचना - आद्य सुश्रुत संहिता 5 स्थानों में विभाजित की गई है - तत्पश्चात् प्रतिसंस्कर्ताओं ने उत्तर तंत्र समाविष्ट कर छः स्थानों में वर्णन किया है। - 1. सूत्र - 46 अध्याय - 2. निदान - 16 अध्याय - 3. शारीर - 10 अध्याय - 4. चिकित्सा - 40 अध्याय - 5. कल्प - 08 अध्याय - 6. उत्तर - 66 अध्याय ## सुश्रुत संहिता में अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन - **शल्य तंत्र** - उत्तर तंत्र में वर्णन - **शालाक्य तंत्र** - उत्तर तंत्र में वर्णन - **कौमार भृत्य** - उत्तर तंत्र में वर्णन - **कायचिकित्सा** - उत्तर तंत्र में वर्णन - **भूतविद्या** - उत्तर तंत्र में वर्णन - **वाजीकरण** - चिकित्सा स्थान में वर्णन - **रसायन** - चिकित्सा स्थान में वर्णन - **विष तंत्र** - कल्प स्थान में वर्णन ## सुश्रुत संहिता वैशिष्ट्य - सुश्रुत संहिता शल्य विषयक चिकित्सा का प्रमुख ग्रंथ है। ## आचार्य वाग्भट के अनुसार - - यदि चरकमधीते तद् ध्रुवं सुश्रुतादि प्रणिगदितगदानां नाममात्रेऽपि बाह्यः। अथ चरकविहीनः प्रक्रियायामखिन्नः, किमिव खलु करोतु व्याधितानां वराकः। - अधांत् यदि किसी ने चरक का ही अध्ययन किया हो तो उसे सुश्रुत में आये हुए रोगों का नाममात्र भी ज्ञान नहीं हो सकता तथा यदि सुश्रुत का ही अध्ययन किया जाए तो रोगों के प्रतिकार की प्रक्रिया का ज्ञान असम्भव है। इसलिए चरक तथा सुश्रुत दोनों का ही अध्ययन आवश्यक है। - **चरक संहिता केवल काय चिकित्सा के लिए प्रसिद्ध है - चरकस्तु चिकित्सते, स्वयं चरकाचार्य ने शल्य शालाक्य में धन्वन्तरि सम्प्रदाय का महत्व स्वीकृत किया है-** - अत्र धान्वन्तरीयाणामधिकारः क्रियाविधौ । च. चि. 5 - पराधिकारे न तु विस्तरोक्तिः ।। च. चि. 26 ## शल्य चिकित्सा के विद्यार्थी - **शल्य चिकित्सक को सैद्धान्तिक विषय के साथ-साथ प्रयोगिक विषय का भी ज्ञान होना चाहिए।** - **सस्तूभयज्ञो मतिमान् समर्थोऽर्थसाधने । आहवे कर्म निवर्वोढुं द्विचक्रः स्यन्दनो यथा। (सु. सू. 3/53)** - अर्थात् शल्य तंत्र के विद्यार्थी को उभयज्ञ (Practical + Theoritical Knowledge) विद्वान वनना चाहिए, वही विद्यार्थी चिकित्सा कर्म सफलता पूर्वक कर सकता है। - **यस्तु केवल शास्त्रज्ञः कर्मस्वपरिनिष्ठितः । स मुह्यत्यातुरं प्राप्य भीरूरिवाहवम्। (सु. सू. 3/48)** - अर्थात् जो चिकित्सक केवल शास्त्र को ही जानता है और शल्य कर्म में अशिक्षित है वह रोगी को देखकर इस प्रकार घबराता है जिस प्रकार डरपोक व्यक्ति संग्राम स्थल को देखकर भाग खड़ा होता है। ## इसके अतिरिक्त आचार्य सुश्रुत ने विषय के गूढ़ अर्थ को समझने का निर्देश दिया है : - यथा खरश्चन्दन भारवाही भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य । एवं हि शास्त्राणि बहुन्यधीत्य चार्थेषु मूढाः खरवद्वहन्ति ।। (सु. सू. 4/4) - जिस प्रकार चन्दन की लकड़ी को वहन करने वाला गधा केवल उसके भार का ही ज्ञान रखता है किन्तु चंदन (सुगन्ध और शीतादि आह्लादजनक गुणों) को नहीं जान सकता उसी प्रकार अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर लेने वाले किन्तु उन शास्त्रों के तात्विक अर्थों में मूढ़ (without gaining real insight) छात्र केवल उन गधों के समान ग्रन्थ भार वाहक हैं। ## प्रशिक्षण विधि: इस हेतु आचार्य सुश्रुत ने योग्या (Practical training) एवं विशिखानुप्रवेश (Medical profession) का वर्णन किया है। - **शस्त्र कर्माभ्यास: शस्त्रकर्म को तीन अवस्थाओं में वर्णित किया है-** - त्रिविधं कर्म- पूर्वकर्म, प्रधानकर्म, पश्चात्कर्मेति । (सु. सु. 5/3) - **पूर्वकर्म (Pre operative)**: इस हेतु शस्त्रकर्म की तैयारी का विवेचन किया गया है, जैसे आवश्यक सामग्री यन्त्र, शस्त्र, एवं भेषज को एकत्र करना, शुभ दिन, समय एवं प्रकाश का विचार तथा रोगी को भोजन एवं उपवास का विचार इत्यादि । - **प्रधान कर्म (Operative)**: भिन्न भिन्न व्याधियों में शल्य कर्मों का विस्तृत वर्णन किया गया है। अष्टविध शस्त्रकर्मों का वर्णन किया गया है। - **पश्चात् कर्म**: इस काल में रोगी के भोजन, निद्रा, व्रण बंधन आदि विधियों का विवेचन किया गया है। - **अनुसंधान कर्म**: इस हेतु आचार्य सुश्रुत ने अन्य विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन करने का निर्देश किया है। ## एकं शास्त्रमधीयानो न विद्याच्छास्त्रनिश्चयम् । तस्माद्बहुश्रुतः शास्त्रं विजानीयाच्चिकित्सकः । (सु. सू. 4/7) - अनुसंधान को दृष्टि में रखते हुए आचार्य सुश्रुत ने कहा है कि एक ही शास्त्र को पढ़कर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिए अपितु उसे विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए ताकि नये तथ्यों को स्पष्ट कर सके। ## वाक्सौष्ठवेऽर्थविज्ञाने प्रागल्भ्ये कर्म नैपुणे । तदभ्यासे च सिद्धौ च यतेताध्ययनान्तगः । (सु. सू. 3/56) - अर्थात् अध्ययन के अन्त (पार) जाने के इच्छुक छात्र (अनुसंधान कर्ता) को सदा वाणी के सौष्ठव (हित मधुर भाषण, Proper history taking) में, अर्थ विज्ञान (Deep knowledge) में, क्रिया नैपुण्य प्राप्ति में, शास्त्र के अभ्यास और वांछितार्थ की सिद्धि में सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए। ## आचार्य सुश्रुत ने सर्वप्रथम शरीर रचना का महत्व समझाते हुए शवच्छेद (Dissection) का वर्णन किया है। - **रक्त को अत्यधिक महत्व दिया तथा इसे चतुर्थ दोष की उपाधि दी है।** ## Fig. 2: Acharya susruta doing human dead body dissection - **आतुरालय मे यंत्र (101) व शस्त्र (20) तथा क्षार व अग्नि से सम्वन्धित उपकरणों का विशद वर्णन प्राप्त होता है। रक्तावसेचन हेतु श्रृंग. जलौका, अलाबु का वर्णन मिलता है।** - **व्रणों की चिकित्सा हेतु पष्टि उपक्रम (60) का वर्णन किया है, जिनमें वैकृतापहम में वर्णित पाण्डु कर्म, कृष्ण कर्म, लोमापहरण, रोमसंजनन, अवसादन एवं उत्सादन आज तक अपनी विशिष्टता बनाये हुए हैं जो कि सौन्दर्य प्रसादन (Cosmetic surgery) के आधार हैं।** - **कौमारभृत्य से सम्बन्धित कुमारागार एवं सूतिकागार का भी निर्देश किया गया है।** - **अश्मरी, अर्श, भगन्दर, मूत्रवृद्धि, दकोदर, बद्धगुदोदर, परिस्राव्युदर एवं दूसरे रोगों के शस्त्रकर्म का वर्णन किया गया है।** - **आत्ययिक चिकित्सा से सम्बन्धित उदक- पूर्णोदर (Drowning) बाहुरज्जुलतापाश (Hanging & strangulation) एवं दग्ध के अन्तर्गत इन्द्रवज्राग्निदग्ध तथा धूमोपहत का वर्णन किया गया है।** - **नासा एवं कर्ण संधान विधियाँ तो सर्वप्रथम सुश्रुत की ही देन है, जिस आधार पर आज की Plastic surgery विकसित हुई है।** - **अस्थि भग्न एवं संधि मोक्ष (Fracture & Dislocation) का विस्तृत वर्णन किया है।** - **युक्तसेनीय अध्याय में सेना के जवानों की चिकित्सा व्यवस्था एवं शल्य निर्हरण उपायों का वर्णन संभवतः संसार मे सर्वप्रथम सुश्रुत ने ही किया है, जो कि उनकी मौलिक देन है।** ## शल्यज्ञ होते हुए भी कायचिकित्सा के महत्व को समझते - हुए व्याधियों का वर्गीकरण, विस्तार से वर्णन एवं चिकित्सा का उल्लेख किया गया है। - **रोग संक्रमण तथा औपसर्गिक व्याधियों का उल्लेख प्राप्त होता है-** - मक्षिका व्रणमागत्य निक्षिपन्ति यदाकृमीन् । (सु. चि. 1/119) - प्रसंगाद् गात्रसंस्पर्शान्निःश्वासात्सहभोजनात् । सहशय्यासनाच्चापि वस्त्रमाल्यानुलेपनात् । कुष्ठं ज्वरश्च शोषश्च नेत्राभिष्यन्द एव च । औपसर्गिक रोगांश्च संक्रामन्ति नरान्नरम् । (सु. नि. 5/32-33) - **अगद तंत्र में अलंक विष तथा हरताल, वत्सनाभ एवं फेनाश्म इत्यादि का वर्णन एवं विष चिकित्सा का वर्णन प्राप्त होता है।** ## शल्य एवं शल्य तन्त्र - **शल्य निरूक्ति- 'शल' 'श्वल' आशुगमने धातुः । तस्य शल्यमिति रूपम्। सु. सू. 26/3** - अर्थात् शल् तथा श्वल् ये दो धातु आशुगमन अर्थ में हैं उनसे शल्य शब्द की निरूक्ति हुई है। - **शल्यं शलत्याशु गच्छति वेगेनान्तः शरीरमनुप्रविशतीति शल्यम् । शल् हिंसायां धातुस्तस्य शल्यमिति रूपम्। शले रूजायां धातुस्तस्य शल्यमिति रूपम् ।** - अर्थात् जो शीघ्रता से शरीर में प्रवेश करे तथा शरीर के प्रति हिंसा (tissue damage) करे अथवा शरीर में रूजा उत्पन्न करे उसे शल्य कहते हैं। ## शल्य परिभाषा (आचार्य डल्हण के अनुसार) - **अतिप्रवृद्धं मलदोषजं वा शरीरिणां स्थावरजङ्गमानाम् । यत्किञ्चिदावाधकरं शरीरे तत्सर्वमेव प्रवदन्ति शल्यम् ।** - अधर्थात् अत्यधिक बढ़े हुए दोष (शारीरिक एवं मानसिक) अथवा मल पदार्थ जिससे शरीर को कष्ट होता हो, तथा किसी भी स्थावर अथवा जांगम पदार्थ (foreign body) द्वारा शरीर में रूजा (pain) उत्पन्न हो उसे शल्य कहा जाता है। ## शल्य तन्त्र परिभाषा - **सर्वशरीराबाधकरं शल्यं, तदिहोपदिश्यत इत्यतः गल्यशास्त्रम् । (सु. सृ. 26/4)** - अर्थात् समस्त शरीर में जो वाधा या पोड़ा उत्पन्न करता हो, उसे शल्य कहते हैं, उसी का वर्णन एवं चिकित्सा जिसमें वर्णित हो उसे शल्य तन्त्र कहते हैं। - **तत्र शल्यं नाम विविधतृणकाष्ठपाषाणपांशुलोहलोष्टा-स्थि बालनखपूयास्रावदुष्टव्रणान्तगर्भ शल्योद्धरणार्थ, यन्त्रशस्त्रक्षाराग्निप्रणिधानव्रणविनिश्चयार्थञ्च । (सु. सू. 1/9)** - अर्थात् आयुर्वेद के जिस अंग में अनेक प्रकार के तृण, काष्ठ (लकड़ी), पत्थर, धूलि के कण, लौह. मिट्टो, अस्थि, केश, नाखून, पूय (Pus). स्राव (Discharge) आदि शल्य, दूषित व्रण, अन्तः शल्य तथा मृतगर्भ शल्य को निकालने का ज्ञान, यन्त्र, शस्त्र. क्षार और अग्निकर्म करने का ज्ञान, तथा व्रणों की आम, पच्यमान, और पक्वावस्था आदि का निश्चय किया जाता हो, उसे शल्य तन्त्र कहते हैं। ## Note : - आघात (Trauma) के कारण शरीर में प्रवेशित तृण, काष्ठ, पत्थर, लौह आदि को शल्य कहा जाता है, क्योंकि ये शरीर में पीड़ा उत्पन्न करते हैं। धूल के कण आँख में गिर जाने से कष्टकारक होते हैं। आघात के कारण स्वयं को अस्थि (bone) भी टूटकर नजदीकी Visceral organ में प्रवेश कर जाने पर अति कष्टकारक होती है। इसी प्रकार शरीर में उपस्थित पूय (pus) भी तीव्र वेदना उत्पन्न करती है और किसी कारणवश जलोदर (Ascites), नूत्रवृद्धि (Hydrocele) अथवा Pleural effusion में एकत्रित स्राव भी चिरकारी कष्ट देता है। दुष्ट व्रण (Infected wound) में उपस्थित Microorganism (bacteria, fungus etc) से भी शल्य का ग्रहण किया जाना चाहिए। इन सभी के निर्हरण की विधियों का वर्णन शल्य तन्त्र में किया गया है। ## शल्य चिकितसक के गुण - शौर्यमाशुक्रिया शस्त्रतक्ष्ण्यमस्वेदवेपथु । असम्मोहश्च वैद्यस्य शस्त्रकर्मणि शस्यते । (सु.सू. 5/10) - अर्थात् शूरता (निर्भयता braveness), शस्त्र कर्मादि में शीघ्रता, शस्त्र की धार का उचित तीक्ष्ण होना, शस्त्र कर्म करते समय पसीना (cold sweating due to neurogenic shock) न आना तथा हाथ का न काँपना (Trembling) तथा बड़े शस्त्र कर्म की दशा में अत्यधिक रक्तादि को देखकर मूर्च्छित (fainting due to neurogenic shock) न होना, ये शल्य चिकित्सक के गुण हैं। ## आधुनिक मतानुसार Surgeon में निम्न गुण होने चाहिए- - Lady's finger - gentle handling - Lion's heart - boldness - Eagle's eye - Watchfullness - Horse's leg - Stamina - Camels belly - Ability to carry on without food and water ## अष्टांग आयुर्वेद में शल्य तन्त्र की प्रधानता - अप्टास्वपि चायुर्वेदतन्त्रप्वेतदेवाधिकमभिमतम्, आशुक्रिया-करणात्, यन्त्रशस्त्रक्षाराग्निप्रणिधानात्, सर्वतन्त्रसामान्याच्च । (सु. सू. 1/26) - तदिदं शाश्वतं पुण्यं स्वर्यं यशस्यमायुष्यं वृत्तिकरञ्चेति । (सु. सू. 1/27) ## सद्योव्रण चिकित्सा संग्राम (war) में व्रणोत्पति होने पर शल्य चिकित्सक ही उन वाह्य एवं अन्तः व्रणों का रोहण करने में समर्थ होते हैं। जैसे भग्न एवं स्रवण भग्न, रक्तस्राव, कोप्ठ स्थित व्रण- जैसे छिद्रोदर, वस्तिगत व्रण इत्यादि । ## आशुकारी चिकित्सा - व्याधियों की शल्य चिकित्सा द्वारा शीघ्र चिकित्सा की जाती है, जबकि दूसरी पद्धति की चिकित्सा से समय अधिक लगता है। ## २ विविध तकनीक चिकित्सा : - रोगों को दूर करने की विविध प्रकार की चिकित्सा जैसे- यन्त्र, शस्त्र, क्षार, अग्नि, रक्तावसेचन का वर्णन है इससे चिकित्सक को रोगी एवं रोग की अवस्थानुसार चिकित्सा विधि के चुनाव करने में आसानी होती है। ## औषधि के विफल होने पर सफल चिकित्सा : - औषधि के विफल (Faiure of conservative management) होने पर शल्य कर्म की आवश्यकता पड़ सकती है। आचार्य चरक ने भी बहुत से स्थानों पर शल्य चिकित्सक की सहायता लेने का निर्देश किया है। ## रोगों का समूल निवारण : - आचार्य सुश्रुत ने अग्निकर्म चिकित्सा का वर्णन करते हुए स्पष्ट लिखा है कि इस क्रिया द्वारा चिकित्सा करने पर रोगो का पुनरूद्भवन (recurrence) नहीं होता । ## तद्दग्धानां रोगाणामपुनर्भावाद् (सु. सू. 12/3) ## गम्भीर रोगों की चिकित्सा : - बहुत से ऐसे रोग हैं जो विभिन्न प्रकार की औषधियों के निरन्तर प्रयोग करने पर भी ठीक नहीं होते हैं और गम्भीर अवस्था में पहुँच जाते हैं। इनमें से अधिकतर रोग शल्य चिकित्सा द्वारा तुरन्त ठीक हो जाते हैं। जैसे- मूत्र जठर (Retention of Urine), बद्धगुदोदर (Acute intestinal obstruction) आदि। ## रचनात्मक चिकित्सा - शल्य तन्त्र की विशेष प्रक्रियाओं द्वारा कई कठिन परिस्थितियों में रोगों की सफल चिकित्सा की जाती है, जैसे- नासा, कर्ण, ओष्ठ संधान, अंग प्रत्यारोपण आदि। ## यशप्प्रद चिकित्सा : - अत्यधिक कष्टप्रद रोगों से बहुत दिनों तक ग्रस्त रहने पर जब रोगी इस चिकित्सा द्वारा तुरन्त लाभ प्राप्त करता है तो वह सदैव के लिए शल्य चिकित्सक के प्रति आदर एवं सम्मान की दृष्टि रखता है और इस प्रकार शल्य चिकित्सक को यश की प्राप्ति होती है तथा धन का भी लाभ होता है। ## भारतीय शल्य तन्त