भारतीय संगीत का सामान्य परिचय PDF
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यह दस्तावेज़ भारतीय संगीत का सामान्य परिचय देता है। इसमें संगीत के विभिन्न पहलुओं, जैसे गायन, वादन और नृत्य पर जानकारी दी गई है। यह भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है।
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1 भारतीय संगीत का सामान्य परिचय कलाओ ं को मल ू भतू रूप से दो भागों में वर्गीकृ त किया गया है— ललित कलाएँ एवं अन्य उपयोगी कलाएँ। ललित कलाओ ं के पाँच प्रकार माने गए हैं— संगीत, काव्य, चित्रकला, मर् ू तिकला...
1 भारतीय संगीत का सामान्य परिचय कलाओ ं को मल ू भतू रूप से दो भागों में वर्गीकृ त किया गया है— ललित कलाएँ एवं अन्य उपयोगी कलाएँ। ललित कलाओ ं के पाँच प्रकार माने गए हैं— संगीत, काव्य, चित्रकला, मर् ू तिकला एवं स्थापत्य कला। सभी ललित कलाओ ं में संगीत को श्रेष्ठ माना गया है। यह वह कला है, जिसमें स्वर और लय द्वारा हम अपने भावों को प्रकट करते हैं। “गीत्ंा, वाद्य तथा नृत् य्ंा त्रय्ंा स्ंागीतमुच्यते।” स्ंागीत रत्नाकर, श्लोक 21, स्वरगताध्याय: भावार्थ — गायन, वादन तथा नृत्य इन तीनों कलाओ ं के समावेश को संगीत कहते हैं। संगीत शब्द सनु ते ही हमें गीत, वाद्य यंत्रों पर बजती धनु तथा नृत्य में थिरकते पैर आदि बातों का आभास होता है। इसीलिए संगीत में गीत, वाद्य व नृत्य तीनों समन्वित हैं। संगीत का मल ू आधार ‘स्वर’ और ‘लय’ है। स्वर और लय के साथ भाषा/कविता/पद का समन्वय, संगीत को अनूठा आकर्षण प्रदान करते हैं। संगीत की अभिव्यक्ति विभिन्न प्रकार की गायन और वादन शैलियों द्वारा की जाती है। संगीत हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। यह अभिव्यक्ति का एक ऐसा माध्यम है जो व्यक्ति को एक-दसू रे के साथ जोड़ता है। के वल मनुष्य एवं जीव-जंतु ही नहीं वरन् पेड़-पौधों पर भी संगीत का प्रभाव पड़ता है। संगीत एक ऐसी औषधि है जो चित्र 1.1— दिव्यांग बच्चों द्वारा समहू मनोवैज्ञानिक रूप से चित्त को एकाग्र कर उसे संतुलित गीत की अनोखी प्रस्तितु बनाने की क्षमता रखता है। क्या आप उपरोक्त दिए गए कथन से सहमत हैं यदि हाँ तो संगीत के किसी भी प्रकार को गाइए या बजाइए और अपने अनभु वों को लिखिए। 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 3 7/14/2022 9:38:49 AM 4 हिदं सु ्तानी संगीत— गायन एवं वादन, कक्षा 11 मार्गी व दे शी संगीत हम सब गान या गीत शब्द से परिचित हैं। यह शब्द संगीत के साथ दो ु हुआ है। कुछ शब्दों को सरु एवं लय से सश हज़ार वर्षों से जड़ा ु ोभित कर इनकी रचना होती है। गायन, वादन व नृत्य में निपणु रचनाकारों द्वारा अपने कौशल से लोकरंजन के उद्देश्य से बनायी गई, नियमबद्ध इस तरह की रचनाओ ं को ‘गान’ के नाम से जाना जाता है। प्राचीन काल से ‘गान’ के दो रूप ‘मार्गी’ व ‘देशी’ माने गये हैं। मार्गी संगीत चित्र 1.2— भारत रत्न पं. भ्ाीमसेन जोशी द्वारा शास्त्रीय वह संगीत जिसमें शास्त्रों में वर्णित नियमों का कठोरता या दृढ़ता से गायन प्रस्ति तु पालन किया जाना अनिवार्य हो, उसे ‘मार्गी संगीत’ कहा गया। इसी का प्रयोग ब्रह्मा से भरत आदि गुणीजनों को प्राप्त हुआ। यह धार्मिक समारोह में निश्चित विधि विधान से गाया व बजाया जाता था। वैदिक या साम-संगीत का समावेश इसी धारा में पाया गया है। यह निश्चित व नियमबद्ध था। संगीत के ऋषि-मनि ु इस तरह के संगीत को मोक्ष प्राप्ति का साधन मानते थे। संगीत रत्नाकर में कहा गया है कि— मार्गोदे शीति तद् द्वे धा तत्र मार्ग स उच्यते। यो मार्गि तो विरिञ्चाघै प्रयुक्तो भरतादिभि:।। संगीत रत्नाकर, श्लोक 22, स्वरगताध्याय: इसका अर्थ है मार्गी संगीत वह है जिसका प्रयोग ब्रह्मा के बाद भरत ने किया। यह अत्यंत प्राचीन और कठोर नियमों द्वारा गाया व बजाया जाता था। इसी कारण यह प्रचलन में नहीं रह पाया। दे शी संगीत दे शे दे शे जनानंा यद् रुच्याह्रदयरञ्जकम् गीत्ंा वादन्ंा च नृत्त्ंा तद्देशीत्यभिधीयते।। स्ंागीत रत्नाकर, श्लोक 23 स्वरगताध्याय: 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 4 7/14/2022 9:38:54 AM भारतीय संगीत का सामान्य परिचय 5 अर्थात् विभिन्न स्थान की जनरुचि के अनरू ु प दय का रञ्जन करने वाले गायन, वादन व नृत्य को ‘देशी संगीत’ कहा जाता है। विद्वानों का मानना है कि देशी संगीत की इस परिभाषा को ध्यान में रखना चाहिए। जब हम शास्त्रोक्त पद्धति पर आधारित सामगान से प्रवाहित शास्त्रीय संगीत की परंपरा को देखते हैं तो पाते हैं कि वह अनेक रागों, राग प्रकारों, गायन, वादन व नृत्य की विधाओ ं आदि से प्रेरित है। ग्रामराग, राग, रागांग, भाषांग, क्रियांग आदि एवं विभिन्न राग जैसे भैरव, जौनपरु ी, तोड़ी आदि इसी परंपरा के भाग हैं। अनेक प्रकार के वाद्यों का निर्माण उनकी शास्त्रोक्त नियमों पर आधारित वादन तकनीक व वादन शैली में देखी जा सकती है। नृत्यों के अतं र्गत कत्थ्ाक, कुचिपड़ी ु , भरतनाट्यम् आदि में शास्त्रों के अनसु ार वर्णित हस्तमद्ु राओ,ं भाव भगि ं माओ ं तथा पद संचालन की विधियों का भी प्रयोग देखने को मिलता है। तालों का विभाजन एवं लयकारी के विभिन्न रूप भी दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हीं सब सांगीतिक विशेषताओ ं से यह अनभु व होता है कि संगीत का प्रचार जनरुचि से संबंध रखता है। मार्गी सगं ीत का विकास सर्वत्र नहीं मिलता लेकिन देशी सगं ीत प्रचलन में है। मार्गी व देशी सगं ीत दोनों ही शास्त्रों में वर्णित नियमों पर आधारित थे। कुछ अन्य प्रमाणों के अतं र्गत परंपरागत रूप से चली आ रही अनेकानेक गेय विधाएँ, जैस— े प्रबधं , ध्परु द, धमार तथा ध्परु द की बानियाँ, ठुमरी गायन की प्रादेशिक विविधताएँ, टप्पा, चतरु ं ग, त्रिवट, स्वरमालिका, लक्षणगीत, अनेकानेक बदि ं शें और सागं ीतिक रचनाएँ, राग एवं रागों के प्रकार, गायन, वादन व नृत्य की शास्त्रनमु ोदित विधाएँ व शैलियाँ, विभिन्न सागं ीतिक प्रयोग आदि सब जनरुचि से निर्मित देशी सगं ीत में ही समन्वित हैं। शास्त्रोक्त नियमों की सीमा में रहते हुए भी बदि ं शों व रचनाओ ं में विभिन्न प्रदेशों की भाषाओ,ं जैस— े ब्रज, अवधी, राजस्थानी, भोजपरु ी आदि का प्रयोग हुआ। गायन व वादन शैलियों को अपने कलात्मक कौशल से विकसित करना भी देशी सगं ीत को परिभाषित करता है। सगं ीत शास्त्रों में वर्णित नियमों के आधार पर संगीत का क्रियात्मक स्वरूप बनता है। समय के साथ-साथ क्रियात्मक स्वरूप में कलाकारों की नवीन प्रतिभाओ ं व कला कौशल के कारण कुछ नए राग, नई बंदिशें तथा नई विधाएँ जन्म लेती हैं। इनका पनु : विश्लेषण करते हुए संगीत के विद्वान कुछ नवीन सिद्धांतों व नियमों को ग्रंथों में अकं ित कर देते हैं। इस प्रकार समय के साथ-साथ शास्त्र व क्रिया का आदान-प्रदान चलता रहता है और देशी सगं ीत एक स्वस्थ कला के रूप में विकसित होता रहता है। चित्र 1.3— स्कू ल के बच्चों द्वारा समहू गीत प्रस्ति तु 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 5 7/14/2022 9:38:56 AM 6 हिदं सु ्तानी संगीत— गायन एवं वादन, कक्षा 11 देशी संगीत के अतिरिक्त लोक संगीत भी जनरुचि पर आधारित होने के कारण यह देशी संगीत के अतं र्गत रखा जा सकता है। परंतु अतं र यह है कि लोक संगीत पर्णू त: जनरुचि के आधार पर आधारित है। विशिष्ट देश, काल व परिस्थिति के अनक ु ू ल रीति-रिवाज, रहन-सहन, वेशभषू ा, तीज-त्यौहार व दैनिक मनोरंजन के लिए कीर्तन, सक ं ीर्तन, होरी, विवाह, जनेऊ, वर्षा गीत या झल ू े के गीतों आदि के रूप में कुछ भी गाना तथा अपनी स्वेच्छा से किन्हीं उपकरणों को या किन्हीं संगीत वाद्यों को बजाना और अपनी रुचि के अनरू ु प उन गीतों व वाद्यों के साथ नृत्य करना लोक सगं ीत के विस्तार क्षेत्र को दर्शाता है। निष्कर्ष स्वरूप विद्वानों का मानना है कि शास्त्रोक्त नियमों का दृढ़ता से पालन करते हुए निर्मित किया गया संगीत हर यगु में मार्गी संगीत की श्रेणी में आता है। वहीं जनरुचि को महत्व देते हुए शास्त्रोक्त नियमों के शिथिल प्रयोग से यक्त ु सगं ीत देशी सगं ीत में समन्वित रहता है। पर्णू त: मौखिक परंपरा पर आधारित, स्वतंत्र व स्वच्छंद सांगीतिक प्रयोगों में यक्त ु , विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्वों व उत्सवों पर मनोरंजन के उद्देश्य से पल्लवित संगीत लोक संगीत के रूप में जाना जाता है जो देशी सगं ीत के अतंर्गत है। 1. संगीत रत्नाकर में दिए गए संगीत की परिभाषा बताइए। 2. वर्तमान काल में गाया जाने वाला शास्त्रीय सगं ीत देशी सगं ीत के अतर्गं त है या मार्गी संगीत के ? क्यों? 3. लोक सगं ीत के क्षेत्र के बारे में आप जो भी जानते हैं, बताइए। 4. सरू दास के किसी पद को लीजिए। उसको लोक सगं ीत की तरह गाइए एवं शास्त्रीय सगं ीत के किसी भी राग में गाइए। अपने अनभु वों को लिखिए। शास्त्रीय संगीत शास्त्रों में वर्णित नियमों के आधार पर निर्मित सगं ीत को ‘शास्त्रीय सगं ीत’ कहा जाता है। चित्रकला, शिल्पकला, वास्तुकला आदि कलाओ ं का विकास पत्थर, पत्तों तथा कागज़ों पर बनाए गए चित्रों के रूप में विकसित हुआ है। संगीत ध्वनि प्रधान होता है जिसमें शब्द की अपेक्षा ध्वनि के प्रयोग के रूप में स्वरों के उतार-चढ़ाव को अधिक महत्व दिया जाता है। चित्र 1.4— स्कू ल के बच्चों द्वारा समहू गीत प्रस्ति तु इसके साथ ही इसमें गति को आकर्षित और संतलि ु त कर प्रयोग में लाया जाता है। आदि काल से लेकर समय-समय पर किए गए विभिन्न सांगीतिक प्रयोगों का मथं न करके जब उन्हें निश्चित रूप दिया जाता है, तब वह शास्त्रबद्ध हो जाते हैं। शास्त्रों या ग्रंथों में सक ं लित नियमों के आश्रय से परंपराओ ं के अनसु ार प्रवाहित होने 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 6 7/14/2022 9:38:57 AM भारतीय संगीत का सामान्य परिचय 7 वाली संगीत प्रणाली को ही ‘शास्त्रीय संगीत’ के नाम से जाना जाता है। व्यक्ति और समय निरंतर परिवर्तनशील होते हैं और इसीलिए उनकी रुचि व सामाजिक परिवेश तथा परिस्थितियों के अनक ु ू ल संगीत के स्वरूप में भी अतं र आता‑जाता है। इसी आधार पर समय-समय पर शास्त्रोक्त नियमों में परिवर्तन होते जाते हैं। इसीलिए परंपराओ ं का अनपु ालन करते हुए शास्त्रीय सगं ीत मर्यादित रूप में विकसित होता है और उसमें नित नतू न आकर्षण भी बना रहता है। शास्त्रीय संगीत के व्यावहारिक अगं में गायन, वादन तथा नृत्य के अनेक प्रकार और विविध शैलियाँ समायोजित हैं। इन्हें नियमबद्ध करने की परंपरा अथवा उनका सैद्धांतिक विश्लेषण करने की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है। इसी के अतं र्गत ॠग्वेद मत्रों ं में से कुछ मत्रों ं को गेय बनाकर सामवेद के रूप में सक ं लित किया गया। वैदिक कालीन परु ाणों और ग्रंथों में ही सगं ीत शास्त्र के सिद्धांतों व नियमों के अतं र्गत सप्तस्वर, तीन ग्राम और उनकी मर्च्छ ू नाओ ं का विकास हुआ। इसी के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के वाद्य भी विकसित हुए। मध्य काल से लेकर आधनि ु क काल तक शास्त्रीय संगीत में अनेक परिवर्तन आए। गेय विधाओ ं के अतं र्गत ध्परु द, धमार, दादरा, ख्याल, तराना आदि शैलियाँ प्रचलित हुर्।इं वाद्य यंत्रों की संरचना एवं बजाने के लिए बहुविधा तकनीक अपनाई गई। उत्तर भारत में प्रचलित शास्त्रीय सगं ीत को ‘हिदं सु ्तानी सगं ीत पद्धति’ के रूप में भी जाना जाता है। इसके अतं र्गत, ध्परु द, धमार, ख्याल, तराना इत्यादि गाए-बजाए जाते हैं जिनका विस्तृत वर्णन अग्रिम पृष्ठों में समन्वित है। दक्षिण भारत में प्रचलित शास्त्रीय संगीत को ‘कर्नाटक संगीत पद्धति’ कहा जाता है। इसके अतं र्गत रागम-् तानम-् पल्लवी, वर्णम,् जावलि तथा तिल्लाना आदि विधाएँ समन्वित हैं। यद्यपि श्रुति ही दोनों का आधार है, लेकिन दोनों पद्धतियों में स्वरों की श्रुतियाँ, विधाएँ एवं भाषा भिन्न हैं। उपशास्त्रीय संगीत जिन गेय विधाओ ं में संगीत के नियमों के कठोर पालन की अपेक्षा रस भाव और रंजकता की प्रधानता रहती है, वे ‘उपशास्त्रीय संगीत’ की श्रेणी में आते हैं। ऐसी गेय विधाओ ं में शब्दों के भावों को स्वरों के विविध अलंकृत प्रयोगों द्वारा व्यक्त किया जाता है। कण, मींड, मर्की ु , बोल- बनाव आदि अलंकरण से शब्दों को सौंदर्यपर्णू रूप में अभिव्यक्त करना उपशास्त्रीय संगीत का विशेष उद्देश्य होता है। ठुमरी, टप्पा, दादरा, उपशास्त्रीय संगीत की महत्वपर्णू गेय विधाएँ हैं। उपशास्त्रीय संगीत में एक राग से दसू रे राग में जाने की भी स्वतंत्रता होती है। रंजकता और भावाभिव्यक्ति का मल ू उद्देश्य होने के कारण छोटे-छोटे स्वर समहू ों का समावेश और भावों की सक्ू ष्मता और सक ु ु मारता इस संगीत की विशेषता है। उपशास्त्रीय संगीत के अतं र्गत हिदं सु ्तानी संगीत में ठुमरी, दादरा, टप्पा, चैती आदि गायन शैलियों का समावेश है, जिनका विवरण निम्न प्रकार है— 1. ठुमरी — ठुमरी एक ऐसी गेय विधा है जिसमें लोक और शास्त्रीय, दोनों प्रकार के सगं ीत के तत्व विद्यमान हैं। ठुमरी को ृंगार रस प्रधान शैली माना गया है। इस गेय विधा में स्वर 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 7 7/14/2022 9:38:57 AM 8 हिदं सु ्तानी संगीत— गायन एवं वादन, कक्षा 11 व शब्द एक-दसू रे के परू क हैं। इसीलिए एक ही शब्द को बोल-बनाव के रूप में विभिन्न स्वर नई-नई छवियाँ प्रदान करते हैं। अवध के नवाब वाजि़द अली शाह को ठुमरी का विशेष प्रचारक माना जाता है। तब से लेकर आज तक ठुमरी के विविध स्वरूप विकसित होते रहे हैं। ठुमरी में कठिन रागों की अपेक्षा सरल व संकीर्ण प्रकृ ति के रागों, जैसे— भैरवी, काफ़ी, खमाज, पीलू आदि का प्रयोग होता है। इसमें दीपचदं ी, जत, चाचर, कहरवा आदि तालों का प्रयोग होता है। ठुमरी गायन में तबला वादक भिन्न-भिन्न लग्गियों का प्रयोग करते हैं जिससे चित्र 1.5— गिरिजा देवी – प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय गायिका ठुमरी गायन का सौंदर्य कई गनु ा बढ़ जाता है। वर्तमान समय में ठुमरी के दो प्रमख ु रूप प्रचलित हैं— (i) बोल-बनाव की ठुमरी — चैनदारी और ठहराव बोल-बनाव की ठुमरी की विशेषता होती है। कम शब्दों का प्रयोग करते हुए स्वरात्मक विहार से हाव-भाव दर्शाते हुए गीत में निहित संवेदनाओ ं को अभिव्यक्त करना ही इस ठुमरी की विशेषता मानी जाती है। स्वरों और शब्दों का गँथु ाव तथा रागों का किंचित मिश्रण करना पर्णू त: ठुमरी गायक की सांगीतिक कल्पना एवं सौंदर्य दृष्टि पर निर्भर करता है। (ii) बोल-बाँट की ठुमरी — बोल-बाँट की ठुमरी की रचना ख्याल गायन शैली की भाँति ही प्रतीत होती है। इसमें शब्द अधिक होते हैं और शब्दों के बीच अतं राल कम होता है। कण व मर्की ु आदि का प्रयोग कुछ शिथिल रहता है परंतु बोल-बनाव की ठुमरी की अपेक्षा बोल-बाँट की ठुमरी में लय का काम अधिक दिखाया जाता है। 2. दादरा — दादरा उपशास्त्रीय सगं ीत की बहुत ही सदंु र व चपल-चलन यक्त ु विधा है। इस शैली में शब्दों की प्रधानता अधिक होती है। दादरा गीत, दादरा ताल के अतिरिक्त अन्य तालों में भी गाए-बजाए जाते हैं। इसमें ठुमरी के समान फै लाव यक्त ु बोल-बनाव नहीं होता, परंतु लय के साथ चलते हुए शब्दों व स्वरों को भिन्न-भिन्न रूप से गथँू ते हुए भाव की अभिव्यक्ति की जाती है। इसमें एक से अधिक अतं रा गाने का प्रचलन है। यह विधा चचं ल होती है इस विधा में स्वर व लय आधारित शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है कि दादरा का मल ू रूप स्पष्ट होता रहे या जिस ताल का आश्रय लिया गया है, उसकी चाल स्पष्ट होती रहे। दादरा में प्रयक्त ु गीत का काव्य वसतं , वर्षा आदि ऋृतओ ु ं से या राधा-कृ ष्ण के ृगं ारात्मक वर्णन से सबं धि ं त होता है। दादरा गायन के बीच-बीच में उस विषय से सबं धि ं त दोहे तथा कुछ कवित्त आदि भी गाए जाते हैं, जिनका मल ू रचना से सीधा सबं धं नहीं होता है। इसमें भी तबले पर छोटी-छोटी लग्गियों का प्रभावपर्णू वादन किया जाता है। 3. टप्पा — टप्पा शब्द की उत्पत्ति ‘टप’ से हुई है जिसका अर्थ है, कूदना, लाँघना या छलाँग लगाना। 18वीं शताब्दी में लखनऊ के नवाब आसिफुद्दौला के दरबार के एक पजं ाबी गायक 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 8 7/14/2022 9:38:58 AM भारतीय संगीत का सामान्य परिचय 9 गलु ाम नबी शोरी, जो ‘शोरी मियाँ’ के नाम से प्रसिद्ध थे, ने टप्पा गायकी को प्रचलित किया। पंजाब प्रदेश से संबंधित होने के कारण ही संभवत: टप्पा गायकी की गीत रचनाओ ं में अधिकांशत: पजं ाबी, सिधं ी व मल्ता ु नी भाषा के शब्दों का प्रयोग होता है। इस गायन विधा में शब्द, स्वर व लय तीनों को कहीं विश्राम नहीं मिलता। परू ी गायकी छोटी-छोटी द्रुत गति की तानों पर आधारित होती है। इस गायकी में कण, खटका व मर्की ु का अधिक प्रयोग किया जाता है। काफ़ी, पील,ू खमाज, भैरवी, झिझं ोटी आदि रागों में टप्पा गाया जाता है। इसकी गीत रचना में स्थायी व अतं रा, दो भाग होते हैं। इसके साथ जत, दीपचदं ी, चाचर, अद्धा आदि तालों का प्रयोग किया जाता है। 4. होरी — उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों की लोक भाषाओ ं में अलग-अलग शैलियों की होरी सनु ने को मिलती है। होरी मख्य ु त: दीपचदं ी, कहरवा, जत ताल आदि में गाई जाती है। होरी शब्द से यह ज्ञात हो जाता है कि इस शैली में होरी से सबं ंधित प्रसगं , राधा-कृ ष्ण के होरी खेलने व उनकी छे ड़छाड़ इत्यादि का वर्णन किया गया है। यदि उपशास्त्रीय संगीत के अतं र्गत होरी गाते हैं तो होरी में छोटे-छोटे शब्द को लेकर तरह-तरह के बोल-बनाव बनाए जाते हैं। ऐसा करने से शब्दों के भाव स्पष्ट होते रहते हैं लेकिन जब हम होरी को लोक सगं ीत के संदर्भ में गाते हैं तो इसमें बोल-बनाव नहीं किया जाता है। यह मल ू त: अवधी और ब्रज भाषा में गाई जाती है। 5. चैती — चैती अपनी मधरु ता, सरलता व कोमलता के लिए जानी जाती है। इसे मख्य ु रूप से चैत्र मास में गाए जाने के कारण चैती कहा गया है। ‘हो रामा’ शब्द इस गीत की विशेष टेक है। चैती भी ृंगार रस से परिपर्णू गीत है। होली के बाद चैत्र महीने का आगमन होता है; इसी समय चैती गाने का प्रचलन है। चैती को उपशास्त्रीय गायन विधाओ ं के अतं र्गत रखा गया है। इसमें एक से अधिक अतं रा गाने का प्रचलन है। राम जन्म से सबं ंधित गीत भी इसमें गाए जाते हैं। यह मल ू त: अवधी भाषा में गाई जाती है। 6. कजरी — लोक संगीत की विधाओ ं में कजरी भी गायन का एक प्रकार है। यह ृंगार रस से परिपर्णू गीत का एक प्रकार माना जाता है। कजरी मख्य ु रूप से सावन में गाई जाती है। बनारस व मिर्जापरु क्षेत्र कजरी गायन के लिए जाना जाता है। कजरी के गीतों में छंद के अनेक प्रकार देखने को मिलते हैं। 1. शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत के दो भेद बताइए। 2. सावन के महीने में किस तरह के उपशास्त्रीय संगीत की विधाएँ गाई जाती हैं। उनके बारे में कुछ बताएँ और गाएँ। 3. य-ू ट्यबू या किसी अन्य स्रोत से कुछ ठुमरी सनु ें तथा बताएँ कि बोल‑बनाव और बोल‑बाँट की ठुमरी में क्या अतं र मिला। 4. संगीत की कुछ विधाएँ ऋतओ ु ं का वर्णन करती हैं। किन्हीं दो विधाओ ं में गीत को गाएँ और बताएँ कि ऋतओ ु ं की कौन-सी बात उसमें परिलक्षित है। 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 9 7/14/2022 9:38:58 AM 10 हिदं सु ्तानी संगीत— गायन एवं वादन, कक्षा 11 सुगम संगीत सगु म शब्द का अर्थ है ‘सरल’ या ‘सहज’, इसीलिए सगु म संगीत का अर्थ है— सरलता या सहजता से गाया-बजाया जाने वाला संगीत। इस प्रकार के संगीत में विशिष्ट गेय विधा या शैली के स्वरूप को बनाए रखने के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार के नियमों का बंधन नहीं होता। इस संगीत में यदि राग का आधार लिया गया हो तो भी राग के नियमों में शिथिलता रहती है। भाव प्रदर्शन के लिए यदि आवश्यक हो तो आलाप-तान या स्वरों का प्रयोग गीत के सौंदर्यवर्धन के लिए किया जा सकता है। सगु म संगीत के विशेष तत्वों के रूप में हाव-भाव, गहराई, रंजकता और संदु र शब्द इसे विशेष स्थान प्रदान करते हैं। शास्त्रीय या उपशास्त्रीय संगीत के बंधनों से मक्त ु इस संगीत के अतं र्गत भजन, पद-गायन, काव्य, गीत, गज़ल आदि का समावेश होता है। कहा जा सकता है कि लय व तालबद्ध कविताएँ, ईश्वर का गणु -गान महान चरित्रों वाले व्यक्तियों पर आधारित गीत, ऋृतओ ु ं से संबंधित गीत, गज़ल आदि सगु म संगीत के अतं र्गत आते हैं। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी विचारात्मक अभिव्यक्ति और भाषाओ ं के अनरू ु प सगु म संगीत अपना आकार-प्रकार ग्रहण करता है। यह विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग भाषाओ ं में रचा जाता है। इसके नाम भी भिन्न हैं, जैसे— तमिलनाडु में लिसाई, के रल में ललित सगं ीतम,् बंगाल में आधनि ु क गीत, चित्र 1.6— सगु म संगीत प्रस्ति तु कर्नाटक में लघु संगीत। लोक संगीत लोक संगीत का तात्पर्य है सामान्य जनमानस का संगीत। लोकतंत्र, लोकप्रिय जैसे शब्दों के आईने में इसे देखा जा सकता है। कोई भी व्यक्ति अपने मन के भावों को या दैनिक क्रियाकलापों को स्वर या लय का प्रयोग करते हुए गायन या वादन के माध्यम से अभिव्यक्त करता है तो वह अभिव्यक्ति लोक संगीत में समाहित हो जाती है। भावों की सरलतम एवं मधरु तम अभिव्यक्ति ही लोक संगीत का मल ू उद्श्दे य होता है। जब भी कोई कला उभरती है तो वह सर्वप्रथम लोक ही होती है, बाद में परिष्कृ त होकर वह शास्त्रीय कला के रूप में स्थापित हो जाती है। व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है और विशिष्ट स्थान के लोगों से निर्मित समाज पर उस स्थान के रहन-सहन, वेश-भषू ा और रीति-रिवाजों का प्रभाव होता है। जीवन से जड़ी ु स्थितियाँ, घटनाएँ या जीवन शैलियाँ लोक गीतों के माध्यम से मख ु रित होती हैं तो अनायास ही रस की वर्षा करने लगती हैं और मन को मोह लेती हैं। लोक संगीत में आम जन-जीवन के रीति-रिवाज और उसके सामाजिक परिवेश का प्रतिबिंब दिखाई देता है। इन गीतों की धनु सहज और सरल होती है। 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 10 7/14/2022 9:38:58 AM भारतीय संगीत का सामान्य परिचय 11 इन गीतों की रंजकता बढ़ाने के लिए स्थानीय लोक वाद्यों का प्रयोग किया जाता है। लोक संगीत लोक की चेतना को अभिव्यक्त करता है इसीलिए यह कभी परु ाना नहीं होता। कुछ प्रदेशों के प्रचलित लोक गीतों व नृत्य शैलियों के नाम निम्नलिखित हैं— प्रदेश गायन एवं नत्ृ य शैलियाँ असम बिहू, छाऊ आदि। होरी, बारहमासा, कजरी, चैती, रसिया, लांगरु िया, बिरहा, रासलीला, उत्तर प्रदेश नौटंकी के गीत प्रकार आदि। गजु रात गरबा, रास, डांडिया आदि। पंजाब हीर, टप्पा, गिद्दा, भाँगड़ा आदि। महाराष्ट्र लावणी, मगं लागौर आदि। राजस्थान गोरबंद, मांड, घमू र, झमू र, कालबेलिया आदि। जम्मू कश्मीर भाण्ड, पाथिर, राउफ, जबरो, चकरी आदि। अरुणाचल प्रदेश टाप,ू पोनंग, नीशीदोऊ, लोकूबवांग आदि। के रल तिरूवादिरकली, पाना, तल्ु लल, थेय्यम आदि। आध्रं प्रदेश धिमसा, बरु ्रा कत्था, तोल,ू बोम्मालता, रोत्तेला पंडुगा आदि। पश्चिम बंगाल बाऊल, रबिन्द्र संगीत, भटियाली, गोडीय, छऊ आदि। किसी भी देश या प्रांत में लोक कलाएँ सांस्कृतिक धरोहर मानी जाती हैं। लोक संगीत को गाने-बजाने के लिए एवं इसकी सरं चना हेतु किसी भी तरह के व्याकरण या शास्त्रीय पक्ष के ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है। लोक संगीत किसी विशिष्ट व्यक्ति की रचना नहीं होती है। लोगों की बोलचाल की भाषा, अतं र्मन के उदग् ार या विचारों को सरु एवं ताल में निहित करने को ही लोक गीत कहा जाता है। दक्षिण भारत में लोक सगं ीत को नाट्टु पाट्टु, नाडोडी पाट्टु, जनपद गीतालु के नाम से जाना जाता है। अधिकतर लोक संगीत व्यवसाय, प्राकृ तिक विश्लेषण, व्यक्ति विशेषता, रस्मोरिवाज की व्याख्या करते हैं, जैसे— फ़सल का रोपण और कटाई, प्रकृ ति की पजू ा, आराध्य देवी-देवताओ ं का पजू न, समाज की रीतियाँ, शादी-ब्याह, जन्म-मृत्यु इत्यादि लोक संगीत के विषय होते हैं। यह मनोरंजन का एक अपर्वू साधन है जो ऊर्जा प्रदान करता है। अधिकतर लोक संगीत की रचना गाँव या दरू वर्ती क्षेत्रों में होती है। साधारण लोगों द्वारा रचे जाने के कारण इसके शब्द सरल लेकिन मार्मिक होते हैं। इनकी धनु ें प्रांत विशेष की होती हैं और अधिकतर एक ही सप्तक में गाए-बजाए जाते हैं। इसी कारण विशिष्ट समाज की गाथाओ ं को मानव समाज के समक्ष प्रस्तुत करने में लोक संगीत का अमल्ू य योगदान है। लोक संगीत की रचना स्वत: होती है और इसके रचनाकार संगीत में प्रशिक्षित भी नहीं होते हैं। लोक संगीत के गीतों को ऐसे नाम दिए 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 11 7/14/2022 9:38:59 AM 12 हिदं सु ्तानी संगीत— गायन एवं वादन, कक्षा 11 जाते हैं जिससे विषय-वस्तु का सरलता से अनमु ान लगाया जा सके । दक्षिण भारत में लोक गीतों के नाम हैं— आनन्दकलिप्पु, ओडम, नोन्डिचिदं ,ू वां छिपाट्टु, ऊन्जलपाट्टु इत्यादि जबकि उत्तर भारत में गरबा, रास, भाँगडा, गिदद् ा, झमू र, घमू र, लावणी, जात्रा, गोरबंद आदि लोक गीतों व लोक नृत्यों में समाविष्ट हैं। लोक गीतों में परू े गीत में धनु और लय एक जैसी रहती है और बहुत वैचित्र्य नहीं दिखाया जाता है। कुछ गीतों या धनु ों में रागों के स्वर स्पष्ट सनु ाई देते हैं, लेकिन वे अशोधित होते हैं, जैसे— पन्ना ु गवराली कुरंजी नीलाम्बरी, नाथनामक्रिया, नवरोज, आनन्दभैरवी इत्यादि। दक्षिण भारत में और उत्तर भारत में माँड, काफ़ी, भैरवी आदि रागों की छाप दृष्टिगोचर होती है। अगर हम कुरम गीतों को सनु ें तो राग कुरंजी के स्वर समहू स्पष्ट सनु ाई देते हैं। दक्षिण भारतीय लोक गीतों में चापू ताल, आदि ताल और रूपक ताल पाए जाते हैं। वास्तव में चापू ताल और उसकी विभिन्न लयकारियों के रूप लोक संगीत में पाए जाते हैं। लोक सगं ीत के कलाकार विविध वाद्य बजाने में सक्षम होते हैं। देखा जाता है कि लोक संगीत में तंत्री और सषि ु र वाद्य की तल ु ना में अवनद्ध वाद्यों का अधिक प्रयोग किया जाता है। तंत्री वाद्य, जैसे— एकतारा, रावणहत्था, कमाइचा, सारंगी इत्यादि उत्तर भारत के लोकप्रिय वाद्य हैं जबकि दक्षिण भारत में चित्र 1.7— लोक संगीत की प्रस्ति तु तन्दि ु ना, पल्ु लवन्नकुडम तथा नन्दुनी आदि प्रचलित वाद्य हैं। सषिु र वाद्यों में शख ं , अलगोज़ा, सिंगी या ृंगी, तरु ही, बीन, शहनाई उत्तर भारत में तथा नादस्वरम, कुरुम कुज़ल, नेडुम कुज़ल तिरूचिन्नम, एककलम, मगडु ी दक्षिण भारत के सपु रिचित वाद्य हैं। ढोल, ढोलक, डमरू, चगं , ताशा, नगाड़ा आदि उत्तर भारत में और तप्पट्टै, तम्बट्टम, तमक्कू , तन्तीपानइ, तविल, उडुक्कु , उत्तमी, कुण्डलम, खजं ीरा, गम्मा ु टी इत्यादि दक्षिण भारत के प्रचलित अवनद्ध वाद्य हैं। घन वाद्याें के अतं र्गत घटं ा, घड़ियाल, करताल, झाँझ, मजं ीरा, घघंु रू, चिमटा, मख ु चगं आदि उत्तर भारत में प्रचलित हैं जबकि दक्षिण भारत के घन वाद्यों में समन्वित होने वाले जालरा, कुज़ीतालम, सेमक्कलम, कइचिलम्बु आदि कुछ प्रचलित लोक वाद्य धातु से बनाए जाते हैं। लोक सगं ीत के कई प्रकार पाए जाते हैं— 1. नैतिक गान — समाज में नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं। 2. काम-काज गीत — खेती बाड़ी, मछली पकड़ना, दधू बेचना या ग्वालों का काम करना, ठे ला चलाना, नौका गीत। ये सभी गीत विभिन्न तरह के काम-काज का विवरण देते हैं। 3. वर्षा एवं खेती अाधारित गीत — यह गीत वर्षा एवं खेती के अवसर पर गाए जाते हैं। 4. लोरी — बच्चों को सल ु ाने के गीत। 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 12 7/14/2022 9:38:59 AM भारतीय संगीत का सामान्य परिचय 13 5. महत्वपूर्ण व्यक्तियों से सबं ंधित गीत— यह गीत महत्वपर्णू व्यक्तियों से संबंधित होते हैं। 6. सामूहिक गीत — समहू में एकत्रित व्यक्तियों के द्वारा गाए जाने वाले गीत, जैसे— देश प्रेम, सांस्कृतिक गरिमा, आध्यात्मिक उपदेशों पर आधारित अथवा सत्संग में गाए जाने वाले भक्ति गीत इत्यादि। 7. त्योहारों के गीत — देश में मनाए जाने वाले विभिन्न त्योहारों पर गाए जाने वाले गीत। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ध्वनि व लय के आश्रय से भारत के विभिन्न प्रांतों के ग्रामीण अचं लों में फै ला हुआ। लोक सगं ीत सामहि ू क या एकल गायन-वादन के रूप में विभिन्न क्षेत्रों की आचं लिक आभा से यक्त ु होकर अपनी-अपनी प्रादेशिक चौपालों, खेत-खलिहानों व गली-गलियारों में विद्यमान है। सख ु -समृद्धि, पजू ा-अर्चना, प्राकृ तिक तत्वों, जैसे— वर्षा, धपू , अग्नि, जल आदि के प्रति आभार प्रकट करते हुए उनको पजू ा या यज्ञों के माध्यम से किए जाने वाली विधियाँ आदि भारत की संस्कृति को दिग्दर्शित करती हैं। उन विधियों में अथवा उन अवसरों पर प्रयक्त ु होने वाला सगं ीत ही लोक सगं ीत के विस्तृत क्षेत्र को प्रकाशित करता है। दक्षिण भारत में देव-पजू ा से संबंधित लोक गीत के कुछ प्रकार विशेष रूप से ध्यानाकर्षक हैं— 1. सोपान सगं ीतम — यह संस्कार के रल के मदि ं रों में कार्यान्वित है। मदि ं र के अदं र जहाँ देवी-देवता विराजमान होते हैं, वहाँ तक पहुचँ ने की सीढ़ियों को सोपान कहा जाता है। हिदं ओु ं के इन मदि ं रों में जब पजू ा के रीति-रिवाज के अनसु ार कार्य किए जाते हैं तो मदि ं रों की सीढ़ियों पर ‘मरार’ नामक सप्रं दाय सगं ीत प्रस्तुत करता है। इस गायन शैली के साथ एडैक्का बजाया जाता है। इस पवित्र प्रथा में ‘गीत गोविन्दम’, जो ‘अष्टपदी’ नाम से परिचित है, वह भी प्रस्तुत किया जाता है। सोपान संगीत की गायन शैली, राग, ताल सभी को दसू री शैलियों को प्रस्तुत करने के लिए अपनाया गया है, जैसे — कृ ष्णनाट्टयम, कथकली और अष्टपदीथाट्टम। 2. तेवारम/तिरूवाचकम — तमिलनाडु के शैवीय समदु ाय के लोग इन शैवीय स्तोत्रों को गाते‑बजाते हैं। ओदवु ार नामक समदु ाय में इन स्तोत्रों को अप्पर, तिरूज्ञान समबन्धर, संदु रमर् ू ति द्वारा रचित किया गया और इन्हें शैवीय संस्कार के लिए पेश किया जाता है। इनके राग और ताल प्राचीन तमिल शास्त्रीय संगीत में पाए जाते हैं। भगवान शिव के लिए रचे गए कवि एवं साधु माणिक्यवाचकर द्वारा इसी संस्कार में बीस पंक्तियों की एक और अन्य शैली का प्रदर्शन किया जाता है जिसे तिरूवेम्पावइर् नाम से जाना जाता है। 3. तिरूप्पावई एवं अन्य दिव्य प्रबंध — मडि ु येत्तु, अयप्पन पाट्टु, भगवती पाट्टु, सर्पम पाट्टु, नावोरू इत्यादि दक्षिण भारत की सांगीतिक रचनाएँ, विभिन्न देवी-देवताओ ं की पजू ा‑अर्चना के लिए गाई-बजाई जाती हैं। पल्लु ु वन्कु डम, उडुक्कु , नादस्वरम, तविल इत्यादि वाद्य यंत्रों का प्रयोग भी उपरोक्त दिए गए संस्कार गीतों के साथ संगत के लिए प्रयोग किया जाता है। 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 13 7/14/2022 9:38:59 AM 14 हिदं सु ्तानी संगीत— गायन एवं वादन, कक्षा 11 सारा श संगीत एक ललित कला है। इसमें गायन, वादन और नृत्य समाहित हैं। श्रुति मधरु ध्वनि सगं ीत उपयोगी है। मनष्य ु जाति हज़ारों वर्षों से सगं ीत द्वारा समाज को ससु सं ्कृ त करती आई है। इसी मानसिकता के कारण लोक सगं ीत, मार्गी व देशी सगं ीत, सगु म सगं ीत, शास्त्रीय सगं ीत एवं उपशास्त्रीय के कई प्रकार विकसित हुए हैं। लोक सगं ीत तो सभी जनमानस के मख ु से प्रस्फ़ुटित श्रुति मधरु वाक है जो सरु और ताल द्वारा ससु ज्जित होकर सभी के मन को भाता है। इसके गाने के लिए कोई विशेष नियमावली नहीं है। सिर्फ़ सरु और ताल से सजी मनष्य ु के दय के भावों की अभिव्यक्ति है। इसी को आधार या बनिु याद मानकर सगं ीत में रुचि रखने वाले शोधकर्ताओ ं ने स्वरों को परिष्कृ त कर उनके चलन के विभिन्न मार्ग खोजे। लय को बाँधकर अनेक तरह से अभिव्यक्त किए और सगं ीत की राह बन गई जो अनेक विधाओ ं से ससु ज्जित है। इस अध्याय में उसी सगं ीत का परिचय है। कुछ विशेष शब्द मार्गी संगीत, देशी संगीत, शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत, सगु म संगीत, लोक संगीत अभ्यास इस पाठ को आप पढ़ चुके हैं। आइये, नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करें — 1. सगं ीत रत्नाकर के अनसु ार सगं ीत की परिभाषा बताइए। 2. कर्नाटक संगीत पद्धति में प्रचलित विधाएँ कौन-सी हैं? 3. उपशास्त्रीय संगीत की गायन शैली टप्पा की रचनाओ ं में अधिकांशत: किन भाषाओ ं के शब्दों का प्रयोग होता है? 4. लोक संगीत का मल ू उद्देश्य क्या है? 5. ठुमरी के प्रचलित प्रमख ु दो रूप कौन-से हैं? 6. दक्षिण भारतीय लोक सगं ीत की प्रमख ु तालें कौन-सी हैं? 7. उपशास्त्रीय संगीत की परिभाषा बताते हुए इसकी पाँच विधाओ ं के नाम बताइए। 8. लोक संगीत को परिभाषित करते हुए इसमें प्रयक्त ु होने वाले प्रमख ु तंत्री, सषि ु र एवं अवनद्ध वाद्यों के नाम बताइए। 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 14 7/14/2022 9:39:00 AM भारतीय संगीत का सामान्य परिचय 15 9. उपशास्त्रीय सगं ीत गायन शैली टप्पा को विस्तारपर्वू क समझाइए। 10. ललित कलाएँ कितने प्रकार की होती हैं? इन कलाओ ं में किसे श्रेष्ठतम माना गया है? 11. ठुमरी को परिभाषित करते हुए ठुमरी के प्रमख ु दो रूपों का विस्तृत वर्णन कीजिए। 12. सगु म संगीत से आप क्या समझते हैं? विस्तार से समझाइए। 13. समाज में लोक संगीत का क्या महत्व है? अपने विचार विस्तारपर्वू क समझाइए। 14. हिदं सु ्तानी सगं ीत पद्धति की प्रचलित विधाओ ं का विस्तारपर्वू क वर्णन कीजिए। 15. तिरूवेम्पावई नामक शैली को विस्तार से समझाइए। सही या गलत बताइए— 1. सगं ीत एक ऐसी औषधि है जो मनोवैज्ञानिक रूप से चित्त को एकाग्र कर उसे संतलि ु त बनाने की क्षमता रखती है। (सही/गलत) 2. शोरी मियाँ को ठुमरी का विशेष प्रचारक माना जाता है। (सही/गलत) 3. उपशास्त्रीय सगं ीत में एक राग से दसू रे राग में जाने की स्वतंत्रता नहीं होती है। (सही/गलत) 4. ठुमरी एक ऐसी विधा है जिसमें लोक और शास्त्रीय, दोनों प्रकार के सगं ीत के तत्व विद्यमान हैं। (सही/गलत) 5. ढोलक, उडुक्कू एवं गम्माु टी एक प्रकार के सषि ु र वाद्य हैं। (सही/गलत) 6. ‘हो रामा’ शब्द चैती नामक गीत की विशेष टेक है। (सही/गलत) 7. दादरा गीत, दादरा ताल के अतिरिक्त अन्य किसी ताल में गाए-बजाए नहीं जाते हैं। (सही/गलत) 8. बोल-बाँट की ठुमरी की रचना ख्याल गायन शैली की तरह ही प्रतीत होती है। (सही/गलत) 9. कजरी पजं ाब क्षेत्र की एक प्रचलित गायन शैली है। (सही/गलत) रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए— 1. गायन, वादन तथा नृत्य के समावेश को कहते हैं। 2. संगीत की दोनों पद्धतियों का आधार है। 3. नवाब वाजि़द अली शाह को का प्रचारक माना जाता है। 4. चैती को माह में गाया जाता है। 5. राजस्थान का लोकप्रिय लोक नृत्य है। 6. सोपान संगीतम के अतं र्गत मदिं रों की सीढ़ियों पर नामक संप्रदाय संगीत प्रस्तुत करता है। 7. तमिलनाडु में सगु म संगीत को नाम से जाना जाता है। 2023-24 1_1.Bhartiya Sangeet ka Samanya Parichay.indd 15 7/14/2022 9:39:00 AM 16 हिदं सु ्तानी संगीत— गायन एवं वादन, कक्षा 11 विभाग ‘अ’ के शब्दों का ‘आ’ विभाग में दिए गए शब्दों से मिलान करें — अ अा (क) ललित कला 1. शोरी मियाँ (ख) हिदं सु ्तानी सगं ीत 2. जम्मू-कश्मीर (ग) ठुमरी 3. अवनद्ध वाद्य (घ) पल्लवी 4. मिर्जापरु (ड·) टप्पा 5. सषि ु र वाद्य (च) कजरी 6. अष्टपदी (छ) गोडीय 7. धातु वाद्य (ज) चकरी 8. ध्परु द (झ) कोम्बू 9. कर्नाटक संगीत (ञ) तन्तीपानई 10. पश्चिम बंगाल (ट) कइचिलम्बु 11. मर्ू तिकला (ठ) गीत गोविन्दम 12. नवाब वाजि़द अली शाह विद्यािर्थयों के लिए गतिविधियॉं— परियोजना कार्य 1. अपने परिवेश में होने वाले समारोहों/उत्सवों में बजाए जाने वाले विभिन्न वाद्यों के छायाचित्रों का संकलन कर, अध्याय ‘भारतीय संगीत का सामान्य परिचय’ में वर्णित वाद्य-वर्गीकरण के आधार पर वर्गीकृ त करें । समारोहों व उत्सवों में संगत या स्वतंत्र वाद्य-वादन करने वाले कलाकारों का ं प्त साक्षात्कार करके निम्न बिंदओ सक्षि ु ं पर चर्चा कर विवरण एकत्र कीजिए— ƒƒ कलाकारों की जीविका के अन्य स्रोत ƒƒ कलाकारों की ऐतिहासिक पृष्ठभमि ू व रहन-सहन ƒƒ विश्व के मानचित्र पर इनके पारंपरिक संगीत का चित्रण एवं महत्व 2. वर्तमान समय में प्रचलित सोशल-नेटवर्किं ग साइट्स, जैसे— य-ू ट्यबू , फे ़सबक ु और इसं ्टाग्राम आदि पर पाई जाने वाली विभिन्न शास्त्रीय व लोक शैलियों की प्रस्तुतियों का आकलन कर निम्न बिंदओ ु ं को स्पष्ट कीजिए— ƒƒ शैली का विवरण एवं पृष्ठभमि ू ƒƒ शैली में प्रयक्त ु ताल एवं वाद्यों का विवरण ƒƒ प्रस्तुति में प्रयोग किए गए विभिन्न ध्वनि यंत्रों (sound equipment) का सक्षि ं प्त विवरण