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स्त्री प्रत्यय (DU sol )_text.pdf

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अथ पाठ: अथ स्ट्रीप्रत्यय-प्रकरणम्‌ अब लघु सिद्धान्तकौमुदी के इस अन्तिमपाठ में स्त्रोप्रत्ययों का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। संस्कृतवैयाकरणों के अनुसार लिड्ग भी प्रातिपादिक के अर्थ में ही...

अथ पाठ: अथ स्ट्रीप्रत्यय-प्रकरणम्‌ अब लघु सिद्धान्तकौमुदी के इस अन्तिमपाठ में स्त्रोप्रत्ययों का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। संस्कृतवैयाकरणों के अनुसार लिड्ग भी प्रातिपादिक के अर्थ में ही सम्मिलित होता है स्त्रीप्रयय केवल उस को च्योतित करते हैं अतएब स्त्रीप्रत्ययों केबिना भी अनेक शब्दों में स्त्रीत्व का बोध स्वत: ही हुआ करता है। यथा- वाच्‌, गिर, पुर, दृश्‌ आदियों में स्त्रीत्वद्योतक प्रत्यय क॑ बिना भी स्त्रीत्व का बोध हो जाता है। अष्टाध्यायी में इस प्रकरण से पूर्व अधिकार चलाते हैं- [१२४४] स्त्रियामू ॥४॥१॥३॥ अप्टाध्यायी में यहाँ से लेकर “समर्थानां प्रथमाद्वा' [४.१.८२] सूत्र तक जितने प्रत्यय कहे गये हें बे सब स्त्रीत्व क॑ द्योतन करने में प्रयुक्त होते हैं इस सूत्र का अधिकार स््रीप्रत्ययविधायक प्रत्येक सूत्र में जाता है। [१२४५] अजाद्यतष्टापू ।४॥१।॥४॥ अजादि- अत:, टापू। यदि स्त्रीत्व का द्योतत करना हो तोअज आदि गणपठित प्रातिपदिकों सेतथा अदन्त प्रातिपदिकों से परे टाप्‌ प्रत्यय हो जाता है। टाप्‌ में टकार और पकार इत्‌ हैं “आ' मात्र शेष रहता है। अजादिगण क॑ उदाहरण यथा- अज [बकरा] शब्द अजादिगण का प्रथम शब्द है। स्त्रीत्व के द्योतन करने में इस से प्रकृतसत्र द्वारा टाप्‌ प्रत्यय हो कर अनुबन्धलोप करने से-/अज+आ'। अब “अक: सवर्ण दीर्घ:" [४२] से सवर्णदीर्घ हो 'अजा' शब्द बन जाता है। आबन्त होने के कारण इस से परे प्रथमेकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय लाकर उस का हल्डव्यादिलोप [१७९] करने से “अजा' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। अजा का अर्थ है- बकरी। इसी प्रकार-एडक +*टापएडका ( भड़ )। अश्व + टाप्‌ « अश्वा (घोड़ी)। चटक + टापू « चटका (चिडिया)। अश्मुषिक+टापू*मूषिका (चूही)। बाल+टाप्‌-बाला (बच्ची )। वत्स*+टाप्‌-वत्सा (बच्ची या बछड़ी )।होड+टाप्‌+-होडा (बाला)। मन्द+टाप्‌>मन्दा (बालिका)। विलात+टाप्‌-विलाता (बाला या नवयौबना)। * अदन्तों से यथा- मेघ+टाप्»मेधा (बुद्धि)। गड्ज+टाप्*गद्भा (गड्ढा नदी)। सर्व+टापू-सर्वा (सब)। अजादिगणपठित सब शब्द यद्यपि अदन्त हैं अत: अदन्त होने से ही उन से टाप्‌ स्वत: सिद्ध था ही पुनः उन का प्रथक्‌ उल्लेख सूत्र में क्यों किया गया है? इस का उत्तर यह है कि बाधक प्रत्ययों काबाध करने क लिये ही यहाँ अजादियों का पृथक्‌ उल्लेख किया गया है। यथा- अजा, अश्वा आदि गे “जातेरस्त्रीविषयादयोपधात' [१२६५] से जातिलक्षण डीपू्‌ प्राप्त था। वत्सा आदि में “व्यसि प्रथमे' [१२५२] से डीपू प्राप्त था। परन्तु अब विशेष उल्‍ललख क्र कारण वे नहीं होते टापू ही होता है। (१२४६) उगितश्च ।४॥१॥६॥ उगित:, च। उगिदन्त अर्थात्‌ जिस शब्द का उक्‌- उ, ऋ, लू वर्ण इत्‌ हो तदन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्वद्योतन की विवक्षा में डीपू प्रत्यय हो जाता है। डीप्‌ केडकार और पकार इत्संज्ञक होने से लुप्त हो जाते हैं 'ई' मात्र शंप रहता है। उदाहरण यथा- भवत्‌, पचत्‌, दीव्यत्‌ आदि शब्द शतृप्रत्यान्त हैं। अन्त्य ऋकार कं इत्‌ होने से शतृप्रत्यय उगित्‌ है अत: भवत्‌, पचत्‌, दीव्यत्‌ आदि शब्द उगिदन्त प्रातिपदिक हैं। इन से स्त्रीत्वद्योतत को विवक्षा में डाप्‌ प्रत्यय हो कर अनुबन्धलोप करने पर “भक्त्‌+ई'। “शप्श्यनोर्नित्यम्‌' [३६६] से नुम्‌ काआगम होकर नकार को अनुस्वार [७८] तथा अनुस्वार को परसवर्ण [७९] करने पर 'भवन्तो' शब्द बना। अब ड्स्यन्त होने से प्रथमा क॑ एकबचन ड७ सु का हल्डयादिलोप होकर 'भवन्तो' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार “पचन्ती, दीव्यन्ती' प्रयोगों की सिद्धि होती है। सर्वनाम भवत्‌ (भवतु-आप) शब्द यद्यपि शतृप्रत्ययान्त नहीं तथापि उकार के इत्‌ होने से उगित्‌ है अतः इस से भी स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्रद्वारा डीप्‌ प्रत्यय होकर 'भवती' प्रयोग सिद्ध होता हैं।'शत्रन्तन होने से यहाँ नुम्‌ आगम नहीं होता। [१२४७] टिड॒ढाणजूद्रयसज्दष्नज्मात्रच्तयपृठक्ठज्कज्क्रप: ।४॥१।१५॥ टित्‌ू-ढ-अणू-अज्‌-द्रयसचू-दघ्नचू-मात्रचू-तयपू-ठक्‌-ठज्‌-कज्‌-क्वरप:। गौण को उपसर्जन तथा प्रधान को अनुपसर्जन कहते हैं। अनुपसर्जन (प्रधान) जो-टित्‌ू, ढ़, अण्‌, अज्‌' द्रयसच्‌, मात्रचू, तयप्‌, ठक्‌, ठज्‌, कज्‌ और क्वरप्‌-एतदन्त अदन्त प्रातिपदिक, उन से स्ट्रीत्वद्योतत की विवक्षा में डीप्‌ प्रत्यय हो जाता है। डीप्‌ क॑ अनुबन्धों का लोप हो 'ईं' शेष रहता है। टित्‌ दो प्रकार का है (१) प्रत्यय का टितू होना, (२) प्रातिपदिक या घातु का टित होना। यहाँ दोनों प्रकार का टित्‌ अभिप्रेत है। यथा- 'कुरुचर' शब्द 'चरेष्ट:' [७९२] द्वारा टप्रत्ययान्त सिद्ध हुआ है। टप्रत्यय टित्‌ है क्योंकि इसके टकार की इसत्संज्ञा होती है। तो इस प्रकार यहाँ टिट्प्रत्ययान्त अदन्त शब्द 'कुरुचर' से स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्र से डीपू प्रत्यय होकर-'कुरुचर+ई' हुआ। अब “यस्येति च' [२३६] से भसंज्ञ़क अकार का लोप कर सुप्रत्यय लाने पर उसका हल्डत्यादिलोप हो 'कुरुचरी' (करुषु चरतीति स्त्री, कुरुदेश में घूमने वाली स्त्री) प्रयोग सिद्ध हो जाता है। ध्यान रहे कि 'कुरुचर' में तत्पुरुपसमास के कारण उत्तरपद प्रधान है अत: यहाँ “चर' यह टितूप्रत्यात्त शब्द अनुपसर्जन है अतः डीप्‌ हो गया है। यदि टिदन्त आदि उपसर्जन (गौण) होंगे तो डीपू न होगा। यथा- बहव: कुरुचरा यस्यां सा-बहुकुरुचरा नगरी। यहाँ अन्यपदप्रधान बहुब्रीहि में कुरुचर' यह -टिंदन्त गाण है अतः बहुचरशब्द से प्रकृतसूत्र सेडीपू न होकर “अजाद्यतष्टाप्‌ [१२४५] से टाप्‌ ही होता है। नदट्‌, देवट्‌ आदि शब्दों क॑ टकार की इत्संज्ञा हो करनद और देव शब्द रह जाते है। टित््व क॑ कारण इन से स्त्रौत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्र सेडीप, भसंज़्क अकार का लोप कर पूर्वबत्‌ विभक्ति लाने से 'नदी' और 'देवी' शब्द सिद्ध हो जाते हैं। ढ-सुपर्णीशब्द से अपत्य अर्थ में 'स्त्रोभ्यो ढक्‌ [१०१७] सूत्र से ढकाप्रत्यय, 'आयनेयीनीयिय:०' [११९१०] से हू को एयू आदंश, प्रत्यय के कित्तत के कारण आदिवृद्धि, भसंज्ञक ईकार का “यस्येतिच' [२३६] से लोप कर *सौपणेय' यह ढक्प्रत्ययान्त प्रातिपदिक निष्पन्न होता है। अब इस से स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्रद्वारा डीप्‌ प्रत्यय हो भसंज्ञक अन्त्य अकार का लोप कर विभक्ति लाने से 'सौपणणेयी' (सुपर्ण्या अपत्य॑ स्त्री, सुपर्णी कीकन्या, गरुडु की बहन) प्रयोग सिद्ध होता है। अणु-इन्द्रशब्द से 'साउस्य देवता' [१०३८] के अर्थ में अण्‌ प्रत्यय, प्रत्यय के णित्व क॑ कारण आदिवृद्धि तथा भसंज़्क अकार का लोप हो “ऐन्द्र' यह अणुप्रत्ययान्त प्रातिपदिक निष्पन्न होता है। अब स्टत्रीत्व को विवक्षा में इस से प्रकृतसूत्र द्वारा डीपू, भसंज्ञक अकार का लोप तथा विभक्ति कार्य करने से 'ऐन्द्री' प्रयोग सिद्ध हो जाता है-इन्द्रो देवता5स्या इति ऐन्द्री, इन्द्र जिस का देवता है ऐसी दिशा आदि। अजू- उत्सशब्द से “तत्र भव:' [१०८९] के अर्थ में “उत्सादिभ्योज्ज्‌' [९९९] से अज प्रत्यय, प्रत्यय के जित्त्व क॑ कारण आदिवृद्धि तथा भसंज़्क अकार का लोप हो 'औत्स' यह अयप्रत्ययान्त प्रातिपदिक निष्पन्त होता है। अब इससे स्त्रीत्व को विकक्षा में प्रकृतसूत्रद्माा डीपू, भसंज्रक अकार का लोप तथा विभक्ति कार्य करने से 'औत्सो' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। उत्से भवा-औत्सी, झरने में होने वाली। द्रयसच्‌ , दघ्नचू, मात्रचु- ऊरुशब्द से “ऊरु है प्रमाण जिसका “इस अर्थ में 'प्रमाणे द्रयसज्दूघ्तज्मात्रच:' [११६४] सत्र से द्रयसचू, दघ्तनचू और मात्रच्‌ प्रत्यय होकर-'ऊरुद्रयस, ऊरुदघ्न, ऊरुमात्र' ये प्रातिपदिक निष्पन्न होते हैं। अब डंद ५ स्त्रीत्व को विवक्षा में इन से प्रकृतसूत्र द्वारा डीपू प्रत्यय, भर्संज्ञक' अक्कार का लोप तथा विभक्तिकार्य करने पर 'ऊरुद्रयसी, ऊरुदप्नी, ऊरुमात्री' प्रयोग सिद्ध हो जाते हैं। ऊरू प्रमाणमस्या:, ऊरुप्रमाण गहरी नदी आदि। तयपू- पज्चन्शब्द से 'पांच हैं अवयव जिसके' इस अर्थ में “संख्याया अवयवे तयप्‌' [११६८] सूत्र से तयप्‌ प्रत्यय हो पदान्त नकार का लोप करने पर “पज्वतय प्रातिपदिक निष्पन्न हो जाता है। अब स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकूसूत्र से डीपूप्रत्यय, भसंज़्क अकार का लोप तथा विभक्ति कार्य करने पर 'पञ्चतयी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। पञज्च अवयवा यस्या: सा*पज्वतयी। पांच अवयवों वाली अवयविनी। ठक्‌- अक्षशब्द से 'पासों से खेलता या जीतता है' इस अर्थ में 'तेन दीव्यति खनति जयति जितम्‌' [१११४] सूत्र से ठक् प्रत्यय, 'ठस्येक:' [१०२४] से ठकार को इक्‌ आदेश, प्रत्यय के कित्त्व केकारण आदिवृद्धि [९९८] तथा भसंज़्क अकार का लोप करने से “आक्षिक' प्रातिपदिक निष्पन्न होता है। अब स्त्रीत्व की विवक्षा में इस से - प्रकृतसूत्र द्वारा डीपु, अकारलोप तथा विभक्तिकार्य करने पर 'आक्षिको' प्रयोग सिद्ध होता है। अक्षे्दीव्यतीति आक्षिकी स्त्री ठज्‌- प्रस्थशब्द से “तेन क्रीतम्‌' [११४१] अर्थ में ठज्‌ प्रत्यय, ठकार कोइक्‌ आदेश, आदि अच्‌ को वृद्धि तथा भसंज़्क अकार का लोप करने से 'प्रास्थिक' प्रातिपदिक निष्पन्न हो जाता है। अब इस से स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्र सेडोपू, अकारलोप तथा विभक्तिकार्य करने पर 'प्रास्थिको' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। प्रस्थेन क्रीता प्रास्थिको ( प्रस्थभर वस्तु से खरीदी हुई)। ठज्‌ का दूसरा सुप्रसिद्ध उदाहरण- लवणशब्द से “तदस्य पण्यम्‌ (“इस का विक्रेता) अर्थ में 'लवणाद ठज्‌ च' [४.४.५२] सूत्र से ठज़्‌ प्रत्यय, ठकार को इक्‌ आदेश, आदिवृद्धि तथा भसंज्ञक अकार का लोप करने पर 'लावणिक' डीप, अकारलोप तथा विभक्तिकार्य प्रातिपदिक निष्पन्त हो जाता है। अब इससे स्त्रीत्व द्योतन की विवक्षा में प्रकृतसूत्र से करने पर 'लावणिकी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। लवणं पण्यमस्या इति लावणिकी (लवण बेचने वाली)। कज्‌- यादुश शब्द “त्यदादिषु दृशोडइनालोचने कज्‌ च' [३४७] सूत्र द्वारा पीछे हलन्त पुलिद्भप्रकरण में सिद्ध किया जा चुका है। इस से स्टत्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्र द्वारा डीपू, भसंज्ञ़क अकार का लोप कर विभक्तिकार्य करने से “यादृशी' (जैसी) प्रयोग सिद्ध हो जाता है। क्वरप्‌- 'इण्‌ गतौ' धातु से तच्छीलादि कर्त्ता अर्थ में 'इणूनशजिसर्त्तिभ्यः क्वरप्‌' [३.२.१६३] सूत्र से क्वःप्‌ (वर) प्रत्ययकर तुक्‌ू काआगम करने से 'इत्वर' प्रातिपदिक निष्पन्न होता है। अब इस से स्त्रोत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्र सेडीपू, भसंज़्क अकार का लोप तथा विभक्तिकार्य करने से 'इत्वरी' (गमनशीला, कुलटा) प्रयोग सिद्ध हो जाता है। वा०- नज-स्नज्‌ू-ईकक्‌-ख्युंस्तरुण-तलुनानामुपसंख्यानम्‌॥ जउ्प्रत्ययान्त, स्तग्ग्रत्ययान्त, ईककाप्रत्ययान्त, ख्युनूप्रत्ययान्त प्रातिपदिकों सेतथा तरुण और तलुन प्रातिपदिकों से परे स्त्रीत्व कौ विवक्षा में डीपू प्रत्यय हो जाता है। ह नजू- स्त्रैणशब्द तद्धितप्रकरण में 'स्त्रीपुंसाभ्यां नज्स्नजौ भवनात्‌' [१०००] सूत्रद्वारा नउ्यत्ययान्त सिद्ध किया गया है। इससे स्ट्रीत्वद्योतत की विवक्षा में डीपू हो पूर्ववत्‌ प्रक्रिया करने पर 'स्त्रैणो' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। स्त्रीषु भाव- स्टत्रैणी, स्त्रियों में होने वाली। स्तज्‌- पौंस्तशब्द भी तद्धितप्रकरण में 'स्त्रीपुंसाभ्यां [१०००] सूत्र द्वारा स्लज्ग्रत्ययान्त सिद्ध किया गया है। इस से स्त्रीत्व की विवक्षा में डीपू हो पूर्वोक्तप्रक्रियानुसार 'पौंस्नी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। पुंसु भाव- पौस्नी, पुरुषों में होने वाली। ईकक्‌- हथियारवाचक शक्ति शब्द से 'हथियार वाला' अर्थ में “शक्तियष्टयोरीकक्‌' [४.४.५१] सूत्र द्वारा ईकक्‌ (ईक) प्रत्यय हो आदिवृद्धि तथा भसंज्ञ़क इकार का “यस्येति च' [२३६] से लोप करने पर 'शाक्तीक' प्रातिपदिक ४5६ निष्पन्त होता है। अब इससे स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतवार््तिक से डीपू, अकारलोप तथा विभक्तिकार्य करने पर 'शाक्तीकी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। शक्ति: प्रहरणम्‌ अस्या इति शाक्तीकी (शाक्तिनामक हथियार वाली स्त्री) ख्युन- अनाढ्य आदद्: क्रियतेउइनया इति आढ्यडररणी (विद्या)। जिस के द्वारा निर्धनव्यक्ति भी धनी बनाया जाता है. एसी विद्या आदि। यहाँ च्व्यर्थ अर्थात्‌ अभूततद्धाव अर्थ में वर्तमान आद्यशब्द से करणकारक में ख्युन (यु) प्रत्यय, यु कोअन आदेश, गुण, “अरुद्रिषदजन्तस्थ मुम्‌' [७९७] से मुम्‌ काआगम तथा उपपदसमास कर मकार को अनुस्वार तथा अनुस्वार को परसवर्ण करने पर 'आढ्यड्रूकरण' प्रातिपदिक निष्पन्न हो जाता है। अब इस से स्त्रीत्व को खिवक्षा में प्रकृतवात्तिक से डीपू, अकारलोप तथा विभक्तिकार्य करने पर 'आढ्यझ्डरणी' प्रयोग सिद्ध हो जाते हैं। तरुण, तलुन- ये दोनों शब्द युववाचक हैं इस से स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतवार्तिक से डीप्‌ प्रत्यय हो अकार का लोप कर विभक्तिकार्य करने से “तरुणी, तलुनी' प्रयोग सिद्ध हो जाते हैं। तरुणी-युवति:। [१२४८] यजश्च ।॥४।१॥१६॥ अज:, च। स्त्रीत्व की विवक्षा में यजूप्रत्ययान्त प्रातिपदिक से परे डीप्‌ (ई) प्रत्यय हो जाता है। उदाहरण यथा- गर्गस्थ गोत्रापत्य स्त्री- गार्गी (गर्गगोत्र की कन्यासन्तति)। गर्गशब्द से- “गर्गादिभ्यो यज्‌' [१००५] द्वारा गोत्रापत्य में यजूप्रत्यय हो आदिवृद्धि तथा भसंज्ञक अकार का लोप कर “गार्ग्य' प्रातिपदिक निष्पन्न होता है। अब यखप्रत्ययान्त इस प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्र द्रारा डीपू (ई) प्रत्यय कर भसंज़्क अकार का लोप हो “गार्ग्य+ई' हुआ। अब अग्रिमसूत्र प्रवृत्त होता है- [१२४९] हलस्तद्धितस्थ ।६।४॥१५०॥ तद्धितस्थ। हल से परे तद्धित के उपधाभूत यकार का लोप हो जाता है ईकार परे हो तो। उदाहरण यथा 'गार्ग्यू+ई' यहाँ ईकार परे है अत: हलू-गकार से परे तद्धित-यज्‌ के उपधाभूत यकार का लोप हो-'गार्गी॥ अब 'सु' प्रत्यय ला कर उसका हल्डव्ययादिलोप करने से 'गार्गी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। अब इस विषय में प्राच्यों कामत निर्दिष्ट करते हैं- [१२५०] प्राचां ष्फ तद्धित: ॥४॥१।१७॥ प्राच्य आचार्यों के मत में यउप्रत्ययान्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में 'ष्फ' प्रत्यय हो जाता है। और वह तद्धितसंज्ञ़क होता है। ष्फ को तद्धित मानने से पष्फ प्रत्ययान्त की प्रातिपदिकसंज्ञा सिद्ध हो जाती है। “पष्फ” में आदि पकार *“घ: प्रत्ययस्थ' [८३९] द्वारा इत्संज्ञक होकर लुप्त हो जाता है। 'फ' मात्र शेष रहता >है। 'फ' क॑ आदि फ़कार को 'आयनेयीनीयिय: फढखबछघां प्रत्ययादीनाम्‌' [१११०] सूत्र से “आयन्‌ आदंश हो जाता है। तथाहि- गाग्यप्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में प्राच्य आचार्यों के मतानुसार प्रकृतसूत्र से प्फ प्रत्यय हो अनुवस्धलोप कर * आयनेयोनीयिय:०' [१११०] सूत्र से'“फ' के आदि फकार को आयन्‌ आदेश हो जाता है- गार्ग्य आयन्‌ अ-गार्ग्य आयन। अब “यस्येति च' [२३६] से भसंज़्क अकार का लोप होकर 'गार्ग्यायन' इस स्थिति में अग्रिमसत्र प्रवृत्त होता [१२५१] पिद्‌-गौरादिभ्यश्च ॥४॥१४१॥ पितृ-गौरादिभ्य:, च। जिस का पकार इत्‌ है ऐसे प्रातिपदिक से परे तथा गौर आदि गणपठित प्रातिपदिकों से परे स्त्रीत्व की विवक्षा में डीष्‌ (ई) प्रत्यय हो जाता है। "गार्ग्यायन' यह ष्पप्रत्ययान्त होने से पित्‌ प्रातिपदिक है। अतः प्रकृतसूत्र से इस से डीपू प्रत्यय हो- 'गाग्यांयन+ई'॥ अब भर्सज्ञक अकार का लोप हो णत्व कर विभक्ति लाने से “गार्ग्यायणी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। पित्‌ का अन्य उदाहरण यथा- पू० नृत्‌ धातु से 'शिल्पिनि प्वुन्‌' [३.१.१४५] द्वारा शिल्पी कर्त्ता में घ्वुन्‌ प्रत्यय कर अनुबन्धलोप हो- 'नृत्‌+वु' हुआ। वु को 'युवोरनाको' [७८५] से “अक' आदेश तथा लघृपधगुण करने से “नर्त्तक' [नाचने के शिल्प वाला] प्रातिपदिक निष्पन्न होता है। प्वुन्‌ प्रत्ययान्त होने से “नर्तक' पित्‌ है अत: इस से स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसृत्र से डोप (३), भसंज़्क अकार का लोप तथा अन्त में विभक्तिकार्य करने पर “नरत्तकौ' (नाचने क॑ शिल्पवाली) प्रयोग सिद्ध हो जाता गौरादियों क उदाहरण यथा- 'गौर' शब्द गौरादिगण का प्रथम शब्द है। गौरशब्द से स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्र सेडीपू (३) प्रत्यय हो भसंज़क अकार का लोप कर विभक्ति लाने से 'गौरो' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। अष्टवर्षा भवेद्‌ गौरी-अप्टवर्षीया कन्या अथवा गौरवर्णा। हि गौरादिगण में एक गणसूत्र आता है- 'आमनडुह: स्त्रियां वा' अर्थात्‌ स्त्रौत्व की विवक्षा में अनडुह् शब्द से डौपू प्रत्यय हो कर अनडुहू कोआम्‌ का आगम विकल्प से हो जाता है। यथा- अनडुह+डीपू-अनडुह+ई इस दशा में आम्‌ * का आगम विकल्प से होकर आम्पक्ष में यणू कर विभक्ति लाने से 'अनड्‌वाही' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। आम्‌ क॑ अभाव में 'अनडुही' बनेगा। अनड्वाहौ>अनडुही (गाय)। [१२५२] वयसि प्रथमे ।४॥१।२०॥ प्रथम बय (आयु) के बवाचक अदन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में डीप्‌ प्रत्यय हो जाता है। उदाहरण यथा *कुमार' प्रातिपदिक प्रथमवयोवाचक है अत: इस से स्त्रीत्व को विवक्षा में प्रकृतसूत्र सेडीपू, अनुबन्धलोप, भसंज़्क अकार का लोप तथा वविभ्क्तिकार्य करने पर “कुमारी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार-किशोरी। शिशु प्रातिपदिक अदन्त नहीं अत: इससे डीपू नहीं होता-शिशुरयम्‌, शिशुरियम्‌। वालशब्द का पाठ अजादिगण में किया गया हैं अत: उससे टापू होता है- बाला। [१२५३] द्विगो: ॥४१॥२१॥ अदन्त द्विगुसमास से स्त्रीत्व की विवक्षा में डीप्‌ प्रत्यय हो जाता है। उदाहरण यथा- ज्रयाणां लोकानां समाहार:-त्रिलोकौ (तौन लोकों का समृह)। यहाँ “त्रि आमू+लोक आम्‌' इस अलौकिक्विग्रह में “तद्धिताथोत्तरपदसमाहारे च' [९३६] से समाहार अर्थ में समास हो कर “संख्यापूर्वों द्विगुः' [९४१] से उसकी* द्विगुसंज्ञा होजाती है। तब समास में सुप्रों कालुक्‌ होकर 'त्रिलोक' शब्द बन जाता है। अब “अकारान्तोत्तरपदों द्विगुः स्त्रियामिष्ट:' इस वचन से स्त्रीत्व कौ विवक्षा में टाप्‌ का बाघ कर प्रकृतसूत्र से डीपू हो भसंज़्क अकार का लोप कर विभक्ति लाने से “त्रिलोकी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार-अष्टानाम्‌ अध्यायानां सम्राहार:-अप्टाध्यायी। ज्रयाणां फलानां समाहार:- त्रिफला [हरड्‌-बहेड़ा-आमला इन तीन फलों का समृह]। यहाँ भी यद्यपि * अकारान्तोत्तरपद द्विगुसमास है तथापि इसका अजादिगण में विशेष पाठ होने के कारण डीप्‌ न हो कर “अजाद्यतष्टाप्‌' [१२४५] से टाप्‌ हो होता है। इसी प्रकार-त्रयाणाम्‌ अनीकानां (मुखानाम्‌) समाहार:- ज्यनीका (नभ-जल-स्थलात्मक त्रिमुखो सेना) यहाँ भी टापू होता है। [१२५४] वर्णादनुदान्तात्‌ तोपधात्‌ तो न: ।४॥१।३९॥ वर्णवाची (रघ्भवाचौ) अनुदात्तान्त्‌ तकारोपध अदन्त प्रातिपदिक से परे स्त्रीत्व को विवक्षा में विकल्प से डौप्‌ प्रत्यय हो जाता है किज्च डीपू पक्ष में तकार को नकार आदेश भी हो जाता है। उदाहरण यथा- 'एत' (चितकबरा, रंगबिरद्ग) प्रातिपदिक वर्णवाचक है, इस का अन्त्य अकार अनुदात्त है, इस कौ उपधा में तकार भी है अतः स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्र द्वारा इस से विकल्प से डीपू प्रत्यय हो डीप्पक्ष | में तकार को नकार आदेश हो भसंज़्क अकार का लोप कर विभक्ति लाने पर 'एनी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। जिस पक्ष में ढोपू-नत्व नहीं होता वहां 'अजाद्यतष्टापू' [१२४५] से टापू हो सवर्णदीर्घ कर विभत्तिकार्य करने से 'एता' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार-रोहित (लालरंग वाला) शब्द से- 'रोहिणी' और 'रोहिता' इन दो रूपों की सिद्धि होती हैं। श्वेतशब्द का स्टत्रीत्व में 'श्वेता' बनता हैं। इसका अन्त्य अनुदात्त नहीं किन्तु उदात्त हैअतः 'अजाग्तप्टाप्‌' [१२४५] से कंबल टापू ही होता है डीपू-नत्व नहीं होते। [१२५५] वो तो गुणवचनात्‌ ॥४॥१।४४॥ जा, उत:, गुणवचनात्‌। हस्व उकारान्त गुणवाची प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में विकल्प से डीप्‌ प्रत्यय हो जाता है। सत्र में गुणबचन का अभिप्राय है- गुणमुक्त्वा यो गुणवत्ति द्रव्ये वर्तते स गुणवचन:। उदाहराण यरधा- 'मृदु' (कोमल) यह गुणवाची प्रातिपदिक हैं अतः: इससे प्रकृतसूत्रद्वारा स्त्रीत्व को विवक्षा में डीपू प्रत्यय कर अनुबन्धलोप, उकार को यणू-वकार तथा विभक्ति लाने पर “मृद्दी' प्रयोग सिद्ध होता है। डीप के अभाव में “मृदु:' हो रहेगा। इसोप्रकार पट्वों,ी, पटु;। गुर्वी, गुरु: साध्वी, साधु: लघ्बी, लघुः आदि। [१२८६] बहादिभ्यश्च ।४१४५॥ बहु-आदिभ्य:, च। बहु आदिगणपठित प्रातिपदिकों से स्त्रौत्व को विवक्षा में विकल्प से डीप्‌ प्रत्यय हो जाता है। यथा 'बहु' (बहुत) प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्रद्ा/ डीप (ई) प्रत्यय, अनुबन्धलोप तथा 'इकों यणचि' [१५] से उकार को वकार कर विभक्ति कार्य करने पर 'बह्ली' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। ड्ीप्‌ क॑ अभाव ! हो बनेगा। अब बह्वादिगण के अन्तर्गत दो गणसूत्रों काउल्लेख करते हैं- [गणसत्रम्‌] कृदिकारादक्तिन:॥ कृत प्रत्ययसम्बन्धी इकार जो क््तिनप्रत्यय का न हो तो तदन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में विकल्प से डोप प्रत्यय हो जाता है। उदाहरण यथा- रात्रि (रात) शब्द 'रा' धातु से “राशदिध्यां त्रिपू' इस औणादिक-ूत्र द्वारा त्रिप्‌ प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। इसके अन्त में इकार है जो क्तिन्‌ प्रत्यय का अवयब नहीं है अत: प्रकृतगणसूत्र सेवैकल्पिक डीपू (३) प्रत्यय डरीषपक्ष में “यस्येति च' [२३६] से भसंज़्क इकार का लोप कर विभक्ति कार्य करने से 'रात्री' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। डीपू के अभाव में-'रात्रि:" इसो प्रकार-राजी, राजि। ओपघी, ओषधि: आदि। “अक्तिन:' कहने से-कृति:, स्तुतिः, मति: आदि में डौष्‌ नहीं होता। |गणमसत्रम्‌] सर्वतो5क्तिन्नर्थादित्येके॥ आचार्यों का मत है कि चाहे कोई सा हस्व इकार हो परन्तु क्तिन्‌ का जो अर्थ है वह उसका न हो तो तदन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विकक्षा में विकल्प से डीपू प्रत्यय हो जाता है। उदाहरण यथा- 'शकटि' [छोटा छकड़ा] शब्द अव्युत्पन्न प्रातिपदिक है यहाँ क्तिन्‌ का अर्थ (भाव) भी नहों है अत: स्त्रीत्व को विवक्षा में प्रकृतगणसूत्र से डौषू प्रत्यय विकल्प से हो जाता है। डीपूपक्ष में भसंज्ञषक इकार का लोप होकर विभक्तिकार्य करने से 'शकटौ' तथा डोष्‌ के अभाव में 'शकटि:' ये दो रूप सिद्ध हो जाते हैं। उपर्युक्त रात्रिशष्द औणादिक था। कुछ लोक औणादिकों को अव्युत्पन्त प्रातिपदिक मानते हैं, उन के मत्‌ में वह इस गणसत्र का उदाहरण होगा। प्रत्युदाहरण पूर्वसूत्रस्थ समझने चाहियें। [१२५७] पुंयोगादाख्यायाम्‌ू ॥४१४८॥ पुंयोगात, आख्यायाम्‌। पुरुष का जो नाम पुरुष के साथ संबन्ध होने के कारण उस को स्त्री क॑ लिये भी प्र प्रयुक्त होता हैं उस अदन्त प्रातिपदिक से स्त्रीत्व को विवक्षा में डीप्‌ प्रत्यय हो जाता है। अभिप्राय यह हैकि जो अदन्त शब्द पुलिद्ग के लिये प्रयुक्त होता हैयदि उसका प्रयोग पति-पत्नो भाव सम्बन्ध के कारण स्त्री के लिये भी होने लगे तो वहां डीपू प्रत्यय होता है। यथा-हिन्दी में चौधरी की स्त्री को चोधराइन, पण्डित की स्त्री को पण्डिताइन आदि कहते हैं वैसे यहाँ संस्कृत में भी इस प्रकार के शब्द डीप्‌ प्रत्यय लगा कर स्त्रोलिड्र में प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण यथा- गांपस्य स्त्री-गोपी (गोप अथांत्‌ ग्वाले को स्त्री ग्वालिन)। गोपशब्द मुख्यतया पुल्लिद्ग है। पतिपली भाव-सम्बन्ध के कारण इस का प्रयोग स्त्रीलिड्र में भीहोता है। तब इससे डीपू (ई) हो कर भसंज्ञक अकार का लोप हो विभक्तिकार्य करने से 'गोपी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार-गणकस्य पत्ली-गणकी [ज्योतिषी को पतली], महामात्रस्य पलौ-महामात्री [प्रधानमन्त्री की पत्नी]। बा०- पालकान्तानन॥ "पालक' शब्द जिस के अन्त में हो ऐसे प्रातिपदिक से पुंयोग में स्त्रीत्व की विवक्षा में डीप्‌ प्रत्यय नहीं « दोता। यह वार्त्तिक “पुंयोगादाख्यायाम' [१२५७] द्वारा प्राप्त डीष्‌ का निषेध करती है। उदाहरण यथा- गोपालकस्य स्त्री-गोपालिका [ग्वाले की स्त्री ]। गोपालक शब्द से पुंयोग में स्त्रीत्व को विवक्षा में 'पुंयोगादाख्यायाम' [१२५७] से डोौषु्‌ प्राप्त होता है परन्तु अन्त में पालकशब्द होने के कारण प्रकृतवानिंक से उसका निषेध हो जाता है। अब अदन्त होने के कारण “अजाद्यतष्टाप' [१२४५] से टाप्‌. अनुबन्धलोप वक्ष्यमाण 'प्रत्ययस्थात्‌« [१२५८ ] सूत्र से क कार से पूर्व अकार को इकार आदेश, सवर्णदीर्घ तथा विभक्तिकार्य करने से-'गोपालिका' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। इसो प्रकार-अश्वपालकस्य स्त्री-अश्वपालिका। [१२५८ ] प्रत्ययस्थात्‌ कात्‌ पूर्वस्यात इदाप्यसुप: ॥9॥३।४४॥ प्रत्यवस्थात्‌, कात्‌, पूर्वस्य, अतः, इतू, आपि, असुप:। प्रत्यय में स्थित ककार से पूर्व हस्व अकार को हस्व इकार आदेश हो जाता है आपू प्रत्यय परे हो तो। परन्तु वह आप से परे नहीं होना चाहिये। यथा-गोपालिका, अश्वपालिका। इन पूर्वोक्त उदाहरणों में इकार आदेश इसी सूत्र से हुआ है। क्योंकि इन में ककार प्रत्ययस्थ था ( ण्वुलू प्रत्यय के वु को अक आदेश करने से पालक शब्द बना था)। अतः इस से पूर्व अकार को इकार हो गया, आप्‌ (टापू) परे था ही, और वह सुप्‌ से भी परे नहीं था, क्योंकि प्रातिपदिक से परे ही ठाप्‌ किया गया था। इस सत्र क॑ अन्य उदाहरण यथा- सर्विका (अज्ञात सब स्त्री)। 'सर्व' प्रातिपदिक से स्त्रौत्व की विवक्षा में अदन्त होने क॑ कारण 'अजायञ्यतष्टाप्‌ (१२४५ | से यप्‌ प्रत्यय हो सवर्णदीर्घ करने से “सर्वा' शब्द निष्पन हो जाता है। यहाँ सवर्णदीर्घ एकादेश को पुर्वान्तवत्‌ मान कर 'सर्वा' की सर्वनामसंज्ञा अक्षुणण रहती है। अब अज्ञात आदि अर्थों में इस स्वनाम कौ टि से पूर्व अव्ययसवनाम्नामकच्‌ प्राक्‌ टे:' [१२२९] से अकचू (अक्‌) प्रत्यय करने से-सर्व्‌ अकचू आ-सबब अक्‌ आ-'सबंका' इस स्थिति में आप के परे रहते प्रकृतसूत्र द्वारा अकचू प्रत्ययस्थ ककार से पूर्व अकार को इकार आदेश कर विभक्ति कार्य करने से “सर्विका' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। कारिका (करने वाली)। कृधातु से कर्तकारक में 'ण्वुल्तूचौ' [७८४] से ण्वुल्‌ प्रत्यय, वुकोअक आदेश तथा ऋकार को वृद्धि (आर) हो कर “कारक' प्रातिपदिक निष्पन्न होता है। अब स्त्रीत्व की विवक्षा में अदन्त होने के कारण _ *अजाधतष्टाप' [१२४५] से टाप्‌ प्रत्यय हो सवर्णदीर्थ करने से 'कारका' इस स्थिति में आपू परे रहते प्रत्यय क॑ ककार से पूर्व अकार को इकार आदेश होकर विभक्ति कार्य करने से 'कारिका' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। प्रत्ययस्थ ककार से पूर्व अतू को ही इकार आदेश होता है अन्य किसी वर्ण को नहीं। यथा- 'नौ' शब्द से स्वा्॑ में '“क' प्रत्यय हो कर स्त्रीत्व की विवक्षा में टाप्‌ करने पर 'नौका' शब्द निष्पन्न होता है। इस में प्रत्यय के ककार से पूर्व अत्‌ नहीं अपितु औकार है अत: इसे इकार आदेश नहों होता। ५३ ककार भी यदि प्रत्यय में स्थित होगा तभी उस से पूर्व अत्‌ को इकार होगा अन्यथा नहीं। यथा-- शक धातु से पचाद्यच प्रत्यय [७८६] कर टाप्‌, सवर्णदीर्घ तथा विभक्ति कार्य करने से 'शका' [समर्थ स्त्री] प्रयोग सिद्ध होता है। यहाँ आप्‌ के परे रहते ककार से पूर्व अत्‌ को इकार आदेश नहीं होता, कारण कि, ककार प्रत्यय में स्थित नहीं अपितु शक्‌ धातु का अवयब है। आपू यदि सुप्‌ पे परे होगा तो इस सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होगी। यथा-बहव: परिव्राजका यस्यां सा-बहुपरित्राजका (नगरी)। [बहुत संन्यासियों वाली नगरी]। यहाँ 'बहु' और “परित्राजक' पदों का बहुब्रीहिसमास हुआ है। “बहु जस्‌+परित्राजक जस्‌' इस अलौकिक-विग्रह में समास, उस कौ प्रातिपदिकसंज्ञा, “सुपों धातुप्रातिपदिकयो:' [७२१] से समास क॑ अवयव दोनों सुपों (जस्‌, जस्‌) का लुक, स्त्रीत्व की विवक्षा में टापू, सवर्णदीर्घ तथा विभक्तिकार्य करने से “बहुपरिब्राजका “प्रयोग सिद्ध हो जाता है। यहाँ आप्‌ (टापू) परे तो है पर वह समास के अवयव लुप्त हुए अन्तिम जस्‌ से परे हैं क्‍योंकि प्रत्ययलक्षण द्वारा लुप्त हुए जस्‌ को माना जा सकता है। अत: यहाँ प्रत्ययस्थ ककार से पूर्व अकार को इकार नहीं होता। बा०- सूुर्याद्‌ देवतायां चाबू वाच्य:॥ *सूर्य' प्रातिपदिक से पुंयोग में देवतास्त्री के वाच्य होने पर चाप्‌ प्रत्यय हो जाता है। चांपूँ काचकार-पकार लुप्त हो 'आ' शेष रहता है। पौराणिक आख्यानों में सूर्यदेव की दो पत्लियां मानी जाती हैं-एक देवता पली और दुसरी मानुषी (मनुष्यजातीया)। इस वार्त्तिक की प्रवृत्ति सूर्य को देवतापली के वाच्य होने पर ही होती है। सूर्यम्य देवता पतनौ-सुर्या। यहाँ 'सूर्य' प्रातिपदिक से पुंयोग में देवतापली को विवक्षा में 'पुंयोगादाख्यायाम्‌' [१२५७] से डीप प्राप्त था। परन्तु प्रकृत वार्त्तिक सेउसका बाघ कर चाप प्रत्यय हो जाता है। चाप्‌ क॑ अनुबन्धों का लोप, सवर्णदीर्घ तथा विभक्तिकार्य करने पर 'सूर्या' (सूर्य की देवता पली) प्रयोग सिद्ध हो जाता है। सुर्यस्थ पतली मानुषी-सूरी (सूर्य को मनुष्य पत्नी)। यहाँ मनुष्यपली वाच्य होने पर 'सुर्य' प्रातिपदिक से पुव्नोक्त वार्तिक द्वारा चाप्‌ प्रत्यय नहीं होता। 'पुंयोगादाख्यायाम्‌' [१२५७] से डीप्‌ होकर अनुबन्धालोप तथा “यस्येति च' [२३६] से भसंज़्क अकार का लोप हो जाता है-सूर्यू#ई। अब अग्रिमवाक्तिक प्रवृत्त होता है। वा०- सूयांगस्त्ययोश्छे च डत्यां च॥ ऋष्रत्यय या डी प्रत्यय परे हो तो सूर्य और अगस्त्य शब्दों के यू का लोप हो जाता है। *सुर्य/ई' यहाँ डीप्रत्यय परे हैं अतः सूर्यशब्द के यकार का लोप हो विभक्ति लाने से 'सुरी' प्रयोग' सिद्ध हो जाता है। (१२५९] इन्द्र-वरुण-भव-शर्व-रुद्र-मृड-हिमा5रण्ययव-यवन-मातुला$5चार्याणामू आनुक्‌ ।४॥१।४९॥ इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, रुद्र, मृड, हिम, अरण्य, यव, यवन, मातुल और आचार्य-इन धारह प्रातिपदिकों से स्त्रौत्व की विवक्षा में डीप्‌ प्रत्यय तथा इन प्रातिपदिकों कोआनुक्‌ का आगम भी होता है। आनुक्‌ के अन्त में उकार-ककार आन्‌' ही शेष रहता है। कित्‌ होने सेयहआगम प्रातिपदिकों का 'आइ्यन्तौ टकितौ' [८५] क॑ अनुसार अन्तावयव यह सूत्र अष्टाध्यायी में पुंयोग के प्रकरण में पढ़ा गया है। परन्तु इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, रुद्र, मूड, मातुल और आचार्य-इन आठ शब्दों से हो पुंयोग में स्त्रीत्व की विवक्षा में इस सूत्र की प्रवृत्ति होती है अन्यों सेअसम्भव होने के कारण पुंयोग में प्रवृत्ति नहीं होती। उन से वक्ष्यमाण वार्त्तिकोक्त अर्थों में हीइसको प्रवृत्ति होती है। उदाहरण यथा- इन्द्रस्य स्त्री (पत्नी)-इन्द्राणी [इन्द्र कौपत्ली]। यहाँ इन्द्र" प्रातिपदिक से पुंयोग में स्त्रीत्व की विवक्षा में डोष्‌ प्रत्यय तथा प्रातिपदिक के अन्त में आनुक्‌ का आगम हो अनुबन्धलोप करने से - 'इन्द्र आनू+ई' हुआ। अब सवर्णदीर्घ करणत्व और विभक्तिकार्य करने से “इन्द्राणी' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार-वरुणस्य स्त्री-वरुणानी, भवस्य स्त्री-भवानी, शर्वस्य स्त्री - शर्वाणी, रुद्रस्य स्त्री-रुद्राणी, मृडस्य स्त्री- मृडानी। भव, शर्व, ५४ रुद्र और मृड- ये सब शिवजी क॑ नाम हैं। इन्द्र आदि इन शब्दों से डीष्‌ तो पुंयोग में “पुंयोगादाख्यायाम' [१२५७] सूत्र से प्राप्त थाही केवल आनुक्‌ आगम के लिये सूत्र में इन को ग्रहण किया गया है। अब वार्त्तिकों द्वारा अन्य शब्दों के अर्थों का निर्देश करते हैं- वा+- हिमा5रण्ययो्महस्त्वे॥ हिम और आरण्य प्रातिपदिकों से महत्त्व (बड़ा होना) अर्थ में हो डोप्‌ और आनुक्‌ का विघान समझना चाहिये। यथा- महद्‌ हिमम्‌- हिमानी, महद्‌ अरण्यम्‌-आअरण्यानी। (बड़ी बर्फ, बड़ा जंगल)। इन आर्थों में इन का प्रयोग स्त्रोलिड्ठ में हो होता है। सिद्धि 'इन्द्राणी' कीतरह समझनी चाहिये। वा>-यवाद्‌ दोषे॥ *यव' प्रातिपदिक से दोषद्योत्य होने पर डीपू प्रत्यय और प्रकृति कोआनुक्‌ का आगम हो जाता है। उदाहरण चथा- दुष्टो यव:- यवानी (दुष्ट यव अर्थात्‌ अजवायन)। यवानी वह द्रव्य है जो जाति से तो यव नहीं पर आकूत्या यत्र से सदृश है। 'दोष' से यहाँ यहो अभिप्रेत है। बा०- यवनाल्लिप्याम॥ *यबन' प्रातिपदिक से डौीपू प्रत्यय और प्रकृति को आनुक्‌ का आगम लिपिविशेष कं वाच्य में ही होता है। यथा: यवनानां लिपि:- यवनानी (यूनानियों को लिपि)। बार- मातुलोपाध्यायोरानुग्वा। मातुल और उपाध्याय प्रातिपदिकों से पुयोग में स्त्रीत्व की विवक्षा में डीपू प्रत्यय तो नित्य होता है पर आनुक्‌ का आगम विकल्प से। उदाहरण यथा- मातुलस्य स्त्री (पत्ली)- मातुलानी, जहां आनुक्‌ नहीं होगा वहां केवल डीपू हो भसंज़्क अकार का लोप हो जायेगा-मातुलों (मामे की पतली, मामी)। इसी प्रकार- उपाध्यायस्य स्त्री (पत्नी)- उपाध्यायानी, उपाध्यायी। यदि “उपाध्याय की पत्ली' इस प्रकार पुंयोग विवक्षित न होगा वह स्त्री स्वयम्‌ अध्यापिका होगी तो 'अजाझ्तष्टाप्‌' [१२४५] से टाप्‌ हो होगा-उपाध्याया (अध्यापिका स्टत्रो) वा०- आचार्यादणत्व॑ चा॥ *आचायं' प्रातिपदिक से परे आनुक्‌ क॑ नकार को णकार नहीं होता। उदाहरण यथा-आचार्यस्थ स्त्री (पतली )-आचार्यानी (आचार्य की पली)। यहाँ पुंयोग में प्रकृतसूत्र द्वारा डीप्‌ प्रत्यय हो कर आनुक्‌ का आगम हो गया है। अदकृप्वाइ० [१३८] से नकार को णकार प्राप्त होता है पर प्रकृतवार्तिक से उस का निषेध हो जाता है। यदि स्त्री स्त्रयं पण्डिता होगी तो प्रकृतसूत्र सेडीष्‌ और आनुक्‌ न हो कर “अजाद्यतष्टाप्‌' [१२४५] से टाप्‌ ही होगा- आचार्य वा०- अरयक्षत्रियाभ्यां वा स्वार्थे॥ अर्य (स्वामी, वैश्य) तथा क्षत्त्रिय प्रातिपादिकों से स्वार्थ में (पुंयोग में नहीं, जातिवाच्य होने पर) स्त्रीत्व कौ विवक्षा में डीष्‌+आनुक्‌ विकल्प से होते हैं, पक्ष में टाप्‌ होगा। उदाहरण यथा- अयांणी, अयां (स्वामिनी, वैश्या)। क्षत्तरियाणी, क्षत्रिया। पुंयोग में 'पुंयोगादाख्यायाम्‌' [१२५७] से डष्‌ निर्बाध होगा-अर्य॑स्थ स्त्री (पतली )-अर्यों, क्षत्त्रिवस्य स्त्री (पत्ली)- क्षत्तियो। [१२६०] क्रौतातू करणपूर्वातू ।४॥१॥५०॥ प्र क्रौतशब्द जिसके अन्त में तथा करणवाचक जिसके आदि में हो ऐसे अदन्त समस्त प्रातिपदिक से परे स्त्रीत्व की विवक्षा में डोष्‌ प्रत्यय हो जाता है। उदाहरण यथा- वस्त्र: क्रीता- वस्त्रक्रीती [ वस्त्रों द्रारा खरीदी गई भूमि, स्त्री आदि]। 'वस्त्रभिस्‌+क्रोत' इस अवस्था में 'क्रीत' शब्द से सुबुत्पत्ति से पूर्व ही 'गतिकारकोपपदानां कृदृभि: सह समासवचन प्राक्‌ सुब॒त्पत्ते:' इस परिभाषा क॑ बल से कतृंकरणे कृता बहुलम्‌ [९२६] सूत्र द्वारा तत्पुरुपसमास होकर सुब्लुक्‌ करने पर 'वस्त्रक्रोत' बना। इस शब्दीक अन्त में क्रीतशब्द तथा इसके आदि में करणवाचक मौजूद हैं किज्व यह समस्तशब्द अदन्त भी है अत: इस “से स्त्रीत्व कौ विवक्षा में प्रकृतसूत्रद्वारा डीष्‌ प्रत्यय हो भसंज़क अकार का लोप कर विभक्तिकार्य करने से_वस्त्रक्रीती' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। यह डीषू क्‍्वचित्‌ नहीं भी हो पाता। यथा- धनेन क्रौता-धनक्रोता (घन से खरीदी हुईं) कारण कि 'कतृंकरणे कूता बहलम' [९२६] सूत्र में 'बहुलम्‌' ग्रहण के कारण 'गतिकारकोपपदानां कृदृभि: सह समासवचन प्राक्सुब॒त्यन्ते:" इस परिभाषा का क्वचित्‌ आश्रयण नहों भो किया जाता। तब सुबन्त का सुबन्त के साथ ही समास होने से 'क्रौत को सृबन्त बनाने से पूर्व हो स्ट्रीप्रत्यय करना पड़ता है; ऐसी दशा में उससे 'अजाद्यतष्टाप' [१२४५] से टाप्‌ ही हो सकता...ै.इस प्रकार 'धनटा+क्रोता सु! इस अलौकिकविग्रह वाले समास में सुब्लुक्‌ कर 'धनक्रोता' यह आदन्त शब्द 'निष्पन्नं होता है। अब इससे स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रकृतसूत्र सेडीष्‌ नहीं हो सकता क्योंकि इस सूत्र में अदन्त से ही ड्रीप्‌ का विधान किया गया है आदन्त से नहों। [१२६१] स्वाइ्राच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात्‌ू ॥४॥१।५४।॥ स्वाद्रात, च, उपसर्जनात्‌, असंयोगोपधात्‌। जिसको उपधा में संयोग नहीं ऐसा उपसर्जनसंज्ञक जो स्वाड्भवाचों शब्द, तदन्त अदन्त प्रातिपदिक से परे स्त्रीत्व की विवक्षा में विकल्प से डीपू प्रत्यय हो जाता है। उदाहरण यथा- कंशान्‌ अतिक्रान्ता- अतिकेशी अतिकेशा वा [कंशों को जो लांघ चुकी है, अर्थात्‌ कंशों सेभो अधिक काली स्त्री या मुर्ति आदि या लम्बे बालों वाली स्त्री]। यहाँ 'अति+केश शस्‌' इस अलौकिक विग्रह में! अत्यादय: क्रान्तादर्थे द्वितीयया' वात्तिक से प्रादिसमास में सुब्लुक्‌ होकर 'अतिकेश'हुआ। यहाँ स्वाद्गवाची शब्द है 'कश', इस को उपधा में कोई संयोग नहीं और यह विग्रह में नियतविभक्तिक होने से 'एकविभक्ति चा$पूर्वनिपाते' [९५६] से उपसर्जनसंज्ञक भी है अत: विभक्ति लाने से पूर्व स्त्रौत्व की विवक्षा में 'अतिकेश' शब्द से प्रकृतसूत्र द्वारा डीप्‌ प्रत्यय विकल्प से हो जाता है। डीप्पक्ष में भसंजक अकार का लोप कर विभक्ति लाने से 'अतिकेशी' तथा डौषू के अभाव में ' अजाञतप्टाप्‌' [१२४५] से टाप्‌ हो सवर्णदोर्घ का विभक्ति लाने से “अतिकंशा' प्रयोग सिद्ध हो जाते हैं। इसीप्रकार- चद्र इब मुखं यस्या: सा- चन्द्रमुखी चन्द्रमुखा वा [चन्द्र केसमान सुन्दर मुख वालो स्त्रो]। यहाँ 'चन्द्र सु+मुख सु' इस अलौकिकविग्रह में 'अनेकमन्यपदार्थे' [९६५] द्वारा बहुब्रीहिसमास में सुब्लुक्‌ होकर 'चन्द्रमुख' हुआ। इसमें 'मुख' शब्द स्वाद्भवाची है, इसकी उपधा में कोई संयोग नहीं, 'सर्वोपसर्जनों बहुव्नीहि:' इस वचन के अनुसार यह उपसर्जनसंज्ञक भी है अत: तदन्त 'चन्द्रमुख' शब्द से विभक्ति लाने से पूर्व स्त्रीत्व को विवक्षा में प्रकृतसूत्र से पाक्षिक डीप्‌ प्रत्यय हो भसंज़्क अकार का लोप कर विभक्ति लाने से “चंद्रमुखी' तथा पक्षान्तर में टाप्‌, सवर्णदीर्ष तथा विभक्ति लाने से 'चंद्रमुखा' प्रयोग सिद्ध हो जाते हैं। संयोग जिस कौ उपधा में हो ऐसा जो स्वाद्भवाची शब्द, तदन्त से प्रकृतसूत्र द्वारा डीष्‌ नहीं होता, ' अजाद्यतष्टाप्‌ [१२४५] से अदन्तलक्षण केवल टाप्‌ हो होगा। यथा-शोभनौ गुल्फौ सुगुल्फा [सुन्दर गुल्फों बाली]। यहाँ 'सु+गुल्फ औ' इस विग्रह में 'अनेकमन्यपदार्थे' [९६५] से बहुत्रोहिसमास हुआ है। समास में सुब्लुक्‌ हो स्त्रीत्व की विवक्षा में टाप्‌, सवर्णदीर्घ तथा विभत्तिकार्य करने पर “सुगुल्फा' प्रयोग सिद्ध हुआ है। यहाँ 'गुल्फ' इस स्वाड्भरवाची शब्द में 'ल्फ्‌' यह संयोग उपधा में वर्तमान है अतः प्रकृतसूत्र से पाक्षिक डीप्‌ नहीं हुआ। स्वाद्गवाची शब्द यदि उपसर्जनसंज्ञक न होगा तो भी तदन्त से प्रकृतसूत्र द्वारा पाक्षिक डीप न होगा। यथा- ५६ शिखा [चोटी ]। यहाँ 'शीड: खो हस्वश्च' इस उणादिसूत्र से शीड धातु से खप्रत्यय और धातु को हस्व होकर 'शिख' शब्द निष्पन्न होता है। यह उक्लैंजैनसंत्रक नहीं है अतः स्त्रीत्व को विवक्षा में प्रकृतसृत्र से पाक्षिक डीपून होकर अदन्तलक्षण टापू, सवर्णदीर्घ तथा विभक्ति कार्य करने पर “शिखा' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। “नोट-इस सूत्र में “स्वाड्र' शब्द का अर्थ 'अपना अड्गभ नहीं समझना चाहिये। यह शब्द पारिभाषिक है। इस की त्रिविध परिभाषा वैयाकरणों के अनुसार इस प्रकार कही जाती है- “' (१) अद्रवं मूत्तिमत्‌ स्वाड्गरं प्राणिस्थमविकारजम्‌। (२) अतत्स्थं तत्र दृष्टं च (३) तेन चेत्‌ तत्तथायुतम्‌॥'' स्वाड्न के तीन लक्षण हैं-(१) जो वस्तु तरल न हो साकार हो और प्राणियों में वर्तमान होकिज्च वह किसी विकार (रोग) से उत्पन्न न हुई हो उसे 'स्वाद्ग' कहते हैं। (२) प्राणियों के अद्भ यदि अब प्राणियों में विद्यमान न हो कर कहीं अन्यत्र पड़े हुए हों तो भी वे “स्वाड्र' कहलाते हैं। (३) जैसे यह स्वाद्ग प्राणियों में होता है उसी प्रकार अन्यत्र मूर्त्ति आदि में स्थित होने पर भी उसे 'स्वाद्भ' समझना चाहिये। इन सब की सोदाह्गण व्याख्या लघुसिद्धान्तकौमुदी की भैमीव्याख्या में देखें। (१२६२] न क्रोडादि-बह्च: ।४१।५६॥ क्रोडादिगणपठित स्वाद्गवाचकों से तथा बह्चचू (दो से अधिक अचों वाले) स्वाद्भवाचक शब्दों से परे स्त्रीत्व की विवक्षा में डष्‌ प्रत्यय नहीं होता। क्रोडादि स्वाद्रवाचक से यथा- कल्याणी क्रोडा (वक्षःस्थलम्‌) यस्या: सा-कल्याणक्रोडा अश्वा [शुभ छाती वाली घोड़ी]। 'क्रोडा' शब्द घोड़े के वक्ष:स्थल का वाचक है और नित्य स्त्रीलिड्ग है। 'कल्याणी सु+क्रोडा सु' इस अलौकिकविग्रह मेंअनेकमन्यपदार्थे' ' [९६५] से बहुत्रौहिसमास, सुपों कालुक्‌ तथा *स्त्रिया: पुंदद्‌ भाषित०' [९६८] से “कल्याणी' को पुंबद्धाव से “कल्याण' करने पर 'कल्याणक्रोडा' इस स्थिति में “गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य' [९५२] से उपसर्जनहस्व हो जाता है- *कल्याणक्रोड'। अब सुबुत्पत्ति से पूर्व स्त्रौत्व को विवक्षा में स्वाड्गरवाची 'क्रोडा' शब्द अन्त में होने के कारण स्वाग्राच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात्‌' [१२६१] से पाक्षिक द्वीष्‌ प्राप्त होता है, परन्तु प्रकृत 'न क्रोडादिबह्नच: [१२६२] सूत्र सेउस का निषेध हो जाता है। तब 'अजाथतष्टाप्‌ू' [१२४५] से अदन्तलक्षण टापू, सवर्णदीर्घ तथा विभक्तिकार्य करने पर-'कल्याणक्रोडा' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। क्रोडादि आकृतिगण है अत: “सुभगा, सुगला'आदियों की सिद्धि इसी तरह समझनी चाहिये। बह्नच स्वाड्रवाचो का उदाहरण यथा- शोभने जघने यस्या: सा>सुजघना [सुन्दर जघनस्थलों वाली स्त्री]। यहाँ सु+जघन औ' इस बहुब्रीहिसमास के अलौकिकविग्रह में सुब्लुक्‌ होकर 'सुजघ्रन' बना। अब स्वाद्भवाची जघन शब्द के अन्त में होने के कारण 'स्वाद्भाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात्‌' [१२६१] से स्त्रीत्व की विवक्षा में वैकल्पिक डीपू प्राप्त होता है परन्तु 'जघ्रन' शब्द बहुत अचों वाला है अत: प्रकृतसूत्र सेडीष्‌ का निषेध हो अदन्त लक्षण टापू कर सवर्णदीर्घ हो विभक्तिकार्य करने पर “सुजघना' प्रयोग निष्पनन हो जाता है। इसी प्रकार- 'पृथुजघना, सुबदना, पद्मवदना, महाललाटा आदि की सिद्धि समझनो चाहिये। [१२६३] नखमुखात्‌ सउ्ज्ञायाम्‌ ।४१॥५८॥ स्वाड्रवाची नख या मुख शब्दों से परे स्त्रीत्व की विवक्षा में संज्ञा गम्यमान हो तो डीप्‌ प्रत्यय नहीं होता। उदाहरण यथा- शूर्पणखा- यह रावण की बहन राक्षसी की संज्ञा है। संज्ञा को यद्यपि लौकिकविग्रह से प्रदर्शित नहीं किया जा सकता तथापि अज्ञों केबोध के लिये अलीकमार्ग का आश्रय कर इसे यथाकथज्चित्‌ प्रदर्शित किया जाता है। शूपांणीव नखानि यस्या: सा तन्नाम्नी राक्षसी शूर्पणखा [छाज की तरह नाखूनों वाली तन्नाम्नी राक्षसी, रावणभगिनी]। यहाँ 'शूर्प जसू+नख जस्‌' के बहुब्रीहिसमास में सुपों कालुक्‌ हो कर “शूर्पनख' हुआ। अब स्त्रीत्व को विवक्षा में पूछ *स्वाद्भाचोपसर्जनादसंयोगोपधात्‌' [१२६१] द्वारा प्राप्त पाक्षिक डीष्‌ का प्रकृत 'नखमुखात्संज्ञायाम' हो जाता है। तब अदन्तलक्षण टापू हो सवर्णदीर्घ तथा वक्ष्यमा [१२६३] से निषेघ ण *पूर्वपदात्संज्ञायामग:' [१२६४] से नकार को णकार कर विभक्ति लाने से 'शुपांणखा' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। यदि यह किसी का नाम न होगा तो यौगिकवृत्ति से 'शूपांणोव नखानि यस्या: इस विग्रह में डीपू हो कर “शूर्पनखो' बनेगा। तब वश्ष्यमाण सूत्र सेणत्व भी न होगा, वह संज्ञा में हों प्रवृत्त होता है। दूसरा उदाहरण यथा- गौरमुखा [गोरे मुख वाली तन्‍नामक कोई स्त्री]। गौर मुख यस्या:- सा तन्‍्नाम्नी स्त्री। यहाँ भी पूर्ववत्‌ बहुब्रीहिसमास, सुब्लुक्‌ तथा स्वाद्राच्चोपसर्जनादसंयोगोपध ात्‌' [१२६१] से प्राप्त पाक्षिक डोपू का प्रकृतसू त्र सेनिषेध हो अदन्तलक्षण टाप्‌ कर विभक्ति लाने से-“गौरमुखा' प्रयोग सिद्ध हो जाता है। यहाँ भी यदि संत्ा विवक्षित न होगी तो यौगिकवृत्ति से डीप्‌ हो कर “गौरमुखी' भी बनेगा। संज्ञा न होने पर इस सूत्र को प्रवृत्ति नहों होती। यथा- ताम्रमुखी कन्या। ताम्रमिव मुखं यस्या: सा-ताम्रमुखी [तांबे कोतरह लाल मुख वाली कन्या]। यह किसी का नाम नहीं यौगिक शब्द है अतः बहुत्रोहिसमास हो सुब्लुक्‌ कर स्त्रौत्व की विवक्षा में 'स्वाद्भाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात्‌' [ १२६१] से डीपष्‌ हो जाता है। संज्ञा न होने से प्रकृतसूत्र द्वारा निषेध नहीं होता। *शुपं+नखा' के शत्वविधान में समानपद न होने से रेफ से परे 'अट्कुप्वाड०' [१३८] द्वारा नकार को णकार नहीं हो सकता। अतः इसके लिये अग्रिमसूत्र प्रवृत्त होता हैं- [१२६४] पूर्बंपदात्‌ संज्ञायामग: ।८॥४॥३॥ पृव॑ंपदस्थ निमित्त (ऋ, रू, घ्‌) से परे नकार को णकार हो जाता है संज्ञा में, परन्तु गकार के व्यवधान में इस सूत्र से णत्व नहीं होता। *शूप॑+नखा' यहाँ पूर्वपद में रेफ निर्मिक्त विद्यमान है अत: इस से परे 'नखा' के नकार को णकार हो जाता है- शूरपंणखा। यह संज्ञा है- पौछे बताया जा चुका है। गकार के व्यवधान में यह णत्व नहीं होता- यथा- क्रचामयनम्‌- ऋगयनम्‌। (१२६५] जातेरस्त्रीविषयादयोपधात्‌ ।४।१।६३॥ जाते:, अस्त्रीविषयात्‌, अयोपधात्‌। जातिवाचक जो प्रातिपदिक नित्यस्त्रीलिद्ठी नहीं और जिस की उपचधा *में यकार नहीं उस से स्त्रीत्व की विवक्षा में डीष्‌ प्रत्यय हो जाता है। जाति शब्द यहाँ पारिभाषिक है। इस का लक्षण यथा /'आकूतिग्रहणा जाति;, लिद्रानां च न सर्वभाक। सकूदाख्यातनिग्रद्या, गोत्र च चरणै: सह॥ यहाँ “जाति' के चार प्रकार के, लक्षण किये गये हैं- (१) आकृतिग्रहणा जाति:- आकृतिविशेष जिस की व्यज्जक होती है उसे “जाति' कहते हैं। जैसे ?

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