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This document provides an overview of NGOs, self-help groups, and watershed management. It details the origins and growth of self-help groups in India and examines their role in community development, particularly supporting marginalized groups. The text also includes discussions on watershed management practices and integrated watershed development programs.
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**[Unit - lll NGOs and its fields of work]** **[स्वयं सहायता समूह - एसएचजी क्या हैं?]** स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) लोगों के अनौपचारिक संगठन हैं जो अपनी जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के तरीके खोजने के लिए एक साथ आते हैं। वे आम तौर पर स्व-शासित और साथियों द्वारा नियंत्रित होते हैं। समान आर्थिक और स...
**[Unit - lll NGOs and its fields of work]** **[स्वयं सहायता समूह - एसएचजी क्या हैं?]** स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) लोगों के अनौपचारिक संगठन हैं जो अपनी जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के तरीके खोजने के लिए एक साथ आते हैं। वे आम तौर पर स्व-शासित और साथियों द्वारा नियंत्रित होते हैं। समान आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग आमतौर पर किसी गैर सरकारी संगठन या सरकारी एजेंसी की मदद लेते हैं और अपने मुद्दों को सुलझाने तथा अपने जीवन स्तर को बेहतर बनाने का प्रयास करते हैं। **भारत में स्वयं सहायता समूहों का उदय -- उत्पत्ति और विकास** भारत में स्वयं सहायता समूहों की उत्पत्ति 1972 में स्व-रोजगार महिला एसोसिएशन (SEWA) की स्थापना से मानी जा सकती है। इससे पहले भी, स्व-संगठन के लिए छोटे-छोटे प्रयास हुए हैं। उदाहरण के लिए, 1954 में अहमदाबाद के टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन (TLA) ने अपनी महिला शाखा बनाई ताकि मिल मजदूरों के परिवारों की महिलाओं को सिलाई, बुनाई आदि जैसे कौशल सिखाए जा सकें। सेवा का गठन करने वाली इला भट्ट ने बुनकरों, कुम्हारों, फेरीवालों और असंगठित क्षेत्र की अन्य गरीब और स्वरोजगार वाली महिला श्रमिकों को उनकी आय बढ़ाने के उद्देश्य से संगठित किया। नाबार्ड ने 1992 में एसएचजी बैंक लिंकेज परियोजना बनाई, जो आज दुनिया की सबसे बड़ी माइक्रोफाइनेंस परियोजना है। 1993 से नाबार्ड ने भारतीय रिजर्व बैंक के साथ मिलकर स्वयं सहायता समूहों को बैंकों में बचत खाते खोलने की अनुमति दे दी। स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना 1999 में भारत सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में स्वरोजगार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से शुरू की गई थी, जिसका उद्देश्य ऐसे समूहों के गठन और कौशल विकास के माध्यम से स्वरोजगार को बढ़ावा देना था। यह 2011 में राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (NRLM) के रूप में विकसित हुआ। स्वयं सहायता समूह एक वित्तीय मध्यस्थ समिति है, जिसमें आमतौर पर 18 से 40 वर्ष की आयु की 10 से 25 स्थानीय महिलाएं शामिल होती हैं। अधिकांश स्वयं सहायता समूह भारत में हैं, हालांकि वे अन्य देशों में भी पाए जा सकते हैं, विशेष रूप से दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में। **[स्वयं सहायता समूहों के कार्य]** वे रोजगार और आय-सृजन गतिविधियों के क्षेत्र में समाज के गरीब और हाशिए पर पड़े वर्गों की कार्यात्मक क्षमता का निर्माण करने का प्रयास करते हैं। वे ऐसे लोगों को बिना किसी जमानत के ऋण उपलब्ध कराते हैं, जिन्हें आमतौर पर बैंकों से ऋण प्राप्त करने में कठिनाई होती है। वे आपसी विचार-विमर्श और सामूहिक नेतृत्व के माध्यम से संघर्षों का समाधान भी करते हैं। वे गरीबों के लिए माइक्रोफाइनेंस सेवाओं का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। वे औपचारिक बैंकिंग सेवाओं को गरीबों तक, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, पहुंचाने के लिए माध्यम के रूप में कार्य करते हैं। वे गरीबों में बचत की आदत को भी प्रोत्साहित करते हैं। **[गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) की स्वयं सहायता समूहों (Self Help Groups) में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।]** वे इन समूहों को संगठित करने, उन्हें प्रशिक्षण देने, और उनकी क्षमता को बढ़ाने में मदद करते हैं। **1. \*\*समूह गठन में सहायता:\*\*** NGOs अक्सर गांवों और समुदायों में जाकर स्वयं सहायता समूहों का गठन करते हैं। वे महिलाओं को संगठित करते हैं और उन्हें एक साथ लाते हैं ताकि वे अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सकें। **2. \*\*प्रशिक्षण और शिक्षा:\*\*** NGOs समूह के सदस्यों को वित्तीय प्रबंधन, लेखांकन, और अन्य आवश्यक कौशल में प्रशिक्षण देते हैं। वे महिलाओं को स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षित करते हैं और उन्हें विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की जानकारी देते हैं। **3. \*\*वित्तीय सहायता:\*\*** NGOs अक्सर बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों के साथ संपर्क स्थापित करते हैं ताकि समूहों को ऋण प्राप्त करने में सहायता मिल सके। वे समूहों की क्रेडिट हिस्ट्री बनाने में भी मदद करते हैं जिससे भविष्य में ऋण प्राप्त करना आसान हो जाता है। **4. \*\*सामाजिक जागरूकता:\*\*** NGOs महिलाओं को उनके अधिकारों और सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूक करते हैं। वे उन्हें कानूनी और सामाजिक सहायता प्रदान करते हैं, जिससे महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ता है। **5. \*\*मार्केटिंग और विक्रय:\*\*** NGOs समूहों द्वारा निर्मित उत्पादों की मार्केटिंग और बिक्री में भी मदद करते हैं। वे उन्हें बाजारों से जोड़ते हैं और उन्हें उचित मूल्य पर अपने उत्पाद बेचने में सहायता करते हैं। NGOs की इन सभी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य समूहों को आत्मनिर्भर बनाना और उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करना है **[वाटरशेड प्रबंधन:]** यह वाटरशेड के जल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की गुणवत्ता की रक्षा और सुधार के लिये भूमि उपयोग प्रथाओं व जल प्रबंधन प्रणालियों को उचित रूप से लागू करने की प्रक्रिया है। **वाटरशेड प्रबंधन के उद्देश्य:** 1\. प्रदूषण नियंत्रण. 2.संसाधनों के अति-शोषण को कम करना, 3\. जल भंडारण, 4.बाढ़ नियंत्रण, 5.अवसादन की जाँच 6.वन्यजीव संरक्षण, 7\. कटाव नियंत्रण और मिट्टी की रोकथाम, नियमित जल आपूर्ति के लिये भूजल स्तर को बनाए रखना इत्यादि। **वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रमों के घटक:** मिट्टी और जल संरक्षण, वृक्षारोपण, कृषि संबंधी अभ्यास, पशुधन प्रबंधन, नवीकरणीय ऊर्जा, संस्थागत विकास। **एकीकृत वाटरशेड विकास कार्यक्रम (IWMP):** ग्रामीण विकास मंत्रालय का भूमि संसाधन विभाग वर्ष 2009-10 से एकीकृत वाटरशेड विकास कार्यक्रम (IWMP) चला रहा है, जिसका उद्देश्य वर्ष 2027 तक 55 मिलियन हेक्टेयर वर्षा सिंचित भूमि को कवर करना है। IWMP चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा वाटरशेड कार्यक्रम है। इसमें वाटरशेड प्रबंधन पहलों के माध्यम से मिट्टी, वानस्पतिक आवरण और जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन रोकने एवं इनका संरक्षण व विकास करके पारिस्थितिक संतुलन को पुनः बहाल करने की परिकल्पना की गई है। यह कार्यक्रम देश के सभी राज्यों में लागू किया जा रहा है और इसे केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा 90:10 के अनुपात में वित्तपोषित किया जाता है। IWMP के परिणामस्वरूप मृदा अपवाह की रोकथाम, प्राकृतिक वनस्पतियों का पुनर्जनन, वर्षा जल संचयन और भूजल तालिका का पुनर्भरण हो रहा है। यह बहु-फसल और विविध कृषि-आधारित गतिविधियों को सक्षम बनाता है, जिससे वाटरशेड क्षेत्र में रहने वाले लोगों को स्थायी आजीविका प्राप्त करने में मदद मिलती है। वर्ष 2015 में IWMP को ऑन-फार्म जल प्रबंधन (OFWM) योजना और त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (AIBP) के साथ प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) में शामिल किया गया था एनजीओ का जलग्रहण प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जलग्रहण क्षेत्र वह क्षेत्र होता है जहां बारिश का पानी इकट्ठा होकर नदियों, तालाबों और झीलों में पहुंचता है। जलग्रहण प्रबंधन का मुख्य उद्देश्य इस पानी को सहेजना और सही तरीके से उपयोग करना है। **[एनजीओ इस दिशा में विभिन्न गतिविधियाँ करते हैं:]** ***[1. \*\*जनजागरूकता अभियान\*\*:]*** एनजीओ गांवों में जाकर लोगों को जलग्रहण प्रबंधन के महत्व के बारे में जागरूक करते हैं। वे उन्हें समझाते हैं कि कैसे जल संरक्षण से पानी की समस्या का समाधान हो सकता है। **[2. \*\*संसाधनों का विकास\*\*]**: एनजीओ जलाशयों, तालाबों और नहरों का निर्माण और पुनर्स्थापन करते हैं, जिससे बारिश का पानी संरक्षित हो सके। इसके अलावा, वे वृक्षारोपण अभियान चलाते हैं ताकि मिट्टी की उर्वरता बढ़ सके और पानी का संरक्षण हो सके। **[3. \*\*क्षमता निर्माण\*\*]**: एनजीओ स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित करते हैं ताकि वे जलग्रहण प्रबंधन की तकनीकों को समझ सकें और उनका सही ढंग से उपयोग कर सकें। वे स्व-सहायता समूहों का निर्माण भी करते हैं ताकि सामूहिक रूप से जल संरक्षण कार्यों को आगे बढ़ाया जा सके। **[4. \*\*नीतिगत सहयोग\*\*:]** एनजीओ सरकार के साथ मिलकर जलग्रहण प्रबंधन की नीतियों को बनाने और लागू करने में सहयोग करते हैं। वे ग्रामीण विकास योजनाओं में जलग्रहण प्रबंधन को शामिल कराने के लिए प्रयासरत रहते हैं। **[5. \*\*अनुसंधान और नवाचार\*]**\*: एनजीओ जलग्रहण प्रबंधन में नए-नए तरीकों और तकनीकों का अनुसंधान करते हैं। वे वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग करके जल प्रबंधन को अधिक प्रभावी बनाने का प्रयास करते हैं। इन सभी कार्यों के माध्यम से, एनजीओ जलग्रहण क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता को बढ़ाने, कृषि उत्पादन को सुधारने, और पर्यावरण को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। **[भारत में जल संरक्षण के लिए काम कर रहे गैर सरकारी संगठन]** हमारे ग्रह पर पानी सीमित और असमान रूप से वितरित है। जब हम जल संरक्षण की बात करते हैं, तो मुद्दा केवल पानी को \"बचाने\" का नहीं होता, बल्कि हमारी वर्तमान और भविष्य की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त पानी होने का होता है। सदियों से, मनुष्यों ने जल संसाधनों का दोहन किया है और कई लोगों को डर है कि भविष्य में पानी को लेकर युद्ध लड़े जा सकते हैं । 2018 में यूरोपीय आयोग के संयुक्त अनुसंधान केंद्र (JRC) द्वारा किए गए एक अध्ययन में कहा गया था कि पानी जैसे दुर्लभ संसाधन भविष्य में युद्धों का कारण बन सकते हैं। जल का विवेकपूर्ण उपयोग तथा जल संरक्षण के लिए अधिक प्रयास अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं, ताकि जल की कमी से सामाजिक अशांति या संघर्ष उत्पन्न न हो। भारत सरकार ने जल संरक्षण के लिए कई कदम उठाए हैं, जैसे भूमिगत जल को रिचार्ज करना, वर्षा जल संचयन, चेक डैम का निर्माण और अन्य पहल। गैर-लाभकारी संगठन भी हितधारकों के साथ काम करके जल संरक्षण की अवधारणा को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। भारत भले ही पानी की कमी वाला देश न हो, लेकिन उचित जल संरक्षण प्रयासों के बिना यह एक बन सकता है। यहां, हम उन शीर्ष भारतीय गैर सरकारी संगठनों पर नज़र डाल रहे हैं जो टिकाऊ जल संरक्षण प्रथाओं को बढ़ावा दे रहे हैं और जीवन को प्रभावित कर रहे हैं: **[1. पर्यावरणवादी फाउंडेशन ऑफ इंडिया-]** एनवायरनमेंटलिस्ट फाउंडेशन ऑफ इंडिया एक जल संरक्षण एनजीओ है जिसका समग्र दृष्टिकोण वन्यजीव संरक्षण और आवास बहाली को शामिल करता है। संगठन का प्राथमिक ध्यान देश भर में झीलों और तालाबों जैसे मीठे पानी के आवासों को पुनर्जीवित करने पर है। कई अध्ययनों के बाद, एनवायरनमेंटलिस्ट फाउंडेशन ऑफ इंडिया (EFI) ने निष्कर्ष निकाला है कि यह भारत में दूषित मीठे पानी के निकायों को केवल वैज्ञानिक तरीकों से पुनर्जीवित कर सकता है। इसने 2007 में अपनी स्थापना के बाद से भारत में कई मीठे पानी की झीलों और तालाबों को पुनर्जीवित किया है। जबकि इसने कई शहरी क्षेत्रों में काम किया है, EFI ग्रामीण इलाकों में भी काम करता है। इस एनजीओ के जल संरक्षण प्रयासों में महाराष्ट्र में किन्ही-गडेगांव जलाशय, तमिलनाडु में तिरुनेलवेली-कीज़ अम्बुर झील, कर्नाटक के शिवमोगा में नवूले केरे और अन्य का जीर्णोद्धार शामिल है। **2. तरुण भारत संघ** प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर रहने वाले आत्मनिर्भर समुदाय तरुण भारत संघ के मिशन के केंद्र में हैं। संगठन विकास कार्यों के हर चरण में समुदाय को शामिल करता है। ये मुख्य रूप से राजस्थान में जल संरक्षण के इर्द-गिर्द हैं, जो देश में सबसे अधिक पानी की कमी वाले राज्यों में से एक है। डॉ. राजेंद्र सिंह (भारत के जलपुरुष) के संस्थापक के रूप में, टीबीएस ने 10 नदियों को पुनर्जीवित किया है और 10,000 वर्ग किलोमीटर के सूखाग्रस्त क्षेत्रों को बदल दिया है। उन्होंने राजस्थान के सूखाग्रस्त क्षेत्रों को समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र में बदल दिया है। टीबीएस स्वदेशी जल संचयन विधियों और सामुदायिक लामबंदी का उपयोग करता है। डॉ. सिंह को सामुदायिक नेतृत्व के लिए प्रतिष्ठित रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और स्टॉकहोम जल पुरस्कार मिला, जिसे जल में नोबेल पुरस्कार भी कहा जाता है। 2008 में, द गार्जियन ने उन्हें \'पृथ्वी को बचाने वाले 50 लोगों\' में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया। **3. जल भागीरथी फाउंडेशन** भारत में यह जल संरक्षण एनजीओ दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले शुष्क क्षेत्रों में से एक- राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में काम करता है। जल भागीरथी फाउंडेशन दशकों से इस क्षेत्र में पानी की कमी की चुनौती का समाधान कर रहा है। यह वर्षा जल संचयन संरचनाओं को पुनर्जीवित और निर्माण कर रहा है ताकि यह भूजल को रिचार्ज कर सके। यह स्थानीय समुदायों को वर्षा जल संचयन टैंक बनाने में मदद करता है जिन्हें टंका कहा जाता है । **4. सहगल फाउंडेशन** एसएम सहगल फाउंडेशन लगभग 24 वर्षों से जल संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहा है। इसका ध्यान पूरे देश में सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय परिवर्तन प्राप्त करने के लिए समुदाय के नेतृत्व वाली विकास पहलों पर है। चूंकि जल संरक्षण एक प्रमुख मुद्दा है, इसलिए सहगल फाउंडेशन मुख्य रूप से हरियाणा और राजस्थान के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों और बिहार में काम करता है। हाल के वर्षों में इसने अन्य क्षेत्रों में भी विस्तार किया है। सहगल फाउंडेशन गांवों में बुनियादी ढांचे का निर्माण और जीर्णोद्धार करके वर्षा जल संचयन और भंडारण के लिए समुदायों के साथ काम करता है। इसने पारंपरिक जल निकायों को पुनर्जीवित करने, जल भंडारण बांधों का निर्माण करने और जल संरक्षण की आवश्यकता के बारे में जागरूकता पैदा करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह कम लागत वाले जल प्रबंधन और संरक्षण विधियों के निरंतर सुधार और प्रतिकृति के लिए दूसरों के साथ भी सहयोग करता है। भारत में इस जल संरक्षण एनजीओ ने भारत सरकार और अन्य लोगों से अपने ग्रामीण जल प्रबंधन के लिए कई पुरस्कार जीते हैं। भारत में कई एनजीओ जलग्रहण प्रबंधन के क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं। ये संगठन जल संसाधनों के संरक्षण, विकास, और स्थायी उपयोग के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यहां कुछ प्रमुख एनजीओ का विवरण दिया गया है जो इस क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं: **5.साधना (SADHNA)-** साधना एक प्रमुख एनजीओ है जो आंध्र प्रदेश में जलग्रहण प्रबंधन के क्षेत्र में कार्यरत है। यह संगठन ग्रामीण क्षेत्रों में जल स्रोतों के संरक्षण और पुनर्स्थापन के लिए काम करता है। साधना स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर जलग्रहण क्षेत्र के विकास और पौधारोपण के कार्य करता है। **6. धारा (DHARA)** धारा एक एनजीओ है जो राजस्थान में कार्यरत है। यह संगठन जलग्रहण क्षेत्र के संरक्षण के लिए परंपरागत और वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग करता है। धारा ने राजस्थान के सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जल संरक्षण और पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण काम किया है। **7.फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (FES):** एफईएस एक राष्ट्रीय स्तर का एनजीओ है जो पूरे भारत में जलग्रहण प्रबंधन पर काम करता है। यह संगठन समुदाय आधारित जल प्रबंधन योजनाओं को प्रोत्साहित करता है और पर्यावरण संरक्षण के लिए सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देता है। **8.आर्ट ऑफ लिविंग:** आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन ने भी जलग्रहण प्रबंधन के क्षेत्र में कई पहल की हैं। यह संगठन देश के विभिन्न हिस्सों में, विशेषकर महाराष्ट्र और कर्नाटक में, जल संरक्षण परियोजनाओं को लागू कर रहा है। उनके प्रयासों के तहत कई नदियों और तालाबों का पुनर्निर्माण किया गया है। ये एनजीओ जलग्रहण प्रबंधन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं, जिससे न केवल जल संसाधनों का संरक्षण हो रहा है, बल्कि ग्रामीण विकास और कृषि उत्पादकता में भी सुधार हो रहा है। **[बंजर भूमि क्या है (What is Wasteland)?]** पर्यावरणीय गिरावट से पीड़ित आर्थिक रूप से अनुत्पादक भूमि को बंजर भूमि के रूप में जाना जाता है। बंजर भूमि में नमक प्रभावित भूमि, रेतीले क्षेत्र, नाले वाले क्षेत्र, लहरदार ऊपरी भूमि, बंजर पहाड़ी-रिज आदि शामिल हैं। झूम की खेती के बाद बर्फ से ढके क्षेत्र, हिमनद क्षेत्र और बंजर क्षेत्र भी बंजर भूमि में शामिल हैं। **बंजर भूमि के निर्माण का कारण (Cause of Wasteland Formation):** बंजर भूमि का निर्माण प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा होता है, जिसमें लहरदार ऊपरी भूमि, बर्फ से ढकी भूमि, तटीय लवणीय क्षेत्र, रेतीले क्षेत्र आदि या मानवजनित (मानव निर्मित) गतिविधियाँ शामिल हैं, जिससे भूमि का क्षरण, लवणीय या जल भराव होता है। बंजर भूमि के निर्माण की ओर ले जाने वाली प्रमुख मानवजनित गतिविधियाँ वनों की कटाई, अतिचारण, खनन और गलत कृषि पद्धतियाँ हैं। **बंजर भूमि को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है (Wastelands may be classified into two types):** \(1) कृष्य (Culturable)-- कृषि योग्य बंजर भूमि का अर्थ है जो खेती योग्य है और कृषि और पशुचारण उद्देश्यों के लिए उपयोग की जाती है और जिसे वनीकरण किया जा सकता है। उदाहरण के लिए लवणीय भूमि, गलित भूमि आदि। \(2) अकृष्य (Unculturable)- ये बंजर भूमि हैं और खेती के प्रयोजनों के लिए उपयोग नहीं की जाती हैं। उदाहरण के लिए, खड़ी ढलान वाले क्षेत्र या बर्फ से ढके क्षेत्र, चट्टानी भूमि, आदि। बंजर भूमि का पारिस्थितिक संतुलन की गड़बड़ी जैसे उच्च महत्व है, क्योंकि बंजर भूमि का निर्माण और पारिस्थितिकी तंत्र इस भूमि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हो सकता है। **बंजर भूमि के विकास की आवश्यकता (Need For Wasteland Development):** बंजर भूमि विकास ग्रामीण गरीबों के लिए आय का एक स्रोत प्रदान करता है। यह स्थानीय उपयोग के लिए ईंधन, चारे और लकड़ी की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करता है। यह मिट्टी के कटाव को रोककर और नमी को संरक्षित करके मिट्टी को उपजाऊ बनाता है। कार्यक्रम क्षेत्र में एक पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में मदद करता है, बढ़ता वन आवरण स्थानीय जलवायु परिस्थितियों को बनाए रखता है, पुनर्जीवित वनस्पति आवरण पक्षियों को आकर्षित करने में मदद करता है जो आसपास के क्षेत्रों में कीटों को खाते हैं और प्राकृतिक कीट नियंत्रक के रूप में कार्य करते हैं, और पेड़ धारण करने में मदद करते हैं। नमी और सतह के अपवाह दरों को कम करना इस प्रकार मिट्टी के कटाव को नियंत्रित करता है। भारत में बंजर भूमि (वेस्टलैंड) प्रबंधन में गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण रही है। ये संगठन समुदाय आधारित उपायों के माध्यम से बंजर भूमि को पुनर्जीवित करने और पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए काम कर रहे हैं। उनके प्रयास कई क्षेत्रों में सफलतापूर्वक लागू किए गए हैं, जिससे न केवल पर्यावरणीय सुधार हुआ है, बल्कि स्थानीय लोगों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया है। **[बंजर भूमि प्रबंधन में NGOs की भूमिका:]** 1\. जागरूकता और शिक्षा: NGOs स्थानीय समुदायों के बीच जागरूकता फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में जाकर लोगों को बंजर भूमि के दुष्प्रभाव और इसके प्रबंधन के तरीकों के बारे में शिक्षित करते हैं। NGOs कार्यशालाओं, प्रशिक्षण कार्यक्रमों और सामुदायिक बैठकों के माध्यम से लोगों को जागरूक करते हैं कि वे किस तरह से अपनी जमीन को उपजाऊ बना सकते हैं और पर्यावरण संरक्षण में योगदान कर सकते हैं। 2\. सामुदायिक भागीदारी: NGOs बंजर भूमि प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देते हैं। वे स्थानीय समुदायों को प्रोत्साहित करते हैं कि वे अपनी बंजर भूमि के प्रबंधन में सक्रिय रूप से भाग लें। इसके लिए NGOs गांवों में समितियों का गठन करते हैं, जिनके माध्यम से लोगों को बंजर भूमि के पुनर्वास के लिए काम करने की जिम्मेदारी दी जाती है। 3\. वृक्षारोपण अभियान: NGOs बंजर भूमि को हरा-भरा बनाने के लिए बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण अभियान चलाते हैं। वे स्थानीय किस्मों के पेड़-पौधों का चयन करते हैं, जो उस क्षेत्र के जलवायु और मृदा के अनुकूल हों। वृक्षारोपण न केवल मिट्टी के कटाव को रोकता है बल्कि जल स्तर को भी सुधारता है। कई NGOs ने सफलतापूर्वक बड़े क्षेत्रों को वन क्षेत्र में बदल दिया है, जिससे पर्यावरणीय संतुलन में सुधार हुआ है। 4\. जल प्रबंधन: बंजर भूमि का एक प्रमुख कारण पानी की कमी होती है। NGOs जल संचयन और प्रबंधन के लिए संरचनाओं का निर्माण करते हैं, जैसे कि चेक डैम, तालाब, और रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम। ये संरचनाएं वर्षा जल को संरक्षित करती हैं, जिससे जल स्तर में वृद्धि होती है और भूमि की उर्वरता में सुधार होता है। 5\. टिकाऊ खेती: NGOs बंजर भूमि पर टिकाऊ खेती की तकनीकों का प्रचार करते हैं। वे जैविक खेती, मिश्रित खेती, और सूक्ष्म सिंचाई जैसी विधियों को बढ़ावा देते हैं, जिससे भूमि की उत्पादकता में वृद्धि होती है। टिकाऊ खेती से न केवल किसान की आय में वृद्धि होती है, बल्कि भूमि की गुणवत्ता भी बनी रहती है। 6\. आर्थिक विकास: NGOs बंजर भूमि पर आजीविका के वैकल्पिक साधनों को विकसित करने में भी मदद करते हैं। वे स्थानीय लोगों को स्वरोजगार के अवसर प्रदान करते हैं, जैसे कि बागवानी, औषधीय पौधों की खेती, पशुपालन, और अन्य कृषि आधारित उद्योग। यह न केवल भूमि प्रबंधन में सहायक होता है, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी सुदृढ़ बनाता है। 7\. सरकारी नीतियों और योजनाओं का कार्यान्वयन: NGOs सरकार की बंजर भूमि सुधार योजनाओं को जमीनी स्तर पर लागू करने में मदद करते हैं। वे सरकारी योजनाओं के बारे में लोगों को जानकारी देते हैं और इन योजनाओं के लाभ प्राप्त करने में उनकी सहायता करते हैं। इसके अलावा, NGOs सरकार के साथ मिलकर बंजर भूमि प्रबंधन के लिए नई नीतियों के निर्माण में भी योगदान देते हैं। उदाहरण: 1\. तरुण भारत संघ: राजस्थान में कार्यरत तरुण भारत संघ ने अलवर जिले में बंजर भूमि को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके प्रयासों से क्षेत्र में जल संचयन और भूमि उर्वरता में सुधार हुआ है, जिससे स्थानीय कृषि और पशुपालन को बढ़ावा मिला है। 2\. वनस्थली ग्रामीण विकास केंद्र: महाराष्ट्र में स्थित इस NGO ने बंजर भूमि को हरा-भरा करने के लिए वृक्षारोपण और जल प्रबंधन के कई प्रोजेक्ट्स चलाए हैं। उन्होंने स्थानीय समुदायों को इस कार्य में सक्रिय रूप से शामिल किया है, जिससे ग्रामीणों की आय में वृद्धि हुई है और पर्यावरण में सुधार हुआ है। निष्कर्ष: NGOs ने बंजर भूमि प्रबंधन में अपनी व्यापक भूमिका निभाई है। उनके कार्यों ने न केवल पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा दिया है बल्कि ग्रामीण विकास और आर्थिक सशक्तिकरण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके प्रयासों से यह सिद्ध हो गया है कि यदि सही दिशा में और सामुदायिक भागीदारी के साथ काम किया जाए, तो बंजर भूमि को पुनः उपजाऊ और संपन्न बनाया जा सकता है। **[Social movement in India -]** भारत में सामाजिक आंदोलनों का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है। इन आंदोलनों ने समाज में बदलाव लाने, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने, और हाशिए पर रहे वर्गों के अधिकारों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहां कुछ प्रमुख सामाजिक आंदोलनों का वर्णन किया गया है: सामाजिक आंदोलन, समान लक्ष्यों से जुड़े लोगों के समूह द्वारा किए जाने वाले संयुक्त प्रयास होते हैं. सामाजिक आंदोलनों के ज़रिए लोग अपनी स्थिति पर काबू पाने, सामाजिक मुद्दों से निपटने, या वर्चस्व का विरोध करने के लिए खुद को संगठित करते हैं. सामाजिक आंदोलनों के कुछ उदाहरणः डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर के महाड़ सत्याग्रह, चवदार तालाब आंदोलन, नाशिक का कालाराम मन्दिर आंदोलन, और दलित बौद्ध आंदोलन. **सामाजिक आंदोलनों के प्रकारः** वैकल्पिक आंदोलन मुक्तिदायक आंदोलन सुधारात्मक आंदोलन क्रांतिकारी आंदोलन सामाजिक आंदोलनों का जीवन चक्रः उद्भव - एकीकरण - नौकरशाहीकरण -पतन सामाजिक आंदोलनों की सफलताः जब आंदोलन के लक्ष्यों को दैनिक जीवन में शामिल किया जाता है, तो इसे समग्र सफलता माना जाता है. सामाजिक आंदोलनों का महत्वः भले ही आंदोलन बिखर जाएं, लेकिन उनका जो प्रभाव सामाजिक क्षेत्र में पड़ता है, वह अपने आप में सफलता है. **भारत में महिला आंदोलन-** दुनिया भर के आंदोलनों को यदि देखा जाए तो उसमें एक समानता दिखाई देती है और वह समानता ही आंदोलनों के जन्म लेने का मूल कारण है जो कि है शोषण, दमन, अत्याचार या समानता का न होना। महिला आंदोलनों के लिए भी अगर कारणों की तलाश करेंगे तो यही कारण मिलेंगे। महिलाएँ तो सभ्यता के विकास के क्रम में लगातार दबाई जाती रहीं मानों सभ्य होने का सारा का सारा दारोमदार महिलाओं पर ही हो। गर्डा लर्नर मानती हैं कि महिलाओं के अधीन होने का सबसे प्रमुख कारण उनकी प्रजनन क्षमता रही है। पहले के कबीलाई समाज में महिलाओं की प्रजनन क्षमता एक संसाधन के रूप में रही लेकिन जब समाज आगे बढ़ा, शासक वर्ग वंशानुगत शासन चलाने की स्थिति में आए तो अपने वंश की रक्षा के लिए महिलाओं पर यौन नियंत्रण आवश्यक माना जाने लगा गया। यहाँ से महिला की प्रजनन शक्ति संसाधन न होकर उसके लिए बंदिश का ज़रिया बनने लगी। यह प्रक्रिया पूरे विश्व में लम्बे समय तक चली। पुरुषों के वर्चस्व ने स्त्री चेतना को विकसित होने देने के लिए बहुत कम स्थान दिया। लेकिन आधुनिक चेतना के बाद धीरे-धीरे समाज के सभी वर्ग में चेतना आ रही थी तो महिलाएँ भी अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो रही थीं और अपने शोषण के कारणों को समझ पा रही थीं। **19वीं सदी में महिलाओं से आंदोलन** भारत में महिलाओं के आंदोलन के लिए १९वीं सदी बहुत महत्वपूर्ण है। इस समय सामाजिक सुधार के बड़े प्रयास महिला विषयक रहे। सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह पर रोक, बहु विवाह एवं बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियाँ रहीं। इसे सामाजिक प्रगतिशीलता में बाधा मानते हुए बहुत से व्यक्तियों व संस्थाओं ने इसे दूर करने के प्रयास में रत रहे। राजा राममोहन रॉय इस कड़ी में सबसे प्रमुख हैं। सती प्रथा जिसे समाज द्वारा स्वीकृति मिली हुई थी, को दूर कर पाना इतना आसान नहीं था लेकिन इन लोगों के प्रयास से ही इस सामाजिक कुरीति को दूर करने में सफलता मिली। प्रश्न यह भी था कि यदि विधवा महिला सती नहीं होगी तो समाज में लगातार विधवाओं की संख्या बढ़ती जाएगी, ऐसी स्थिति में उनके पुनर्विवाह के लिए भी लोगों को समझाना पड़ेगा, उन्हें हेय दृष्टि से देखना बंद करना होगा। इन सब के मूल में यह समझने की कोशिश हुई कि महिलाओं को भी शिक्षित करने की बहुत ज़रूरत है जिस वजह से समाज में महिलाओं की शिक्षा के लिए विद्यालय, महाविद्यालय, छात्रावास तो खोले ही गए, साथ-साथ विधवा आश्रम व रक्षा निकेतनों की भी स्थापना हुई। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि सामाजिक सुधार के नाम पर महिलाओं की बेहतर स्थिति के लिए किए जा रहे प्रयासों से कुछ महिला संगठन व कुछ संस्थानों की स्थापना हुई। **[ब्रह्म समाज -]** ब्रह्म समाज उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के प्रभावशाली सामाजिक- धार्मिक आंदोलनों में से एक रहा जिसने आधुनिक भारत की नींव में बड़ा योगदान दिया। इसे राजा राममोहन रॉय द्वारा तत्कालीन प्रचलित कुप्रथाओं के विरुद्ध 1828 ई. में स्थापित किया गया था। यह बंगाल के पुनर्जागरण का भी समय है। वैसे तो इसने व्यापक कार्य किए लेकिन ब्रह्म समाज द्वारा महिलाओं के ख़िलाफ हो रहे उत्पीड़न को रोकने के लिए प्रयास किए गए। समाज में महिलाओं के लिए कई प्रकार के पूर्वग्रह थे और उन पूर्वग्रहों का आधार धर्म था, इसलिए बदलाव के लिए सामाजिक कट्टरता से भी निबटना जरुरी रहा। बाल विवाह, बहुपत्नी विवाह के ख़िलाफ लोगों के अंदर जागरूकता पैदा करना समय की माँग थी जिसे ब्रह्म समाज द्वारा किया गया। इसी क्रम में अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा दिया गया और कराए भी गए जिसके कारण सामाजिक असंतोष उपजा फलस्वरूप 1872 ई. में सिविल मैरेज ऐक्ट पास हुआ। इसमें महिला के विवाह की न्यूनतम आयु को बढ़ाकर 14 वर्ष किया गया था। केशव चंद्र सेन ने महिला शिक्षा के लिए सार्थक प्रयास किए। **प्रार्थना समाज** सामाजिक-धार्मिक सुधारों के लिए प्रार्थना समाज की स्थापना 1867 ई. में मुंबई में आत्माराम पाण्डुरंग के द्वारा की गयी। बाद में इसमें समाज सुधारक महादेव गोविंद रानाडे और आर जी भंडारकर के इसमें शामिल हो जाने से और गति मिली व सुधार कार्यक्रम तेज़ी से आगे बढ़े। प्रार्थना समाज ने भी महिला शिक्षा पर बहुत जोर दिया। इसने महिलाओं और दलितों की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रयास किए। बाल विवाह, महिलाओं के लिए बेहतर शिक्षा के अवसर, विधवा पुनर्विवाह पर इस संस्था ने सामाजिक जागरूकता का प्रयास किया। **आर्य समाज** 'वेदों की ओर लौटो' का नारा देकर स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना की थी। यह पूर्ण रूप से धार्मिक पुनर्जागरणवादी आंदोलन था। धार्मिक आंदोलन के रूप में आर्य समाज ने वैसे तो बड़े कार्य किए लेकिन महिलाओं को लेकर भी इनकी दृष्टि प्रगतिशील रही। महिलाओं के लिए शिक्षा की आवश्यकता की इसने वकालत की। महिलाओं के लिए उस समय इसने समान अधिकारों की वकालत की, जिस समय महिलाएँ अपने मूल बिंदुओं के लिए संघर्ष कर रही थीं, ऐसे में समानता की बात करना बहुत बड़े परिवर्तन की ओर इशारा करता है। बाल विवाह के उन्मूलन हेतु भी इसने प्रयास किए। इसने कई महिला शिक्षा से सम्बंधित संस्थानों की भी स्थापना की। **मुस्लिम सुधार कार्यक्रम** जिस प्रकार के सामाजिक सुधार की बात हिंदू धर्म में हो रही थी, ठीक वैसा ही तत्कालीन समाज में इस्लाम के साथ नहीं हो रहा था। शिक्षा का अभाव व अन्य धार्मिक रूढ़ियाँ जैसे पर्दा प्रथा आदि के कारण वहाँ महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु और अधिक देरी हुई। फिर भी अन्य-अन्य स्थानों पर मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए आंदोलन के रूप में कई क्षेत्रों से नेतृत्व मिला। अलीगढ़ के शेख़ अब्दुल्ला ने महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सार्थक प्रयास किया। वहीं ऐसा ही प्रयास लखनऊ के करामत हुसैन ने भी किया जहाँ महिला के लिए शिक्षा को महत्वपूर्ण बताते हुए लगातार इस हेतु कार्य किया। भोपाल की बेगम और सैयद अहमद खान का नाम भी इसी कड़ी में महत्वपूर्ण है। भोपाल की बेगम ने 1916 ई. में 'अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन' की स्थापना की। इसके माध्यम से मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं में सुधार की बात लगातार की जा रही थी। 1917ई. के सम्मेलन में जब बहुविवाह के उन्मूलन का प्रस्ताव पार्टी किया गया तो कट्टरवादी मुस्लिम समुदाय के लोगों का गुस्सा भी सामने आया। **अन्य प्रयास** पंडिता रमाबाई बाल विधवा व विधवाओं की दयनीय स्थिति को लेकर लगातार मुखर रहीं और कोलकाता में इसे सुधारने का बीड़ा उठाया। उन्होंने 1881 ई. में आर्य महिला समाज की स्थापना पुणे में की और स्त्री शिक्षा के लिए भी लगातार कार्य करती रहीं। अन्य जाति के वकील से विवाह करने के कारण उन्हें लगातार कट्टरपंथियों का सामना करना पड़ा। 1889 ई. में विधवाओं के लिए उन्होंने शारदा सदन की स्थापना की। बाद में कृपा सदन नामक एक महिला आश्रम की भी स्थापना की। उन्होंने मुक्ति मिशन शुरू किया। इसमें समाज द्वारा त्याग दी गयीं महिलाओं व बच्चों को आश्रय दिया जाता था। विद्यागौरी नीलकंठ का नाम भी इसी क्रम में लिया जा सकता है जिन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं के उत्थान में समर्पित किया। उन्होंने अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अहमदाबाद शाखा आरम्भ की। ये कई शैक्षणिक संस्थानों से जुड़ी रहीं जो वैधव्य या शादी के कारण विद्यालय छोड़ देने वाली महिलाओं को शिक्षा प्रदान करती थीं। **गांधी युग व महिलाएँ** गांधी का युग आते-आते महिलाएँ शिक्षित होना शुरू कर चुकी थीं और उन्हें समाज-राजनीति के बारे में ज्ञान होने लगा था तो ऐसा कैसे होता कि वे राजनीति या नेतृत्व में अपनी उपस्थिति दर्ज न करातीं। गाँधी के आह्वान पर बहुत सी महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी निभाई। महिला आंदोलनों पर भी गाँधी की छाप दिखाई देती है। महात्मा गांधी ने महिलाओं के समान अधिकार पर ज़ोर दिया व उन्हें पुरुषों की सहचरी के रूप में देखा। उन्होंने महिलाओं को उनके विशिष्ट गुणों सहिष्णुता, त्याग व दुःख सहन करने की असीम क्षमता के कारण अहिसंक आंदोलनों हेतु सबसे उपयुक्त माना। स्वयं नेहरू भी महिलाओं के उत्थान के लिए प्रगतिशील विचारक के रूप में रहे। उन्होंने केवल शिक्षा से आगे बढ़कर आर्थिक स्वतंत्रता की भी वकालत की और इसे महिला उत्थान के लिए सबसे ज़रूरी माना। इसका परिणाम यह रहा कि सविनय अवज्ञा आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, नमक आंदोलन व शराब बेचने की दुकानों पर धरने के लिए सबसे आगे महिलाएँ ही रहीं। **बीसवीं सदी व महिला संगठन** एक ओर महिला शिक्षा पर जोर से महिलाएँ शिक्षित हो रहीं थीं तो दूसरी ओर कई संगठन इसमें अपनी भूमिका निभा रहे थे। 1917 ई. में मार्ग्रेट कजंस का विमेन्स इंडिया एसोसिएशन, 1926 ई. में नेशनल काउंसिल ऑफ इंडियन विमेन, 1927 ई. में अखिल भारती महिला परिषद, 1934 ई. में ज्योति संघ जैसे संगठनों ने इस आवाज़ को और अधिक बुलंद किया। 1917 ई में महिला मताधिकार की बात उठी और इसके बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसका समर्थन किया। **[स्वतंत्रता पश्चात महिलाएँ]** भारत की आज़ादी के पश्चात ही महिलाओं को विवाह, उत्तराधिकार व संरक्षणता के विस्तृत अधिकार प्राप्त हुए। इसका एक नकारात्मक परिणाम यह हुए कि महिला संगठन कुछ शिथिल हुए। महिलाओं के लिए यदि कुछ कार्यक्रम उस दौर में बने तो वे उस तरह विकेंद्रीकृत नहीं हो पाए कि सुदूर गाँवों तक पहुँच सकें। वे काफ़ी हद तक शहरों तक ही सीमित रह गए। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए कस्तूरबा मेमोरियल ट्रस्ट और भारतीय ग्रामीण महिला संघ स्थापित हुए। आज़ादी के बाद लम्बे समय तक महिलाओं की आर्थिक स्थिति बेहतर करने के लिए कोई ठोस उपाय देखने को नहीं मिले। सरकार ने 1976 ई. में समान पारिश्रमिक अधिनियम पारित किया लेकिन व्यावहारिक रूप से यह निष्क्रिय रहा। महिलाएँ आर्थिक रूप से पिछड़ी रहीं इस कारण उनका शोषण भी जारी रहा। स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल महिलाएँ आज़ादी के पश्चात कुछ राजनीतिक पदों पर पहुँची लेकिन यह संख्या बहुत कम थी। हालाँकि 74वें संविधान संशोधन के पश्चात महिलाओं को स्थानीय स्तर पर शासन में एक तिहाई आरक्षण अवश्य मिला। सामाजिक स्तर पर देखें तो 1970-80 का दशक भारत में महिला पुरुत्थान के दशक हैं। शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में असमानता थी। आर्थिक कठिनाई बढ़ रही थी। महिला मज़दूरों की स्थिति बेहतर करने के लिए कई संगठन अस्तित्व में आए जैसे कार्यकारी महिला संघ, तमिलनाडु, श्रमिक महिला संगठन, महाराष्ट्र, महिला स्वरोज़गार संस्था, गुजरात। इसी समय घरेलू हिंसा, दहेज, मद्यपान, कार्यस्थल पर भेदभाव आदि मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर महिला संगठनों द्वारा विरोध दर्ज किया गया। 1980 ई. में दहेज विरोधी चेतना मार्च का गठन हुआ। इसके प्रभाव व जागरूकता कार्यों के चलते 1984 ई. में दहेज निषेध अधिनियम लाया गया। बलात्कार विरोधी आंदोलन भी इसी कड़ी का परिणाम रहा और 1983 ई. में इसके लिए दंड विधान संशोधित किया गया। 1988 ई. में राजस्थान में किशोर विधवा रूप कँवर के सती होने से महिला संगठनों ने सरकार की नींद उड़ा दी और जल्द-जल्दी में इसके लिए सरकार को बिल लाना पड़ा। ऐसे बहुत सारे उदाहरण और कारण रहे जिस वजह से 1992 ई. में राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन हुआ जो एक वैधानिक संस्था के रूप में स्थापित है जो समय-समय पर सरकार को सुझाव देने का भी कार्य करती है। वर्तमान दौर में महिला की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति को और अधिक बेहतर करने के लिए तमाम एन जी ओ कार्यरत हैं। इसके साथ-साथ नागरिक समाज संगठनों ने भी अपनी जिम्मेदारी बेहतर तरीके से निभा रहे हैं। आज जागरूक समाज का परिणाम है कि ऑनलाइन सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर मी टू जैसे आंदोलनों ने बड़ा रूप धारण किया और कई महिलाओं ने अपने ऊपर हुए शारीरिक शोषण को ज़ाहिर किया। इन आंदोलनों ने आज अधिक विकेंद्रीकृत रूप लेकर समाज को जागरूक करने की कोशिश की है। [ **Dalits Movement in india**] **[भारत में दलित आंदोलन का इतिहास बहुत पुराना और महत्वपूर्ण है। य]**ह आंदोलन उन सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक है, जो सदियों से जाति व्यवस्था के कारण दलितों को वंचित रखा गया था। यहाँ भारत में दलित आंदोलन के प्रमुख पहलुओं और घटनाओं का विवरण दिया गया है: **1. आरंभिक दौर:** भारत में दलित आंदोलन का आरंभ 19वीं सदी में हुआ, जब सामाजिक सुधारकों ने जाति व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की। इनमें प्रमुख नाम ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का है, जिन्होंने शिक्षा के माध्यम से दलितों के उत्थान की दिशा में कार्य किया। उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जो दलितों के लिए सामाजिक न्याय और समानता की मांग करता था। **[2.बी.आर. आंबेडकर और आधुनिक दलित आंदोलन:]** डॉ. भीमराव आंबेडकर दलित आंदोलन के सबसे प्रमुख नेता थे। उन्होंने दलितों के अधिकारों के लिए राजनीतिक और कानूनी मोर्चे पर संघर्ष किया। आंबेडकर ने दलितों को \'अछूत\' की पहचान से मुक्त कराने और उन्हें संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए कई आंदोलनों का नेतृत्व किया। \- \*\*मनुस्मृति दहन (1927):\*\* डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति, जो जाति आधारित भेदभाव को धार्मिक मान्यता देती थी, का सार्वजनिक दहन किया। यह दलितों के लिए एक क्रांतिकारी कदम था और इसे जातिवाद के खिलाफ एक सशक्त प्रतीक के रूप में देखा गया। \- \*\*महाड़ सत्याग्रह (1927):\*\* यह आंदोलन महाराष्ट्र के महाड़ में आयोजित हुआ, जहां आंबेडकर और उनके समर्थकों ने सार्वजनिक पानी के तालाबों पर दलितों के अधिकार के लिए सत्याग्रह किया। इस आंदोलन ने सार्वजनिक स्थलों पर दलितों के अधिकारों को स्थापित करने का प्रयास किया। \- \*\*काका कालेलकर आयोग (1953) और मंडल आयोग (1980):\*\* ये आयोग जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सिफारिश के लिए गठित किए गए थे। आंबेडकर का काम इन प्रयासों का आधार बना। **[3. सामाजिक और धार्मिक सुधार:]** आंबेडकर ने दलितों को बौद्ध धर्म अपनाने की सलाह दी, ताकि वे हिंदू धर्म के जाति व्यवस्था से मुक्त हो सकें। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में, आंबेडकर और उनके लाखों अनुयायियों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। इस घटना को \*\*बौद्ध धर्म दीक्षा\*\* के रूप में जाना जाता है और इसे दलित इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है। **[4. दलित पैंथर (1972):]** दलित पैंथर एक कट्टरपंथी दलित संगठन था, जो 1970 के दशक में महाराष्ट्र में स्थापित हुआ। इसका गठन दलित युवाओं ने किया, जो आंबेडकर की विचारधारा से प्रेरित थे। दलित पैंथर ने जाति आधारित उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई लड़ी और दलित साहित्य, संस्कृति, और आत्म-सम्मान को बढ़ावा दिया। **[5. मानवाधिकार और समकालीन आंदोलन:]** आज भी दलित आंदोलन मानवाधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहा है। कई गैर-सरकारी संगठनों और दलित नेताओं ने जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ जागरूकता फैलाने और कानूनी लड़ाई लड़ने का काम किया है। \- भीम आर्मी: भीम आर्मी एक समकालीन दलित संगठन है, जो उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में दलितों के अधिकारों के लिए सक्रिय रूप से काम कर रहा है। यह संगठन शिक्षा और न्याय की मांग को लेकर आंदोलनों का आयोजन करता है। उना आंदोलन (2016): गुजरात के उना में दलितों के खिलाफ हुई हिंसा के बाद इस आंदोलन का जन्म हुआ। इसने दलितों के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर किया। **[6. आरक्षण के मुद्दे पर आंदोलन:]** मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद, 1990 के दशक में आरक्षण के मुद्दे पर कई आंदोलन हुए। दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण देने की मांग ने इस आंदोलन को और मजबूती दी। **[7. दलित साहित्य आंदोलन:]** दलित साहित्य ने दलित आंदोलन को एक नई दिशा दी। दलित लेखकों और कवियों ने अपने साहित्य के माध्यम से दलितों की पीड़ा, संघर्ष, और आशाओं को आवाज दी। इस साहित्यिक आंदोलन ने दलित समाज के आत्म-सम्मान और पहचान को पुनर्स्थापित किया। भारत का दलित आंदोलन एक महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन है, जिसने देश में सामाजिक न्याय, समानता, और मानवाधिकारों के लिए संघर्ष किया है। यह आंदोलन आज भी जारी है, और दलित समाज के अधिकारों की लड़ाई में एक प्रेरणा स्रोत बना हुआ है। **[Peasant movement in India -]** भारत में किसान आंदोलन (Peasant Movement) का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है, जिसमें किसानों ने अपने अधिकारों और आजीविका की रक्षा के लिए समय-समय पर संगठित संघर्ष किया। ये आंदोलन आमतौर पर ज़मींदारी व्यवस्था, अत्यधिक कराधान, कर्ज के बोझ, और खेती से संबंधित अन्य समस्याओं के खिलाफ हुए। **[प्रारंभिक किसान आंदोलन:]** **1. नील विद्रोह (1859-1860)**: यह आंदोलन बंगाल में हुआ, जहाँ अंग्रेज़ों ने किसानों को जबरदस्ती नील की खेती करने के लिए मजबूर किया। नील की खेती किसानों के लिए अत्यधिक हानिकारक थी और इसके उत्पादन से उन्हें कोई आर्थिक लाभ नहीं मिलता था। किसानों ने इसका विरोध किया, जिससे यह आंदोलन बंगाल के ग्रामीण इलाकों में फैल गया। इस विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार को नील की खेती पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया। **[2. दक्कन कृषक विद्रोह (1875):]** महाराष्ट्र के दक्कन क्षेत्र में किसानों ने साहूकारों के खिलाफ विद्रोह किया, जिन्होंने उन पर अत्यधिक ब्याज दरों के साथ कर्ज लगाया था। किसानों ने साहूकारों के रिकॉर्ड्स को नष्ट कर दिया और सरकार को हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर किया। इस आंदोलन के कारण कुछ महत्वपूर्ण भूमि सुधार लागू किए गए। **[स्वतंत्रता संग्राम के दौरान किसान आंदोलन:]** **[1. चंपारण सत्याग्रह (1917):]** यह महात्मा गांधी के नेतृत्व में बिहार के चंपारण जिले में हुआ। ब्रिटिश प्लांटर्स किसानों को जबरदस्ती नील की खेती करने के लिए मजबूर कर रहे थे। गांधीजी के नेतृत्व में किसानों ने इसके खिलाफ आंदोलन किया और आखिरकार ब्रिटिश सरकार को नील की खेती के कानूनों में संशोधन करना पड़ा। **[2. खेड़ा सत्याग्रह (1918)]**: गुजरात के खेड़ा जिले में यह आंदोलन भी महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुआ था। यहां के किसान अकाल और प्लेग के कारण आर्थिक रूप से कमजोर हो गए थे, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने करों में कोई राहत नहीं दी। किसानों ने करों का भुगतान करने से इनकार कर दिया और अंततः सरकार ने उनकी मांगों को मान लिया। **[3. तेलंगाना आंदोलन (1946-1951):]** यह आंदोलन आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में हुआ और इसमें किसानों ने सामंती जमींदारों और निज़ाम के खिलाफ संघर्ष किया। यह एक सशस्त्र आंदोलन था और इसमें महिलाओं ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। इस आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि ज़मींदारी प्रथा समाप्त हो गई और भूमि सुधार लागू किए गए। **स्वतंत्रता के बाद के किसान आंदोलन:** **[1. नक्सलबाड़ी आंदोलन (1967):]** पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में इस आंदोलन की शुरुआत हुई, जहां किसानों ने भूमि सुधारों की मांग की। यह आंदोलन सशस्त्र विद्रोह का रूप ले लिया और इसके प्रभाव से भारत के विभिन्न हिस्सों में किसान संघर्ष तेज हुआ। हालांकि इस आंदोलन का अंत हिंसात्मक रूप से हुआ, लेकिन इसने भारतीय राजनीति और समाज को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। **[2. भारत का ग्रीन रेवोल्यूशन (1960 के दशक):-]**यह आंदोलन किसी विशेष विद्रोह का परिणाम नहीं था, लेकिन भारतीय कृषि में किए गए बड़े बदलावों के कारण इसे एक क्रांति का दर्जा मिला। इसमें हाई-यील्ड वरायटीज (HYV) के बीज, उर्वरकों और आधुनिक तकनीकों के उपयोग से कृषि उत्पादन में व्यापक वृद्धि हुई। हालांकि इससे कई किसानों को लाभ हुआ, लेकिन इसके साथ ही यह भी देखा गया कि छोटे और सीमांत किसान इस क्रांति से अछूते रह गए। **3. भारतीय किसान यूनियन (1980 के दशक)**: भारतीय किसान यूनियन ने 1980 के दशक में कई राज्यों में किसान आंदोलनों का नेतृत्व किया। यह संगठन मुख्य रूप से उत्तर भारत के किसानों के हितों की रक्षा के लिए कार्य करता रहा। इस संगठन ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और कृषि संबंधी नीतियों में सुधार की मांग की। **[हाल के किसान आंदोलन:-]** **1. भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन**: भारत में 1990 के दशक और 2000 के दशक में कई ऐसे आंदोलन हुए जिनमें किसानों ने अपनी जमीनों के अधिग्रहण का विरोध किया। इनमें से कुछ प्रमुख आंदोलनों में नर्मदा बचाओ आंदोलन और सिंगूर आंदोलन शामिल हैं। **[2. किसान आंदोलन (2020-2021):]**-यह हाल का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण किसान आंदोलन था। इस आंदोलन की शुरुआत तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ हुई थी, जिन्हें किसानों ने अपने हितों के खिलाफ माना। आंदोलन मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, और उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा शुरू किया गया, लेकिन बाद में यह देशव्यापी हो गया। इस आंदोलन ने सरकार को तीनों कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। **[निष्कर्ष:]** भारत के किसान आंदोलन एक लंबी और संघर्षमयी यात्रा के प्रतीक हैं। ये आंदोलन केवल कृषि सुधारों के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए भी लड़े गए। किसान आंदोलनों ने भारतीय समाज को बार-बार यह याद दिलाया कि किसानों की समस्याएं केवल उनके लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन आंदोलनों ने सरकार को कृषि और ग्रामीण नीतियों में सुधार करने के लिए प्रेरित किया और किसानों के अधिकारों को मान्यता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ,\...\...\...\...\...\...\...\...\...\.....,