भाषा और संस्कृति PDF

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This document is about Hindi language and culture, focusing on figures like Maithili Sharan Gupt and Premchand, along with discussions on their works and contributions to literature.

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# भाषा और संस्कृति ## इकाई - 1 ### मैथिलीशरण गुप्त- परिचय * **परिचय** - हिन्दी जगत मे 'दद्दा' के नाम से प्रसिद्ध राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म उत्तरप्रदेश के झाँसी जिले के चिरगाँव में 03 अगस्त, 1886 को हुआ था। इनके पिता श्री रामचरण एवं माता श्रीमती काशीबाई वैष्णव भक्त थे। * **रामभक्ति** क...

# भाषा और संस्कृति ## इकाई - 1 ### मैथिलीशरण गुप्त- परिचय * **परिचय** - हिन्दी जगत मे 'दद्दा' के नाम से प्रसिद्ध राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म उत्तरप्रदेश के झाँसी जिले के चिरगाँव में 03 अगस्त, 1886 को हुआ था। इनके पिता श्री रामचरण एवं माता श्रीमती काशीबाई वैष्णव भक्त थे। * **रामभक्ति** के संस्कार इन्हें अपने माता-पिता से प्राप्त हुए। इनकी प्रारंभिक शिक्षा चिरगाँव के प्राथमिक विद्यालय तथा माध्यमिक शिक्षा झाँसी में हुई। आगे की शिक्षा इन्होंने घर पर ही स्वाध्याय से प्राप्त की। गुप्तजी भारतीय संस्कृति एवं वैष्णव परम्परा के प्रतिनिधि कवि हैं। * **मैथिलीशरण गुप्त** में बाल्यावस्था से ही काव्यात्मक प्रवृत्ति विद्यमान थी। ये अल्पावस्था से ही छिट-पुट काव्य-रचनाएँ करते थे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने के पश्चात् उनकी प्रेरणा से काव्य-रचना करके इन्होंने हिन्दी-काव्य की धारा को समृद्ध किया। * **इनकी कविता** में राष्ट्रभक्ति एवं राष्ट्रप्रेम का स्वर प्रमुख रूप से मुखरित हुआ है। इन्हें 'राष्ट्रकवि' की उपाधि से विभूषित किया गया। * **गुप्त जी** गाँधीवादी दर्शन से प्रभावित रहे और स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े तथा वर्ष 1941 में जेलयात्रा भी की। 12 दिसम्बर, 1964 को पंचतत्व में विलीन हो गए। #### कृतित्व * हिन्दी साहित्य में गुप्तजी खड़ी बोली के महत्वपूर्ण कवि हैं। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया। गुप्तजी की रचना सम्पदा विशाल है। इनकी कविताओं में राष्ट्रीय विचारों की अभिव्यक्ति प्राप्त होती है। गुप्तजी की समस्त रचनाओं को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- 1. **मौलिक रचनाएँ** 2. **अनूदित रचनाएँ** * **मौलिक रचनाएँ**- साकेत, भारत-भारती, यशोधरा, द्वापर, जयभारत, विष्णुप्रिया आदि। * **साकेत** - खड़ी बोली में यह रामकाव्य परम्परा का महत्वपूर्ण महाकाव्य है। * **भारत-भारती** - स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान लिखी मातृभूमि के प्रेम से ओतप्रोत रचना है। स्वतंत्रता के दीवानों के लिए यह आधुनिक गीता थी, इसमें देश के प्रति गर्व और गौरव की भावनाओं पर आधारित कविताएँ हैं। इसी रचना के कारण गुप्तजी राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात हैं। * **यशोधरा** में बुद्ध की पत्नी यशोधरा के चरित्र को उजागर किया गया है। प्रकृति और परमात्मा के एकाकार में डुबो देने वाली उनकी कविताएँ मन को झकझोर देती हैं। इसी तरह द्वापर और भारत-भारती महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं तो विष्णुप्रिया साकेत की उर्मिला की तरह कठिन तपस्या को उजागर करती रचना है। * **कुल मिलाकर** गुप्त जी की रचनाओं में भारतवर्ष, भारतीय संस्कृति, परम्परा का ऐसा अनोखा राष्ट्रानुराग है जो राष्ट्र के उत्कर्ष और उत्थान के लिए प्रेरित करता है। भारतीय संस्कृति-परम्परा के उत्कृष्ट नायकों को सामने लाकर कवि ने राष्ट्र के पुनर्निर्माण की कला को उत्कृष्ट रूप में प्रदर्शित किया है। #### अनूदित रचनाएँ * वीरांगना, मेघनाद-वध, वृत्त-संहार, स्वप्नवासदत्ता, प्लासी का युद्ध, विरहिणी, ब्रजांगना आदि हैं। इनके अतिरिक्त इनके भाषण, संस्मरण, आलोचना तथा रेडियो वार्ताएँ बहुत प्रेरक हैं। #### काव्य-सौन्दर्य * मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में भावपक्ष एवं कलापक्ष का सुन्दर समन्वय है। 'साकेत' के मुखपृष्ठ पर अंकित ये पंक्तियाँ- 'राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।' सब कुछ कह देती हैं। * गुप्तजी ने कैकेयी, सूर्पनखा के माध्यम से जहाँ नकारात्मक, स्वार्थी प्रवृत्तियों को उजागर किया है, वहीं उर्मिला, यशोधरा के माध्यम से भारतीय मातृशक्ति के त्याग, समर्पण और उत्कर्ष को विश्व के सामने रखा है। गुप्तजी राष्ट्रीय चेतना को जगाने वाले कवि हैं। * मैथिलीशरण गुप्त ने खड़ी बोली हिंदी में रचना की है। इनके काव्य की भाषा सरल, सुबोध एवं भावानुगामिनी है। गुप्तजी ऐसे सहज स्वाभाविक कवि थे कि जानबूझकर अलंकारों को कविता में ठूसते नहीं लाते थे, बल्कि अलंकार स्वयं ही इनके काव्य में स्थान पा लेते थे। इनके काव्य में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, श्लेष आदि अलंकार हैं। इनके काव्य में सभी 'रस' यथास्थान निसृत होते हैं। इनकी रचनाएँ छंदबद्ध हैं। गीत-शैली की काव्य रचना में इन्हें सफलता मिली है। #### सम्मान एवं पुरस्कार * महात्मा गाँधी ने इन्हें 'राष्ट्रकवि' की उपाधि से सम्मानित किया था। साहित्य जगत इनकी जयंती 03 अगस्त को 'कवि दिवस' के रूप में मनाता है. * वर्ष 1935 में साकेत महाकाव्य के लिए हिंदुस्तान अकादमी द्वारा 500 रु. का पुरस्कार दिया गया तथा वर्ष 1937 में साकेत के लिए ही हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा मंगलाप्रसाद पुरस्कार दिया गया। * 1946 में 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' ने इनकी हीरक जयंती आयोजित की और 10,000 रुपए की राशि भेंट की। 1948 में आगरा विश्वविद्यालय द्वारा आपको डी. लिट की मानद उपाधि प्रदान की गई। 1953 में भारत सरकार ने इन्हें 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया। 1954 में साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया गया. * गुप्त जी 02 बार राज्यसभा के सदस्य भी रहे. #### सारांश * मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं में संस्कृति प्रेम और राष्ट्रानुराग अभिव्यक्त हुआ है। वे अपने काव्य में गौरवमय अतीत एवं भारतीय नारी के आदर्श चरित्र का प्रतिपादन करते हैं। जीवन में कर्मशीलता की प्रतिष्ठा उनके काव्य-दर्शन की केन्द्रीय भावना है। 'साकेत' के राम इसी ओर संकेत करते हैं- > संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया। > इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया। ## मातृभूमि * "नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है। सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है। नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं। बन्दीजन खग-वृन्द, शेष-फन सिंहासन हैं। करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की। हे मातृभूमि ! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की ।।। ।। मृतक समान अशक्त, अवश, आँखों को मीचे, गिरता हुआ विलोक गर्भ से हमको नीचे; करके जिसने कृपा हमें अवलम्ब दिया था, लेकर अपने अतुल अंक में त्राण किया था। जो जननी का भी सर्वदा, थी पालन करती रही। तू क्यों न हमारी पूज्य हो ? मातृभूमि माता मही।।2।। जिसकी रज में लोट-लोटकर बड़े हुए हैं, घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं। परमहंस- सम बाल्य काल में सब सुख पाये, जिसके कारण 'धूलि भरे हीरे' कहलाये। हम खेले-कूदे हर्षयुत जिसकी प्यारी गोद में, हे मातृभूमि ! तुझको निरख मग्न क्यों न हों मोद में ।।3।। पालन-पोषण और जन्म का कारण तू ही, वक्षस्थल पर हमें कर रही धारण तू ही। अभ्रंकष प्रासाद और ये महल हमारे, बने हुए हैं अहो ! तुझी से तुझ पर सारे। हे मातृभूमि ! हम जब कभी तेरी शरण न पायेंगे, बस तभी प्रलय के पेट में सभी लीन हो जायेंगे । । 4 ।। हमें जीवनाधार अन्न तू ही देती है, बदले में कुछ नहीं किसी से तू लेती है। श्रेष्ठ एक से एक विविधि द्रव्यों के द्वारा, पोषण करती प्रेम-भाव से सदा हमारा। हे मातृभूमि ! उपजें न जो तुझसे कृषि-अंकुर कभी, तो तड़प-तड़प कर जल मरें जठरानल में हम सभी ।।5।। पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा, तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा ? तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है, बस, तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है। फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनाएगी। हे मातृभूमि ! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी ।।6।। " #### शब्दार्थ / कठिन शब्द * नीलाम्बर- नीले रंग का अम्बर; परिधान-वस्त्र; मेखला-करधनी, कमरबंध; रत्नाकर-समुद्र; मंडन-सजाना; खग-वृंद- पक्षियों का समूह; पयोद- समुद्र; सर्वेश-सबका मालिक, ईश्वर; अवलम्ब-सहारा; त्राण- रक्षा, बचाव; मोद- खुशी; अभ्रंकष-गगन चुम्बी; जठरानल-पेट की आग (भूख); प्रत्युपकार-नेकी के बदले की गई नेकी; सुरस-सार-किसी पदार्थ का मुख्य या मूलभाग; मलिनता-गंदगी; तरणि-सूर्य; वात्सल्यमयी - ममता से भरी हुई; कीर्ति- यश, प्रसिद्धि ; पाखंड- आडम्बर, ढकोसला। सुन्दर-शब्द-'धूलि भरे हीरे'- इस भातृभूमि की मिट्टी ही है जो बच्चे को गुणी बनाकर हीरे के समान मूल्यवान, चमकदार बनाती है। छह ऋतुएँ: यथा-बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर ऋतु. ## प्रेमचंद- परिचय ### प्रेमचंद जी का व्यक्तित्व और कृतित्व * **जीवन परिचय**- अपने समय को अपनी कहानियों में बाँधने वाले, हिंदी के कथा-सम्राट प्रेमचंद का जन्म वाराणसी जिले के लमही गाँव में कायस्थ परिवार में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। इनका वास्तविक नाम 'धनपत राय' श्रीवास्तव था। माता आनन्दीदेवी कुशल गृहिणी थी। पिता मुंशी अजायबराय डाक मुंशी एवं खेतिहर थे। * **सात वर्ष की आयु** में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की आयु में उनके पिता का देहांत हो जाने से उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा, किन्तु जिस साहस और परिश्रम से उन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा, वह साधनहीन, कुशाग्र बुद्धि और परिश्रमी विद्यार्थियों के लिये प्रेरणास्पद है। इनकी आरम्भिक शिक्षा उर्दू-फारसी में हुई, इन्हें बचपन से ही पढ़ने का शौक था। 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने 'तिलिस्म-ए-होशरुबा' पढ़ लिया था। * **1898 में मैट्रिक** (वर्तमान में 8वीं) की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में शिक्षक के पद पर नियुक्त हो गये। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई भी की और 1910 में अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर की परीक्षा (वर्तमान में 12वीं) उत्तीर्ण की। 1919 में बी.ए. उत्तीर्ण का वे शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। * **प्रेमचंदजी का 15 वर्ष की उम्र में पहला विवाह** हुआ, जो असफल रहा। वे आर्य समाज से बहुत अधिक प्रभावित थे और हमेशा विधवा विवाह का समर्थन करते थे, इसलिए अपने प्रगतिशील विचारों के अनुरूप 1906 में उन्होंने बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह किया। उनके दो पुत्र- श्रीपतराय और अमृतराय तथा एक पुत्री कमलादेवी थीं। * **33 वर्षों के रचनात्मक जीवन** में साहित्य की अनवरत विरासत सौंपकर उन्होंने 08 अक्टूबर, 1936 को शरीर का त्याग किया। #### कृतित्व * प्रेमचंद ने कथा साहित्य के लेखन का प्रारंभ नवाबराय के भाई से उर्दू में किया। * **बहुमुखी प्रतिभा** के धनी प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। * **उनका सम्पूर्ण लेखन** सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम माना जाता है। उनकी पहली पुस्तक 'सोजे वतन' जो देशभक्ति की पाँच कहानियों का संग्रह है, की 700 प्रतियाँ अंग्रेज शासकों द्वारा जब्त कर जला दी गई थीं। * **इसके बाद** उन्होंने हिंदी में प्रेमचंद के नाम से लिखना आरम्भ किया। उन्होंने 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, 03 नाटक, 10 अनुवाद, 07 बाल पुस्तकों की रचना की. * **उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान** से प्रभावित होकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद-चट्टोपाध्याय ने उन्हें 'उपन्यास सम्राट' कहकर संबोधित किया था। * **प्रेमचंद ने जिस गाँव और शहर के परिवेश को देखा और जिया** उसकी अभिव्यक्ति उनके कथा साहित्य में मिलती है. * **उनका लेखन आदर्श से भरा और यथार्थ का जीता-जागता चित्रण** है। किसानों और मजदूरों की दयनीय स्थिति, वंचितों का शोषण, समाज में स्त्री की दुर्दशा और स्वाधीनता आन्दोलन आदि उनकी रचनाओं के मूल विषय रहते थे। * **प्रेमचंद की कहानियाँ** मानसरोवर के आठ भागों में संकलित हैं. पंच परमेश्वर, बूढ़ी काकी, बड़े घर की बेटी, सुजान भगत, पूस की रात, ईदगाह, मुफ्त का यश, गुल्ली डण्डा, शतरंज के खिलाड़ी और कफन मुख्य कहानियाँ है। सेवासदन, प्रेमाश्रय, रंगभूमि, कायाकल्प, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान उनके मुख्य उपन्यास है। जागरण, हंस, आदि पत्र-पत्रिकाओं का उन्होंने सम्पादन किया. #### भाषा-शैली * मुंशी प्रेमचंद जी उर्दू से हिंदी भाषा में आये थे, इसलिए इनकी भाषा में उर्दू के मुहावरे लोकोक्तियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में मिलता है। * **इनकी भाषा** पात्रों के अनुसार परिवर्तित हो जाती है। * **सादगी, आलंकारिता का समन्वय इनकी भाषा की विशेषता** है। इनकी रचनाओं में वर्णनात्मक, व्यंग्यात्मक, भावात्मक तथा विवेचनात्मक चार प्रकार की शैलियाँ उपलब्ध होती हैं। * **चित्रात्मक शैली** तो प्रेमचंद की रचनाओं का प्राण तत्व है. मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी को नवीन युग की आशा-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का सहज-सरल मार्ग प्रदान कर साहित्य के भण्डार में अभिवृद्धि की है। ### सम्मान * प्रेमचंद की जन्म शताब्दी 31 जुलाई, 1980 को भारतीय डाकतार विभाग द्वारा 30 पैसे मूल्य का डाक टिकट जारी किया गया। * **गोरखपुर** के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गयी है तथा इस संस्थान के भित्तियों पर लेख भी लिखे गये हैं। * **एक प्रतिमा** को भी स्थापित किया गया है. * **प्रेमचंद की 125वीं जयंती** पर शासन की ओर से वाराणसी से लगे लमही गाँव में प्रेमचंद स्मारक और शोध-अध्ययन केन्द्र संस्थान बनाया गया। ### सारांश * प्रेमचन्द जिन मानवीय मूल्यों के लिए अपनी कथा, उपन्यास में पात्रों को लेकर आये, वे सब यथार्थ जीवन के पात्र थे। उनका प्रयत्न मनुष्य के अन्दर आदर्श की स्थापना का था। * **निर्विवाद रूप से** कहा जा सकता है कि वे इसमें सफल हुए हैं। ## शतरंज के खिलाड़ी * **वाजिद अली शाह का समय था।** लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे। * **कोई नृत्य और गान की मजलिस** सजाता था, तो कोई अफीम की पीनक ही में मजे लेता था। * **जीवन के प्रत्येक विभाग** में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था। * **शासन विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक अवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-व्यवहार में सर्वत्र विलासिता व्याप्त** हो रही थी। * **राजकर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र, मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त थे। सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था.** * **संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी।** बटेर लड़ रहे हैं। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है। कहीं चौसर बिछी हुई है, पौ-बारह का शोर मचा हुआ है। कहीं शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते। * **शतरंज, ताश, गंजीफा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार-शक्ति का विकास होता है, पेंचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है।** ये दलीलें जोरों के साथ पेश की जाती थीं (इस सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है)। * **इसलिए अगर मिरज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी ?** दोनों के पास मौरूसी जागीरें थीं; जीविका की कोई चिन्ता न थी; कि घर में बैठे चखौतियाँ करते थे। * **आखिर और करते ही क्या ?** प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछाकर बैठ जाते, मुहरे सज जाते और लड़ाई के दाव-पेंच होने लगते. फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब शाम ! * **घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता** कि खाना तैयार है। यहाँ से जवाब मिलता-चलो, आते हैं, दस्तरख्वान बिछाओ। यहाँ तक कि बावरची विवश हो कर कमरे ही में खाना रख जाता था और दोनों मित्र दोनों काम साथ-साथ करते थे। मिरजा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा बूढ़ा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थीं। * **मगर यह बात न थी** *मिरज़ा* के घर के और लोग उनसे इस व्यवहार से खुश हों। घरवालों का तो कहना ही क्या, मुहल्लेवाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे-बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े, आदमी दीन-दुनिया किसी के काम का नहीं रहता, न घर का, न घाट का बुरा रोग है। * **यहाँ तक कि मिरज़ा की बेगम साहिबा को इससे इतना द्वेष** था कि अवसर खोज-खोजकर पति को लताड़ती थीं, पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था। वह सोती रहती थीं, तब तक बाजी बिछ जाती थी और रात को जब सो जाती थीं, तब कही मिरज़ाजी घर में आते थे। * **हाँ, नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थीं-क्या पान माँगे हैं?** कह दो, आकर ले जायें। खाने की फुरसत नहीं है? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खाएँ चाहे कुत्ते को खिलायें, पर रूबरू वह भी कुछ न कह सकती थीं। उनको अपने पति से उतना मलाल न था, जितना मीर साहब से। उन्होंने उनका, नाम मीर बिगाडू रख छोड़ा था। शायद मिरज़ाजी अपनी सफाई देने के लिए सारा इलजाम मीर साहब ही के सर थोप देते थे। * **एक दिन बेगम साहिबा के सिर में दर्द होने लगा।** उन्होंने लौंडी से कहा-जाकर मिरज़ा साहब को बुला लो। किसी हकीम के यहाँ से दवा लायें. दौड़, जल्दी कर। लौंडी गयी तो मिरज़ाजी ने कहा-चल, अभी आते हैं। बेगम साहिबा का मिजाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौंडी से कहा-जाकर कह, अभी चलिए, नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायेंगी। मिरज़ाजी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे, दो ही किस्तों में मीर साहब की मात हुई जाती थी। झुंझलाकर बोले- क्या ऐसा दम लबों पर है ? जरा सब्र नहीं होता ? * **मीर- अरे, तो जाकर सुन ही आइए न।** औरतें नाजुक-मिजाज होती ही हैं। * **मिरज़ा- जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ !** दो किस्तों में आपकी मात होती है। * **मीर- जनाब, इस भरोसे न रहिएगा।** वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें और मात हो जाय। पर जाइए, सुन आइए। क्यों खामख्वाह उनका दिल दुखाइएगा ? * **मिरज़ा- इसी बात पर मात ही करके जाऊँगा।** * **मीर- मैं खेलूँगा ही नहीं।** आप जाकर सुन आइए। * **मिरज़ा- अरे यार, जाना पड़ेगा हकीम के यहाँ, सिर दर्द खाक नहीं है, मुझे परेशान करने का बहाना है।** * **मीर- कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी।** * **मिरज़ा- अच्छा, एक चाल और चल लूँ।** * **मीर- हरगिज़ नहीं, जब तक आप सुन न आयेंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न लगाऊँगा।** * **मिरज़ा साहब मजबूर होकर अन्दर गये तो बेगम साहिबा ने त्योरियाँ बदलकर, लेकिन कराहते हुए कहा- तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है। चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नहीं लेते!** नौज, कोई तुम जैसा आदमी हो ! * **मिरज़ा- क्या कहूँ, मीर साहब मानते ही न थे.** बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ। * **बेगम - क्या जैसे वह खुद निखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं।** उनके भी तो बाल-बच्चे हैं; या सबका सफाया कर डाला ? * **मिरज़ा- बड़ा लती आदमी है।** जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना पड़ता है। * **बेगम - दुत्कार क्यों नहीं देते ?** * **मिरज़ा- बराबर के आदमी हैं; उम्र में, दर्जे में मुझसे दो अंगुल ऊँचे।** मुलाहिजा करना ही पड़ता है। * **बेगम - तो मैं ही दुत्कारे देती हूँ।** नाराज हो जायेंगे, हो जायें. कौन किसी की रोटियाँ चला देता है? रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। हरिया; जा बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेंगे; आप तशरीफ ले जाइए। * **मिरज़ा- हाँ-हाँ, कहीं ऐसा गजब भी न करना !** जलील करना चाहती हो क्या ? ठहर हरिया कहाँ जाती है। * **बेगम - जाने क्यों नहीं देते ?** मेरा ही खून पिये, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोको, मुझे रोको, तो जानूँ ? यह कहकर बेगम साहिबा झल्लाई हुई दीवानखाने की तरफ चलीं। मिरज़ा बेचारे का रंग उड़ गया। बीबी की मिन्नतें करने लगे- खुदा के लिए, तुम्हें हजरत हुसैन की कसम है। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाय। लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक गयीं, पर एकाएक पर-पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध-से गये। भीतर झाँका, संयोग से कमरा खाली था। मोर साहब ने दो-एक मुहरे इधर-उधर कर दिये थे और अपनी सफाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अन्दर पहुँचकर बाजी उलट दी, मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर और किवाड़ अन्दर से बन्द करके कुण्डी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बन्द हुआ, तो समझ गये, बेगम साहिबा बिगड़ गयीं। चुपके से घर की राह ली। * **मिरज़ा ने कहा- तुमने गजब किया.** बेगम- अब मीर साहब इधर आये, तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी लौ खुदा से लगाते, तो वली हो जाते ! आप तो शतरंज खेलें और मैं यहाँ चूल्हे-चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ ! जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है। * **मिरज़ा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे** और सारा वृत्तान्त कहा। मीर साहब बोले- मैंने तो जब मुहरे बाहर आते देखे, तभी ताड़ गया। फौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं। * **मगर आपने उन्हें यों सिर चढ़ा रखा है, यह मुनासिब नहीं।** उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं। घर का इन्तजाम करना उनका काम है; दूसरी बातों से उन्हें क्या सरोकार ? * **मिरज़ा- खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा ?** * **मीर- इसका क्या गम है।** इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है. बस यहीं जमें। * **मिरज़ा- लेकिन बेगम साहिबा को कैसे मनाऊँगा ?** घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना बिगड़ती थीं; यहाँ बैठक होगी, तो शायद जिन्दा न छोड़ेंगी। * **मीर- अजी बकने भी दीजिए, दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायेंगी।** हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए। * **मीर साहब की बेगम किसी अज्ञात कारण से मीर साहब का घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थीं।** इसलिए वह उनके शतरंज प्रेम की कभी आलोचना न करती थीं, बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं। * **इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गम्भीर है।** लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी और मीर साहब दिन-भर घर में रहने लगे, तो बेगम साहिबा को बड़ा कष्ट होने लगा। * **उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी।** दिन-भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जातीं। उधर नौकरों में भी कानाफूसी होने लगी। अब तक दिन-भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। * **घर में कोई आये, कोई जाये, उनसे कुछ मतलब न था।** अव आठों पहर की धौंस हो गयी। पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई का और हुक्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था। वे बेगम साहिबा से जा-जाकर कहते-हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गयी। दिन-भर दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये। यह भी कोई खेल कि सुबह को बैठे तो शाम कर दी। घड़ी आध घड़ी दिल बहलाव के लिए खेल खेलना बहुत है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं; हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा, बजा ही लायेंगे; मगर यह खेल मनहूस है। इसका खेलने वाला कभी पनपता नहीं, घर पर कोई न कोई आफत जरूर आती है। * **सारे मुहल्ले में यही चरचा रहती

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