आर्यों का आगमन और ऋग्वैदिक युग PDF

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ऋग्वैदिक युग प्राचीन भारत का इतिहास उत्तर वैदिक काल

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यह दस्तावेज ऋग्वैदिक युग और उत्तर वैदिक काल की जानकारी प्रदान करता है. इसमें आर्यों के आगमन और उनके जीवन के तौर-तरीकों तथा सामाजिक संगठन के बारे में विस्तार से चर्चा की गयी है. इसमें अभ्यास के प्रश्न भी दिए गये हैं.

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# आर्यों का आगमन और ऋग्वैदिक युग किसी जादुई असर का होना उतना नहीं माना जाता था जितना उत्तर वैदिक काल में माना जाने लगा। ऋग्वैदिक काल के लोग देवाराधना क्यों करते थे? वे लोग आध्यात्मिक उत्थान या जन्म-मृत्यु के कष्टों से मुक्ति के लिए ऐसा नहीं करते थे। वे अपने देवताओं से संतति, पशु, अन्न, धान्य, आरोग...

# आर्यों का आगमन और ऋग्वैदिक युग किसी जादुई असर का होना उतना नहीं माना जाता था जितना उत्तर वैदिक काल में माना जाने लगा। ऋग्वैदिक काल के लोग देवाराधना क्यों करते थे? वे लोग आध्यात्मिक उत्थान या जन्म-मृत्यु के कष्टों से मुक्ति के लिए ऐसा नहीं करते थे। वे अपने देवताओं से संतति, पशु, अन्न, धान्य, आरोग्य आदि पाने की कामना से उनकी उपासना करते थे। ## अभ्यास 1. निम्नलिखित पदों और धारणाओं का आशय स्पष्ट करें : - मंडल, दास, दस्यु, पञ्चजन, जन, गविष्टि, राजन्, सभा, समिति, ग्रामणी, विश्, पितृतंत्रात्मक। 2. आर्य शब्द के विविध प्रयोगों की खोज करें। जब इसका प्रयोग 1500 ई. पू. के आसपास भारत में आ बसने वाले जन-समूहों के लिए किया जाता है तब इसका अर्थ क्या होता है? 3. ऋग्वैदिक लोगों के भौतिक जीवन का चित्रण करें। क्या उन लोगों को कृषक जन कहना ठीक होगा? विवेचन करें। 4. ऋग्वैदिक युग की राजनैतिक पद्धति का वर्णन करें। उसके जनजातीय स्वरूप का निरूपण करें। 5. ऋग्वैदिक लोग किन-किन देवों को और क्यों पूजते थे? उनकी उपासना-विधि का वर्णन करें। 6. ऋग्वैदिक लोगों के सामाजिक संघटन और पारिवारिक व्यवस्था का वर्णन करें। 7. इस अध्याय में जिन लोगों का विवेचन हुआ है वे ऋग्वैदिक लोग क्यों कहलाते थे? # अध्याय 9 ## उत्तर वैदिक अवस्था : राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर ### आर्यों का विस्तार उत्तर वैदिक काल का इतिहास मुख्यतः उन वैदिक ग्रंथों पर आधारित है जिनकी रचना ऋग्वैदिक काल के बाद हुई। वैदिक सूक्तों या मंत्रों के संग्रह को संहिता कहते हैं। ऋग्वेद संहिता सबसे पुराना वैदिक ग्रंथ है। इसी के आधार पर हमने आरंभिक वैदिक युग का वर्णन किया है। गाने के लिए ऋग्वैदिक सूक्तों को चुनकर धुन में बाँधा गया, और इस पुनर्विन्यस्त संकलन का नाम सामवेद संहिता पड़ा। ऋग्वेदोत्तर काल में सामवेद के अतिरिक्त और दो संकलन तैयार किए गए। वे हैं- यजुर्वेद संहिता और अथर्ववेद संहिता। यजुर्वेद में केवल ऋचाएँ ही नहीं, उन्हें गाते समय किए जाने वाले अनुष्ठान भी दिए गए हैं। इन अनुष्ठानों से उस सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति का परिचय मिलता है जिस में इन अनुष्ठानों का उद्भव हुआ। अथर्ववेद में विपत्तियों और व्याधियों के निवारण के लिए तंत्र-मंत्र संगृहीत हैं। इसमें आए तथ्यों से आर्येतर लोगों के विश्वासों और रुढ़ियों का पता लगता है। वैदिक संहिताओं के बाद **उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई. पू.)** में कई ग्रंथ लिखे गए जिन्हें ब्राह्मण कहते हैं। इनमें वैदिक अनुष्ठान की विधियाँ संगृहीत हैं और उन अनुष्ठानों की सामाजिक एवं धार्मिक व्याख्या भी की गई हैं। ये सभी उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ लगभग 1000-500 ई. पू. में उत्तरी गंगा के मैदान में रचे गए। उत्खनन और अनुसंधान के फलस्वरूप, इसी काल और इसी क्षेत्र के लगभग 700 स्थल प्रकाश में आए हैं, जहाँ सबसे पहले बस्तियाँ कायम हुई थीं। इन्हें चित्रित धूसर मृद्भांड (पी.जी. डब्ल्यू अर्थात पेन्टेड ग्रे वेअर) स्थल कहते हैं, क्योंकि यहाँ के निवासी मि‌ट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों और थालियों का प्रयोग करते थे। वे लोहे के हथियारों का भी प्रयोग करते थे। उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ और चित्रित धूसर मृद्भांड लौह अवस्था के पुरातत्व, इन दोनों के संयुक्त साक्ष्य से हमें आभास मिलता है कि ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दी के पूर्वार्द्ध में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान के संलग्न क्षेत्रों में बसने वाले लोगों का जीवन कैसा था। ## उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर उक्त ग्रंथों से प्रकट होता है कि पंजाब से आर्यजन गंगा-यमुना दोआब के अंतर्गत संपूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैल गए थे। दो प्रमुख कबीले भरत और पुरु एक होकर कुरु नाम से विदित हुए। आरंभ में वे लोग दोआब के ठीक छोर पर सरस्वती और दृषद्वती नदियों के प्रदेश में बसे । शीघ्र ही कुरुओं ने दिल्ली क्षेत्र और दोआब के ऊपरी भाग पर अधिकार कर लिया, जो कुरुक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ। धीरे-धीरे वे पंचालों से भी मिल गए जो दोआब के मध्य भाग पर काबिज थे। इस प्रकार कुरु-पंचालों की सत्ता दिल्ली क्षेत्र पर और दोआब के ऊपरी भाग और मध्य भागों पर फैल गई। तब उन्होंने हस्तिनापुर को अपनी राजधानी बनाया जो मेरठ जिले में पड़ता है। कुरु कुल का इतिहास भारत-युद्ध को लेकर मशहूर है जिस पर महाभारत नाम का विख्यात महाकाव्य है। यह माना जाता है कि भारत युद्ध 950 ई.पू के आस-पास कौरवों और पांडवों के बीच हुआ था, हालांकि ये दोनों कुरु कुल के ही थे। इस युद्ध के फलस्वरूप वस्तुतः सारे कुरुवंशियों का नाश हो गया। हस्तिनापुर में मिली सामग्रियों से, जिनकी तिथि 900 ई.पू. से 500 ई.पू. की अवधि आँकी जा राकती है, वहाँ की बस्तियों का और नगर जीवन के धुँधले आरंभ का पता चलता है। किंतु महाभारत में हस्तिनापुर का जो वर्णन है उससे इसका कोई भी मेल नहीं है, क्योंकि इस महाकाव्य की रचना बहुत बाद में ईसा की चौथी सदी के आसपास हुई है, जब भौतिक जीवन में काफी उन्नति हो चुकी थी। उत्तर वैदिक काल में लोग पकाई हुई ईंट का प्रयोग शायद ही जानते थे। हस्तिनापुर की चुदाई में जो कच्ची संरचनाएँ मिली हैं वे न भव्य ही कही जा सकती हैं, और न टिकाऊ ही। प्राचीन कथाओं के अनुसार हम जानते हैं कि हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया और कुरुवंश में जा जीवित रहे वे इलाहाबाद के पास कौशांबी जाकर बस गए। ### चित्रित धूसर मृद्भांड (पी.जी.डब्ल्यू.) <br> ### - लौहावस्था संस्कृति और उत्तर वैदिक अर्थव्यवस्था लगभग 1000 ई.पू. में लोहा कर्नाटक के धारवार जिले में मिलता है। यह स्पष्ट नहीं है कि यहाँ से यह कैसे फैला। पर उसी समय से पाकिस्तान के गंधार क्षेत्र में लोहे का प्रयोग होने लगा। मृतकों के साथ कब्रों में गाड़े गए लोहे के औज़ार भारी मात्रा में खुदाई से निकले हैं। ऐसे औजार बलूचिस्तान में भी मिले हैं। लगभग इसी काल में पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी लोहे का प्रयोग पाया गया है। खुदाई से ज्ञात होता है कि तीर के नोक, बरछे के फाल आदि लौहास्त्रों का प्रयोग लगभग 800 ई. पू. से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आम तौर से होने लगा था। लोहे के इन इथियारों से वैदिक लोगों ने ऊपरी बोआब में सामने आए अपने बचे-खुचे शत्रुओं को परास्त कर दिया होगा। ऊपरी गंगा के मैदानों के जंगलों को साफ करने में लोहे की कुल्हाड़ी से काम किया गया होगा, हालाँकि वर्षा केवल 35 सेंटीमीटर से 65 सें. मी. तक होने के कारण ये जंगल ज्यादा घने नहीं रहे होंगे। वैदिक काल के अन्तिम दौर में लोहे का ज्ञान पूर्वी उत्तर प्रदेश और विदेह में फैल गया था। इन प्रदेशों में जो सबसे पुराने लौहास्त्र पाए गए हैं वे ईसा पूर्व सातवीं सदी के हैं, और उत्तर वैदिक ग्रंथों में इस धातु को श्याम या कृष्ण अयस् कहा गया है। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर यद्यपि लोहे के कृषि औज़ार कम पाए गए हैं, तथापि इसमें संदेह नहीं कि उत्तर वैदिक काल के लोगों की मुख्य जीविका खेती हो चली थी! वैदिकग्रंथों में छह, आठ, बारह और चौबीस तक बैल हल में जोते जाने की चर्चा है। इसमें कुछ अत्युक्ति हो सकती है। जुताई लकड़ी के फाल वाले हल से होती थी, जिसमें ऊपरी गंगा के मैदानों की हल्की मिट्टी में संभवतः काम लिया जा सकता था। यज्ञों में पशु-बलि के प्रचलन के कारण बैल पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं रहे होंगे। इसलिए खेती आरंभिक अवस्था में थी, किंतु इसके व्यापक प्रचलन में संदेह नहीं है। शतपथ ब्राह्मण में हल संबंधी अनुष्ठान का लंबा वर्णन आया है। कहा गया है कि सीता के पिता ओर विदेह के राजा जनक ने हल चलाया था। उन दिनों राजा और राजकुमार भी शारीरिक श्रम करने में हिचकिचाते नहीं थे। कृष्ण का भाई बलराम हलधर कहलाता था क्योंकि हल उसका हथियार था। उत्तर वैदिक काल में हल चलाना उच्च वर्णों के लिए वर्जित हो गया। वैदिक काल के लोग जी तो उपजाते ही रहे, पर इस काल में चावल और गेहूँ उनकी मुख्य फसलें हो गए। बाद में चलकर गेहूँ पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुख्य खाद्य हो गया। वैदिक लोगों का चावल से परिचय सबसे पहले दोआब में हुआ। वैदिक ग्रंथों में इसका नाम व्रीहि है। चावल का अवशेष जो हस्तिनापुर में मिला है वह ईसा पूर्व आठवीं सदी का है। इसी समय के आसपास एटा जिले में स्थित अतरंजीखेड़ा में भी चावल मिला है। वैदिक अनुष्ठानों में चावल के प्रयोग का विधान है, पर गेहूँ के प्रयोग का कदाचित् ही। उत्तर वैदिक काल के लोग कई प्रकार के तेलहन भी पैदा करते थे। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर उत्तर वैदिक काल में भी बहुत प्रकार की कलाओं और शिल्पों का उदय हुआ। हमें लुहारों और धातुकारों के बारे में जानकारी मिलती है; अवश्य ही वे लोग 1000 ई. पू. के आसपास से कुछ-न-कुछ लोहे का काम करते रहे होंगे। तांबे से उनका परिचय वैदिक काल के आरंभ से ही था। 1500 ई.पू. के पहले के तांब के बहुत सारे औज़ार के जखीरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार में मिले हैं। उनसे प्रकट होता है कि वैदिकेतर समाज में भी ताम्रशिल्पी थे। वैदिक लोग संभवतः राजस्थान की खेत्री की तांबे की खानों का उपयोग करते थे। जो भी हो, वैदिक काल के लोगों ने जिन धातुओं का प्रयोग किया उनमें तांबा पहला रहा होगा। तांबे की वस्तुएँ चित्रित धूसर मृद्भांड स्थलों में पाई गई हैं। इन वस्तुओं का उपयोग मुख्यतः लड़ाई और शिकार तथा आभूषण के रूप में भी किया जाता था। बुनाई केवल स्त्रियाँ करती थीं, किंतु यह काम बड़े पैमाने पर होता था। चमड़े, मिट्टी और लकड़ी के शिल्पों में भारी प्रगति हुई। उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मृद्भांडों से परिचित थे-काला-व-लाल मृद्भांड, काली पालिशदार मृद्भांड, चित्रित धूसर मृद्भांड और लाल मृद्भांड । इनमें अन्तिम प्रकार का मृद्भांड उनके बीच सबसे अधिक प्रचलित था और लगभग समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाया गया है। लेकिन चित्रित धूसर मृद्भांड उनके सर्वोपरि वैशिष्ट्य सूचक हैं। इनमें कटोरे और थालियाँ मिली हैं जिनका व्यवहार शायद उदीयमान उच्च वर्णों के लोग धार्मिक कृत्यों में या भोजन में या दोनों कामो में करते थे। चित्रित धूसर मृद्भांड वाले स्तरों में जो कांच की निधियाँ और चूड़ियाँ मिली हैं उनका उपयोग प्रतिष्ठावर्धक वस्तुओं के रूप में इने-गिने लोग ही करते होंगे। कुल मिलाकर वैदिक ग्रंथ और उत्खनन दोनों से शिल्प-वस्तुओं के विशेषीकृत उत्पादन का संकेत मिलता है। उत्तर वैदिक ग्रंथों में स्वर्णकारों या आभूषण निर्माताओं का भी उल्लेख है, जो संभवतः समाज के संपन्न वर्ग की आवश्यकता की पूर्ति करते होंगे। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर खेती और विविध शिल्पों की बदौलत अब उत्तर वैदिक काल के लोग स्थायी जीवन अपनाने में समर्थ हो गए। उत्खननों और अनुसंधानों से हमें कुछ आभास मिलता है कि उत्तर वैदिक काल की बस्तियाँ कैसी थीं। चित्रित धूसर मृद्भांड स्थल न केवल कुरुपंचाल क्षेत्र अर्थात् पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में ही व्यापक रूप से फैले पाए गए हैं बल्कि मद्र क्षेत्र अर्थात पंजाब और हरियाणा के संलग्न भागों में और मत्स्य क्षेत्र अर्थात राजस्थान के संलग्न भागों में भी मिले हैं। इन स्थलों की संख्या कुल मिलाकर 700 के करीब हो सकती है जो अधिकतर ऊपरी गंगा घाटी में पड़ते हैं। इनमें इने-गिने स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है, जैसे हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, जखेड़ा और नोह। चूँकि बस्ती के भौतिक अवशेषों का जमाव एक मीटर तक है, इसलिए मालूम पड़ता है कि ये बस्तियाँ एक से तीन सदियों तक टिकी रही होंगी। काफी स्थल नए वास के थे, जहाँ ठीक पहले कोई नहीं बसे थे। लोग कच्ची ईंटों के घरों में लकड़ी के खम्भों पर टिके टट्टी के घरों में रहते थे। उनके घर तो निम्न कोटि के हैं फिर भी उनके चूल्हों और अनाजों (धान) से प्रकट होता है कि चित्रित धूसर मृद्भांड काल के लोग, जो उत्तर वैदिक लोग ही हैं, कृषिजीवी और स्थिरवासी थे। लेकिन चूँकि किसान लोग सामान्यतः काठ के फाल वाले हल से खेती करते थे इसलिए वे इतना अन्न नहीं उपजा सकते थे कि खेती ये भिन्न व्यवसायों में लगे लोगों की भी आवश्यकता पूरी कर सकें। अतः किसान नगरों के उदय में हाथ नहीं बंटा सके। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर उत्तर वैदिक ग्रंथों में नागर शब्द आया तो है पर उत्तर वैदिक काल के अन्तिम दौर में आकर हम नगरों के आरंभ का मंद आभास ही पाते हैं। हस्तिनापुर और कौशांबी (इलाहाबाद के पास) तो वैदिककाल के अंत के महज गर्भावस्था वाले नगर थे। इन्हें आद्य नगरीय स्थत (प्रोटो-अर्बन साइट) ही कहा जा सकता है। वैदिक ग्रंथों में समुद्र और समुद्रयात्रा की भी चर्चा है। इससे किसी-न-किसी तरह के वाणिज्य का संकेत मिलता है, जिसे नई-नई कलाओं और शिल्पों के उदय से बल मिला होगा। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर कुल मिलाकर उत्तर वैदिक अवस्था में लोगों के भौतिक जीवन में भारी उन्नति हुई। पशुचारी और यायावरी जीवन-प्रणाली बहुत घट गई, खेती जीविका का मुख्य साधन हो गई और जीवन स्थायी तथा खूंटे में बंधा जैसा हो गया। विविध शिल्पों और कलाओं से लैस हो कर अब वैदिक लोग उत्तरी गंगा के मैदानों में स्थिर रूप से बस गए। मैदानों में बसने वाले किसान अपने निर्वाह के लिए तो काफी अनाज पैदा कर ही लेते थे, अपनी उपज का कुछ हिस्सा अपने मुखियों, राजाओं और पुरोहितों के निर्वाह के लिए भी बचा लेते थे। ### राजनीतिक संगठन उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक जनता वाली सभा-समितियों के दिन लद गए और उनकी जगह पर राजकीय प्रभुत्व आ जमे। विदथ का नामोनिशान नहीं रहा। सभा और समिति अपनी जगह जीती तो रहीं, पर उनका रंग-ढंग बदल गया। उनमें राजाओं और अभिजात्यों का बोलबाला हो गया। अब सभा में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध हो गया और कुलिनों तथा ब्राह्मणों का प्राबल्य हो गया। राज्यों की आकार-वृद्धि से मुखिया या राजा अधिकाधिक शक्तिशाली होता गया। सत्ता धीरे-धीरे जनजातीय से प्रादेशिक होती गई। राजा या सरदार कबीलों पर शासन करते थे और उनके प्रमुख कबीले के नाम पर प्रदेशों का नाम पड़ा, भले ही उस प्रदेश के भीतर प्रमुख कबीलों से भिन्न लोग भी बसते हों। आरंभ में हर प्रदेश का नाम वहाँ पर सबसे पहले बसने वाले कबीले के नाम से प्रसिद्ध हुआ, उदाहरणार्थ, पहले पंचाल एक जन या कबीले का नाम था। बाद में यह प्रदेश विशेष का नाम हो गया। राष्ट्र शब्द, जिसका अर्थ प्रदेश या क्षेत्र होता है, पहले पहल इसी समय मिलने लगा है. ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर उत्तराधिकार का यह क्रम हमेशा निर्विध्न रूप से नहीं चला। महाभारत में कहा गया है कि युधिष्ठिर के छोटे भाई दुर्योधन ने उनके राज्य का अपहरण कर लिया। राज्य की खातिर पांडवों और कौरवों के कुल का ही विनाश हो गया। इस युद्ध से स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता के आगे स्वजन कुछ नहीं हैं। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर <br> ### सामाजिक संगठन उत्तर वैदिक काल का समाज चार वर्णों में विभक्त था- ब्राह्मण, राजन्य या क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यज्ञ का अनुष्ठान अत्यधिक बढ़ गया था, जिससे ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई। आरंभ में सोलह प्रकार के पुरोहितों में ब्राह्मण केवल एक प्रकार के पुरोहित होते थे किंतु धीरे-धीरे ब्राह्मण अन्य पुरोहिन वर्गों को दबाते गए और स्वयं प्रमुख वर्ग बन गए। उनकी यह प्रमुखता विलक्षण बात है जो भारत से बाहर के आर्यों के समाज में नहीं पाई जाती है। लगता है ब्राह्मण वर्ण की स्थापना में आर्येतर तत्वों का कुछ हाथ रहा होगा। ब्राह्मण लोग अपने यजमानों के लिए और अपने लिए भी धार्मिक अनुष्ठान और यज्ञ करते थे और कृषि कार्यों से जुड़े पर्वो या त्योहारों में यजमानों का प्रतिनिधित्व करते थे। वे युद्ध में राजा की जीत के लिए देवाराधना करते थे और उसके बदले में राजा से अभयदान प्राप्त करते थे। कभी-कभी ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए राजन्यों से भिड़ जाते थे, जिनमें राजा के बांधव भी होते थे और क्षत्रिय वर्ग के नेता भी। लेकिन निचले दो वर्गों से सामना होने की स्थिति में ऊपर के ये दोनों वर्ग तुरंत आपसी झगड़ा भूल जाते । उत्तर वैदिक काल के अंत से इस बात पर बल दिया जाने लगा है कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच परस्पर सहयोग रहना चाहिए ताकि समाज के शेष भाग पर उन दोनों का प्रभुत्व बना रह। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर राजाओं के परिजन होते हुए भी वैश्य जनसामान्य की कोटि में रखे गए और उन्हें उत्पदन संबंधी काम सौंपा गया, जैसे कृषि, पशुपालन आदि। उनमें कुछ लोग पंसारी या शिल्पी का काम भी करते थे। वैदिक काल का अंत होते-होते वे व्यापार को अपनाने लगे। लगता है, उत्तर वैदिक काल में केवल वैश्य ही राजस्व चुकाते थे। ब्राह्‌मण और क्षत्रिय दोनों वैश्यों से वसूले राजस्व पर ही जीते थे। आम कबायली लोगों को वश में लाकर उन्हें करदाता बनाने की प्रक्रिया लंबे समय तक चलती रही। ऐसे कई अनुष्ठान ज्ञात हैं जो दुर्दम लोगों को (विश् वा वैश्यों को) राजा तथा उसके निकट बंधुओं (राजन्यों) के वश में लाने की कामना से किए जाते थे। यह अनुष्ठान उन्हीं पुरोहितों के द्वारा कराया जाता था जो स्वयं प्रजा या वेश्यों को खसोट कर मोटे हुए थे। ऊपर के तीनों वर्षों की सामान्य विशेषता यह थी कि वे उपनयन संस्कार के अधिकारी थे अर्थात् वे तैदिक मंत्रों के साथ जनेऊ धारण का अनुष्ठान करा सकते थे। चीथा वणे उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं था, वह गायन्त्री का उच्चारण नहीं कर सकता था और यहीं से उपनयन का अभाव शूद्र की दासता का व्‌योतक बन gaya. ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर राजा, जो राजन्यों या क्षत्रियों का अगुना था, अन्य तीनों वर्णों पर अपना प्रभुत्व जमाए रहने की चेष्टा करता रहा। उत्तर वैदिक काल के अन भाग में लिखे गए ऐतरेय ब्राह्मण नामक वैदिक संथ में कहा गया है कि ब्राहमण जीविका चाहने वाला और दान लेने वाला है, लेकिन राजा जब भी चाहे उसे हटा सकता है। वश्य के बारे में कहा गया है कि वह राजस्व का देनदार है और राजा जब चाहे उसका दमन कर सकता है। सबसे बुरी स्थिति शूद्रों की थी। शूद्र को अन्य वर्णों का सेવક बतलाया गया है। वह दूसरे की इच्छा के अनुसार काम करने वाला है और मार खाने वाला है। सामान्यतः उत्तर वैदिककालीन ग्रंथों में तीन उच्च वर्णों और शूद्रों के बीच विभाजक रेखा देखने को मिलती है। फिर भी राज्याभिषेक संबंधी ऐसे कई सार्वजनिक अनुष्ठान होते थे जिनमें शूद्र, शायद मूल आर्य जातीय कबीलों के बचे हुए सदस्यों की हैसियत से, भाग लेते थे। शिल्पियों में रथकार आदि जैसे कुछ वर्गों का स्थान ऊँचा था और उन्हें यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार प्राप्त था। इस प्रकार दिखाई देता है कि उत्तर वैदिक काल में भी वर्णभेद अधिक प्रखर नहीं हुआ था। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर परिवार स्तर पर, हम देखते हैं कि पिता का अधिकार बढता गया। वह अपने पुत्र को उत्तराधिकार से वंचित कर सकता था। राजपरिवार से ज्येष्ठाधिकार का प्रचलन प्रबल होता गया। पूर्व पुरुषों की पूजा होने लगी। स्त्रियों का दर्जा सामान्यतः गिरा यद्यपि कुछ महिलाओं ने शास्त्रार्थों में भाग लिया और कुछ रानियाँ पति के राज्याभिषेक अनुष्ठानों में साथ रहीं, पर सामान्यतः स्त्रियों का स्थान पुरुषों के नीचे और अधीनस्थ माना जाने लगा। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर उत्तर वैदिक काल में गोत्र-प्रथा स्थापित हुई। गोत्र शब्द का मूल अर्थ है गोष्ठ या वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गोधन पाला जाता था, परंतु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया। फिर गोत्र से बाहर विवाह करने की प्रथा चल पड़ी। तदनुसार एक ही गोत्र या मूल पुरुष वाले लोगों के बीच आपस में विवाह निषिद्ध हो गया। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर वैदिक काल में आश्रम अर्थात् जीवन के चार चरण सुप्रतिष्ठित नहीं हुए थे। वैदिकोत्तर काल के ग्रंथों में हमें चार आश्रम स्पष्ट दिखाई देते हैं : ब्रह्मचर्य या छात्रावस्था, गार्हस्थ्य या गृहस्थावस्था, वानप्रस्थ या वनवासावस्था और संन्यास या सांसारिक जीवन से विरत होकर रहने की अवस्था। उत्तर वैदिक ग्रंथों में आदि से केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है। अन्तिम या चतुर्थ आश्रम उत्तर वैदिक काल में सुप्रतिष्ठित नहीं हुआ था, हालाँकि संन्यास अज्ञात नहीं था। वैदिकोत्तर काल में भी केवल गार्हस्थ्य आश्रम सभी वर्णों में सामान्यतः प्रचलित था। ### देवता, अनुष्ठान और दर्शन उत्तर वैदिक काल में उत्तरी दोआब ब्राह्मणों के प्रभाव में आर्य संस्कृति का केन्द्र स्थल बन गया। लगता है सारा उत्तर वैदिक साहित्य कुरु-पंचालों के इसी प्रदेश में विकसित हुआ। यज्ञ इस मत्त्कृति का मूल था और यज्ञ के साथ-साथ अनेकानेक अनुष्ठान और मंत्रविधियाँ प्रचलित हुई। देवताओं में दो सबसे बड़े देवता इंद्र और अग्नि अब उतने प्रमुख नहीं रहे। इनकी जगह उत्तर वैदिक देव-मंडल में सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला। ऋग्वैदिक काल के कुछ अन्य गौण देवता भी प्रमुख हुए। पशुओं के देवता रुद्र ने उत्तर वैदिक काल में महत्ता पाई। विष्णु को वे लोग अपना पालक और रक्षक मानने लगे जो लोग ऋग्वैदिक काल के अपने अर्द्ध खानाबदोशी जीवन को छोड़ स्थायी रूप से बस गए थे। इसके अलावा, देवताओं के प्रतीक के रूप में कुछ वस्तुओं की भी पूजा प्रचलित हुई। उत्तर वैदिक काल में मूर्ति-पूजा के आरंभ का कुछ आभास मिलने लगता है। चूँकि समाज ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में विभक्त हो गया था, इसलिए कुछ वर्षों के अपने देवता भी हो गए। पूषन्, जो पशुओं की रक्षा करने वाला माना जाता था, शूद्रों का देवता हो गया, हालाँकि ऋग्वेद-युग में पशुपालन सारी आर्य जाति का मुख्य व्यवसाय था। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर देवताओं की आराधना के जो भौतिक उद्देश्य पूर्व में थे वे ही इस काल में भी रहे। लेकिन आराधना की रीति में महान् अंतर आया। स्तुतिपाठ पहले की तरह चलते रहे, लेकिन वे देवताओं को प्रसन्न करने की प्रमुख रीति नहीं रहे; प्रत्युत यज्ञ करना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया और यज्ञ के सार्वजनिक तथा घरेलू दोनों रूप प्रचलित हुए। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर सार्वजनिक यज्ञ राजा अपनी सारी प्रजा के साथ करता था और प्रजा में अक्सर एक ही कबीले के लोग होते। निजी यज्ञ अलग-अलग व्यक्ति अपने-अपने घर में करते थे, क्योंकि इस काल में वैदिक लोग स्थायी निवासों में रहते थे और उनके नियमित कुटुंब होते थे। घर का प्रत्येक व्यक्ति अग्नि में आहुति देता था और ऐसा प्रत्येक कर्म अनुष्ठान या यज्ञ का रूप धारण कर लेता था। यज्ञ में बड़े पैमाने पर पशुबलि दी जाती थी, जिससे खास तौर से पशुधन का ड्रास होता गया। अतिथि गोघ्न कहलाते थे क्योंकि उन्हें गोमांस खिलाया जाता था। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर यज्ञों में कर्म के साथ मंत्र पढ़े जाते थे। यज्ञकर्ताओं को इन मन्त्रों का उच्चारण बड़ी सतर्कता से करना होता था। यज्ञ करने वाला यजमान कहलाता था और यज्ञ का फल बहुत कुछ इस पर निर्भर माना जाता था कि यज्ञ में मंत्रों का उच्चारण कितनी शुद्धता से किया गया। वैदिक आर्यों में प्रचलित बहुत से अनुष्ठान हिन्द-यूरोपीय भाषाभाषियों के कर्मकांड से मिलते हैं, लेकिन कुछ हिन्द-भूमि में विकसित प्रतीत होते हैं। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर इन सारे मंत्रों और यज्ञों का सृजन, अंगीकरण और विस्तारण पुरोहितों ने किया, जो ब्राह्मण कहलाते थे। ब्राह्मण धार्मिक ज्ञान-विज्ञान पर अपना एकाधिकार समझते थे। उन्होंने बहुत सारे अनुष्ठानों को चलाया, जिनमें कुछ आर्येतर लोगों से भी लिए। इतने सारे अनुष्ठानों को चलाने और उनको विस्तृत बनाने का क्या कारण रहा होगा यह तो पता नहीं चलता, लेकिन इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इसके पीछे धन-लोलुपता की भावना रही होगी। कहा गया है कि राजसूय यज्ञ कराने वाले पुरोहित को दक्षिणा में 240,000 गायें मिलती थीं। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर राजाओं ने भी इस प्रकार के चिंतन को अपनाया और ब्रा‌ह्मण धर्म में सुधार लाने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया। उनके उपदेशों से स्थायित्व और अखंडता की भावना को बल मिला। आत्मा अपरिवर्ती, अविनाशी और अमर है इस बात पर बल देने से उस स्थायित्व की भावना को बल मिला जिसकी अत्यधिक आवश्यकता क्षत्रिय शासकों के अधीन उदीयमान राजसत्ता को थी। आत्मा और परमात्मा (ब्रह्म) के बीच सम्बंध की भावना से प्रजा में राजा के प्रति भक्ति जगी। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर यज्ञ की दक्षिणा में सामान्यतः गायें और दासियाँ तो दी ही जाती थीं, साथ-साथ सोना, कपड़ा और घोड़े भी दिए जाते थे। कभी-कभी पुरोहित दक्षिणा में राज्य का कुछ भाग भी माँग लेते थे। किंतु यज्ञ की दक्षिणा में भूमि का दिया जाना उत्तर वैदिक काल में प्रचलित नहीं हुआ था। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि अश्वमेध यज्ञ में पुरोहित को उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम चारों दिशाएँ दे देनी हैं। यदि वास्तव में ऐसा हो, तो राजा के पास क्या बचा होगा? अतः इसका यही अर्थ लगाया जा सकता है कि पुरोहित जहाँ तक संभव हो अधिक से अधिक भूमि हड़पना चाहते थे। परंतु यथार्थ में भूमि अधिक मात्रा में ब्राह्मणों के हाथ नहीं गई होगी। एक जगह इस बात का भी उल्लेख है कि भूमि जब ब्राह्मण को दी जाने लगी तो उसने ब्राह्मण के हाथ जाना अस्वीकार कर दिया। ### उत्तर वैदिक अवस्था राज्य और वर्ण-व्यवस्था की ओर वैदिक काल के अन्तिम दौर में, पुरोहितों के प्रभुत्व के विरुद्ध तथा यज्ञ और कर्मकांडों के विरुद्ध प्रबल प्रतिक्रिया शुरू हुई। यह प्रतिक्रिया पंचालों

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