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Hindi Literary Essay on Satire: PDF

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Summary

This Hindi document provides a detailed analysis of satire in literature, exploring its historical development, definition, and characteristics within the Hindi literary tradition. The author delves into the various aspects, presenting different viewpoints and definitions provided by literary scholars.

Full Transcript

## द्वितीय अध्याय व्यंग्य - स्वरूप - विवेचन ### २.१ प्रस्तावना :- "व्यंग्य" शब्द का प्रचलन हिन्दी साहित्य क्षेत्र में अधिक पुराना नहीं है। भारतीय काव्यशास्त्र में जिस प्रकार वक्रोक्ति, हास्य और उपालंभ पर विचार हुआ है उस प्रकार व्यंग्य पर नहीं हुआ। भारत में विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में जिस प्रका...

## द्वितीय अध्याय व्यंग्य - स्वरूप - विवेचन ### २.१ प्रस्तावना :- "व्यंग्य" शब्द का प्रचलन हिन्दी साहित्य क्षेत्र में अधिक पुराना नहीं है। भारतीय काव्यशास्त्र में जिस प्रकार वक्रोक्ति, हास्य और उपालंभ पर विचार हुआ है उस प्रकार व्यंग्य पर नहीं हुआ। भारत में विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में जिस प्रकार परिवर्तन हो रहा है उसी तरह साहित्य के क्षेत्र में भी नये प्रयोग, नयो कल्पना, नयी विधाएँ आ रही है। नयी विद्याओं में खासकर व्यंग्य, हायक, गट्यगीत, लघु-कथा, लघु-व्यंग्य आदि विद्याओं का प्रचलन हो रहा है। आधुनिक हिन्दी साहित्य की स्वातंत्र्यपूर्व काल से लेकर आज तक अनेक दृष्टि से विकास हुआ है। हिन्दी साहित्य के इतिहास से इस बात का पता चलता है कि, भले ही व्यंग्य एक विधा बनकर आधुनिक काल में पनप रही हो लेकिन व्यंग्य लेखन की हमारी परम्परा पुरानी रही है। डॉ. मलय व्यंग्य के सन्दर्भ में लिखते हैं "हम अगर व्यंग्य पर गंभीरता से विचार करते हैं तो यह कहना सहज लगता है कि संस्कृति - साहित्य में भी व्यंग्य-रचना-लेखन की एक विकसित और समृध्द परम्परा रही है। चतुर्भाणी में संग्रहीत नाटक, संस्कृत में एक समृध्द और सोददेश्य व्यंग्य-रचना-लेखन को प्रभावित करते हैं। " लेकिन संस्कृत में व्यंग्य पर अलग से किसी प्रकार का विचार नहीं हुआ है। "व्यंग्य का सौन्दर्यशास्त्र", पृष्ठ ७ यदि एक प्रकार से विचार किया जाये तो व्यंग्य बहुत बुरी चीज है। क्योंकि अगर हम किसी व्यक्ति पर व्यंग्य करते हैं तो हम हमेशा के लिए उसके दोषी कहलाये जाते हैं। लेकिन साहित्य में जिस प्रकार का व्यंग्य प्रचलित है, उसमें समाज का हित ही निहित होता है। वर्तमान युग की विसंगतियों को देखा जाय तो हम यह कह सकते हैं कि राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, आर्थिक आदि क्षेत्रों में असामंजस्य, दिखाई देता है। अन्याय, अनैतिकता, बेशर्मी आदि बातें मिलती हैं। इन सभी बातों का पर्दाफाश आज का साहित्यकार अपनी व्यंग्यपूर्ण शैली से करता है। वह अपने साहित्य में व्यंग्य को प्रविष्ट करता है, जिससे समाज का हित ही प्रतित होता है। ### २.२ व्यंग्य का स्वरूप :- आधुनिक काल में व्यंग्य-विधा एक प्रमुख साहित्यिक विधा के रूप में उभर आयी है। उसने मनुष्य के भीतर अन्तरंग को प्रभावित कर उसके चेतना में हलचल पैदा की है। आधुनिक समाज के मस्तिश्क को कुरेदनेवाली इस विधा का सभी स्तरों पर स्वागत हुआ है। इस विधा ने सामाजिक जीवन पर सोचने के लिए हर-एक को मजबूर कर दिया है। व्यंग्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए डॉ. उमा शुक्ल लिखती हैं "व्यंग्य साहित्य जीवन संध्धाध या विचारों की उग्णता को कुनैनी और बेजाबी भाषा में व्यक्त करता है। उनमें यथार्थ-बोध की विषमता का क्रूर यथार्थ तर्क की चक्रता में उद्‌भासित होता है जो जनमानस की बुद्धि को कुरेद कर उसमें तिलमिलाहट और बेचैनी पैदा करता है। व्यंग्य समाज में एक प्रकार का अच्छापन लाने की क कोशिश करता है। साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा व्यंग्य विधा पर "स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी व्यंग्य निबंध एवं निबंधकार प्रस्तावना [मेरी नज़र में] । समाज का गंभीर दायीत्व है। वर्तमान युग के हिसाब से व्यंग्य विधा का आना जरूरी था, जिसकी पूर्ति आज के साहित्यकारों ने की है। खासकर स्वातंत्र्य प्राप्ति के पश्चात व्यंग्यपूर्ण साहित्य अधिक मात्रा में लिखा गया। वर्तमान समाज की विविध समस्याओं को समझाना इसके पीछे मूल हेतु था। वर्तमान राजनेताओं पर और राजनीति पर जितना व्यंग्य किया गया उतना शायद ही किसी अन्य विषय पर किया गया होगा। लेकिन एक बात उतनी ही सत्य है कि वर्तमान युग में साहित्यकारों ने हर एक विषय को अपने व्यंग्यपूर्ण शैली से छुआ है। ### २.३ "व्यंग्य" शब्द का अर्थ :- "व्यंग्य" शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। जो "वि" उपसर्ग एवं "व्यत्" प्रत्यय को "अज्ज" धातु में लगाने से बनता है। मुख्यतः इस शब्द का प्रयोग "शब्दशक्तियों" के अन्तर्गत ही होता है। इसी लिए हिन्दी में इसके जितने भी अर्थ मौजूद हैं वे प्राथः उसी अर्थ से सम्बन्धित हैं। व्यंग्य शब्द के अर्थ के संस्कृत के इस अर्थ से न जोड़कर अंग्रेजी शब्द "सैटायर" (Satire) के अर्थबोध के लिए लिया जाये तो अधिक उचित होगा। आज साहित्य में जब हम व्यंग्य की बात करते है तो satire के अर्थ में ही इस शब्द को लेते हैं। जो भी हो लेकिन आज हिन्दी में व्यंग्य शब्द अंग्रेजी के सैटायर [satire] शब्द का ही पर्यायी है। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार "अंग्रेजी के सैटायर के आधार पर निर्मित शब्द यद्यपि इस प्रकार की रचनाओं का अभाव कभी नहीं रहा। वि - अंग = व्यंग से व्यंग्य की उत्पत्ति है। " अनेक विद्वानों तथा शब्दकोशों के अनुसार व्यंग्य का अर्थ ताना या चुटकी है। "हिन्दी साहित्य कोश - भाग-१" - पृष्ठ ८०४ ### २.४ व्यंग्य की परिभाषा :- भारतीय एवं पाश्चात विद्वानों ने व्यंग्य को उसके स्वस्य, वैशिष्टय तथा मर्यादाओं को देखते हुए परिभाषित करने का प्रयास किया है। लेकिन अन्य विधाओं की तरह व्यंग्य को परिभाषा भी कोई एक परिपूर्ण न हो पायी है। व्यंग्य की परिभाषा पर विद्वानों का मतरैक्य नहीं है इसी कारण इसके स्वरूप, और महत्त्व पर आधारित विविध परिभाषाएँ सामने आई हैं। इनमें से प्रतिनिधी परिभाषाएँ इसप्रकार #### २.४.१ आ. हजारीप्रसाद दिववेदी "व्यंग्य वह है, जहाँ कहनेवाला अधरोष्ठ में हँस रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठा हो और फिर कहनेवाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना हो जाता हो। " #### २.४.२ डॉ. बरसानेलाल चतुर्वेदी "आलंबन के प्रति तिरस्कार, उपेक्षा या भर्त्सना की भावना लेकर बढ़नेवाला हास्य व्यंग्य कहलाता है। " #### २.४.३ हरिशंकर परसाई "व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है। " "हिन्दी साहित्य में हास्यरस" - पृष्ठ १६४ "कबीर" - पृष्ठ ४२ "सदाचार का तावीज" - पृष्ठ १०१ #### २.४.४ डॉ. प्रभाकर मावेवे "मेरे लिए व्यंग्य कोई पोज या अन्दाज या लटका या बौध्दिक व्यायाम नहीं पर एक आवश्यक अस्त्र है। सफाई करने के लिए किसी को तो हाथ गन्दे करने ही होंगे, किसी न किसी को तो बुराई अपने सर लेनी ही होगी।" "तेल की पकौड़ियाँ" - पृष्ठ ५ #### २.४.५ डॉ. शेरगंज गर्ग "व्यंग्य एक ऐसी साहित्यिक अभिव्यक्ति या रचना है, जिसमें व्यक्ति तथा समाज की कमजोरियों, दुर्बलताओं, कथनी और करनी के अंतरों की समीक्षा अथवा निन्दा भाषा की टेढ़ी भंगिमा देकर अथवा कभी-कभी पूर्णतः सपाट शब्दों में प्रहार करते हुए की जाती है। वह पूर्णता अगंभीर होते हुए भी गंभीर हो सकती है, निर्द्धय लगते हुये दयालु हो सकती है, प्रहारात्मक होते हुए तटस्थ लग सकती है, मखौल लगती हुई बौदधिक हो सकती है, अतिशयोक्ति एवं अतिरंजना का आभास देने के बावजूद पूर्णतः सत्य हो सकती है। " "स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता में व्यंग्य", पृष्ठ २७४२८ #### २.४. ६ "ऑक्सफर्ड कंपनियन टू इंग्लिश लिट्रेचर " डॉ. बापूराव देसाई कृत अनुवाद - "व्यंग्य वह पढ्य अथवा गद्यात्मक रचना है जिसके द्वारा विद्यमान दुर्गुण अथवा मूर्खताओं को निन्दित किया जाता है। "तेल की पकौड़ियाँ" - पृष्ठ ५ "स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता में व्यंग्य" - पृष्ठ २७४२८ "स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी व्यंग्य निबंध एवं निबंधकार" - पृष्ठ २० #### २.४.७ स्विफ्ट के अनुसार डॉ. बापूराव देसाई कृत अनुवाद - "व्यंग्य एक ऐसा आईना है, जिसमें दूसरों के मुख-मुद्राओं के देखते हुए लेखक अपने मुख को भी प्रतिबिम्बित होते हुए देखता है। और व्यंग्य के कारण लेखक एकांत में मुस्कुरा उठता परन्तु उसे अधिक परिहासात्मक कार्य भी करना होता है, व्यंग्य दूसरों को भी हँसने में सहायता पहुँचाता है। " "स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी व्यंग्य निबंध एवं निबंधकार" - पृष्ठ २० "हिन्दी का स्वातंत्र्योत्तर हास्य और व्यंग्य" - पृष्ठ ५४ #### २.४.८ जॉन एम. बुल्टि डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारी कृत अनुवाद - "मानव अथवा उसके आचारों की मूर्खताओं अथवा सदोषता पर किया गया साहित्यिक प्रहार चाहे वह अच्छा हो या बुरर, सामान्य हो या विशिष्ठ, सत्य हो या असत्य, क्रूर हो या हस्यास्पद गदय हो या पद्यमय सब व्यंग्य शब्द के अन्तर्गत है। " "हिन्दी का स्वातंत्र्योत्तर हास्य और व्यंग्य - पृष्ठ ५४ इसी प्रकार व्यंग्य को अनेक विद्वानों ने परिभाषा-बध्द करने का प्रयास किया है। इनका अध्ययन करने के पश्चात यह बात स्पष्ठ होती है कि व्यंग्य को पढ़नेवाला तिलमिला उठे और उसका मन-परिवर्तन के लिए दौड़ जाए। यही व्यंग्यकार का अंतिम लक्ष्य होता है। ### २.५ व्यंग्य : उद्भव तथा विकास :- प्राचीन काल में भले ही व्यंग्य पर विस्तृत विचार न हुआ हो लेकिन व्यंग्य का अस्तित्व जरूर था। आदिकाल से लेकर आधुनिककाल तक के विविध कालखंडों में "आधुनिक हिन्दी काव्य में व्यंग्य" - पृष्ठ २० "हिन्दी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास" - पृष्ठ ८५ व्यंग्य के सिर्फ स्वरूप में और उ‌द्देश्य में अन्तर आया है। जिसप्रकार प्राचीन काल से लेकर अब तक परिवर्तन हो गया है। इसी प्रकार हर युग में व्यंग्य का स्वरूप बदलता गया। व्यंग्य का उदभव किस प्रकार हुआ होगा यह समझाते हुए डॉ. बरसानेलाल चतुर्वेदी लिखते हैं "कानूनों की कमियों एवं अपराधियों की होशियारी के कारण सभी अपराधियों को दंडित नहीं किया जाता। यही कारण है कि व्यंग्य का प्रयोग प्रारंभ हुआ ताकि उन अपराधियों को समाज की नजरों में गिराया जाये जिन्हें धर्म तथा दंड का भय अपराध करने से नहीं रोक पाता। भ्रष्टाचारी अपने धन के प्रभाव से एवं अन्य हथकंडों से कानून की गिरफ्त से निकल जाता है। व्यंग्यकार रेसे लोगों पर ही व्यंग्य के बाण छोड़ता है और उनके सम्मुख व्यंग्य स्पी दर्पण रखता है ताकि वो अपने काले मुख को देख सके । " गुरु में व्यंग्य गाली-गलौज से भरा हुआ है, ऐसा भी कहा जाता रहा है। पहले व्यक्तिगत और तदनंतर सामाजिक स्तर पर व्यंग्य का प्रयोग होता रहा है। आज व्यंग्य से समाज परिवर्तन काकार्य हो रहा है। #### २. ५.१ प्राचीन काल प्राचीन काल से लेकर व्यंग्यात्मक साहित्य लिखा गया है। "रामायण" तथा "महाभारत" में थोडी-बहुत मात्रा में क्यों न हो लेकिन व्यंग्य हमे दिखाई देता है। संस्कृत नाट्यशास्त्र में महाकवि कालीदास कृत "अभिज्ञान शाकुंतलम्" तथा "विकृमोर्वशीय" में विदूषकों के माध्यम से व्यंग्य की सृष्टि को है। डॉ. बापूराव देसाई के अनुसार "सिदयों तथा नाथों की रचनाओं से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि हिन्दी साहित्य में व्यंग्य को परम्परा पूरानी है। संस्कृत के आचार्य दंडी और मम्मट ने भी अपने ग्रन्थों में व्यंग्यपूर्ण रचनाओं का समावेश किया है। "आधुनिक हिन्दी काव्य में व्यंग्य" - पृष्ठ २० "हिन्दी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास" - पृष्ठ ८५ सातवी से ग्यारहवी शताब्दी के कालखंड में जैनों दद्वारा उनके धर्मग्रन्थों में कर्मकांड का खंडन कर वैदिक तत्वों पर व्यंग्य प्रहार किया है। इस काल के कवि दूसरे धर्म पर अपने व्यंग्य द्वारा प्रहार करते थे। डॉ. बापूराव देसाई के अनुसार "कवि हरिषेण ब्राह्मण धर्म के अनेक पौराणिक अध्यानों तथा प्रसंगों को विसंगतिपूर्ण बताकर उनपर व्यंग्य किया है। " इसी प्रकार डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारीजी "चार्वाक" को इस देश का पहला व्यंग्यकार मानते हुए लिखते हैं "चार्वाक की व्यंग्यपूर्ण सूक्तियों ने वैदिक कर्मकांड सवं ब्राह्मण-धर्म पर कटू प्रहार किया है। उसकी हर उक्ति के मूल में असंतोषजनित सुधारमूलक व्यंग्य की आभा विद्यमान है। " इसप्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी के प्राचीन काल से व्यंग्य की परम्परा जरूर रही होगी लेकिन व्यंग्य विधा के रूप में उसपर कभी विचार नहीं हुआ। "हिन्दी का स्वातंत्र्योत्तर हास्य भौर व्यंग्य" - पृष्ठ ८७ #### २.५.२ मध्यकाल भक्तिकाल, भक्तिभावना तथा धार्मिकता से ओतप्रोत होने से और रीतिकाल दरबारी विलासिता के अनुकूल और राजा-महाराजाओं की स्तुतियों में ही लीन होने के कारण व्यंग्य की धारा इस काल में ज्यादह विस्तारित नहीं हुई। किन्तु व्यंग्य को स्वीकार करनेवाले कुछ कवियों का उदय जरुर हुआ है। इन सब में सन्त कबीर का स्थान अग्रणी है। कवि कबीर वे कवि हैं, जिन्होंने व्यंग्य की आत्मा को सही पहचाना। कबीरजी के व्यंग्य के बारे में डॉ. बापूराव देसाई कहते हैं "कबोर की बाणी में वैयक्तिक, सामाजिक तथा धार्मिक असंगति पर तीव्र प्रहार है। "हिन्दी व्यंग्य विद्या शास्त्र और इतिहास" - पृष्ठ ७८ "हिन्दी का स्वातंत्र्योत्तर हास्य भौर व्यंग्य" - पृष्ठ ८७ कबीर बाणी में सात्विक रोष भी दिखाई देता है। तत्कालीन हिन्दू-मुस्लिम भेद, जाति-पाति, मूर्ति-पूजा, रुढ़ियों तथा रीति-रिवाज पर तिक्ष्ण आघात किया है।" तत्कालीन सामाजिक असंगतियों को कबीर ने व्यंग्य का निशाना बनाया है। कबीर ने अपने समकालीन समाज की हर कुप्रथा पर प्रहार किया है। सूरदास ने भी अपने काव्य में व्यंग्य का सहारा लिया है। उनके भ्रमरगीत में गोपियाँ उध्दव की चाल समझकर उसपर व्यंग्य करती हैं। डॉ. बापुराव देसाई के अनुसार "सूरदास की गोपियों ने जहाँ उध्व के ज्ञान गरिमा की खिल्ली उड़ाई, वहाँ वचन-वैद्गद्ध, सूक्ष्म-आघात दद्वारा व्यंग्य किया गया। ॥" "हिन्दी व्यंग्य विधा और इतिहास" - पृष्ठ ८९ तुलसीदास की रचनाओं में भी व्यंग्य दिखाई देता है। "रामचरितमानस" तथा "कृष्ण-गीतावली" में भी व्यंग्य मिलता है। रीतिकाल दरबारी विलासिता और आचार्यत्व की गरिमा के बीच बहुत कम साहित्य व्यंग्यात्मक लिखा गया है। कवि केशवदास ने "रामचंद्रिका" में थोड़ी-बहुत मात्रा में व्यंग्य का सहारा लिया है। कवि बिहारी ने अपने "सतसई" में क्षुद्र, महत्वाकांक्षी, हीन व्यक्तियों पर प्रहार किया है। कवि रहिम ने उच्चभू लोगों की स्थिति के सम्बन्ध में अनेक दोहों में तोखा व्यंग्य किया है। रसखान ने भी अपने साहित्य में फुटकर रूप से क्यों न हो लेकिन व्यंग्य का सहारा लिया है। संक्षेप में रीतिकाल में व्यंग्य को विधा के रूप में न सही लेकिन एक शैली के रूप में जरूर अपनाया गया। #### २.५.३ आधुनिक काल आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने फिर एक बार व्यंग्य की प्रवृत्ति को साहित्य में उद्घाटित किया । भारतेन्दु नवीन युग सुधार चेतना से प्रभावित थे। उनके मन में अंग्रेजी शासन के विरोध में आक्रोश था। इस युग के साहित्यकारों ने देश की पराधीनता और सामाजिक कुरीतियाँ पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। स्वयं भारतेन्दुजी ने इस विधा को अपनाते हुए अपने साहित्य में उन सभी धारणाओं को बदलने का आग्रह किया है, जो पहले से चली आ रही थी । इस काल के युग के समाज में बाल-विवाह, अनमेल विवाह, नरबलि, वृध्द-विवाह, बहु-विवाह जैती प्रथाएँ थी । पर्दापद्धति, वेश्या-गमन, अंधविश्वास, छूआछूत, जमींदारी, सूदखोरी, स्दी-परंम्पराएँ आदि सभी दृष्टि से भारतेन्दुकालीन समाज पथभ्रष्ट हो चूका था। इतने सारे विषय इस काल के साहित्यकारों के सामने थे और इन साहित्यिको ने अपने युग के अनुसार अपने साहित्य का सृजन किया है। डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारी के अनुसार "अपने युग की पराधीनता और सामाजिक कुरीतियाँ पर भारतेन्द्व युगीन निबन्धकारों ने छींटे कसी हैं। उनका व्यंग्य कहीं पोटता है कहीं चुभता है। " इस काल के साहित्यिकों ने सामाजिक परिस्थिति का गंभीरता से अध्ययन किया और समाज की विसंगतिपूर्ण स्थिति सुधारने के लिए साहित्य की व्यंग्य विधा का सहारा लिया। इस काल के साहित्यिकों में प्रमुख रूप से भारतेन्द्व हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भदट, प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, बालमुकुन्द गुप्त आदि हैं। "हिन्दी का स्वातंत्र्योत्तर हास्य और व्यंग्य - पृष्ठ ९१ भारतेन्दू के पश्चात हिन्दी व्यंग्य का नेतृत्व निराला ने किया। इस सन्दर्भ में डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारी लिखते है "व्यंग्य के आत्मा को पहचाननेवाली पैनी दृष्टि भारतेन्दु के बाद सीधे निराला को मिली थी।" "हिन्दी का स्वातंत्र्योत्तर हास्य और व्यंग्य - पृष्ठ ९१ भारतीय आम जनता पर हुए अत्याचार पर प्रकाश डालेने का कार्य उपन्यासों में प्रेमचंद ने तथा काव्य में कवि निराला ने किया। इस काल के अन्य व्यंग्यकारों में बद्रीनाथ भदट, नाथुराम शंकर, कौशिक, सुदर्शन, जी. पी. श्रीवास्तव, उग्र, अन्नपूर्णानंद शिवनाथ शर्मा, रामावतार शर्मा, हरिशंकर शर्मा, जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, उपेन्द्रनाथ अश्क, रामकुमार वर्मा आदि व्यंग्य लेखक - कवियों का सहयोग मिला। स्वातंत्र्योत्तर काल में देश के सभी अंगों में परिवर्तन होने की अपेक्षा की गई थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। परिस्थितियाँ वही की वही रही। स्वातंत्र्यपूर्व काल की अपेक्षा स्वातंत्र्योत्तर काल में समस्याएँ बढ़ने लगी। ऐसी स्थिति में व्यंग्य साहित्यकारों ने समाज के नग्न रूप का चित्रण किया है। इस युग के प्रमुख व्यंग्यकारों में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रविन्द्रनाथ त्यागी, डॉ. नरेन्द्र कोहली, लतीफ घाँधी, डॉ. बरसानेलाल चतुर्वेदी, डॉ. इन्द्रनाथ मदान, डॉ. के. पी. सक्सेना, रोशनलाल सुरीवाला, बालेन्दुशेखर, धूमिल आदि रहे है। हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य लेखन का प्रारंभ पत्र-पत्रिकाओं द्वारा किया और बाद में कहानी निबन्धों के जरिए अपना साहित्य पाठकों के सामने प्रस्तुत किया। शरद जोशी का भी पत्रिकाओं के साथ नजदीक का नाता रहा है। उन्होंने अपने तीखे व्यंग्य से सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और प्रशासकीय विकृतियों का पर्दाफाश किया है। नरेंन्द्र कोहलीजी "धर्मयुग" पत्रिका में व्यंग्य रचनाएँ प्रकाशित करते रहे हैं। लतीफ घाँधी "अमृत-संदेश" पत्रिका में अपनी रचनाएँ प्रकाशित करते रहे हैं। डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारीजी भी अन्य व्यंग्यकारों के समान पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्यात्मक लेख लिखते रहे हैं। ### २.६ व्यंग्य का महत्त्व :- साहित्य क्षेत्र में हर विधा का अपना महत्त्व होता है। इसे व्यंग्य विधा अपवाद नहीं है। लेकिन जिस नजर से अन्य लेखकों को देखा जाता है, उस नजर से व्यंग्यकार को नहीं देखा जाता । लोग व्यंग्यकारों की भर्त्सना करते दिखाई देते हैं। उन लोगों का कहना है कि व्यंग्यकार की कोई सामाजिक उपयोगिता नहीं होती। लेकिन सच तो यह है कि व्यंग्यकार अपने व्यंग्य द्वारा जितना समाज को सही रास्ता दिखा सकता है उतना शायद ही कोयी अन्य विधा का लेखक या कवि दिखा पायेगा। व्यंग्य साहित्य का ऐसा तीक्ष्ण हथियार है जो गंभीर चोट कर गहरा घाव बनाता है। व्यंग्य की इसी खासियत के कारण हर काल में उसका अपना महत्त्व है। और आनेवाले काल तक रहेगा। यह बात उतनी ही सच है कि जिस साहित्य को ज्यादा आलोचना होतो है उसे अपनाने के लिए हर युग का साहित्यकार कतराता है। लेकिन व्यंग्यकार को आलोचकों की इस कटू आलोचना से कतराना नहीं चाहिए। व्यंग्यकार हो सही माने में असामाजिक तत्वों पर अंकुश लगाता है। यह सत्य है कि कुछ लोगों पर इसका असर नहीं पड़ता, लेकिन इस कारण व्यंग्य के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता । व्यंग्यकार का उद्‌देश्य यह होता है कि सामाजिक, राजनै तिक एवं धार्मिक विकृतियों का पर्दाफाश करना । ढोंगी, पाखंडियों एवं भ्रष्टाचारियों के मुखौटों को समाज के सामने नंगा करना यहीं इनका कार्य "आधुनिक हिन्दी काव्य में व्यंग्य" - पृष्ठ २० "आधुनिक हिन्दी काव्य में व्यंग्य" - पृष्ठ २१ है। इसके साथ-साथ वह समाज में स्थित विकृतियों को पाठकों के सामने प्रस्तुत करे। इसे स्पष्ट करते हुए डॉ. बरसानेलाल चतुर्वेदी लिखते हैं "डॉक्टर जिस समय मरीज का आपरेशन करता है वह चिल्लाता है, रोता है और कभी-कभी डॉक्टर को गाली भी देता है। व्यंग्यकार का कार्य भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। वह आलोचकों की चिंता नहीं करता। उसका कार्य तो समाज के कड़े करकट को साफ करना है। " ### २.७ व्यंग्य के रूप :- व्यंग्य अपना अंतिम उद्देश्य प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के साधनों का उपयोग करता है। जिसमें क्रमशः तीक्ष्ण वैदगध्य, विडम्बना, उपहास, द्देयहास, निन्दा, विनोद, कटाक्ष, प्रभर्त्सना, आक्षेप, खिल्ली उड़ाना अर्थस्य, भडैती, उपहासात्मक स्वांग, फेबिक आदि व्यंग्य स्पों एवं उपस्पों का सहारा लिया जाता है। व्यंग्यकार अपनी प्रतिभा के बल पर इनमें से अलग-अलग रूपों का सहारा लेकर व्यंग्य रचना करता है। ये सभी रूप व्यंग्य में समाकर उसे अधिकाधिक बलवत्तर बनाने में सहायक की भूमिका निभाते हैं। इन व्यंग्य रूपों का विवेचन इस प्रकार होगा - #### २.७.१ तीक्ष्ण वैदगध्य मनुष्य तर्कशील प्राणी है। जिसे ईश्वर प्रदत्त जन्मजात प्रतिभा मिली है, उसके माध्यम से तथा अभ्यास के कारण वह पांडित्य, वैदगध्य प्राप्त कर सकता है। तीक्ष्ण वेदाध्य का अर्थ बुध्दि, मेधा, तर्क, पांडित्य, विद्वत्ता, हाजिरजबाबी आदि बातों की प्राप्ति होती है। वैदगध्य का अंग्रेजी पर्यायी शब्द "विट" है। वैदगध्य को हम बुध्दि और तर्क से युक्त हजिरजबाबी कह सकते है। वैदगध्य का पूराना अर्थ आज अपने विकसित रूप में जिन सन्दर्भों तक पहुँच चुका है। वह व्यंग्य की निकटता पाने में समर्थ है। वैदगध्य को हिन्दी में भी व्यंग्य के रूप में ग्रहण किया है। डॉ. मलय इस कल्पना को स्पष्ट करते हुए कहते हैं "तीक्ष्ण वैद्गध्य में निहित तत्वों को ध्यान में रखकर उसकी व्यंग्यात्मक भावना का विकास स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। तीक्ष्ण वैद्गध्य अपनी पैनी दृष्टि के कारण आलंबन की "व्यंग्य का सौन्दर्यशास्त्र", पृष्ठ ९० बुराइयों को संशोधित कर उन्हें अपने तर्कपूर्ण नपेतुले शब्दों में ऐसी शाब्दिक फ्टकार सुनाई जाती है जो आलंबन के मस्तिष्क को कुरेदती है। उसमें बेचैनी उत्पन्न होकर अपनी गलतियाँ एवं बुराइयों का एहसास होने लगता है, जिसके कारण वह बुराइयों से मुह मोड़ लेता है। यहाँ पर तीक्ष्ण वैदगध्य का प्रयोग दिखाई देता है। #### २. ७. २ विडम्बना विडम्बना पर संस्कृत साहित्य में पर्याप्त मात्रा में विचार हुआ है। वक्रोक्ति विडम्बना से मिलती-जुलती है। वक्रोक्ति को भारतीय साहित्यक्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। जिस प्रकार वक्रोक्ति के सम्बन्ध में भारतीय साहित्यक्षेत्र में व्यापक महत्त्व प्राप्त हुआ है, उसी प्रकार विडम्बना के सम्बन्ध में पाश्चात्या साहित्यक्षेत्र में व्यापक क्षेत्र उपलब्ध हुआ है। विडम्बना में लेखक जो बात कहता है उससे भिन्न अर्थ की अभिव्यक्ति होती है। हम विडम्बना में जिसके साथ विवाद करते हैं, वहाँ शब्दों के वास्तविक अर्थ को छिपाकर उसके विपरीत हेयहास का सहारा लेकर आलंबन पर प्रहार करते हैं। विडम्बनाकार विडम्बना करते समय किसी को किसी की भी उपमा दे सकता है। जैसे कौए की आवाज को कोयल की आवाज कहना । इस सम्बन्ध में डॉ. मलय कहते हैं - " विडम्बना का प्रभाव चाहे वह श्रोताओं के लिये हो या हस्सास्पद के लिए बुदधि को सजगता को माँग करता है। " "व्यंग्य का सौन्दर्यशास्त्र" - पृष्ठ १०७ सामाजिक जीवन में जहाँ कहीं भी विषमता दिखाई देती है, वहाँ विडम्बना अधिक कार्यरत दिखाई देती है। व्यंग्य का ही उपभेद विडम्बना है और इसका उ‌द्देश्य समाज के ढकोसले, पाखण्ड, अन्तर्विरोध, #### २.७.३ उपहास उपहास मनुष्य स्वभाव के "आत्मगौरव" की भावना में ही होता है। व्यक्ति अपने "आत्मगौरव" से प्रेरित होने के कारण या अपनी ही पूर्ववत हीन भावनाओं के कारण दूसरों का मुख हमेशा होनता से देखता है। यहाँ उपहास को भावना का निर्मान होता है। जाहाँ उपहास को मात्रा बढ़ जाती है वहाँ व्यंग्य हो जाता है। डॉ. मलय उपहास के सन्दर्भ में कहते हैं "व्यक्तिगत आधारों पर प्रस्तुत होकर व्यक्ति या वास्तु के प्रति तत्कालीक रूप से तिक्त परिघसोन्मुखी भाषा में उछाले गये हलके-फुलके छींटे जो अधिकतया तुच्छता या किंचित तिरस्कार में डूबे होते हैं, उपहास है। " "व्यंग्य का सौन्दर्यशास्त्र" - पृष्ठ १३२ #### २.७.४ हेयहात हेयहास में तिरस्कार भावना की व्याप्ति रहती हैं। इसी लिए इसमें घृणा को भावना को पाया जाता है। घृणा एवं तिरस्कार के द्वारा सामाजिक विसंगतियों एवं विकृतियों को तिरस्कृत करके उन्हें ठेंस पहुँचाई जाती है। समाज में व्याप्त विसंगतियों के प्रति मुनुष्य के मन में तिरस्कार एवं घृणा के भाव निर्माण कर उनसे बचे रहने की प्रवृत्ति हेयहात निर्माण करता है । डॉ. मलय हेयहास के बारे में कहते हैं - "बुराईयों पर विजय पाने हेतु या सामाजिक सुरक्षा के प्रति तिरस्कार एवं घृणा के अस्त्रों से उद्वेलित होनेवाली विकृति हत्याभिव्यक्ति हेयहास है। " "व्यंग्य का सौन्दर्यशास्त्र" - पृष्ठ १३८ इस प्रकार निर्माण करता है। #### २.७.५ कटाक्ष व्यंग्यकार का ध्यान विकृतियों पर होता है। और उसका कार्य निर्मूलन करना है। और कभी-कभी वह उसे अपने क्रोध से व्यक्त करता है। और आवेश के मारे संचलित होकर कटाक्ष की रचना करता है। तात्पर्य यह है कि व्यंग्यकार स्वयं आवेश से संचलित होकर समाज में हस्यास्पद या विकृतियों के प्रति क्रोध को उभारने में ही अपना कर्तव्य समझने लगता है तब कटाक्ष की रचना करता है। कटाक्ष अत्यंत कठोर होता है। डॉ. मलय कटाक्ष के सन्दर्भ में कहते है "वास्तव में कटाक्ष एक कथन प्रणाली ही है, जो सीधे-सीधे शब्दों को एक विशिष्ठ आवेशपूर्ण ताप से सेंककर [सन्दर्भगत रखकर] उसे तीखे अर्थ की ओर ले जाती है। " निश्चित रूप से हम कह सकते हैं कि कटाक्ष व्यंग्य के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलता है। #### २.७.६ प्रभर्त्सना एवं आक्षेप प्रभर्त्सना का उपयोग व्यंग्यकार एक मजबूरी की हालत में करता है। प्रभर्त्सना का उपयोग व्यक्तिगत उद्वेष की भावना से नहीं होती। प्रभर्त्सना में सुधार की अपेक्षा बदलने की तीव्र इच्छा होती

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