Gandhiji ka Sandesh PDF
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This PDF document contains Gandhiji's message for children aged 8 to 15. The document includes various topics about student life, moral lessons, and reflections. It also provides a collection of useful information organized into chapters about Gandhiji's life and thoughts.
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ग धां ीजी क सदां श े (8 से 15 आयु के बच्चों के लिए) लिषय-सच ू ी १. मेर विद्य र्थी-जीिन (‘आत्मकर्थ ’ से) २. चोरी और प्र यवित्त (‘आत्मकर्थ ’ से) ३. धमम की झलक (‘आत्मकर्थ ’ से) ४. सेि भ ि और स दगी (‘आत्मकर्थ ’ से) ५. अद ् भतु त्य ग (‘आश्रमि वसयों’ से) ६. शद्ध ु न्य य (‘धममनी...
ग धां ीजी क सदां श े (8 से 15 आयु के बच्चों के लिए) लिषय-सच ू ी १. मेर विद्य र्थी-जीिन (‘आत्मकर्थ ’ से) २. चोरी और प्र यवित्त (‘आत्मकर्थ ’ से) ३. धमम की झलक (‘आत्मकर्थ ’ से) ४. सेि भ ि और स दगी (‘आत्मकर्थ ’ से) ५. अद ् भतु त्य ग (‘आश्रमि वसयों’ से) ६. शद्ध ु न्य य (‘धममनीवत’ से) ७. ि चन और विच र (‘धममनीवत’ से) ८. शरीर (‘आरोग्य की कांु जी’ से) ९. हि और प नी (‘आरोग्य की कांु जी’ से) ग धां ीजी क सदां ेश १. मेरा लिद्यार्थी-जीिन मेर बचपन पोरबन्दर में ही बीत । य द पड़त हैं वक मझु े वकसी प ठश ल में भरती वकय गय र्थ । मवु ककल से र्थोड़े से पह ड़े मैं सीख र्थ । मझु े वसर्म इतन य द हैं वक मैं उस समय दसू रे लड़को के स र्थ अपने वशक्षकों को ग ली देन सीख र्थ । और कुछ य द नहीं पड़त । इससे मैं अदां ज लग त हूँ वक मेरी बुवद्ध मदां रही होगी और स्मरण-शवि कच्ची । पोरबन्दर से वपत जी ‘र जस्र्थ वनक कोर्म’ के सदस्य बनकर र जकोर् गये । उस समय मेरी उमर स त स ल की होगी । मझु े र जकोर् की ग्र मश ल में भरती वकय गय । इस श ल के वदन मझु े अच्छी तरह य द हैं। वशक्षकों के न म-ध म भी य द हैं। पोरबन्दर की तरह यह ूँ की पढ ई के ब रे में भी ज्ञ न के ल यक कोई ख स ब त नहीं हैं । मैं मवु ककल से स ध रण श्रेणी क विद्य र्थी रह होऊांग । ग्र मश ल से उपनगर की श ल में और िह ूँ से ह ईस्कूल में । यह ूँ तक पहचूँ ने में मेर ब रहि ूँ िर्म बीत गय । मझु े य द नहीं पड़त वक इस बीच मैंने वकसी भी समय वशक्षकों को धोख वदय हो । न तब तक वकसी को वमत्र बन ने क स्मरण हैं । मैं बहत ही शरमील लड़क र्थ । घर्ां ी बजने के समय पहचूँ त और प ठश ल के बन्द होते ही घर भ गत । 'भ गन ' शब्द मैं ज न- बझू कर वलख रह हूँ, क्योंवक ब तें करन मझु े अच्छ न लगत र्थ । स र्थ ही यह डर भी रहत र्थ वक कोई मेर मज क उड़ येग तो ? ह ईस्कूल के पहले ही िर्म की परीक्ष के समय की एक घर्न उल्लेखनीय हैं । वशक्ष विभ ग के इन्सपेक्र्र ज इल्स विद्य लय की वनरीक्षण करने आये र्थे । उन्होंने पहली कक्ष के विद्य वर्थमयों को अग्रां ेजी के प ूँच शब्द वलखि एां । उनमें एक शब्द 'के र्ल' (kettle) र्थ । मैंने उसके वहज्जे गलत वलखे र्थे । वशक्षक ने अपने बूर् की नोक म रकर मझु े स िध न वकय । लेवकन मैं क्यों स िध न होने लग ? मझु े यह ख्य ल ही नहीं हो सक वक वशक्षक मझु े प सि ले लड़के की स्लेर् देखकर वहज्जे सधु र लेने को कह रहे हैं । मैंने यह म न र्थ वक वशक्षक तो यह देख रहे हैं वक हम एक-दसू रे की पट्टी में देखकर नकल न करें । सब लड़कों के प ूँचों शब्द सही वनकले और अके ल मैं बेिकूर् ठहर । वशक्षक ने मझु े मेरी बेिकूर्ी ब द में समझ यी | लेवकन मेरे मन पर कोई असर न हआ । मैं दसु रे लड़को की पट्टी में देखकर नकल करन कभी न सीख सक । ऐस होते हए भी वशक्षक के प्रवत मेर विनय कभी कम न हआ । बड़ों के दोर् न देखने क गणु मझु में स्िभ ि से ही र्थ । ब द में इन वशक्षक के दसू रे दोर् भी मझु े म लमू हए र्थे । वर्र भी उनके प्रवत मेर आदर बन ही रह । मैं यह ज नत र्थ वक बड़ों क आज्ञ क प लन करन च वहये । िे जो कहें सो करन करे उसके क ज़ी न बने। इसी समय के दो और प्रसगां मझु े हमेश य द रहे हैं। स ध रणतः प ठश ल की पस्ु तकों छोड़कर और कुछ पढने क मझु े शौक नहीं र्थ । सबक य द करन च वहये, उल हन सह नहीं ज त , वशक्षक को धोख देन ठीक नहीं, www.mkgandhi.org Page 1 ग धां ीजी क सदां ेश इसवलए मैं प ठ य द करत र्थ । लेवकन मन अलस ज त , इससे अक्सर सबक कच्च रह ज त । ऐसी ह लत में दसू री कोई चीज पढने की इच्छ क्यों कर होती? वकन्तु वपत जी की खरीदी हई एक पस्ु तक पर मेरी दृवि पड़ी। न म र्थ ‘श्रिण-वपतृ-भवि’ न र्क । मेरी इच्छ उसे पढने की हई और मैं उसे बड़े च ि के स र्थ पढ गय । उन्हीं वदनों शीशे से वचत्र वदख ने ि ले भी घर-घर आते र्थे । उनके प स भी श्रिण क िह दृकय भी देख , वजसमें िह अपने म त -वपत को क ूँिर में बैठ कर य त्र पर ले ज त हैं। दोनों चीजों क मझु पर गहर प्रभ ि पड़ । मन में इच्छ होती वक मझु े भी श्रिण के सम न बनन च वहये । श्रिण की मृत्यु पर उसके म त -वपत क विल प मझु े आज भी य द हैं । इन्हीं वदनों कोई न र्क कांपनी आयी र्थी और उसक न र्क देखने की इज जत मझु े वमली र्थी। उस न र्क को देखते हए मैं र्थकत ही न र्थ । हररिांद्र क आख्य न र्थ । उस ब र-ब र देखने की इच्छ होती र्थी । लेवकन यों ब र-ब र ज ने कौन देत ? पर अपने मन में मैने उस न र्क को सैकड़ो ब र खेल होग । हररिांद्र की तरह सत्यि दी सब क्यों नहीं होते ? यह धनु बनी रहती । हररिांद्र पर जैसी विपवत्तय ूँ पड़ी िैसी विपवत्तयों को भोगन और सत्य क प लन करन ही ि स्तविक सत्य हैं । मैंने यह म न वलय र्थ वक न र्क में जैसी वलखी हैं , िैसी विपवत्तय ूँ हररिांद्र पर पड़ी होगी। हररिांद्र के दःु ख देखकर उसक स्मरण करके मैं खूब रोय हूँ । आज मेरी बुवद्ध समझती हैं वक हररिांद्र कोई ऐवतह वसक व्यवि नहीं र्थ । वर्र भी मेरे विच र में हररिांद्र और श्रिण आज भी जीवित हैं । मैं म नत हूँ वक आज भी उन न र्कों को पढां तो आज भी मेरी आूँखों से आूँसू बह वनकलेंगे । जब मेर विि ह हआ उस समय मैं ह ईस्कूल में पढत र्थ । मेरे स र्थ मेरे और दो भ ई भी उसी स्कूल में पढते र्थे । बड़े भ ई ऊपर के दजे में र्थे और वजन भ ई क विि ह के स र्थ मेर विि ह हआ र्थ , िे मझु से एक दज म आगे र्थे । विि ह क पररण म यह हआ वक हम दो भ ईयों क एक िर्म बेक र गय । मेरे भ ई के वलए तो पररण म इससे भी बुर रह । विि ह के ब द िे स्कूल पढ ही न सके । वकतने नौजि नों को ऐसे अवनि पररण म क स मन करन पड़त होग , भगि न ही ज ने ! मेरी पढ ई चलती रही । ह ईस्कूल में मेरी वगनती मन्द-बवु द्ध विद्य वर्थमयों में नहीं र्थी। वशक्षकों क प्रेम मैं हमेंश ही प सक र्थ । हर स ल म त -वपत के न म स्कूल में विद्य र्थी की पढ ई और उसके आचरण के सबां धां में प्रम ण-पत्र भेजे ज ते र्थे । उनमें मेरे आचरण य अभ्य स के खर ब होने की र्ीक कभी नहीं हई । दसू री कक्ष के ब द मझु े इन म भी वमलें और प ूँचिीं तर्थ छठी कक्ष में क्रमशः प्रवतम स च र और दस रुपयों की छ त्रिृवत्त भी वमली र्थी । इसमें मेरी होवशय री की अपेक्ष भ ग्य क अशां अवधक र्थ । ये छ त्रिृवत्तय ूँ सब विद्य वर्थमयों के वलए नहीं र्थी, बवल्क सौर ष्ट्र प्र न्त से सिमप्रर्थम आनेि लों के वलए र्थी । च वलस-पच स विद्य वर्थमयों की कक्ष में उस समय सौर ष्ट्र के विद्य र्थी वकतने हो सकते र्थे ? मेर अपन ख्य ल हैं वक मझु े अपनी होवशय री क कोई गिम नहीं र्थ । परु स्क र य छ त्रिृवत्त वमलने पर मझु े आियम होत र्थ । पर अपने आचरण के विर्य में मैं बहत सजग र्थ । आचरण में दोर् आने पर मझु े रुल ई आ www.mkgandhi.org Page 2 ग धां ीजी क सदां ेश ही ज ती र्थी । मेरे ह र्थों कोई भी ऐस क म बने, वजससे वशक्षक को मझु े ड ूँर्न पड़े अर्थि वशक्षकों क ख्य ल बने तो िह मेरे वलए असह्य हो ज त र्थ । मझु े य द है वक एक ब र मझु े म र ख नी पड़ी र्थी । म र क दःु ख नहीं र्थ , पर मैं दण्ड क प त्र म न गय , इसक मझु े बड़ दःु ख रह । मैं खबू रोय । यह प्रसगां पहली य दसू री कक्ष क हैं । दसु र एक प्रसगां स तिीं कक्ष क हैं । उस समय दोर बजी एदलजी गीमी हेड-म स्र्र र्थे । िे विद्य र्थी प्रेमी र्थे, क्योंवक िे वनयमों क प लन करि ते र्थे, व्यिवस्र्थत रीवत से क म लेते और अच्छी तरह पढ ते र्थे । उन्होंने उच्च कक्ष के विद्य वर्थमयों के वलए कसरत-वक्रके र् अवनि यम कर वदये र्थे । मझु े इनसे अरुवच र्थी । इनके अवनि यम बनने से पहले मैं कभी कसरत, वक्रके र् य र्ुर्ब ल में गय ही न र्थ । न ज ने क मेर शरमील स्िभ ि ही एक म त्र क रण र्थ । अब मैं देखत हूँ वक िह मेरी अरुवच मेरी भल ू र्थी । उस समय मेर यह गलत ख्य ल बन रह वक वशक्ष के स र्थ कसरत क कोई सम्बन्ध नहीं हैं । ब द में मैं समझ वक विद्य भ्य स में व्य य म क , अर्थ मत् श रीररक वशक्ष क , म नवसक वशक्ष के सम न ही स्र्थ न होन च वहये । वर्र भी मझु े कहन च वहये वक कसरत में न ज ने से मझु े नक ु स न नहीं हआ । उसक क रण यह रह वक मैंने पस्ु तकों में खुली हि में घमु ने ज ने की सल ह पढी र्थी और िह मझु े रुची र्थी । इसके क रण ह ईस्कूल की उच्च कक्ष से ही मझु े हि खोरी की आदत पड़ गयी र्थी । िह अन्त तक बनी रही । र्हलन भी व्य य म तो ही हैं ही, इससे मेर शरीर अपेक्ष कृ त सगु वठत बन । व्य य म के बदले मैंने र्हलने क वसलवसल रख , इसवलए शरीर को व्य य म न देने की गलती के वलए तो श यद मुझे सज नहीं भोगनी पड़ी, पर दसु री गलती की सज मैं आज तक भोग रह हूँ । मैं नहीं ज नत वक पढ ई में सन्ु दर लेखन आिकयक नहीं हैं, यह गलत ख्य ल मझु े कै से हो गय र्थ । पर ठे ठ विल यत ज ने तक यह बन रह । ब द में, और ख स करके , जब मैंने िकीलों के तर्थ दवक्षण अफ्रीक में जन्मे और पढे -वलखे नियुिकों के मोती के द नों- जैसे अक्षर देखे तो मैं शरम य और पछत य । मैंने अनभु ि वकय वक खर ब अक्षर अधरू ी वशक्ष की वनश नी म नी ज नी च वहये । हरएक नियुिक और नियुिती मेरे उद हरण से सबक ले और समझे वक अच्छे विद्य क आिकयक अगां हैं । इस समय के विद्य भ्य स के दसू रे दो सस्ां मरण उल्लेखनीय है । चौर्थी कक्ष में र्थोड़ी पढ ई अग्रां ेजी म ध्यम से होनी र्थी । मेरी समझ में कुछ न आत र्थ । भवू मवत भी चौर्थी कक्ष से शरुु होती र्थी । मैं उसमें वपछड़ हआ र्थ ही, वतस पर मैं उसे वबल्कुल समझ नहीं प त र्थ । भवू मवत के वशक्षक अच्छी तरह समझ कर पढ ते र्थे, पर मैं कुछ समझ ही न प त र्थ । मैं अकसर वनर श हो ज त र्थ । जब प्रयत्न करते-करते मैं यवु क्लड के तेरहिें प्रमेय तक पहचूँ , तो अच नक मझु े बोध हआ वक भवू मवत तो सरल से सरल विर्य हैं । वजसमें के िल बुवद्ध क सीध और सरल प्रयोग ही करन हैं, उसमें कवठन ई क्य हैं ? उसके ब द तो भवू मवत मेरे वलए सद ही सरल और सरस विर्य बन रह । www.mkgandhi.org Page 3 ग धां ीजी क सदां ेश भवू मवत की अपेक्ष सस्ां कृ त ने मझु े अवधक परेश न वकय । भवू मवत में रर्ने की कोई ब त र्थी ही नही, जब वक मेरी दृवि से सस्ां कृ त में तो सब रर्न ही होत र्थ । यह विर्य भी चौर्थी कक्ष में शरुु हआ र्थ । छठी कक्ष में मैं ह र । सस्ां कृ त के वशक्षक बहत कड़े वमज ज के र्थे । विद्य वर्थमयों को अवधक वसख ने क लोभ रखते र्थे । सस्ां कृ त िगम और र् रसी िगम के बीच एक प्रक र की होड़ रहती र्थी । र् रसी वसख ने ि ले मौलिी नरम वमज ज के र्थे । विद्य र्थी आपस में ब त करते वक र् रसी तो बहत आस न हैं और र् रसी वसक्षक बहत भले हैं । विद्य र्थी वजतन क म करते हैं, उतने से िे सतां ोर् कर लेते हैं । मैं भी आस न होने की ब त सनु कर ललच य और एक वदन र् रसी िगम में ज कर बैठ । सस्ां कृ त वशक्षक को दःु ख हआ । उन्होंने मझु े बल ु य और कह : "यह तो समझ वक तू वकनक लड़क हैं । क्य तू अपने धमम की भ र् नहीं सीखेग ? तझु े जो कवठन ई हो सो मझु े बत | मैं तो सब विद्य वर्थमयों को बवढय सस्ां कृ त वसख न च हत हूँ । आगे चल कर उसमें रस के घर्ूां पीने को वमलेंग।े तझु े यो तो ह रन नहीं च वहये । तू वर्र से मेरे िगम में बैठ ।" मैं शरम य । वशक्षक के प्रेम की अिम नन न कर सक । आज मेरी आत्म कृ ष्ट्णशक ां र म स्र्र क उपक र म नती हैं । क्योंवक वजतनी सस्ां कृ त मैं उस समय सीख उतनी भी न सीख होत , तो आज सस्ां कृ त श स्त्रों मैं वजतन रस ले सकत हूँ उतन न ले प त । मझु े तो इस ब त क पि त प होत हैं वक मैं अवधक सस्ां कृ त न सीख सक । क्योंवक ब द में मैं समझ वक वकसी भी वहन्दू ब लक को सस्ां कृ त क अच्छ अभ्य स वकये वबन रहन ही न च वहये । www.mkgandhi.org Page 4 ग धां ीजी क सदां ेश २. चोरी और प्रायलित म ांस ह र के समय के और उसके पहले के अपने कुछ दोर्ों क िणमन करन अभी रह गय हैं । िे य तो विि ह से पहले के हैं य कुछ ही ब द के । अपने एक ररकतेद र के स र्थ में मझु े बीडी पीने को शौक लग । हम रे प स पैसे नहीं र्थे । हम दोनो में से वकसी क यह ख्य ल तो नहीं र्थ वक बीड़ी पीने में कोई र् यद हैं, अर्थि गन्ध में आनन्द हैं । पर हमें लग वसर्म धआु ूँ उड़ ने में ही कुछ मज हैं। मेरे क क जी को बीड़ी पीने की आदत र्थी । उन्हें और दसू रो को धआ ु ूँ उड़ ते देखकर हमें भी बीड़ी र्ूकने की इच्छ हई । ग ूँठ में पैसे तो र्थे नहीं, इसवलए क क जी पीने के ब द बीड़ी के जो ठूूँठ र्ैं क देके , हमने उन्हें चरु न शरू ु वकय । पर बीड़ी के ये ठूूँठ हर समय वमल नहीं सकते र्थे औऱ उनमें से बहत धआ ु ूँ भी नहीं वनकलत र्थ । इसवलए नौकर की जेब में पड़े दो-च र पैसों में से हम ने बीच-बीच में एक ध पैस चुर ने की आदत ड ली और हम बीड़ी खरीदने लगे । पर सि ल यह पैद हआ वक उसे सांभ ल कर रखें कह ूँ । हम ज नते र्थे वक बड़ो के देखते तो बीडी पी ही नहीं सकते । जैस-े तैसे दो-च र पैसे चुर कर कुछ हफ्ते क म चल य । इसी बीच सनु एक प्रक र क पौध होत हैं वजसके डांठल बीड़ी की तरह जलते हैं और र्ूूँके ज सकते है । हमने उन्हें प्र प्त वकय और र्ूूँकने लगे ! पर हमें सतां ोर् नहीं हआ । अपनी पर धीनत हमें खलने लगी । हमें दःु ख इस ब त क र्थ वक बड़ों की आज्ञ के वबन हम कुछ भी नहीं कर सकते र्थे । हम उब गये और हमने आत्महत्य करने क वनिय कर वकय ! पर आत्महत्य कै से करें? जहर कौन दें? हमने सनु वक धतरू े के बीज ख ने से मृत्यु होती हैं। हम जगां ल में ज कर बीच ले आये। श म क समय तय वकय । के द रन र्थजी के मवन्दर की दीपम ल में घी चढ य , दशमन वकयें और एक न्त खोज वलय । पर जहर ख ने की वहम्मत न हई । अगर तरु न्त ही मृत्यु न हई तो क्य होग ? मरने से ल भ क्य ? क्यों न पर धीनत ही सह ली ज ये ? वर्र भी दो-च र बीज ख ये। अवधक ख ने की वहम्मत ही न पड़ी । दोनों मौत से डरे और यह वनिय वकय वक र मजी के मवन्दर ज कर दशमन करके श न्त हो ज ये और आत्महत्य की ब त भल ू ज ये। मेरी समझ में आय वक आत्महत्य क विच र करन सरल हैं, आत्महत्य करन सरल नहीं। इसवलए कोई आत्महत्य करने क धमकी देत हैं, तो मझु पर उसक बहत कम असर होत हैं अर्थि यह कहन ठीक होग वक कोई असर होत ही नहीं। आत्महत्य के इस विच र क पररण म यह हआ वक हम दोनों जठू ी बीड़ी चरु कर पीने की और नौकर के पैसे चरु कर पैसे बीड़ी खरीदने और र्ूँू कने की आदत भल ू गये । वर्र कभी बड़ेपन में पीने की कभी इच्छ नहीं हई www.mkgandhi.org Page 5 ग धां ीजी क सदां ेश । मैंने हमेंश यह म न हैं वक यह आदत जगां ली, गन्दी और ह वनक रक हैं । दवु नय में बीड़ी क इतन जबरदस्त शौक क्यों हैं, इसे मैं कभी समझ नहीं सक हूँ । रेलग ड़ी के वजस वडब्बे में बहत बीड़ी पी ज ती हैं, िह ूँ बैठन मेरे वलए मवु ककल हो ज त हैं औऱ धएूँु से मेर दम घर्ु ने लगत हैं । बीड़ी के ठूूँठ चुर ने और इसी वसलवसले में नोकर के पैसे चुर ने की के दोर् की तल ु न में मझु से चोरी क दसू र जो दोर् हआ उसे मैं अवधक गम्भीर म नत हूँ । बीड़ी के दोर् के समय मेरी उमर ब रह तेरह स ल की रही होगी; श यद इससे कम भी हो । दसू री चोरी के समय मेरी उमर पन्द्रह स ल की रही होगी । यह चोरी मेरे म ूँस ह री भ ई के सोने के कड़े के र्ुकड़े की र्थी । उन पर म मूली स , लगभग पच्चीस रुपये क कजम हो गय र्थ । उसकी अद यगी के ब रे हम दोनों भ ई सोच रहे र्थे । मेरे भ ई के ह र्थ में सोने क ठोस कड़ र्थ । उसमें से एक तोल सोन क र् लेन मवु ककल न र्थ । कड़ कर् । कजम अद हआ । पर मेरे वलए यह ब त असह्य हो गयी । मैंने वनिय वकय वक आगे कभी चोरी करुूँग ही नहीं । मझु े लग वक वपत जी के सम्मख ु अपन दोर् स्िीक र भी कर लेन च वहये । पर जीभ न खल ु ी । वपत जी स्ियां मझु े पीर्ेंगे, इसक डर तो र्थ ही नहीं । मझु े य द नहीं पड़त कभी हममें से वकसी भ ई को पीर् हो । पर खुद दःु खी होगे, श यद वसर र्ोड़ लें । मैंने सोच वक यह जोवखम उठ कर भी दोर् कबूल कर लेन च वहये, उसके वबन शवु द्ध नहीं होगी । आवखर मैंने तय वकय वक वचट्ठी वलख कर दोर् स्िीक र वकय ज ये और क्षम म ूँग ली ज ये । मैंने वचट्ठी वलखकर ह र्थोह र्थ दी । वचट्ठी में स र दोर् स्िीक र वकय और सज च ही । आग्रहपिू क म वबनती की वक िे अपने को दःु ख में न ड ले और भविष्ट्य में वर्र ऐस अपर ध न करने की प्रवतज्ञ की । मैंने क ूँपते ह र्थों वचट्ठी वपत जी के ह र्थ में दी । मैं उनके तख़्त के स मने बैठ गय । उन वदनों िे भगन्दर की बीम री से पीवड़त र्थे, इस क रण वबस्तर पर ही पड़े रहते र्थे। खवर्य के बदले लकड़ी क तख्त क म में ल ते र्थे । उन्होंने वचट्ठी पढी । आूँखों से मोती की बूँदू े र्पकी । वचट्ठी भीग गयी । उन्होंने क्षण भर के वलए आूँखें मदूां ी, वचट्ठी र् ड़ ड ली और स्ियां पढने के वलए उठ बैठे र्थे, सो ि पस लेर् गये । मैं भी रोय । वपत जी क दःु ख समझ सक । अगर मैं वचत्रक र होत , तो िह वचत्र आज भी सम्पणू तम से खींच सकत । आज भी िह मेरी आूँखो के स मने इतन स्पि हैं । मोती की बूँदू ों के उस प्रेमब ण ने मझु े बेध ड ल । मैं शद्ध ु बन । इस प्रेम को तो अनभु िी ही ज न सकत हैं । राम-बाण िागयााँ रे होय ते जाणे । (र म की भवि क ब ण वजसे लग हो, िही इसके प्रभ ि को ज न सकत हैं ।) www.mkgandhi.org Page 6 ग धां ीजी क सदां ेश इस प्रक र की श न्त क्षम वपत जी के स्िभ ि के विरुद्ध र्थी । मैंने सोच र्थ वक िे क्रोध करेंग,े श यद अपन वसर पीर् लेंगे । पर उन्होंने इतनी अप र श वन्त जो ध रण की, मेरे विच र उसक क रण अपर ध की सरल स्िीकृ वत र्थी । जो मनष्ट्ु य अवधक री के सम्मख ु स्िेच्छ से और वनष्ट्कपर् भ ि से अपर ध स्िीक र कर लेत हैं और वर्र कभी िैस अपर ध न करने की प्रवतज्ञ करत हैं, िह शद्ध ु तम प्र यवित करत हैं । मैं ज नत हूँ वक मेरी इस स्िीकृ वत से वपत जी मेरे विर्य में वनभमय बने और उनक मह न प्रेम और भी बढ गय । www.mkgandhi.org Page 7 ग धां ीजी क सदां ेश ३. धमम की झााँकी छह य स त स ल से लेकर सोलह स ल की उमर तक मैंने पढ ई की, पर स्कूल में कहीं भी धमम की वशक्ष नहीं वमली । यों कह सकते हैं वक वशक्षकों से जो आस नी से वमलन च वहये र्थ िह नहीं वमल । वर्र भी ि त िरण से कुछ-न-कुछ तो वमलत ही रह । यह ूँ धमम क उद र अर्थम करन च वहयें । धमम अर्थ मत् आत्म-बोध, आत्म- ज्ञ न । मैं िैष्ट्णि सम्प्रद य में जन्म र्थ , इसवलए हिेली (मवां दर) में ज ने के प्रांसग ब र-ब र आते र्थे। पर उसके प्रवत श्रद्ध उत्पन्न नहीं हई । हिेली क िैभि मझु े अच्छ नहीं लग । हिेली में चलने ि ली अनीवत की ब तें सनु कर उसके प्रवत उद वसन बन गय । िह ूँ से मझु े कुछ भी न वमल । पर जो हिेली से न वमल , िह मझु े अपनी द ई रम्भ से वमल । रम्भ हम रे पररि र की परु नी नौकर नी र्थी । उसक प्रेम मझु े आज भी य द हैं । मैं भतू -प्रेत आवद से डरत र्थ । रम्भ ने मझु े समझ य वक इसकी दि र म- न म हैं । मझु े तो र म-न म से भी अवधक श्रद्ध रम्भ पर र्थी, इसवलए बचपन में भतू -प्रेत वद के भय से बचने के वलए मैंने र मन म जपन शरुु वकय । यह जप बहत समय तक नहीं चल । पर बचपन में जो बीच बोय गय , िह नि नहीं हआ । आज र म-न म मेरे वलए अमोघ शवि हैं । मैं म नत हूँ वक उसके मल ू में रम्भ ब ई क बोय हआ बीज हैं । इसी बीच मेरे च च जी के एक लड़के ने, जो र म यण के भि र्थे, हम दो भ ईयों को र म-रक्ष क प ठ वसख ने क व्यिस्र्थ की । हमने उसे कण्ठ ग्र कर वलय और स्न न के ब द उसके वनत्यप ठ क वनयम बन य । जब तक पोरबन्दर रहे, यह वनयम चल । र जकोर् के ि त िरण में यह वर्क न सक । इस वक्रय के प्रवत भी ख स श्रद्ध नहीं र्थ । अपने बड़े भ ई के वलए मन में जो आदर र्थ उसके क रण और कुछ शद्ध ु उच्च रणों के स र्थ र म-रक्ष क प ठ कर प ते हैं इस अवभम न के क रण प ठ चलत रह । पर वजस चीज क मेरे मन पर गहर असर पड़ , िह र्थ र म यण क प र यण । वपत जी की बीम री क कुछ समय पोरबन्दर में बीत र्थ । िह ूँ िे र मजी के मवन्दर में रोज र त के समय र म यण सनु ते र्थे । सनु नेि ले र्थे बीलेश्वर के ल ध मह र ज न मक एक पवां डत र्थे । िे र मचन्द्रजी के परम भि र्थे । उनके ब रे में कह ज त र्थ वक उन्हें कोढ की बीम री हई तो उसक इल ज करने के बदले उन्होंने बीलेश्वर मह देि पर चढे हए बेलपत्र लेकर कोढ ि ले अगां पर ब ूँधे और के िल र मन म क जप शरुु वकय । अन्त में उनक कोढ जड़मल ू से नि हो गय । यह ब त सच हो य न हो, हम सनु ने ि लों ने तो सच ही म नी । यह सच भी हैं वक जब ल ध मह र ज ने कर्थ शरुु की तब उनक शरीर वबल्कुल नीरोग र्थ । ल ध मह र ज क कण्ठ मीठ र्थ । िे दोह -चौप ई ग ते और उसक अर्थम समझ ते र्थ । स्ियां उसके रस में लीन हो ज ते र्थे । और श्रोत जनों को भी लीन कर देते www.mkgandhi.org Page 8 ग धां ीजी क सदां ेश र्थे । उस समय मेरी उमर तेरह स ल की रही होगी, पर य द पड़त हैं वक उनके प ठ में मझु े खबू रस आत र्थ । यह र म यण-श्रिण र म यण के प्रवत मेरे अत्य वधक प्रेम की बुवनय द हैं। आज मैं तुलसीद स की र म यण को भवि म गम क सिोत्तम ग्रर्थां म नत हूँ । कुछ महीनों के ब द हम र जकोर् आये । िह ूँ र म यण क प ठ नहीं होत र्थ । एक दशी के वदन भ गित जरुर पढी ज ती र्थी । मैं कभी-कभी उसे सनु ने बैठत र्थ । पर भर्जी रस उत्पन्न नहीं कर सके । आज मैं यह देख सकत हूँ वक भ गित एक ऐस ग्रांर्थ हैं, वजसके प ठ से धमम-रस उत्पन्न वकय ज सकत हैं । मैंने तो उसे गजु र ती में बड़े रस के स र्थ पढ हैं । लेवकन इक्कीस वदन के अपने उपि स क ल में भ रत-भर्ू ण पवां डत मदनमोहन म लिीयजी के श्रीमख ु से मलू सांस्कृ त के कुछ अशां जब सनु े तो ख्य ल हआ वक बचपन में उनके सम न भगिद-् भि के महुूँ से भ गित सनु होत तो उस पर उसी उम्र में मेर ग ढ प्रेम हो ज त । बचपन में पड़े शभू -अशुभ सस्ां क र बहत गहरी जड़े जम ते हैं, इसे मैं खबू अनभु ि करत ह;ूँ और इस क रण उस उम्र में मझु े कई उत्तम ग्रांर्थ सनु ने क ल भ नहीं वमल , सो अब अखरत हैं । र जकोर् में मझु े अन य स ही सब सम्प्रद यों के प्रवत सम न भ ि रखने की वशक्ष वमली । मैंने वहन्दू धमम के प्रत्येक सम्प्रद य क आदर करन सीख ,क्योंवक म त -वपत िैष्ट्णि-मवन्दर में, वशि लय में और र म-मवन्दर में भी ज ते और हम भ ईयों को भी स र्थ ले ज ते य भेज करते र्थे । वर्र वपत जी के प स जैन धम मच यों में से भी कोई न कोई हमेंश आते रहते र्थे । वपत जी के स र्थ धमम और व्यिह र की ब तें वकय करते र्थे । इसके वसि , वपत जी के मसु लम न और प रसी वमत्र भी र्थे । िे अपने-अपने धमम की चच म करते और वपत जी उनकी ब तें सम्म नपूिक म सनु करते र्थे । 'नसम' होने के क रण ऐसी चच म के समय मैं अक्सर ह वजर रहत र्थ । इस स रे ि त िरण क प्रभ ि मझु पर यह पड़ वक मझु में सब धमों के वलए सम न भ ि पैद हो गय । इसमें के िल एक ईस ई धमम अपि दरुप र्थ । उसके प्रवत कुछ अरुवच र्थी । उन वदनों कुछ ईस ई ह ईस्कूल के कोने पर खड़े होकर व्य ख्य न वदय करते र्थे । िे वहन्दू देित ओ ां की और वहन्दू धमम को म नने ि लों की बुर ई करते र्थे । मझु े यह असह्य म लमू हआ । मैं एक ध ब र ही व्य ख्य न सनु ने के वलए खड़ हआ होऊूँ ग । पर दसू री ब र वर्र िह ूँ खड़े रहने की इच्छ ही न हई । उन्ही वदनों एक प्रवसद्ध वहन्दू के ईस ई बनने की ब त सनु ी । ग ूँि में चच म र्थी वक उन्हें ईस ई धमम की दीक्ष देते समय गोम ांस वखल य गय और शर ब वपल यी गयी । उनकी पोश क भी बदल दी गयी औऱ ईस ई बनने के ब द िे भ ई कोर्-पतलनू और अग्रां ेजी र्ोपी पहनने लगे । इन ब तों से मुझे पीड़ पहचूँ ी । वजस धमम के क रण गोम ूँस ख न पड़े , शर ब पीनी पड़े और अपनी पोश क बदलनी पड़े, उसे धमम कै से कह ज य ? मेरे मन ने यह दलील की । वर्स यह भी सनु नें में आय वक जो भ ई ईस ई बने र्थे, उन्होंने अपने पिू जम ों के धमम की, रीवत-ररि जों और देश की वनन्द करन शरूु कर वदय र्थ । इन सब ब तों से मेरे मन में ईस ई धमम के प्रवत अरुवच उत्पन्न हो गयी । www.mkgandhi.org Page 9 ग धां ीजी क सदां ेश इस तरह यद्यवप अन्य धमों के प्रवत समभ ि ज ग , वर्र भी यह नहीं कह ज सकत वक मुझ में ईश्वर के प्रवत आस्र्थ र्थी । इन्हीं वदनों वपत जी के पस्ु तक-सग्रां ह में से मनस्ु मृवत की भ र् न्तर मेरे ह र्थ में आय । उसमें ससां र की उत्पवत्त आवद की ब ते पढी । उन पर श्रद्ध नहीं जमी, उलर्े र्थोड़ी न वस्तकत ही पैद हई । मेरे च च जी के लड़के की, जो अभी जीवित हैं, बवु द्ध पर मझु े विश्व स र्थ । मैंने अपनी शक ां ये उनके स मने रखी, पर िे मेर सम ध न न कर सके । उन्होंने मझु े उत्तर वदय : 'सय ने होने पर ऐसे प्रश्नों के उत्तर तमु खदु दे सकोगे । ब लकों को ऐसे प्रश्न नहीं पछू ने च वहये ।' मैं चपु रह । मन को श वन्त नहीं वमली । मनस्ु मृवत के ख द्य-विर्यक प्रकरण में और दसू रे प्रकरणों में भी मैंने ितमम न प्रर्थ क विरोध प य । इस शक ां क उत्तर भी मझु े लगभग ऊपर के जैस ही वमल । मैंने यह सोचकर अपने मन को समझ वलय वक 'वकसी वदन बवु द्ध खल ु गे ी, अवधक पढूूँग और समझगूँू ।' उस समय मनस्ु मृवत को पढकर में अवहसां तो सीख ही न सक । म ांस ह र की चच म हो चुकी हैं । उसे मनस्ु मृवत क समर्थमन वमल । यह भी ख्य ल हआ वक सप मवद और खर्मल आवद को म रनी नीवत हैं । मझु े य द हैं वक उस समय मैंने धमम समझकर खर्मल आवद क न श वकय र्थ । पर एक चीज ने मन में जड़ जम ली - यह ससां र नीवत पर वर्क हआ हैं । नीवतम त्र क सम िेश सत्य में हैं । सत्य की खोज करनी ही होगी । वदन-पर-वदन सत्य की मवहम मेरे वनकर् बढती गयी । सत्य की व्य ख्य विस्तृत होती गयी, और अभी हो रही हैं । वर्र नीवत क एक छप्पय वदल में बस गय । अपक र क बदल अपक र नहीं, उपक र ही हो सकत हैं , यह एक जीिन सत्रू ही बन गय । उसने मझु पर स म्र ज्य चल न शरुु वकय । अपक री क भल च हन और करन , इसक मैं अनरु गी बन गय । इसके अनवगनत प्रयोग वकये। िह चमत्क री छप्पय यह हैं : प णी आपने प ए, भलुां भोजन तो दीजे, आिी नम िे शीश, दडां ित कोडे कीजे । आपण घ से द म, क म महोरो नुां करीए, आप उग रे प्र ण, ते तण दःु ख म ूँ मरीए । गणु के डे तो गणु दश गणों, मन, ि च , कमे करी अिगणु के डे जे गणु करे, ते जगम ां जीत्यो सही ।* *(जो हमें प नी वपल ये, उसे हम अच्छ भोजन कर ये । जो हम रे स मने वसर नि ये, उसे हम उमांग से दण्डित् प्रण म करे । जो हम रे वलए एक पैस खचम करे , उसक हम मुहरों की कीमत क क म कर दे । जो हम रे प्र ण बच ये , उसक दःु ख दरू करने के वलए हम अपने प्र णों तक वनछ िर कर दे । जो हम री उपक र करे , उसक हमें मन, िचन और कमम से दस गनु उपक र करन ही च वहये । लेवकन जग में सच्च और स र्थमक जीन उसी क हैं, जो अपक र करने ि ले के प्रवत भी उपक र करत हैं ।) www.mkgandhi.org Page 10 ग धां ीजी क सदां ेश ४. सेिा-िृलत िक लत क मेर धन्ध अच्छ चल रह र्थ , पर उससे मझु े सतां ोर् नहीं र्थ । जीिन अवधक स द होन च वहये, कुछ श रीररक सेि -क यम होन च वहये, यह मन्र्थन चलत ही रहत र्थ । इतन में एक वदन कोढ से पीवड़त एक अपगां मनष्ट्ु य मेरे घर आ पहचूँ । उसे ख न देकर वबद कर देने के वलए वदल तैय र न हआ । मैंने उसको एक कोठरी में ठहर य , उसके घ ांि स र् वकये और उसकी सेि की । पर यह व्यिस्र्थ अवधक वदन तक चल न सकती र्थी । उसे हमेंश के वलए घर में रखने की सवु िध मेरे प स न र्थी, न मझु में इतनी वहम्मत ही र्थी । इसवलए मैंने उसे वगरवमर्यों के वलए चलनेि ले सरक री अस्पत ल में भेज वदय । पर इससे मझु े तृवप्त न हई । मन में हमेंश यह विच र बन रहत वक सेि -शश्रु र्ू क ऐस कुछ क म मैं हमेंश करत रह,ूँ तो वकतन अच्छ हो ! डॉक्र्र बूर्थ सेंर् एडम्स वमशन के मवु खय र्थे । िे हमेंश अपने प स आनेि लों को मफ्ु त दि वदय करते र्थे। बहत भले और दय लु आदमी र्थे । प रसी रुस्तमजी की द नशीलत के क रण डॉ. बर्थू की देखरेख में एक बहत छोर् अस्पत ल खल ु । मेरी प्रबल इच्छ हई वक मैं इस अस्पत ल में नसम क क म करुूँ । उसमें दि देने के वलए एक से दो घर्ां ों क क म रहत र्थ । उसके वलए दि बन कर देनिे ले वकसी िेतनभोगी मनष्ट्ु य की स्ियसां ेिक की आिकयकत र्थी । मैंने यह क म अपने वजम्मे लेने और अपने समय में से इतन समय बच ने क वनणमय वकय । िक लत क मेर बहत-स क म तो दफ्तर में बैठकर सल ह देन,े दस्त िेज तैय र करने अर्थि झगड़ो क र्ै सल करने क होत र्थ । कुछ म मले मवजस्रेर् की अद लत में चलते र्थे । इनमें से अवधक श ां विि द स्पद नहीं होते र्थे । ऐसे म मलों को चल ने की वजम्मेद री वम. ख न ने, जो मझु से ब द में आये र्थे और जो उस समय मेरे स र्थ ही रहते र्थे, अपने वसर पर ले ली और मैं उस छोर्े-से अस्पत ल में क म करने लग । रोज सबेरे िह ूँ ज न होत र्थ । आने-ज ने में और अस्पत ल क क म करने प्रवतवदन लगभग दो घर्ां े लगते र्थे । इस क म से मझु े र्थोड़ी श वन्त वमली । मेर क म बीम र की ह लत समझकर उसे डॉक्र्र को समझ ने और डॉक्र्र की वलखी दि तैय र करके बीम र को दि देने क र्थ । इस क म से मैं दख ु ी-ददी वहन्दुस्त वनयों के वनकर् सम्पकम में आय । उनमे से अवधक ांश त वमल, तेलगू अर्थि उत्तर वहन्दस्ु त न के वगरवमवर्य होते र्थे । यह अनभु ि मेरे भविष्ट्य में बहत उपयोगी वसद्ध हआ । बोअर-युद्ध के समय घ यलों की सेि -शश्रु र्ू के क म में और दसू रे बीम रों की पररचच म में मझु े इससे बड़ी मदद वमली । इस प्रक र सेि द्व र लोगों के वनकर् पररचय में आन शरूु हआ | उसके स र्थ ही स दगी की ओर भी झक ु ि बढ | www.mkgandhi.org Page 11 ग धां ीजी क सदां ेश यद्यवप मेर रहन-सहन शरूु में कुछ ठ ठ-ब र् क र्थ , परन्तु उसक मोह मझु े नहीं हआ | इसवलए घर बस ने के स र्थ ही मैंने खचम कम करन शरुु कर वदय । धोबी क खचम कुछ ज्य द म लमू हआ । धोबी वनवित समय पर कपड़े नहीं लौर् त र्थ । इसवलए दो-तीन दजमन कमीजों और उतने क लरों से भी मेर क म चल नहीं प त र्थ । कमीज रोज नहीं तो एक वदन के अन्तर से बदलत र्थ । इससे दोहर खचम होत र्थ । मझु े यह व्यर्थम प्रतीत हआ । अतएि मैंने धल ु ई क स म न जर्ु य । धुल ई-विद्य पर पस्ु तक पढी, धोन सीख और पत्नी को भी वसख वदय । क म क बोझ तो बढ ही, पर नय क म होने से उसे करने में आनन्द आत र्थ । पहली ब र अपने ह र्थों से धोये हए क लर तो मैं कभी भलू नहीं सकत । उसमें कलर् अवधक लग गय र्थ और इस्तरी परू ी गरम नहीं र्थी । उस पर क लर के जल ज ने के डर से इस्तरी को मैंने अच्छी तरह दब य भी नहीं र्थ । इससे क लर में कड़ पन तो आ गय , पर उसमें से कलर् झड़त रहत र्थ । ऐसी ह लत में मैं कोर्म गय और िह ूँ के ब ररस्र्रों के वलए मज क क स धन बन गय । पर इस तरह क मज क सह लेने की शवि उस समय भी मझु में क र्ी र्थी । मैंने सर् ई देते हए कह , “अपने ह र्थों क लर धोने क मेर यह पहल प्रयोग है, इस क रण इसमें से कलर् झडत हैं । मुझे इससे कोई अड़चल नहीं होती, वर्र आप सब लोगों के वलए विनोद की इतनी स म्रगी जर्ु रह हूँ ।” एक वमत्र ने पछू , 'पर क्य धोवबयों क अक ल पड़ गय हैं ?' 'यह ां धोबी क खचम मझु े तो असह्य म लमू होत है । क लर की कीमत के बर बर धल ु ई हो ज ती है और इतनी धलु ई देने के ब द भी धोबी की गल ु मी करनी पड़ती है । इसकी अपेक्ष अपने ह र्थ से धोन मैं ज्य द पसन्द करत ह।ूँ ' स्ि िलम्बन की यह खबू ी मैं वमत्रो को समझ नहीं सक । मझु े कहन च वहये वक आवखर धोबी के धधां े में अपने क म ल यक कुशलत मैंने प्र प्त कर ली र्थी और घर की धल ु ई धोबी की धलु ई से जर भी घवर्य नहीं होती र्थी । क लर क कड़ पन और चमक धोबी के धोये क लर से कम न रहती र्थी । गोखले१ के प स स्ि. मह देि गोविन्द र नडे२ की प्रस दी-रुप में एक दपु र् र्थ । गोखले उस दुपट्टे को बड़े जतन से रखते र्थे और विशेर् अिसर पर ही उसक उपयोग करते र्थे । जोह न्सबगम३ में उनके सम्म न में जो भोज वदय गय र्थ , िह एक महत्त्िपणू म अिसर र्थ । उस अिसर पर उन्होंने जो भ र्ण वदय िह दवक्षण अफ्रीक में उनक सबसे महत्त्िपणू म भ र्ण र्थ । अतएि उस अिसर पर उन्हें उि दपु ट्टे क उपयोग करन र्थ । उसमें वसलिर्े पड़ी हई र्थी और उस पर इस्तरी करने की जरुरत र्थी । धोबी क पत लग कर उससे तरु न्त इस्तरी कर न सम्भि न र्थ । मैंने अपनी कल क उपयोग करने देने की अनमु वत गोखले से च ही । www.mkgandhi.org Page 12 ग धां ीजी क सदां ेश 'मैं तम्ु ह री िक लत क तो विश्व स कर लगूूँ , पर इस दपु ट्टे पर तम्ु हें अपनी धोबी-कल क उपयोग नहीं करने दगूूँ । इस दपु ट्टे पर तमु द ग लग दो तो? इसकी कीमत ज नते हो?' यो कहकर अत्यन्त उल्ल स से उन्होंने उस प्रस दी की कर्थ मझु े सनु यी । मैंने वर्र भी वबनती की और द ग न पड़ने देने की वजम्मेद री ली । मझु े इस्तरी करने की अनमु वत वमली और ब द में अपनी कुशलत क प्रम ण-पत्र मझु े वमल गय ! अब दवु नय मझु े प्रम ण-पत्र न दे तो भी क्य ? १. श्री गोप लकृ ष्ट्ण गोखले लोकम न्य वतलक के समक लीन और क ांग्रेस नरम दल के एक बड़े नेत र्थे | ग ांधीजी उन्हें अपन र जनैवतक गरुु म नते र्थे | २. स्ि. र नडे गोखले के र जनैवतक गुरु र्थे और उस समय की मह र ष्ट्र की र जनीवत के सब लोग इनकी मह नत को म नते र्थे | ३. दवक्षण अफ्रीक क एक नगर | www.mkgandhi.org Page 13 ग धां ीजी क सदां ेश ५. अदभुत त्याग ू उपदेश वमल ज ते हैं। इन वदनों मैं उदमू की रीडरें पढ रह ह।ां उनमें अक्सर स म न्य प ठ्य-पस्ु तकों से हमें अचक कोई-कोई प ठ बहत सन्ु दर वदख ई देते हैं | ऐसे एक प ठ क असर मझु पर तो भरपरु हआ है। दसू रों पर भी िैस ही हो सकत है। अत: उसक स र यह ां वदये देत ह।ां पैगबां र स हब के देह न्त के ब द कुछ ही बरसों में अरबों और रुवमयों (रोमनों) के बीच मह सग्रां म हआ। उसमें दोनों पक्ष के हज रों योद्ध खेत रहे, बहत से जख्मी भी हए। श म होने पर आमतौर से लड़ ई बांद हो ज ती र्थी। एक वदन जब इस तरह लड़ ई बदां हई तो अरब सेन क एक अरब अपने चचेरे भ ई को ढूांढने वनकल । उसकी ल श वमल ल य तो दर्न ये और वजदां वमले तो सेि करे। श यद िह प नी के वलए तड़प रह हो, यह सोचकर उसने अपने स र्थ लोर् भर प नी भी ले वलय । तड़पते घ यल वसप वहयों के बीच िह ल लर्ेन वलये देखत ज रह र्थ । उसक भ ई वमल गय और सचमचु ही उसे प नी की रर् लग रही र्थी। जख्मों से खून बह रह र्थ । उसके बचने की आश र्थोड़ी ही र्थी। भ ई ने प नी क लोर् उसके प स रख वदय । इतने में वकसी दसू रे घ यल की 'प नी-प नी' की पक ु र सनु ई दी। अत: उस दय लु वसप ही ने अपने भ ई से कह , "पहले उस घ यल को प नी वपल आओ, वर्र मझु े वपल न ।" वजस ओर से आि ज आ रही र्थी, उस ओर यह भ ई तेजी से कदम बढ कर पहचां । यह ज़ख्मी बहत बड़ सरद र र्थ । उि अरब उसको प नी वपल ने और सरद र पीने को ही र्थ वक इतने में तीसरी वदश से प नी की पक ु र आई। यह सरद र पहले वसप ही के बर बर ही परोपक री र्थ । अत: बड़ी कवठन ई से कुछ बोलकर और कुछ इश रे से समझ य वक पहले जह ां से पक ु र आई है, िह ां ज कर प नी वपल आओ। वन:श्व स छोड़ते हए यह भ ई तेज़ी से दौड़कर जह ां से आि ज आ रही र्थी िह ां पहचां । इतने में इस घ यल वसप ही ने आवखरी स ांस ले ली और आांखें मदूां लीं। उसे प नी न वमल । अत: यह भ ई उि् जख्मी सरद र जह ां पड़ र्थ , िह ां झर्पर् पहचां ; पर देखत है तो उसकी आांखें भी तब तक मदुां चक ु ी र्थीं। द:ु खभरे ह्रदय से खुद की बांदगी करत हआ िह अपने भ ई के प स पहचां तो उसकी न ड़ी भी बांद प ई, उसके प्र ण भी वनकल चुके र्थे। यों तीन घ यलों में वकसी ने भी प नी न प य ; पर पहले दो अपने न म अमर करके चले गये। इवतह स के पन्नों में ऐसे वनममल त्य ग के दृि ांत तो बहतेरे वमलते हैं। उनक िणमन जोरद र कलम से वकय गय हो तो उसे पढकर हम दो बूांद आांसू भी वगर देते हैं; पर ऊपर जो अद् भुत दृि ांत वदय गय है, उसके देने क हेतु तो यह है वक उि िीर परुु र्ों के जैस त्य ग हममें भी आये और जब हम री परीक्ष क समय आये तब दसू रे को प नी वपल कर वपयें, दसू रे को वजल कर वजयें और दसू रे को वजल ने में खदु मरन पड़े तो हसां ते चेहरे से कूच कर ज यां। www.mkgandhi.org Page 14 ग धां ीजी क सदां ेश मझु े ऐस ज न पड़त है वक प नी की परीक्ष से कवठनतर परीक्ष एकम त्र हि की है। हि के वबन तो आदमी एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकत । इसी से सपां णू म जगत हि से वघर हआ ज न पड़त है। वर्र भी कभी- कभी ऐस भी िि आत है जब अलम री-जैसी कोठरी के अदां र बहत से आदमी ठूांस वदये गए हों, एक ही सरू ख से र्थोड़ी सी हि आ रही हो, उसे जो प सके , िही वजये, ब की लोग दम घर्ु कर मर ज य।ां हम भगि न से प्र र्थमन करें वक ऐस समय आये तो हम हि को ज ने दें। हि से दसू रे नम्बर प नी की आिककयत -प्य स है। प नी के प्य ले के वलए मनुष्ट्यों के एक-दसू रे से लड़ने- झगड़ने की ब त सनु ने में आई है। हम यह इच्छ करें वक ऐसे मौकों पर उि बह दरु अरबों क त्य ग हममें आये | पर ऐसी अवग्नपरीक्ष तो वकसी एक की ही होती है | स म न्य परीक्ष हम सबकी रोज हआ करती है। हम सबको अपने-आप से पछू न च वहए - "जब-जब िैस अिसर आत है तब-तब क्य हम अपने स वर्थयों, पड़ोवसयों को आगे करके खुद पीछे रहते है?" न रहते हों तो हम न प क हए, अवहसां क पहल प ठ हमें नहीं आत । www.mkgandhi.org Page 15 ग धां ीजी क सदां ेश ६. शुद्ध न्याय ु र त)१ एर्थेंस (यनू न क एक नगर) क एक बवु द्धम न परुु र् हो गय है | उसके नए, पर नीवतिधमक स क्रेर्ीज (सक विच र र ज्य के अवधक रीयों को न रुचे | इसवलए उसे मौत की सज वमली | उस ज़म ने में उस देश में विर्प न कर कर मरने की सज भी दी ज ती र्थी | स क्रेर्ीज को भी मीर ब ई की तरह जहर क प्य ल पीने के वलए वदय गय र्थ | उस पर मक़ ु दम चल य गय | उस िि स क्रेर्ीज ने जो अवां तम िचन कहे उनके सर पर विच र करन है | िह हम सबके वलए वशक्ष लेने ल यक है | स क्रेर्ीज को हम सक ु र त कहते हैं, अरब भी उसे इसी न म से पक ु रते हैं | सकु र त ने कह , “मेर दृढ विश्व स है की भले आदमी क इस लोक य परलोक में अवहत होत ही नहीं | भले आदवमयों और उनके स वर्थयों क ईश्वर कभी त्य ग नहीं करत | वर्र मैं तो यह भी ज नत हूँ वक मेरी य वकसी की भी मौत अच नक नहीं आती | मृत्युदडां मेरे वलए सज नहीं है | मेरे मरने और उप वध से मुि होने क समय आ गय है | इसी से आपने मझु े जहर क प्य ल वदय है | इसी में मेरी भल ई होगी और इससे मझु पर अवभयोग लग नेि लों य मझु े सज देनिे लों के प्रवत मेरे मन में क्रोध नहीं है | उन्होंने भले ही मेर भल न च ह हो, पर िे मेर अवहत न कर सके |” “मह जन-मडां ल से मेरी एक विनती है – मेरे बेर्े अगर भल ई क र स्त छोडकर कुम गम में ज एूँ और धन के लोभी हो ज एूँ तो जो सज आप मझु े दे रहे हैं िही उन्हें भी दें | िे दभां ी हो ज एूँ, जैसे न हों िैस वदखने की कोवशश करें, तो भी उनको दडां दें | आप ऐस करेंगे तो मैं और मेरे बेर्े म नेंगे वक आपने शद्ध ु न्य य वकय |” अपनी सतां न के विर्य में सक ु र त की यह म ूँग अद् भतु है | जो मह जन-मडां ल न्य य करने को बैठ र्थ िह अवहसां -धमम को तो ज नत ही न र्थ | इससे सक ु र त ने अपनी सतां न के ब रे में उपयुमि प्र र्थमन की, अपनी सतां न को चेत य और उससे उसने क्य आश रखी र्थी, यह बत य | मह जनों को मीठी र्र्क र बत ई, क्योंवक उन्होंने सक ु र त को उसकी भलम नसी के वलए सज दी र्थी | सक ु र त ने अपने बेर्ों को अपने र स्ते पर चलने की सल ह देकर यह जत य वक जो र स्त उसने एर्थेंस के न गररकों को बत य िह उसके लड़कों के वलए भी है और अगर िे उस र स्ते पर न चलें तो दडां के योग्य समझे ज एूँ | १. ईस से लगभग च र सौ िर्म पिू म www.mkgandhi.org Page 16 ग धां ीजी क सदां ेश ७. िाचन और लिचार प ठश ल ओ ां में हम पढते है – “ि चन वमथ्य वबन विच र |” यह उवि शब्दशः सत्य है | हमें वकत बें पढने क शौक हो तो यह अच्छ कह ज एग | आलस्यिश जो पढत नहीं, ब ूँचत नहीं िह अिकय मढू मन ज एग ; पर जो ख ली पढ ही करत है, विच र नहीं करत , िह भी लगभग मढू -जैस ही रहत है | इस पढ ई के एिज में वकतने ही आूँख खो बैठते हैं, िह अलग है | वनर ि चन एक प्रक र क रोग है | हममें बहतेरे वनरी पढ ई करनेि ले होते हैं | िे पढते हैं; पर गनु ते नहीं; विच रते नहीं | र्लतः पढी हई चीज पर अमल िे क्यों करने लगे? इससे हमें च वहए वक र्थोड़ पढे, उस पर विच र करें और उस पर अमल करें | अमल करते िि जो ठीक न जन पड़े उसे छोड़ दें और आगे बढे | ऐस करनेि ल र्थोड़ी पढ ई से अपन कम चल सकत है, बहत-स समय बच लेत है और मौवलक क यम करने की वजम्मेद री उठ ने के योग्य बनत है | जो विच र करन सीख लेत है उसको एक ल भ और होत है; जो उल्लेखनीय है | पढने को हमेश नहीं वमल सक | देखने में आत है वक वजसे पढने की आदत पड़ गई हो उसे पढने को न वमले तो िह परेश न हो ज त है | पर विच र करने की आदत पड़ ज ए तो उसके प स विच र-पोर्थी तो प्रस्ततु रहती ही है, अत: उसे परे श नी में नहीं पड़न पड़त | ‘विच र करन सीखन ’, यह शब्द-प्रयोग मैंने ज न-बुझकर वकय है | सही-गलत, वनकम्मे विच र तो बहतेरे वकय करते हैं, िह प गलपन है | वकतने ही विच रों के भूँिर में पड़कर वनर श हो ज ते और आत्मघ त भी कर बैठते हैं | ऐसे विच र की ब त यह ूँ नहीं की ज रही है | इस समय तो मेर त त्पयम पढे हए पर विच र करने से है | मन लीवजए वक आज हमने एक भजन सनु य पढ , उसक विच र करन | उसमें क्य रहस्य है, उससे मझु े क्य लेन है, इसकी छ नबीन करन , उसमें दोर् हों तो उन्हें देखन , अर्थम न समझ में आय हो तो उसे समझन – यह विच र-पद्धवत कही ज एगी | यह मैंने स दे-से-स द दृि ांत वलय है | इसमें से हरेक अपनी शवि-स मथ्यम के अनसु र दसू र दृि ांत घवर्त कर ले और आगे बढे | ऐस करनेि ल अतां में आवत्मक आनदां भोगेग और उसक स र ि चन र्लेग | “उठ ज ग मसु वर्र भोर भई अब रैन कह ूँ जो सोित है?” – अरे मसु वर्र, उठ | सिेर हआ | अब र त कह ूँ जो तू सोत है? इतन समझकर जो बैठ ज त है उसने पढ पर विच र नहीं वकय ; क्योंवक िः सिेरे के समय उठकर ही अपने-आपको कृ त र्थम म न लेत है | पर जो विच र करन च हत है िह तो अपने-आप से पछू त है-मसु वर्र य वन कौन? सिेर हआ के म नी क्य हआ? र तगई य नी? सोन क्य है? यों सोचे तो रोज एक पवां ि के अनेक अर्थम वनक ल ले और समझे की मसु वर्र य नी जीिम त्र | वजसे ईश्वर पर आस्र्थ है उसके वलए सद सिेर ही है | र त के म नी आर म भी हो सकत हैं और जो जर भी ग वर्ल-ल परि ह-रहत है, उस पर यह पवां ि घवर्त होती है | जो झठू बोलत है िह भी सोय हआ है | यह पवां ि उसे भी जग नेि ली है | यों उससे व्य पक अर्थम वनक लकर आश्व सन प्र प्त वकय ज सकत है | य नी एक पवां ि क ध्य न मनष्ट्ु य के वलए आवत्मक www.mkgandhi.org Page 17 ग धां ीजी क सदां ेश उन्नवत क परू सह र हो सकत है और च रों िेद कांठ कर ज नेि ले और उसक अर्थम भी ज ननेि ले के वलए यह बोझ रूप बन सकत है | यह तो मैंने एक जब न पर चढी हई वमस ल दे दी है | सब अपनी-अपनी वदश चुनकर विच र करने लग ज एूँ तो जीिन में नय अर्थम वनक लेंगे और वनत्य नय रस लर्ू ेंगे | www.mkgandhi.org Page 18 ग धां ीजी क सदां ेश ८. शरीर शरीर के पररचय से पहले आरोग्य वकसे कहते हैं, यह समझ लेन ठीक होग । आरोग्य के म नी हैं तन्दरुु स्त शरीर । वजसक शरीर व्य वध-रवहत है, वजसक शरीर स म न्य क म कर सकत है, अर्थ मत् जो मनष्ट्ु य बगैर र्थक न के रोज दस-ब रह मील चल सकत है, जो बगैर र्थक न के स म न्य मेहनत-म़जदरू ी कर सकत है, स म न्य खुर क पच सकत है, वजसकी इवन्द्रय ां और मन स्िस्र्थ हैं, ऐसे मनष्ट्ु यक शरीर तन्दरुु स्त कह ज सकत है । इसमें पहलि नों य अवतशय दौड़ने-कूदनेि लों क सम िेश नहीं है । ऐसे अस ध रण बलि ले व्यवि क शरीर रोगी हो सकत है । ऐसे शरीर क विक स एक ांगी कह ज यग | इस आरोग्य की स धन वजस शरीर को करनी है, उस शरीर क कुछ पररचय आिकयक है। प्र चीन क ल में कै सी त लीम दी ज ती होगी, यह तो विध त ही ज ने य शोध करनेि ले लोग कुछ ज नते होंगे । आधवु नक त लीम क र्थोड़ -बहत पररचय हम सबको है ही । इस त लीमक हम रे वदन-प्रवतवदन के जीिन के स र्थ कोई सम्बन्ध नहीं होत । शरीर से हमें सद ही क म पड़त है, मगर वर्र भी आधवु नक त लीमसे हमें शरीरक ज्ञ न नहीं-स होत है । अपने ग िां और खेतों के ब रे में भी हम रे ज्ञ न के यही ह ल हैं । अपने ग ांि और खेतों के ब रे में तो हम कुांछ भी नहीं ज नते, मगर भगू ोल और खगोल को तोते की तरह रर् लेते हैं । यह ूँ कहनेक अर्थम यह नहीं है वक भगू ोल और खगोल क कोई उपयोग नहीं है, मगर हर एक चीज अपने स्र्थ न पर ही अच्छी लगती है । शरीरके , घरके , ग ांिके , ग ांिके च रों ओर के प्रदेशके , ग ांिके खेतों में पैद होनेि ली िनस्पवतयोंके और ग ांिके इवतह सके ज्ञ न क पहल स्र्थ न होन च वहये । इस ज्ञ न के प ये पर खड़ दसू र ज्ञ न जीिनमें उपयोगी हो सकत है । शरीर पचां भतू क पतु ल है । इसीसे कविने ग य है : पिन, प नी, पृथ्िी, प्रक श और आक श, पचां भतू के खल से बन जगत क प श । इस शरीर क व्यिह र दस इवन्द्रयों और मनके द्व र चलत है । दस इवन्द्रयों में प चां कमेवन्द्रय ूँ हैं, अर्थ मत् ह र्थ, पैर, महुां , जननेवन्द्रय और गदु । ज्ञ नेवन्द्रय ूँ भी प चां हैं- स्पशम करनेि ली त्िच , देखनेि ली आख ां , सनु नेि ल क न, सघूां नेि ली न क और स्ि द रसको पहच ननेि ली जीभ । मनके द्व र हम विच र करते हैं । कोई-कोई मन को ग्य रहिीं इवन्द्रय कहते हैं । इन सब इवन्द्रयों क व्यिह र जब सम्पणू म रीवत से चलत है, तब शरीर पणू म स्िस्र्थ कह ज सकत है । ऐस आरोग्य बहत ही कम देखने में आत है । www.mkgandhi.org Page 19 ग धां ीजी क सदां ेश शरीरके अन्दरके विभ ग हमें चवकत कर देते हैं । शरीर जगतक एक छोर् -स मगर सम्पणू म नमनू है । जो शरीर में नहीं है, िह जगत में भी नहीं है । और जो जगत में है, िह शरीर में है । इसी परसे यर्थ वपडां े तर्थ ब्रह् ांड'े यह महत्त्िपणू म कर्थन वनकल है । इसवलए अगर हम शरीर को पणू तम य पहच न सकें , तो जगत को पहच न सकते हैं । मगर जब बड़े-बड़े डॉक्र्र, िैद्य और हकीम भी इसे परू ी तरह नहीं पहच न प ये, तो हम रे जैसे स म न्य प्र णी भल वकस वगनतीमें हैं? आज तक ऐसे वकसी यन्त्र की शोध नहीं हो प ई, जो मन को पहच न सके । शरीर के अन्दर और ब हर चलनेि ली वक्रय ओ ां क विशेर्ज्ञ लोक आकर्मक िणमन दे सके हैं । मगर ये वक्रय यें कै से चलती हैं, यह कोई बत सक है? मौत क्यों आती है, िह कब आयेगी, यह कौन कह सक है? अर्थ मत् मनष्ट्ु य ने बहत पढ , विच र वकय और अनभु ि वलय , मगर पररण म में उसको अपनी अल्पज्ञत क ही अवधक भ न हआ है । शरीर के अन्दर चलनेि ली अद्भुत वक्रय ओ ां पर इवन्द्रयों क स्िस्र्थ रहन वनभमर करत है । शरीर के सब अगां वनयम नसु र चलें, तो शरीर क व्यिह र अच्छी तहर से चलत है । एक भी अगां अर्क ज य, तो ग ड़ी चल नहीं सकती । उसमें भी पेर् अपन क म ठीक तरह से न करे, तो शरीर ढील पड़ ज त है । इसवलए अपच य कवब्जयत की जो लोग अिगणन करते हैं, िे शरीरके धमम को ज नते ही नहीं । इन दो रोगों से अनेक रोग उत्पन्न होते है । अब हमें सह विच र करन है वक शरीरक उपयोग क्य है? हर एक चीज क सदपु योग और दरुु पयोग हो सकत है । शरीर क उपयोग स्ि र्थम के वलए, स्िेच्छ च र के वलए, दसू रों को नक ु स न पहचां ने के वलए वकय ज य, तो िह उसक दरुु पयोग होग । वकन्तु यवद उसी शरीर क उपयोग स रे जगत की सेि के वलए वकय ज य और इस हेतसु े सयां म क प लन वकय ज य, तो िह उसक सदपु योग होग । आत्म परम त्म क अशां है । उस आत्म को पहच नने के वलए अगर हम इस शरीर क उपयोग करते हैं, तो शरीर आत्म के रहने क मवन्दर बन ज त है । शरीरको मल-सत्रू की ख न कह गय है । एक तरह से इस उपम में कुछ भी अवतशयोवि नहीं है । परन्तु यवद शरीर के िल मल-मत्रू की ख न ही हो, तो उसकी सभां ल के वलए इतने प्रयत्न करन कोई अर्थम नहीं रखत । परन्तु इसी नरक की ख न' क सदपु योग हो, तो उसे स र्-सर्थु र रखकर उसकी सभां ल करन हम र धमम हो ज त है । हीरे और सोने की ख न भी ऊपर से देखने पर तो वमट्टी की ख न ही लगती है । पर उसमें हीर और सोन है, इसवलए मनष्ट्ु य उस पर करोड़ों रुपये खचम करत है और उसके पीछे अनेक श स्त्रज्ञ अपनी बुवध्द क उपयोग करते हैं । तब आत्म के मवन्दर-रूपी शरीर के वलए तो हम वजतन भी करे उतन कम है । हम इस जगत में जन्म लेते हैं जगतके प्रवत अपन ॠण चुक ने के वलए, अर्थ मत् उसकी सेि के वलए । इस दृविवबन्दु को स मने रखकर मनष्ट्ु य अपने शरीर क सरां क्षक बनत है । इसवलए शरीर की रक्ष के वलए हमें ऐस यत्न करन च वहये, वजससे िह सेि धमम क प लन परू ी तरह से कर सके । www.mkgandhi.org Page 20 ग धां ीजी क सदां ेश ९. हिा और पानी हि शरीर के वलए सबसे ज़रूरी चीज है । इसीवलए ईश्वरने हि को सिमव्य पी बन य है और िह हमें वबन वकसी प्रयत्न के वमल ज ती है । हि को हम न क के द्व र र्े र्डों में भरते हैं । र्े र्ड़े धौंकनी क क म करते हैं । िे हि को अन्दर खींचते हैं और ब हर वनक लते हैं । ब हर क