Rice Disease Notes PDF

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vishal joshi

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rice diseases agriculture plant pathology crop management

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These notes detail various diseases affecting rice, including blast and brown spot, along with their management strategies. The information covers the pathogens associated with these diseases, symptoms, and control measures.

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# Disease of Field & Horticultural crop & their Management - I ## Topic - 1 ### Notes: * Rice :- * धान के प्रमुख रोग :- | क्र. सं. | रोग का नाम | रोगजनक / रोगकारक | |---|---|---| | 1 | प्रध्वंस (Blast) | पिट्रीकुलेरिया ओराइजी | | 2 | भुरी चित्ती (Brown Spot) | तु...

# Disease of Field & Horticultural crop & their Management - I ## Topic - 1 ### Notes: * Rice :- * धान के प्रमुख रोग :- | क्र. सं. | रोग का नाम | रोगजनक / रोगकारक | |---|---|---| | 1 | प्रध्वंस (Blast) | पिट्रीकुलेरिया ओराइजी | | 2 | भुरी चित्ती (Brown Spot) | तुम्श्लेरा ओराइजी | | 3 | | | ### (1) प्रध्वंस (Blast): * → इमें ग्रीवा विगलन (Rotten Neck) के नाम से भी जाना जाता है। * → इशन रोग की खोज भारत में 1913 में ई. जे. बटलर व्दारा की गई। * → पुरे विश्व में यह धान का एक महत्वपूर्ण रोग है। * → भारत में इस के कारण 75% हानि होती है। * → सिल्लीकान की कमी धान में रोगग्राहिता को बढ़ाती है। ### रोग के लक्षण :- * इस रोग के मुख्य लक्षण पतियों पर दिखाई देते हैं। पत्तियों पर शुष्क अवस्था में छोटे, जलासिक्त घब्बे बनते है। जो नाव के आकार (Boat Shaped) होते है। * → पुष्पगुच्छ के निचले इंदल पर धुसर बादामी रंग के.. धब्बे बनते हैं। इस अवस्था को "ग्रीवा विगलन " कहते है। * → जिसमें डढल कमजोर हो जाता है। तथा उनको रंग काला हो जाता है। ### रोगजनक - पिनीकुलेरिया औरावजी या पीटिकुलेरिया रंडीमीचा" ### -disease cycle : यह एक बहुचक्रीय (नपत्यतार) रोज है। * (1) उत्तरजीविता :- यह रोगजनक कवकजाल और कोनिडीचा के रूप में धान के पुआल, बीजो के खरपतवारों पर उत्तरजीवीह रहता है। यह कवक सम्परिर्वक परपोषियों पर संक्रमण करके उत्तरजीवित रहता है। * (2) प्राथमिक संक्रमण :- सम्पारिर्वक परपोषियों पर बने कोनीठिया के द्वारा रोग का प्रथमिक रोवाक्रमण होता है। * (3) व्दितीयक संक्रमण :- धान की फसल पर प्राथमिक संक्रमण ध्दारा बने कोनिडीचा के द्वारा ध्दितीयक संक्रमण होता है। * (4) अनुकुल कारक :- रात के समय 20-24°C तापमान १०% से ज्यादा नभी तथा पत्तियों पर नमी होने पर रोग तेजी फैलता है। खेत में अधिक नभजन का उपयोग भी रोग को बढ़ावा देता है। ### * disease Management :- * (4) cultural practices: * (1) खेत से रोगग्रस्त पादपों को हटा देना चाहिए। * (1ⅱ) 2-3 साल तक फसलचक अपनाना चाहिए । * (ii) खेत से व भाम-पास के क्षेत्र में खरपतवारो को हटा देना चाहिए। * (10) नत्रजन का संतुलित माला में उपयोग करना चाहिए। ### (2) chemical controlli * वह पाचन जो प्रवाम् (काम) के नियन्त्रण में काम आते है। blesticide कहलाते हम) रोड है। * (१) ट्राइसाइक्लाजोल (0.3%) या कार्बेन्डाजिम (0.2%) प्रति कि.ग्रा. ‘बीलों को उपचारित करना चाहिए। * (ii) खडी फसल में रोग के प्रारम्भ होते टी. ट्राइसाइक्लोजोल (0.1%) या काबेन्डाजिम (0.1%) से झिकास विडकाव करना चाहिए। * (iii) सिलिकॉन के प्रयोग से भी रोग को नियन्सिंत किया जा सकता ही * रोग प्रतिरोधी फिल्में का उपयोग करें.। * Ex:- जया, सुची, अजय, RP-९-२, कमला आदी। ### (2) यूरी, चिल्ली । ब्राउन लीफ स्पोट (Brown Leaf Spot) * रोगजनक - ड्रेक्श्लेरा भौरारजी * ⇒ पूर्व में इस रोग को हल्मिन्थोस्पोरियम औराइजी के नाम से जाना जाता था। * ↳ थान में इस रोग को, $t, १७ seasame spor, Helminthosporiosis. leaf blight seedling blight afte Helminthosporium leaf spot के नाम से भी जाना जाता है। * 4. इस रोग का वर्णन सर्वप्रथम ब्रेडा डे हान धारा. सन् 1900 •में किया गया। * 4 भारत नै यह रोग सर्वप्रथम सन 1913-७ में देखा गया * 4 इस रोग के कारण बंगाल में 50-१०% फानल नष्ट हो गई थी जिनमें लगभग 20 लाख लोगों की भूख से मृत्यु हो गई थी। * ↳ सिलीकॉन की कमी धान में रोजग्राहिता को बढ़ाती है। ## रोग के लक्ष01 (disease Symptoms) :- * पांकुरचोल, पतियों पर्णच्छद एव तुनौ इस रोग के लक्षण पर पाए जाते हो ५ क्रिर चोल पर धब्बे गोल से गोलाकार, छोटे तथा मुटे होते है। * ये धब्बे कभी भी धारिया नही बनाते है। ट्या. पौधे में पढ़ गलन (Foot 20०१) भी नहीं होता ही ### disease cycle * यह एक वीजीद तथा मृदोद रोगजनक है। रोग बहुचक्रीय होटा हो * (1) उत्तरजीविता (Survival) * (2) प्रचामिक संक्रमण (Primary Infection) * (3) छिटीच संक्रमण (secondry Inf. 7 * 197 * अनुकूल कारक ( favourable factor). ### * disease Management :- * (1) cultural practice: * (१) पौधे वृद्धि के संभल मृदा शुष्णु नही होनी चाहिए। * (1) मिलाई के समय पानी संक्रमित खेतों से स्वस्थ खेतों में नहीं जाना चाहिए। * मृदा में पोटाश खाद का उपयोग कर रोज के प्रकोप (iii) को कम किया जाता मकता हो * (2) chemical Contral: बोर्डो मिश्रण (0.2%) था (5/5:50) यो मैल्कोजेब नियन्त्रीत किया जा सकता. हो * रोगजनक के कि बीजोड संचरण को रोकने के लिए प्रयोग किया जा सकता हो * रोज के गरोधी किस्म * →IR-24, CH-13, 45, 7-141, Co-20, BAM-10, P-998, P-22960 exc ## (3) पर्णचवद अंगभारी (Sheath Blight), * सर्वप्रथम जापान: में इस रोग का वर्णन Miyake (1910) में किया । * ५ भारत में बटलर (1918) ने इस रोग का उल्लेख किया तथा इसे गन्ने के धारीदार स्क्लेरोशियभी अंगमारी के समान बताया । * is SH and Oriental sheath and leaf Blight diseaще रोग को के नाम से जाना जाता है। * धान के पादप सक्रिय tellering अवस्या पर अधिक रोगग्रारी होते है। * रोगजनक की लम्बी प्रजातियों की तुलना में रोनी: प्रजातियों में रोग ज्यादा पाया जाता हो * रोगजनक एक परपोषी विशिष्ट विष RS Toxin उत्पन्न करता हो ### disease Symptoms * पानी की सतह पर पादप में पर्णतय. और पत्रियों पर विक्षत बनते हैं। * पर्णच्छद पर घब्बे गोल या अंडाकार लगभग 10 MM लम्बे तथा हमे घुसर रंग के होते है। यह धीरे-धीरे आकार में। अनियमित आकार के हो जाते ही बढ़कर 2-3 cm लम्बे तथा इन धब्बों का रंग मध्य से सफेद तथा किनाटो से काला मुरा हो जाता ही ### रोगजनक * राइजोम्टोनिया सोलेंनाई ### disease cycle: Same as Brown spot, and Blast तरह / मेरी ### disease Mgt:? * (1) Cultural y practices :- Same as Brown spot and Blast * (2) P Chemical Cont201: नीम के उत्पाको जैसे- नीमा जाल (0.3%) या वेनिस (0.3%) या अमुक (0.5%) या नीम गोल्ड (0.3%) से बीचोपचार करना चाहिए। ## जीवाणु रोगों को Docetest के द्वारा पहचाना जाता है। ## (4) जीवाणुज पर्ण अग्रभारी | मुलमा (Bacterial Might):-: * इस रोग को white withering dicase के नाम से भी जाना जाता हैं। * ↳ भारत में झा रोग को सबसे पहले श्रीनिवासन और उनके सहयोगियों द्वारा 1959 में चुना (माहाराष्ट्र) में देखा गया। * ↳ क्रसेक अवस्था इस रोग की हानिकार; अवस्था होती हो * ↳ यह एक मदोद व बीजांद रोग है। * ५. जीवाणु रोगों को 002e test के बारा आसानी से पहचाना जा सकता है। * ⇒ Symptoms : इस रोग के लक्षण तीन अवास्याएँ। में प्रकृत होते है- * (1) Blight phare : यह रोग की most common du prominent अवस्था हो * → इस अवस्था मैं पीले या पुआल के रंग की लहरदार विक्षत या दातस्थल पत्ती के एक ना दोनों किनारो के लिये से प्रारम्भ होकर नीचे की और बढते हो जिसमें पत्तियों सुख जाती है। * (2) Kreses ar seedling wilt phase : यह नातरी में प्रकट होने वाली गवाया है। जो carly tallesting stage के दौरान दिखाई देती हैं। पीलापन के साथ sudden wing अनो इसकी खास पहचान है। * (3) Leaf yellowing phase: पत्तियों के पीलेपन की यह तीमरी अवस्था फिलीपाइन्स में देखी गई। इसमें सबने कोमल पत्ती पीली था सफेद हो जाती है। ## इंग्रो रोग के पादय की पहचान आयोडीन परीक्षण में की जाती है। ### रोगजनक जैन्योमोनास ओरारजी पीवी ओराइली....... ### disease cycle! Same as Blast ### disease Mgt. * (*) Cultural practices. Some as Blast * (2) chemical Control: बीजो को स्ट्रेप्टोसाइलीन के घोल में (250-300 PPM) में उन्नर घण्टे के लिए डुबोकर बोना चाहिए । * (3) disease Resistance Variety! :किदामा: TR-54, रुचि बट ## (5) इंग्रोःरोग (Jungso disease) : इस रोग को पिकेंट मेस स्टंट, केडांग-केडांग एक लाला रोग के नाम से जाना जाता है। * → इस रोज से उपज में काफी कमी होती है। इस कारण इमे धान का कैंसर भी कहा जाता है। * → यह एक दो विषाणुओं से होने वाला रोग है। - * ईग्रो (Tungro) का सामान्य अर्थ विकृतियुक्त ब्रहित होता है। * Symptoms : पोध में बौनापन तथा पत्तिया में पीलापन वं चितकबरापन दिखाई देता है। पतियों में पीलापन और नारंगी पीलापन इशा रोग का सामान्य लक्षण ही * → इंयो रोग से विकासिद्ध संक्रमित पत्ती पर गहरे नीले रंग की धारिला दिखाई देना हिं इस रोग की पहचान है। * सेभकारक: यह दो प्रकार के बीषाणुओं से होता ही * (1) Rice tungro Spherical virus ( RISU) * (2) Rica temgro bacilliform Virus (RIFU) ### disease cycle - Same as or Blast * Mgt!- * (1) cultural practices. Same as Blast * (2) Chemical Control:- वर्तरी बाहको के नियन्त्रण के लिए काबोफ्युतन का बुवाई के इस दिन बाद उपयोग करना चाहिए। * → डाइमियोचएट (Liter) या नीम हेल (3%) का मुख्य खेत में रोपण के 15 व 30 दिन बाद उपयोग करना चाहिए * (4) 2खेरा रोग (Khaing disense) :- वास्तविकता में हो यह वाहबद्ध है। जो उल की कमी न घेता है। लेकिन आम प्रचलन में इमे खैरा रोग कहते हो * → इशा रोग की खोज X.L Neme तथा साथियों दाटा 1965 में उत्तर-प्रदेश के तराई क्षेत्र (अन्तगगर) में की गई। * Symptoms : रोगी पौधा छोटा रह जाता है। रोगी पादप की निचली पत्तियों पर छोटे-छोटे कत्लाई रंग के धब्बे बनते हो जो एक दुसरे से मिल‌कर पुरी पत्ती को सुखा देते. हो * → रोगी पौधों की जड़ो की दृष्दि रूक जाती है। तथा चे भुरी हो जाटी है। * रोगकारक ← 2. की कमी । मृदा में एम. का मान ४ से ज्यादा होने पर जस्ते की कभी हो जाती हो * Mgt: * (1) नर्भरी में बुवाई और बुझा हुमा चुना (0.25%) की तीसरा छिडकाव रोपाई के 10 दिन बाद घिऊद करना चाहिए। * ↳ युमरा भिडकाव नर्मदी में बुवाई के 20 दिन बाद करना चाहिए। * 15-30 दिन के अन्दर करना चाहिए। * (5) * (6) ## जीवाणु रोगों को Docetest के द्वारा पहचाना जाता है। ## (4) जीवाणुज पर्ण अग्रभारी | मुलमा (Bacterial Might):-: * इस रोग को white withering dicase के नाम से भी जाना जाता हैं। * ↳ भारत में झा रोग को सबसे पहले श्रीनिवासन और उनके सहयोगियों द्वारा 1959 में चुना (माहाराष्ट्र) में देखा गया। * ↳ क्रसेक अवस्था इस रोग की हानिकार; अवस्था होती हो * ↳ यह एक मदोद व बीजांद रोग है। * ५. जीवाणु रोगों को 002e test के बारा आसानी से पहचाना जा सकता है। * ⇒ Symptoms : इस रोग के लक्षण तीन अवस्थाएँ। में प्रकृत होते है- * (1) Blight phare : यह रोग की most common du prominent अवस्था हो * → इस अवस्था मैं पीले या पुआल के रंग की लहरदार विक्षत या दातस्थल पत्ती के एक ना दोनों किनारो के लिये से प्रारम्भ होकर नीचे की और बढते हो जिसमें पत्तियों सुख जाती है। * (2) Kreses ar seedling wilt phase : यह नातरी में प्रकट होने वाली गवाया है। जो carly tallesting stage के दौरान दिखाई देती हैं। पीलापन के साथ sudden wing अनो इसकी खास पहचान है। * (3) Leaf yellowing phase: पत्तियों के पीलेपन की यह तीमरी अवस्था फिलीपाइन्स में देखी गई। इसमें सबने कोमल पत्ती पीली था सफेद हो जाती है। ## इंग्रो रोग के पादय की पहचान आयोडीन परीक्षण में की जाती है। ### रोगजनक जैन्योमोनास ओरारजी पीवी ओराइली....... ### disease cycle! Same as Blast ### disease Mgt. * (*) Cultural practices. Some as Blast * (2) chemical Control: बीजो को स्ट्रेप्टोसाइलीन के घोल में (250-300 PPM) में उन्नर घण्टे के लिए डुबोकर बोना चाहिए । * (3) disease Resistance Variety! :किदामा: TR-54, रुचि बट ## (5) इंग्रोःरोग (Jungso disease) : इस रोग को पिकेंट मेस स्टंट, केडांग-केडांग एक लाला रोग के नाम से जाना जाता है। * → इस रोज से उपज में काफी कमी होती है। इस कारण इमे धान का कैंसर भी कहा जाता है। * → यह एक दो विषाणुओं से होने वाला रोग है। - * ईग्रो (Tungro) का सामान्य अर्थ विकृतियुक्त ब्रहित होता है। * Symptoms : पोध में बौनापन तथा पत्तिया में पीलापन वं चितकबरापन दिखाई देता है। पतियों में पीलापन और नारंगी पीलापन इशा रोग का सामान्य लक्षण ही * → इंयो रोग से विकासिद्ध संक्रमित पत्ती पर गहरे नीले रंग की धारिला दिखाई देना हिं इस रोग की पहचान है। * सेभकारक: यह दो प्रकार के बीषाणुओं से होता ही * (1) Rice tungro Spherical virus ( RISU) * (2) Rica temgro bacilliform Virus (RIFU) ### disease cycle - Same as or Blast * Mgt!- * (1) cultural practices. Same as Blast * (2) Chemical Control:- वर्तरी बाहको के नियन्त्रण के लिए काबोफ्युतन का बुवाई के इस दिन बाद उपयोग करना चाहिए। * → डाइमियोचएट (Liter) या नीम हेल (3%) का मुख्य खेत में रोपण के 15 व 30 दिन बाद उपयोग करना चाहिए * (4) 2खेरा रोग (Khaing disense) :- वास्तविकता में हो यह वाहबद्ध है। जो उल की कमी न घेता है। लेकिन आम प्रचलन में इमे खैरा रोग कहते हो * → इशा रोग की खोज X.L Neme तथा साथियों दाटा 1965 में उत्तर-प्रदेश के तराई क्षेत्र (अन्तगगर) में की गई। * Symptoms : रोगी पौधा छोटा रह जाता है। रोगी पादप की निचली पत्तियों पर छोटे-छोटे कत्लाई रंग के धब्बे बनते हो जो एक दुसरे से मिल‌कर पुरी पत्ती को सुखा देते. हो * → रोगी पौधों की जड़ो की दृष्दि रूक जाती है। तथा चे भुरी हो जाटी है। * रोगकारक ← 2. की कमी । मृदा में एम. का मान ४ से ज्यादा होने पर जस्ते की कभी हो जाती हो * Mgt: * (1) नर्भरी में बुवाई और बुझा हुमा चुना (0.25%) की तीसरा छिडकाव रोपाई के 10 दिन बाद घिऊद करना चाहिए। * ↳ युमरा भिडकाव नर्मदी में बुवाई के 20 दिन बाद करना चाहिए। * 15-30 दिन के अन्दर करना चाहिए। * (5) * (6) ## जीवाणु रोगों को Docetest के द्वारा पहचाना जाता है। ## (4) जीवाणुज पर्ण अग्रभारी | मुलमा (Bacterial Might):-: * इस रोग को white withering dicase के नाम से भी जाना जाता हैं। * ↳ भारत में झा रोग को सबसे पहले श्रीनिवासन और उनके सहयोगियों द्वारा 1959 में चुना (माहाराष्ट्र) में देखा गया। * ↳ क्रसेक अवस्था इस रोग की हानिकार; अवस्था होती हो * ↳ यह एक मदोद व बीजांद रोग है। * ५. जीवाणु रोगों को 002e test के बारा आसानी से पहचाना जा सकता है। * ⇒ Symptoms : इस रोग के लक्षण तीन अवस्थाएँ। में प्रकृत होते है- * (1) Blight phare : यह रोग की most common du prominent अवस्था हो * → इस अवस्था मैं पीले या पुआल के रंग की लहरदार विक्षत या दातस्थल पत्ती के एक ना दोनों किनारो के लिये से प्रारम्भ होकर नीचे की और बढते हो जिसमें पत्तियों सुख जाती है। * (2) Kreses ar seedling wilt phase : यह नातरी में प्रकट होने वाली गवाया है। जो carly tallesting stage के दौरान दिखाई देती हैं। पीलापन के साथ sudden wing अनो इसकी खास पहचान है। * (3) Leaf yellowing phase: पत्तियों के पीलेपन की यह तीमरी अवस्था फिलीपाइन्स में देखी गई। इसमें सबने कोमल पत्ती पीली था सफेद हो जाती है। ## इंग्रो रोग के पादय की पहचान आयोडीन परीक्षण में की जाती है। ### रोगजनक जैन्योमोनास ओरारजी पीवी ओराइली....... ### disease cycle! Same as Blast ### disease Mgt. * (*) Cultural practices. Some as Blast * (2) chemical Control: बीजो को स्ट्रेप्टोसाइलीन के घोल में (250-300 PPM) में उन्नर घण्टे के लिए ड

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