आदिकालीन रासो साहित्य PDF

Summary

This document provides an overview of the Adhikalin Raso literature in Hindi, discussing the origin and characteristics of Raso poems, and classifying them into religious and historical categories. It presents examples of various Raso works and analyses their significant features and styles..

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# 5. आदिकालीन रासो साहित्य आदिकाल में रचित साहित्य में रासो-काव्य ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आदिकाल में जैन कवियों ने जिस 'रास-काव्य' की रचना की है, वह वीर रस-प्रधान रासो-काव्य से भिन्न है, अतः हम यहाँ उन्हीं रासो-ग्रन्थों का उल्लेख करेंगे, जो वीर रस-प्रधान हैं और जिनक...

# 5. आदिकालीन रासो साहित्य आदिकाल में रचित साहित्य में रासो-काव्य ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आदिकाल में जैन कवियों ने जिस 'रास-काव्य' की रचना की है, वह वीर रस-प्रधान रासो-काव्य से भिन्न है, अतः हम यहाँ उन्हीं रासो-ग्रन्थों का उल्लेख करेंगे, जो वीर रस-प्रधान हैं और जिनकी रचना चारण कवियों ने की है। रासो-ग्रन्थों का सामान्य परिचय जानने से पूर्व रासो शब्द की व्युत्पत्ति पर भी यत्किंचित प्रकाश डालना आवश्यक है। ## रासो शब्द की व्युत्पत्ति 'रासो' शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। सर्वप्रथम फ्रांसीसी विद्वान् गार्सा-द-तासी ने रासो शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार किया और इसे 'राजसूय' शब्द से व्युत्पन्न माना है, किन्तु उनका यह मत कि वीरगाथा काव्यों में राजसूय यज्ञों का उल्लेख है, अतः रासो शब्द 'राजसूय' से निःसृत हुआ है, अब तर्कसंगत नहीं माना जाता, क्योंकि सभी चारण काव्यों में राजसूय यज्ञों का उल्लेख नहीं मिलता, साथ ही ऐसी रचनाएँ भी मिलती हैं जो 'रासो' नाम से अभिहित तो की गयी हैं पर उनकी विषय-वस्तु वीरतापरक न होकर प्रेमपरक है। कुछ अन्य विद्वानों ने 'रासो' शब्द को राजस्थानी भाषा के 'रास' शब्द से जोड़ने का प्रयास किया है, जिसका अर्थ है लड़ाई-झगड़ा या युद्ध, परन्तु यह मत भी कल्पना पर आधृत है क्योंकि कई रासो-ग्रन्थों में युद्धों का नितांत अभाव है। डॉ. नरोत्तम स्वामी ने रासो शब्द की व्युत्पत्ति राजस्थानी भाषा के 'रसिक' शब्द से मानी है, जिसका अर्थ है-कथाकाव्य। उनके अनुसार 'रसिक' से 'रासो' का विकास निम्न क्रम में हुआ - रसिक > रासउ > रासो यद्यपि चारण-काव्यों के संदर्भ में यह तर्क उचित जान पड़ता है किन्तु अपभ्रंश भाषा में ऐसे अनेक काव्य-ग्रन्थ पहले ही उपलब्ध हैं जिनका नाम रासक या रास ग्रन्थ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रासो शब्द का सम्बन्ध 'रसायण' से जोड़ दिया है। उन्होंने वीसलदेव रासो की एक पंक्ति अपने मत के समर्थन में उद्धृत की है, जिसमें रसायण शब्द का उल्लेख हुआ है - "बारह सौ बहोत्तरां मझारि, जेठबदी नवमी बुधवारि । नाल्ह रसायण आरंभई शारदा तूठी ब्रह्म कुमारि ॥" रासो शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत सर्वाधिक समीचीन है, उन्होंने संस्कृत के 'रासक' शब्द से इसे व्युत्पन्न माना है। उनके अनुसार 'रासक' एक छंद भी है और काव्य भेद भी। आदिकाल में रचित वीरगाथाओं में चारण कवियों ने 'रासक' शब्द का प्रयोग चरित-काव्यों के लिए किया है। साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि अपभ्रंश में 29 मात्राओं का एक छंद प्रचलित रहा है, जिसे 'रास' या 'रासा' कहते थे। रास काव्य उन रचनाओं को कहा जाता था, जिनमें रासक छंद की प्रधानता रहती थी। आगे चलकर रास काव्य ऐसी रचनाओं को कहने लगे जिनमें किसी भी गेय छंद का प्रयोग किया गया हो। प्रारम्भ में 'रास' छंद केवल प्रेमपरक रचनाओं में प्रयुक्त किये गए, परन्तु कालांतर में वीर रस युक्त रचनाएँ भी इसी छंद में लिखी जाने लगीं। 'रासक' शब्द से रासो की व्युत्पत्ति निम्न क्रम में हुई - रासक > रासअ > रासा > रासो डॉ. माताप्रसाद गुप्त एवं डॉ. दशरथ शर्मा ने भी आचार्य द्विवेदी के मत का समर्थन किया है, अतः अब यही मत प्रायः मान्य है। ## रासो काव्य परम्परा डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने हिन्दी रासो-काव्य परम्परा को दो वर्गों में विभक्त किया है- * धार्मिक रास-काव्य परम्परा, * ऐतिहासिक रासो-काव्य परम्परा। धार्मिक रास काव्य-परम्परा के अन्तर्गत उन मन्थों को लिया जा सकता है, जो जैन कवियों द्वारा लिखे गए हैं और जिनमें जैन धर्म से सम्बन्धित व्यक्तियों को चरित-नायक बनाया गया है। डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने मुनि शालिभद्र द्वारा रचित 'भरतेश्वर बाहुबली रास' को हिन्दी का प्रथम रास-काव्य निर्धारित किया है। इसी परम्परा के कुछ अन्य ग्रन्थ एवं उनके रचयिताओं का विवरण निम्नवत् है - | | | |---|---| | 1. बुद्धि रास | - मुनि शालिभद्र | | 2. चंदनबाला रास | - कवि आसगु | | 3. जीव दया रास | - कवि आसगु | | 4. स्थूलिभद्र रास | - जिनिधर्म सूरि | | 5. रेवंत गिरि रास | - विजयसेन सूरि | | 6. नेमिनाथ रास | - सुमति गुणि | | 7. कच्छुली रास | - प्रज्ञा तिलक | | 8. जिन पद्म सूरिरास | - सारमूर्ति | | 9. पंच पांडव चरित रास | - शालिभद्र सूरि | | 10. गोतम स्वामी रास | - उदयवंत | इन सभी कृतियों में कृतिकारों का उद्देश्य धर्म-तत्व का निरूपण करना है। इनके कथानक का स्रोत जैन पुराण हैं तथा इनमें प्रबंध शैली का निर्वाह सफलतापूर्वक किया गया है। छंदों की विविधता इन रास-काव्यों की प्रमुख विशेषता रही है। ऐतिहासिक रासो-काव्य परम्परा के अन्तर्गत वे ग्रन्थ हैं, जिन्हें वास्तविक रूप से आदिकालीन हिन्दी रासो-काव्य परम्परा में स्थान दिया जा सकता है। चारण कवियों द्वारा रचित वीरगाथा काव्य इसी वर्ग के अन्तर्गत आते हैं। हिन्दी रासो-काव्य परम्परा के अन्तर्गत आने वाले ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है - | | | |---|---| | 1. बीसलदेव रासो | - नरपति नाल्ह | | 2. पृथ्वीराज रासो | - चंदवरदाई | | 3. परमाल रासो | - जगनिक | | 4. बुद्धि रासो | - जल्हण | | 5. विजयपाल रासो | - | | 6. हम्मीर रासो | - नल्लसिंह | | 7. खुमान रासो | - शार्ङ्गधर | | | - दलपति विजय | ऐतिहासिक रासो-काव्य परम्परा के कवि प्रायः राज्याश्रित थे जिनका उद्देश्य अपने आश्रयदाता के शौर्य एवं ऐश्वर्य की अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसा करना था। यद्यपि इन ग्रन्थों में ऐतिहासिक व्यक्तियों का उल्लेख है, परन्तु ऐतिहासिक तथ्यों का अभाव एवं कल्पना की प्रचुरता है। इन रचनाओं में पात्रों का जो चरित्रांकन किया गया है तथा उनके क्रियाकलापों का जो वर्णन किया गया है उससे हमें सामंती जीवन की पूरी झलक मिलती हैं। वीर एवं श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति इन रासो-ग्रन्थों में प्रधान रूप से हुई है। कलापक्ष की दृष्टि से इस परम्परा के कवियों में अलंकार मोह एवं विविध छंदों का प्रयोग करने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। पुरानी राजस्थानी एवं अपभ्रंश मिश्रित डिंगल भाषा का प्रयोग करने के साथ-साथ अपभ्रंश मिश्रित ब्रजभाषा अर्थात् पिंगल का प्रयोग भी रासो-काव्य-ग्रंथों में हुआ है। वीर रस की सहज अभिव्यक्ति एवं मध्यकालीन सामंतवादी जीवन के यथार्थ चित्रण की दृष्टि से रासो-काव्य परम्परा के ग्रन्थ महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। यहाँ हम इस काव्य परम्परा के प्रमुख ग्रंथों का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं- * ### बीसलदेव रासो बीसलदेव रासो के रचयिता नरपति नाल्ह ने इस ग्रन्थ की रचना सं. 1212 विक्रमी में की थी। इस ग्रन्थ के चरितनायक विग्रहराज चतुर्थ एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं; किन्तु अन्य रासो-काव्यों की भाँति इसमें भी अनेक ऐतिहासिक भ्रांतियाँ हैं जो यह प्रमाणित करती हैं कि इस ग्रन्थ में तथ्य कम हैं और कल्पना अधिक है। बीसलदेव रासो की रचना यद्यपि आदिकाल में हुई है तथापि अन्य रासो-काव्यों की भाँति यह वीरगाथात्मक कृति न होकर एक विरह काव्य है जिसका मूलरूप वस्तुतः गेय-काव्य का था। गेय-काव्य होने के कारण ही इसका स्वरूप परिवर्तित होता रहा। बीसलदेव रासो आदिकाल की एक श्रेष्ठ काव्य-कृति है, जिसे चार खण्डों में विभक्त किया गया है। प्रथम खण्ड में अजमेर के राजा विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) का परमारवंशी राजा भोज की कन्या राजमती से विवाह दिखाया गया है। द्वितीय खण्ड में रानी के व्यंग्य से रुष्ट राजा के उड़ीसा चले जाने की कथा है। बारह वर्ष तक बीसलदेव उड़ीसा में रहता है और उसके विरह में रानी राजमती अत्यधिक वेदना का अनुभव करती है। रानी का यह विरह-वृतांत तृतीय खण्ड में वर्णित है। चतुर्थ खण्ड में इन दोनों के पुनर्मिलन का वृत्तांत है। बीसलदेव रासो 125 छंदों की एक प्रेमपरक रचना है जिसमें संदेश रासक की भाँति विरह की प्रधानता है। विरह के स्वाभाविक चित्रण के साथ-साथ संयोग के मर्मस्पर्शी चित्र भी इसमें अंकित किये गए हैं। कवि ने प्रकृति के रमणीय चित्र अंकित करके इस काव्यकृति के महत्व को द्विगुणित कर दिया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बीसलदेव रासो की भाषा को 'राजस्थानी' माना है जिसका व्याकरण अपभ्रंश के अनुरूप है। * ### पृथ्वीराज रासो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पृथ्वीराज रासो को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना है। जिसकी रचना पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मित्र एवं दरबारी कवि चंदबरदाई द्वारा की गई है। रासो की प्रामाणिकता के विषय में पर्याप्त विवाद रहा है। विद्वानों का एक वर्ग इसे पूर्णतः अप्रामाणिक रचना स्वीकार करता है। इस वर्ग के विद्वानों में प्रमुख हैं- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, कवि राजा श्यामल दास, डॉ. बूलर, मुंशी देवीप्रसाद, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा। दूसरे वर्ग में वे विद्वान् हैं जो रासो को एक प्रामाणिक रचना मानते हैं। इस वर्ग में डॉ. श्यामसुन्दर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या, मिश्र बंधु और कर्नल टाड के नाम लिए जाते हैं। तृतीय वर्ग के विद्वान् रासो को अर्धप्रामाणिक रचना मानते हुए इसके कुछ अंश को ही प्रामाणिक मानते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी एवं मुनि जिनिविजय इसी वर्ग के विद्वान् हैं। पृथ्वीराज रासो ऐतिहासिक चरित-काव्य होने पर भी ऐतिहासिक तथ्यों से रहित है। इसमें कवि ने कल्पना एवं अतिश्योक्ति का प्रयोग अधिक किया है परिणामतः इतिहास की रक्षा नहीं हो सकी है। यद्यपि रासो की प्रामाणिकता संदिग्ध है तथापि उसका काव्य सौन्दर्य अक्षुण्ण है। वीर एवं श्रृंगार रसों की जैसी भव्य योजना : इस विकसनशील महाकाव्य में की गई है, वैसी बहुत कम ग्रन्थों में दिखाई पड़ती है। युद्ध वर्णनों के अंतर्गत वीर हृदय की उमंगों और रणबांकुरों के क्रियाकलापों का अत्यंत हृदयग्राही, ओजपूर्ण एवं मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है। अपने विशाल कलेवर में यह ग्रंथ अनेक ऐतिहासिक, पौराणिक एवं काल्पनिक वृत्तों को समाविष्ट किये हुए है तथा अपनी अद्भुत भाव-व्यंजना, प्रकृति निरूपण, अलंकारों के सहज प्रयोगों और छंदों की विविधता के कारण रासो-काव्य परम्परा का सर्वोत्तम ग्रन्थ माना जाता है। * ### परमाल रासो परमाल रासो का रचयिता कवि जगनिक था जिसे चंदेलवंशी राजा परमार्दिदेव का दरबारी कवि माना जाता है। आल्हा और ऊदल नामक दो क्षत्रिय सामंतों की वीरता का वर्णन परमाल रासो के अंतर्गत प्रमुख रूप से किया गया है। उत्तर प्रदेश में इसे 'आल्हा' या 'आल्हखण्ड' के नाम से जाना जाता है तथा यह अपनी गेयता के कारण अब तक लोक-काव्य के रूप में समादृत है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है कि "जगनिक के काव्य ka आज कहीं पता नहीं है, पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्तों के गाँव-गाँव में सुनाई पड़ते हैं। यह गूँज मात्र है मूल शब्द नही ।" आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी इस ग्रन्थ को अर्द्धप्रामाणिक ही स्वीकार करते हुए अपना मत निम्न शब्दों में व्यक्त किया है- "जगनिक के मूल काव्य का क्या रूप था, यह कहना कठिन हो गया है। अनुमानतः इस संग्रह का वीरत्वपूर्ण स्वर तो सुरक्षित है, लोकिन भाषा और कथानकों में बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है। इसलिए चंदवरदाई के पृथ्वीराज रासो की तरह इस ग्रंथ को भी अर्द्धप्रामाणिक कह सकते हैं।" परमाल रासो का रचनाकाल 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ में माना गया है। वीर भावना का जितना प्रौढ रूप इस ग्रंथ में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। भावों के अनुरूप भाषा का प्रयोग इसकी अन्यतम विशेषता है। आज भी वर्षाकाल में उत्तर प्रदेश के गाँव-गाँव में आल्हा के स्वर सुने जा सकते हैं जो श्रोताओं के हृदय में वीर रस का संचार कर देते हैं। 'आल्हखण्ड' नाम से चार्ल्स इलिएट ने सर्वप्रथम इसका प्रकाशन कराया था जिसके आधार पर डॉ. श्यामसुन्दर दास ने 'परमाल रासो' का पाठ निर्धारण कर उसे नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित कराया। यद्यपि यह कृति सर्वथा प्रामाणिक नहीं है तथापि अपनी गेयता, वीर रस की मार्मिक अभिव्यक्ति के कारण आदिकाल की एक उल्लेखनीय कृति मानी जाती है। * ### खुमान रासो खुमान रासो का रचयिता दलपति विजय नामक कवि है। इस ग्रंथ का चरित-नायक मेवाड़ का राजा खुमान द्वितीय है। अन्य रासो-काव्य-ग्रन्थों की भांति इसका रचनाकाल भी संदिग्ध है, क्योंकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इसे 9वीं शताब्दी की रचना मानते हैं तो राजस्थान के वृत्त संग्राहकों (डॉ. मोतीलाल मेनारिया) ने इसे 17वीं शती की रचना बताया है। आचार्य शुक्ल का मत ही अधिक समीचीन प्रतीत होता है क्योंकि इसमें आदिकालीन हिन्दी का स्वरूप सुरक्षित है। इस ग्रन्थ की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति पूना-संग्रहालय में उपलब्ध है। इस ग्रन्थ की रचना लगभग 5000 छंदों में की गयी है। वस्तुवर्णनों के अंतर्गत नायिका भेद एवं षडऋतु वर्णन का समावेश भी किया गया है। यद्यपि वीर रस ही ग्रन्थ का प्रधान रस है तथापि श्रृंगार के मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी चित्र भी इसमें उपलब्ध होते हैं। अनेक ऐतिहासिक भ्रांतियों को समाविष्ट किये हुए इस ग्रन्थ में विविध छंदों का प्रयोग किया गया है। आदिकाल के रासो साहित्य के उल्लेखनीय ग्रन्थ यही चार हैं। प्राकृत पैंगलम में हम्मीर रासो के कुछ छंद मिले थे जिनके आधार पर आचार्य शुक्ल ने हम्मीर रासो के अस्तित्व को स्वीकार किया था, किन्तु अभी तक यह ग्रन्थ अप्राप्य है। विजयपाल रासो वस्तुतः अपभ्रंश भाषा में रचित है, अतः इसे हिन्दी रासो-काव्य परम्परा में स्थान देना उचित नहीं है। आदिकालीन रासो साहित्य की प्रामाणिकता पर भले ही प्रश्नचिह्न लगाये जायें किन्तु इन काव्य-ग्रन्थों के काव्य-सौष्ठव पर कोई उँगली नहीं उठा सकता। वीर रस की जैसी ओजपूर्ण अभिव्यक्ति इनमें हुई है वैसी परवर्ती साहित्य में भी दुर्लभ है। तत्कालीन भाषा के स्वरूप को समझने में भी इन रासो-ग्रन्थों की उपादेयता से इनकार नहीं किया जा सकता।

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